Moksha Shastra-Gujarati (Devanagari transliteration). Sutra: 31-42 (Chapter 5); Upsanhar.

< Previous Page   Next Page >


Combined PDF/HTML Page 21 of 36

 

Page 346 of 655
PDF/HTML Page 401 of 710
single page version

अ. प सूत्र ३१ ] [ ३४प

कोउ दरव काहूकौ न प्रेरक कदाचि तातैं,
रागदोष मोह मृषा मदिरा अचौन है
।। ६१।।

अर्थः– शिष्य कहे छेः- स्वामी! रागद्वेषपरिणामनुं मूळ प्रेरक कोण छे ते तमे कहो. पुद्गलकर्म के इन्द्रियोनो भोग के धन के घरना माणसो के मकान?

श्रीगुरु समाधान करे छे के छए द्रव्यो पोतपोताना स्वरूपमां सदा असहाय परिणमे छे. कोई द्रव्यनुं कोई द्रव्य कदी पण प्रेरक नथी. राग-द्वेषनुं कारण मिथ्यात्वरूपी मदिरानुं पान छे. ।। ३०।।(समयसार नाटक. पा. ३प१)

नित्यनुं लक्षण
तद्भवाव्ययं नित्यम्।। ३१।।
अर्थः– [तद् भाव अव्ययं] तत् भावथी जे अव्यय छे ते [नित्यम्] नित्य छे.
टीका

(१) जे पहेलां समये होय ते ज बीजा समये होय तेने तद्भाव कहे छे; ते नित्य होय छे. अव्यय = अविनाशी.

(२) द्रव्यनुं स्वरूप ‘नित्य’ छे एम आ अध्यायना चोथा सूत्रमां कह्युं छे. तेनी व्याख्या आ सूत्रमां आपी छे.

(३) प्रत्यभिज्ञानना हेतुने तद्भाव कहे छे. जेम के द्रव्यने पहेला समयमां देख्या पछी बीजा आदि समयोमां देखवाथी “आ ते ज छे के जेने पहेलां दीठुं हतुं” एवुं जोडरूप ज्ञान छे ते द्रव्यनुं नित्यपणुं जणावे छे; परंतु आ नित्यता कथंचित् छे, केम के ते सामान्यस्वरूपनी अपेक्षाए होय छे. पर्यायनी अपेक्षाए द्रव्य अनित्य छे. ए रीते आ जगतमां बधां द्रव्यो नित्यानित्यरूप छे. ए प्रमाणद्रष्टि छे.

(४) आत्मामां सर्वथा नित्यता मानवाथी मनुष्य, नरकादिरूप संसार तथा संसारथी अत्यंत छूटवारूप मोक्ष बनी शकशे नहि. सर्वथा नित्यता मानवाथी संसारस्वरूपनुं वर्णन अने मोक्ष उपायनुं कथन करवामां विरोधता आवे छे; माटे सर्वथा नित्य मानवुं न्यायसर नथी. ।। ३१।।

एक वस्तुमां बे विरुद्ध धर्मो सिद्ध करवानी रीत
अर्पितानर्पितसिद्धेः।। ३२।।
अर्थः– [अर्पित] प्रधानता अने [अनर्पित] गौणताथी [सिद्धेः] पदार्थोनी

सिद्धि थाय छे.


Page 347 of 655
PDF/HTML Page 402 of 710
single page version

३४६ ] [ मोक्षशास्त्र

टीका

(१) दरेक वस्तु अनेकांतस्वरूप छे, ए सिद्धांत आ सूत्रमां स्याद्वाद द्वारा कह्यो छे. नित्यता अने अनित्यता परस्पर विरुद्ध धर्मो होवा छतां तेओ वस्तुने निपजावनारा छे; तेथी ते दरेक द्रव्यमां होय ज. तेनुं कथन मुख्य-गौणपणे थाय छे, केम के बधा धर्मो एकी साथे कही शकाता नथी. जे वखते जे धर्म सिद्ध करवो होय ते वखते तेनी मुख्यता लेवाय छे. ते मुख्यता-प्रधानता-ने ‘अर्पित’ कहेवामां आवे छे अने ते वखते जे धर्म गौण राख्या होय तेने ‘अनर्पित’ कहेवामां आवे छे. अनर्पित राखेल धर्म ते वखते कहेवामां आव्या नथी तोपण वस्तुमां ते धर्मो रहेला छे एम ज्ञानी जाणे छे.

(२) जे वखते द्रव्यनी अपेक्षाए द्रव्यने नित्य कह्युं ते ज वखते ते पर्यायनी अपेक्षाए अनित्य छे. मात्र ते वखते ‘अनित्यता’ कही नथी पण गर्भित राखी छे. तेम ज ज्यारे पर्यायनी अपेक्षाए द्रव्यने अनित्य कह्युं ते ज वखते ते द्रव्यनी अपेक्षाए नित्य छे, मात्र ते वखते ‘नित्यता’ कही नथी; कारण के बन्ने धर्मो एकी साथे कही शकाता नथी.

(३) अर्पित अने अनर्पित कथनद्वारा अनेकान्तस्वरूप

अनेकांतनी व्याख्या आ प्रमाणे छे-“एक वस्तुमां वस्तुपणानी निपजावनारी परस्पर विरुद्ध बे शक्तिओनुं प्रकाशवुं ते अनेकान्त छे.” जेम के जे वस्तु सत् छे ते ज असत् छे अर्थात् जे अस्ति छे ते ज नास्ति छे; जे एक छे ते ज अनेक छे; जे नित्य छे ते ज अनित्य छे-वगेरे. (जुओ, समयसार-गुजराती पा. ४८८)

अर्पित अने अनर्पितनुं स्वरूप समजवा माटे अहीं केटलाक द्रष्टांतोनी जरूर छे ते नीचे आपवामां आवे छेः-

१. ‘जीव चेतन छे’ एम कहेतां ‘जीव अचेतन नथी’ एम तेमां स्वयं गर्भितपणे आवी गयुं. आमां ‘जीव चेतन छे’ ए कथनअर्पित थयुं अने ‘जीव अचेतन नथी’ ए कथन अनर्पित थयुं.

२. ‘अजीव जड छे’ एम कहेतां ‘अजीव चेतन नथी’ एम तेमां स्वयं गर्भितपणे आवी गयुं. आमां पहेलुं कथन अर्पित छे अने तेमां ‘अजीवचेतन नथी’ ए भाव अनर्पितपणे आवी गयो एटले के कह्या विना पण तेमां गर्भित छे-एम समजी लेवुं.

३. ‘जीव पोतानां द्रव्य-क्षेत्र-काळ-भावे सत् छे’ एम कहेतां तेमां कह्या वगर


Page 348 of 655
PDF/HTML Page 403 of 710
single page version

अ. प सूत्र ३२ ] [ ३४७ पण ‘जीव पर द्रव्य-क्षेत्र-काळ-भावे असत् छे’ एम आवी गयुं छे. पहेलुं कथन ‘अर्पित’ अने बीजुं ‘अनर्पित’ छे.

४. ‘जीव द्रव्ये एक छे’ एम कहेतां जीव गुण अने पर्याये अनेक छे’ एम तेमां आवी गयुं. पहेलुं कथन ‘अर्पित’ अने बीजुं ‘अनर्पित’ छे.

प. ‘जीव द्रव्ये-गुणे नित्य छे’ एम कहेता ‘जीव पर्याये अनित्य छे’ एम आवी गयुं. पहेलुं कथन ‘अर्पित’ छे अने बीजुं ‘अनर्पित छे.

६. ‘जीव स्वथी तत् (Identical) छे’ एम कहेतां ‘जव परथी अतत् छे’

एम तेमां अवी गयुं. पहेलुं कथन ‘अर्पित’ छे अने बीजुं ‘अनर्पित’ छे.

७. ‘जीव पोताना द्रव्य-गुण-पर्यायथी अभिन्न छे’ एम कहेतां ‘जीव पर द्रव्यो, तेना गुणो अने पर्यायोथी भिन्न छे’ एम तेमां आवी गयुं. पहेलुं कथन ‘अर्पित’ छे अने बीजुं ‘अनर्पित’ छे.

८. ‘जीव पोताना पर्यायनो कर्ता थई शके’ एम कहेतां जीव पर द्रव्यनुं कांई करी शके नहि’ एण तेमां आवी गयुं. पहेलुं कथन ‘अर्पित’ छे अने बीजुं ‘अनर्पित’ छे.

९. ‘दरेक द्रव्य पोताना पर्यायनुं भोक्ता थई शके’ एम कहेतां ‘कोई द्रव्य परनुं भोक्ता न थई शके’ एम तेमां आवी गयुं. पहेलुं कथन ‘अर्पित’ छे, अने बीजुं ‘अनर्पित’ छे.

१०. ‘कर्मनो विपाक कर्ममां आवी शके’ एम कहेतां ‘कर्मनो विपाक जीवमां आवी शके नहि’ एम तेमां आवी गयुं. पहेलुं कथन ‘अर्पित’ छे अने बीजुं ‘अनर्पित’ छे.

११. ‘सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रनी एकता ते मोक्षमार्ग छे’ एम कहेता ‘पुण्य, पाप, आस्रव, बंध ते मोक्षमार्ग नथी’ एम तेमां आवी गयुं. पहेलुं कथन ‘अर्पित’ छे अने बीजुं ‘अनर्पित’ छे.

१२. ‘शरीर पर द्रव्य छे’ एम कहेतां ‘जीव शरीरनी कोई क्रिया करी शके नहि, तेने हलावी-चलावी शके नहि, तेनी संभाळ राखी शके नहि के तेनुं बीजुं कांई करी शके नहि तेमज शरीरनी क्रियाथी जीवने सुख-दुःख थाय नहि’ एम तेमां आवी गयुं, पहेलुं कथन ‘अर्पित’ छे अने बीजुं ‘अनर्पित’ छे.

१३. ‘निमित्त परद्रव्य छे’ एम कहेतां ‘निमित्त परद्रव्यने कांई करी शके नहि, तेने सुधारी के बगाडी शके नहि, मात्र ते अनुकूळ संयोगपणे होय’ एम तेमां आवी गयुं. पहेलुं कथन ‘अर्पित’ छे अने बीजुं ‘अनर्पित’ छे.


Page 349 of 655
PDF/HTML Page 404 of 710
single page version

३४८ ] [ मोक्षशास्त्र

१४. ‘घीनो घडो’ एम कहेतां ‘घडो घी-मय नथी पण माटीमय छे. घडो घीनो छे ए तो मात्र व्यवहारकथन छे’ एम तेमां आवी गयुं. पहेलुं कथन ‘अर्पित’ छे अने बीजुं ‘अनर्पित’ छे.

१प. ‘मिथ्यात्वकर्मना उदयथी जीव मिथ्याद्रष्टि थाय छे’ एम कहेतां ‘जीव ते वखतनी पोतानी ऊंधी श्रद्धाने लीधे मिथ्याद्रष्टि थाय छे, खरी रीते मिथ्यात्वकर्मना उदयना कारणे जीव मिथ्याद्रष्टि थतो नथी; मिथ्यात्वकर्मना उदयथी जीव मिथ्याद्रष्टि थाय छे-ए तो व्यवहारकथन छे, खरेखर जीव पोते मिथ्याश्रद्धारूपे परिणम्यो त्यारे मिथ्यादर्शनकर्मनां जे रजकणो ते वखते पकवरूप थयां तेना उपर निर्जरानो आरोप न आवतां उदयनो आरोप आव्यो’ एम तेमां आवी गयुं. पहेलुं कथन ‘अर्पित’ छे अने बीजुं ‘अनर्पित’ छे.

१६. ‘जीव जडकर्मना उदयथी अगियारमा गुणस्थानकेथी पडयो’ एम कहेतां ‘जीव पोताना पुरुषार्थनी नबळाईथी पडयो, जडकर्म परद्रव्य छे तेथी तेना उदये जीव पडे नहि. पण जीव पोताना पुरुषार्थनी नबळाईथी जे वखते पडयो ते वखते जे जडकर्मो पकवरूप थयां हतां तेना उपर “उदय” नो आरोप आव्यो’ एम तेमां आवी गयुं. पहेलुं कथन ‘अर्पित’ छे अने बीजुं ‘अनर्पित’ छे.

१७. ‘जीव पंचेन्द्रिय छे’ एम कहेतां ‘जीव चेतनमय छे पण जड इन्द्रियोमय नथी; पांच इन्द्रियो जड छे तेनो तेने मात्र संयोग छे’ एम तेमां आवी गयुं. पहेलुं कथन ‘अर्पित’ छे अने बीजुं ‘अनर्पित’ छे.

१८. ‘निगोदनो जीव कर्मनो उदय मंद थतां ऊंचे चडे छे’ एम कहेतां ‘निगोदनो’ जीव पोते पोताना पुरुषार्थ वडे मंदकषाय करतां चडे छे, कर्म परद्रव्य छे तेथी तेनी अवस्थाना कारणे जीव चडी शके नहि’ एम तेमां आवी गयुं. पहेलुं कथन ‘अर्पित’ छे अने बीजुं ‘अनर्पित’ छे.

१९. ‘कर्मना उदयथी जीव असंयमी थाय छे कारण के चारित्रमोहना उदय विना तेनी अनुपपत्ति छे’ एम कहेतां ‘जीव पोताना चारित्रगुणना विकारने टाळतो नथी तेथी ते असंयमी थाय छे, ते वखते चारित्रमोहनां कर्मो जोके निर्जरी जाय छे तोपण ते विकारना निमित्ते नवां कर्म स्वयं बंधाय छे तेथी जूनां चारित्रमोहनां कर्मो उपर उदयनो आरोप आवे छे’ एम तेमां आवी गयुं. पहेलुं कथन ‘अर्पित’ छे अने बीजुं ‘अनर्पित’ छे.


Page 350 of 655
PDF/HTML Page 405 of 710
single page version

अ. प सूत्र ३२ ] [ ३४९

२०. ‘कर्मना उदयथी जीव ऊर्ध्वलोकमां, अधोलोकमां अने तिर्यक्लोकमां जाय छे कारण के आनुपूर्वि नामना कर्मना उदय विना तेनी अनुपपत्ति छे’ एम कहेतां ‘जीवनी क्रियावतीशक्तिनी ते वखतनी तेवी लायकात छे तेथी जीव ऊर्ध्वलोकमां, अधोलोकमां अने तिर्यक्लोकमां जाय छे, ते वखते तेने अनुकूळ आनुपूर्वि नामकर्मनो उदय संयोगपणे होय छे. कर्म परद्रव्य छे, तेथी ते जीवने कोई जग्याए लई जई शके नहि’ एम तेमां आवी गयुं. पहेलुं कथन ‘अर्पित’ छे अने बीजुं ‘अनर्पित’ छे.

उपरना द्रष्टांतो ध्यानमां राखीने, शास्त्रमां कोई पण कथन कर्युं होय तेना नीचे मुजब अर्थो करवा-

प्रथम शब्दार्थ करीने ते कथन कया नये कर्युं छे ते नक्की करवुं. तेमां जे कथन जे नये कर्युं होय ते कथन ‘अर्पित’ छे एम समजवुं; अने सिद्धांत अनुसार, गौणपणे बीजा जे भाव तेमां गर्भितपणे आवी जाय छे ते भाव जोके त्यां शब्दोमां कह्या नथी तोपण ते भाव पण गर्भितपणे कह्या छे एम समजी लेवुं; आ ‘अनर्पित’ कथन छे. आ प्रमाणे अर्पित अने अनर्पित बन्ने पडखांने समजीने जे जीव अर्थ करे ते ज जीवने प्रमाण अने नयनुं सत्य ज्ञान थाय. जो बन्ने पडखां यथार्थ न समजे तो तेनुं ज्ञान अज्ञानरूपे परिणम्युं छे तेथी तेनुं ज्ञान अप्रमाण अने कुनयरूप छे. प्रमाणने अनेकांत पण कहेवामां आवे छे.

(४) अनेकांतनुं प्रयोजन

अनेकांत पण सम्यक् एकांत एवा निजपदनी प्राप्ति कराववा सिवाय बीजा अन्य हेतुए उपकारी नथी.

(४) एक द्रव्य बीजा द्रव्यनुं कांईपण करी शके–ए मान्यतामां
आवता दोषोनुं वर्णन

जगतनां छए द्रव्यो अत्यंत निकट एकक्षेत्रावगाहरूपे रह्यां छे, ते पोतपोतामां अंतर्मग्न रहेला पोताना अनंत धर्मोना चक्रने चूंबे छे-स्पर्शे छे तोपण तेओ परस्पर एकबीजाने स्पर्श करता नथी. जो एक द्रव्य बीजाने स्पर्शे तो ते परद्रव्यरूप थई जाय अने पररूप थई जाय तो नीचेना दोषो आवे-

(१) संकर दोष
बे द्रव्यो एकरूप थई जाय तो संकर दोष आवे.
सर्वेषाम् युगपत्प्राप्ति संकर-अनेक द्रव्योना एकरूपपणानी प्राप्ति ते संकर

दोष छे. जीव अनादिथी अज्ञानदशामां शरीरने, शरीरनी क्रियाने, द्रव्य इन्द्रियोने, भाव इन्द्रियोने


Page 351 of 655
PDF/HTML Page 406 of 710
single page version

३प० ] [ मोक्षशास्त्र तथा तेमना विषयोने पोताथी एकरूप माने छे ते ज्ञेय-ज्ञायक संकर दोष छे. आ सूत्रमां कहेला अनेकांतस्वरूपने समजतां-एटले के जीव जीवरूपे छे अने कर्मरूपे नथी तेथी कर्म, इन्द्रियो, शरीर, जीवनी विकारी अने अपूर्ण दशा ते ज्ञेय छे पण जीवनुं स्वरूप (ज्ञान) नथी एम समजी भेदविज्ञान प्रगट करे त्यारे-ज्ञेय-ज्ञायक संकर दोष टळे छे, अर्थात् सम्यग्दर्शन प्रगटतां ज आ दोष टळे छे.

जीव जेटलां अंशे राग-द्वेष साथे जोडाईने दुःख भोगवे छे ते भाव्य-भावक संकर दोष छे; ते दोष टळवानी शरूआत सम्यग्दर्शन प्रगटतां थाय छे अने सर्वथा कषायभाव टळतां ते संकरदोष सर्वथा टळे छे.

(२) व्यतिकर दोष

जो जीव जडनुं कांई कार्य करे के जड कर्म अगर शरीर जीवनुं कांई भलुं-भूंडुं करे तो जीव जडरूपे थई जाय अने जड चेतनरूप थई जाय, तथा जो एक जीवने बीजा जीवो कांई भलुं-भूंडुं करे तो एक जीव बीजा जीवरूप थई जाय. आ प्रमाणे एकनो विषय बीजामां चाल्यो जाय तेथी व्यतिकर दोष आवे –परस्पर विषयगमनं व्यतिकर।

जडकर्मो हळवां थाय अने मार्ग आपे तो जीवने धर्म थाय अने जडकर्मो बळवान होय तो जीव धर्म करी शके नहि-एम मानवामां संकर अने व्यतिकर बन्ने दोष आवे छे.

जीव मोक्षनो-धर्मनो पुरुषार्थ न करे अने अशुभभावमां रहे त्यारे तेने भारे कर्मी जीव कहेवाय छे अथवा तो ‘तेने कर्मनो तीव्र उदय छे तेथी ते धर्म करतो नथी’ एम कहेवाय छे. ते जीवनुं लक्ष स्व उपर नथी पण परवस्तु उपर छे एटलुं बताववा माटे ते व्यवहारकथन छे. परंतु जडकर्म जीवने नुकसान करे अथवा तो जीव जडकर्मनो क्षय करे एम खरेखर मानवाथी उपरना बन्ने दोष आवे छे.

(३) अधिकरण दोष

जो जीव शरीरनुं कांई करी शके, तेने हलावी-चलावी शके के बीजा जीवनुं कांई करी शके तो ते बन्ने द्रव्योनुं अधिकरण (स्वक्षेत्ररूप आधार) एक थई जाय अने तेथी ‘अधिकरण’ दोष आवे.

(४) परस्पराश्रय दोष

जीव पोतानी अपेक्षाए सत् छे अने कर्म परवस्तु छे तेनी अपेक्षाए जीव असत् छे, तथा कर्म तेनी पोतानी अपेक्षाए सत् छे अने जीवनी अपेक्षाए कर्म असत् छे. आम होवा छतां जीव कर्मने बांधे-छोडे-तेनो क्षय करे तेम ज जड कर्म नबळां पडे तो जीव धर्म करी शके-एम मानवुं तेमां ‘परस्पराश्रय’ दोष छे. जीव,


Page 352 of 655
PDF/HTML Page 407 of 710
single page version

अ. प सूत्र ३२ ] [ ३प१ कर्मो वगेरे बधां द्रव्यो स्वतंत्र छे अने पोतपोताथी स्वतंत्रपणे कार्य करे छे एम मानवाथी ‘परस्पर आश्रय’ दोष आवतो नथी.

(प) संशय दोष

जीव पोताना विकारभावने जाणी शके छे छतां तेने टाळवानो प्रयत्न करे नहि अने एम माने के ‘कर्मनो उदय पातळो पडे अने मार्ग आपे तो धर्म थई शके’ तो ते अज्ञान छे. पोते जड कर्मने तो देखतो नथी, तेम ज तेना रसने के उदयने पण देखतो नथी. समये समये दरेक द्रव्यनी अवस्था पोतपोताना कारणे बदलती जाय छे; त्यां, ‘जड कर्म बळवान होय तो जीव पडी जाय’ एम जे माने तेने पडी जवानो भय टळे नहि अने तेथी तेनो संशय टळे नहि. संशय ते सम्यग्ज्ञाननो दोष छे, ते टाळ्‌या सिवाय जीव स्वतंत्र पुरुषार्थ करी शके नहि अने पुरुषार्थ वगर ते जीवने कदी धर्म के सम्यग्दर्शन थाय नहि. आ प्रमाणे उपर्युक्त मान्यतामां ‘संशय’ दोष आवे छे, ते टाळवो जोईए.

(६) अनवस्था दोष

जीव पोतानां परिणामनो ज कर्ता छे अने पोतानुं परिणाम तेनुं कर्म छे. सर्व द्रव्योने अन्य द्रव्य साथे उत्पाद्य-उत्पादक भावनो अभाव छे, तेथी जीवने अजीवनी साथे कार्य-कारणपणुं सिद्ध थतुं नथी. जो एक द्रव्य बीजानुं कार्य करे, बीजुं द्रव्य त्रीजानुं कार्य करे-एम परंपरा कहीए तो अनंत द्रव्यो छे तेमांथी कयुं द्रव्य कया द्रव्यनुं कार्य करे तेनो कोई नियम रहे नहि अने तेथी ‘अनवस्था’ दोष आवे. परंतु जो दरेक द्रव्य पोतानुं ज कार्य करे अने परनुं कार्य न करी शके एवो नियम स्वीकारीए तो वस्तुनी यथार्थ व्यवस्था जळवाई रहे छे. अने तेमां कांई अनवस्था दोष आवतो नथी.

(७) अप्रतिपत्ति दोष

दरेक द्रव्यनुं द्रव्यपणुं-क्षेत्रपणुं-काळपणुं (-पर्यायपणुं) अने भावपणुं (- गुणो) जे प्रकारे छे ते प्रकारे तेनुं यथार्थ ज्ञान करवुं जोईए. जीव शुं करी शके अने शुं न करी शके, तेम ज जड द्रव्यो शुं करी शके अने शुं न करी शके-तेनुं ज्ञान न करवुं अने तत्त्वज्ञान करवानी ना पाडवी ते ‘अप्रतिपत्ति’ दोष छे.

(८) विरोध दोष

एक द्रव्य पोते पोताथी सत् छे अने ते द्रव्य परथी पण सत् छे एम जो मानीए तो ‘विरोध’ दोष आवे छे. केम के जीव पोतानुं कार्य करे अने परद्रव्यनुं- कर्म तेम ज पर जीवो वगेरेनुं पण कार्य करे-एम होय तो विरोध दोष लागु पडे छे.


Page 353 of 655
PDF/HTML Page 408 of 710
single page version

३प२ ] [ मोक्षशास्त्र

(९) अभाव दोष

जो एक द्रव्य बीजा द्रव्यनुं कार्य करे तो ते द्रव्यनो नाश थाय अने एक द्रव्यनो नाश थाय तो क्रमे क्रमे सर्व द्रव्योनो नाश थाय, ए प्रमाणे तेमां ‘अभाव’ दोष आवे छे.

आ बधा दोषो टाळीने वस्तुनुं अनेकांतस्वरूप समजवा माटे आचार्यभगवाने आ सूत्र जणाव्युं छे.

अर्पित (–मुख्य) अने अनर्पित (–गौण) नी विशेष समजण

ज्ञान समजाववा तथा तेनुं कथन करवा माटे कोई वखते उपादानने मुख्य कहेवामां आवे छे अने कोई वखते निमित्तने, कोई वखते द्रव्यने मुख्य कहेवामां आवे छे अने कोई वखते पर्यायने, कोई वखते निश्चयने मुख्य कहेवामां आवे छे अने कोई वखते व्यवहारने. आ प्रमाणे ज्यारे कोई एक पडखाने मुख्य करीने कहेवामां आवे त्यारे बीजा गौण रहेता पडखानुं यथायोग्य ज्ञान करी लेवुं जोईए. आ मुख्य-गौणता ज्ञानअपेक्षाए समजवी.

-परंतु सम्यग्दर्शननी अपेक्षाए हंमेशा द्रव्यद्रष्टिने प्रधान करीने उपदेश आपवामां आवे छे. द्रव्यद्रष्टिनी प्रधानतामां कदी पण व्यवहारनी मुख्यता थती नथी; त्यां पर्यायद्रष्टिना भेदने गौण करीने तेने व्यवहार कह्यो छे. भेदद्रष्टिमां रोकातां निर्विकल्प दशा थती नथी अने सरागीने विकल्प रह्या करे छे; माटे ज्यां सुधी रागादिक मटे नहि त्यांसुधी भेदने गौण करी अभेदरूप निर्विकल्प अनुभव कराववामां आवे छे. दर्शननी अपेक्षाए व्यवहार, पर्याय के भेद हंमेशां गौण राखवामां आवे छे; तेने कदी मुख्य करवामां आवता नथी. ।। ३२।।

परमाणुओमां बंध थवानुं कारण
स्निग्धरूक्षत्वाद्बन्धः।। ३३।।
अर्थः– [स्निग्धरूक्षत्वात] चीकाश अने लूखाशने कारणे [बन्धः] बे, त्रण

वगेरे परमाणुओनो बंध थाय छे.

टीका

(१) पुद्गलमां अनेक गुणो छे पण तेमांथी स्पर्श गुण सिवाय बीजा गुणोना पर्यायोथी बंध थतो नथी, तेमज स्पर्शना आठ पर्यायमांथी पण स्निग्ध अने रुक्ष नामना पर्यायोना कारणे ज बंध थाय छे अने बीजा छ प्रकारना पर्यायोथी बंध थतो नथी


Page 354 of 655
PDF/HTML Page 409 of 710
single page version

अ. प सूत्र ३४ ] [ ३प३ एम अहीं जणाव्युं छे. स्निग्ध अने रुक्ष अवस्था केवा प्रकारनी होय त्यारे बंध थाय ते ३६ मा सूत्रमां कहेशे अने कया प्रकारे होय त्यारे बंध न थाय ते ३४-३प मा सूत्रमां कहेशे. बंध थतां केवी जातनुं परिणमन थाय ते सूत्र ३७ मां कहेशे.

(२) बंध-अनेक पदार्थोमां एकपणानुं ज्ञान कराववाळा संबंध विशेषने बंध कहे छे.

(३) बंध त्रण प्रकारना थाय-१. पुद्गलोनो-स्पर्शगुणना कारणे, २. जीवनो-पोताना रागादि भाव साथे, ३. जीव-पुद्गलोनो-अन्योन्य अवगाहना कारणे. (जुओ, प्रवचनसार गाथा-१७७) तेमांथी पुद्गलोनो बंध आ सूत्रमां जणाव्यो छे.

(४) स्निग्ध अने रुक्षपणाना जे अविभागप्रतिच्छेद छे तेने ‘गुण’ x कहे

छे. एक, बे, त्रण, चार, पांच, छ वगेरे तथा संख्यात, असंख्यात के अनंत स्निग्ध गुणरूपे तथा रुक्ष गुणरूपे एक परमाणु परिणमे छे.

(प) स्निग्ध स्निग्ध साथे, रुक्ष रुक्ष साथे तथा एकबीजा साथे बंध थाय छे.।। ३३।।
बंध क्यारे थतो नथी?
न जघन्यगुणानाम्।। ३४।।
अर्थः– [जघन्यगुणानाम्] जघन्य गुणसहित परमाणुओनो [न] बंध थतो

नथी.

टीका

(१) ‘गुण’नी व्याख्या सूत्र ३३ नी टीकामां आपी छे. ‘जघन्य गुणसहित परमाणु’ एटले के जे परमाणुमां स्निग्धता के रुक्षतानो एक अविभागी अंश होय तेने जघन्य गुणसहित परमाणु कहे छे. जघन्य गुण एटले एक गुण समजवो.

(२) परम चैतन्यभावमां परिणति राखवावाळाने परमात्मस्वरूपनी भावनारूप धर्मध्यान अने शुक्लध्यानना बळथी ज्यारे जघन्य चीकणाईने स्थाने राग क्षीण थइ जाय छे, तथा जघन्य रुक्षताने स्थाने द्वेष क्षीण थई जाय छे त्यारे, जेम जळ अने रेतीनो बंध थतो नथी तेम, जघन्य स्निग्ध के रुक्ष शक्तिधारी परमाणुनो पण कोईनी साथे बंध थतो नथी. (प्रवचनसार-अध्याय २. गाथा ७२, श्री जयसेन आचार्यनी संस्कृत टीका, हिंदी पुस्तक पा. २२७) जळ अने रेतीना द्रष्टांते जेम जीवोना रागद्वेष _________________________________________________________________

x द्रव्य-गुण-पर्यायमां आवे छे ते ‘गुण’ अहीं न समजवो परंतु ‘गुण’ नो अर्थ

‘स्निग्ध-रुक्षपणानी शक्तिनुं माप करवानुं साधन’ एम समज्वे.


Page 355 of 655
PDF/HTML Page 410 of 710
single page version

३प४ ] [ मोक्षशास्त्र परमानंदमय स्वसंवेदन गुणना बळथी हीयमान थई जाय छे अने कर्मनी साथे बंध थतो नथी तेम जे परमाणुमां जघन्य चीकाश के रुक्षता होय छे तेने कोईथी बंध थतो नथी (हिंदी प्रवचनसार-गाथा ७३, पा. २२८.)

(३) श्री प्रवचनसार-अध्याय २, गाथा ७१ थी ७६ सुधी तथा गोम्मटसार जीवकांड गाथा ६१४ तथा ते नीचेनी टीका मां पुद्गलोमां बंध क्यारे न थाय अने क्यारे थाय ते जणाव्युं छे, माटे ते वांचवुं.

(४) चोत्रीसमा सूत्रना सिद्धांतो

(१) द्रव्यमां पोता साथे एकपणुं ते बंधनुं कारण थतुं नथी, पण पोतामां द्वैत-बेपणुं थाय त्यारे बंध थाय छे. आत्मा एक-भावस्वरूप छे, परंतु मोह-राग- द्वेषरूप परिणमनथी द्वैतभावरूप थाय छे अने तेथी बंध थाय छे. (जुओ, गुजराती प्रवचनसार गाथा १७पनी टीका.) आत्मा तेना त्रिकाळी स्वरूपे शुद्ध चैतन्यमात्र छे. पर्याय (वर्तमान अवस्था) मां जो ते त्रिकाळी शुद्ध चैतन्य प्रत्ये लक्ष आपे तो द्वैतपणुं थतुं नथी, तेथी बंध थतो नथी-एटले के मोह-राग-द्वेषमां अटकतो नथी. आत्मा मोह-राग-द्वेषमां अटके ते ज खरो बंध छे. अज्ञानतापूर्वकना रागद्वेष ते ज खरेखर स्निग्ध अने रुक्षपणाना स्थाने होवाथी बंध छे. (जुओ, गुजराती प्रवचनसार गाथा १७६ नी टीका.) ए प्रमाणे आत्मामां बेपणुं थाय त्यारे बंध थाय छे अने तेनुं निमित्त पामीने द्रव्यबंध थाय छे.

(२) आ सिद्धांत पुद्गलमां लागु पडे छे. जो पुद्गल पोताना स्पर्शमां एक गुणरूपे परिणमे तो तेने पोतामां ज बंधनी शक्ति (भावबंध) प्रगट नहि होवाथी बीजा पुद्गल साथे बंध थतो नथी. पण जो ते पुद्गलना स्पर्शमां बेगुणपणुं आवे तो बंधनी शक्ति (भावबंधशक्ति) होवाथी बीजा चार गुण स्पर्शवाळा साथे बंधाय छे; आ द्रव्यबंध छे. बंध थवामां बेपणुं-द्वैत एटलो भेद हमेशां रहेवो ज जोईए.

(३) द्रष्टांतः- दशमा गुणस्थाने सूक्ष्मसांपराय छे-जघन्य लोभ-कषाय छे तो पण मोहकर्मनो बंध थतो नथी. संज्वलन क्रोध, मान, माया अने लोभ तथा पुरुषवेद जे नवमा गुणस्थाने बंधातो हतो तेनी त्यां व्युच्छित्ति थई-एटले के तेनो बंध त्यां अटक्यो. (जुओ, अध्याय ६, सूत्र १४ नी टीका)

द्रष्टांत उपरथी सिद्धांतः- (१) जीवनो जघन्य लोभकषाय विकार छे पण ते जघन्य होवाथी कार्माणवर्गणाने लोभरूपे परिणमवामां निमित्तकारण थयुं नहि. (२) ते समये संज्वलन लोभकर्मनी प्रकृति उदयरूप होवा छतां तेनी जघन्यता नवा


Page 356 of 655
PDF/HTML Page 411 of 710
single page version

अ. प सूत्र ३प-३६ ] [ ३पप मोह कर्मना बंधनुं निमित्तकारण थतुं नथी, (३) जो जघन्य विकार कर्मबंधनुं कारण थाय तो कोई जीव अबंध थई शके नहि. ।। ३४।।

बंध क्यारे थतो नथी तेनुं वर्णन
गुणसाम्ये सद्रशानाम्।। ३५।।
अर्थः– [गुणसाम्ये] गुणोनी समानता होय त्यारे [सद्रशानाम्]

समानजातिवाळा परमाणुनी साथे बंध थतो नथी. जेम के-बे गुणवाळा स्निग्ध परमाणुनो बीजा बे गुणवाळा स्निग्ध परमाणु साथे बंध थतो नथी अथवा तेवा स्निग्ध परमाणुनो तेटला ज गुणवाळा रुक्ष परमाणु साथे बंध थतो नथी. ‘ - (बंध थतो नथी)’ ए शब्द आ सूत्रमां कह्यो नथी परंतु उपरना सूत्रमां कहेल ‘न’ शब्द आ सूत्रमां पण लागु पडे छे.

टीका
(१) सूत्रमां ‘सद्रशानाम्’ पदथी ए प्रगट थाय छे के गुणोनी विषमतामां

समानजातिवाळा तथा भिन्नजातिवाळा पुद्गलोनो बंध थाय छे.

(२) बे के वधारे गुण स्निग्धता तेम ज बे के वधारे गुण रुक्षता समानपणे होय त्यारे बंध थतो नथी, एम बताववा माटे ‘गुणसाम्ये’ पद आ सूत्रमां लीधुं छे. ।। ३प।। (जुओ, सर्वार्थसिद्धि, संस्कृत-हिंदी, अध्याय प. पानुं-१२३.)

बंध क्यारे थाय छे?
द्वयधिकादिगुणानां तु।। ३६।।
अर्थः– [द्वि अधिक] बे अधिक गुण होय [आदि] एवा प्रकारना [गुणानां

तु] गुणवाळा साथे ज बंध थाय छे.

टीका

ज्यारे एक परमाणुथी बीजा परमाणुमां बे अधिक गुण होय त्यारे ज बंध थाय छे. जेम के बे गुणवाळा परमाणुनो बंध चार गुणवाळा परमाणु साथे थाय; त्रण गुणवाळा परमाणुनो पांच गुणवाळा परमाणु साथे बंध थाय; परंतु तेनाथी अधिक के ओछा गुणवाळा परमाणु साथे बंध थाय नहि. आ बंध स्निग्धनो स्निग्ध साथे, रुक्षनो रुक्ष साथे, स्निग्धनो रुक्ष साथे तथा रुक्षनो स्निग्ध साथे पण थाय छे. ।। ३६।।


Page 357 of 655
PDF/HTML Page 412 of 710
single page version

३प६ ] [ मोक्षशास्त्र बे गुण अधिकनी साथे मळतां नवी अवस्था केवी थाय छे?

बन्धेऽधिकौ पारिणामिकौ च।। ३७।।
अर्थः– [च] अने [बंधे] बंधरूप अवस्थामां [अधिकौ] अधिक गुणवाळा

परमाणुओ जेटला गुणरूपे [पारिणामिकौ] ओछा गुणवाळा परमाणुओनुं परिणमन थाय छे.

टीका

अल्पगुणधारक जे परमाणुओ होय ते ज्यारे अधिकगुणधारक परमाणुओ साथे बंध अवस्था पामे त्यारे ते अल्पगुणधारक परमाणुओ पोतानी पूर्व अवस्थाने छोडीने बीजी अवस्था प्रगट करे छे अने एक स्कंध थई जाय छे एटले के अधिकगुणधारक परमाणुनी जातनो अने तेटला गुणवाळो स्कंध थाय छे. ।। ३७।।

द्रव्यनुं अन्य लक्षण
गुणपर्ययवत् द्रव्यम्।। ३८।।
अर्थः– [गुणपर्ययवत्] गुण-पर्यायवाळुं [द्रव्यम्] द्रव्य छे.
टीका

(१) गुण-१. द्रव्यना अनेक पर्याय पलटवा छतां पण जे द्रव्यनी कदी पृथक् न थाय, निरंतर द्रव्यनी साथे सहभावी रहे ते गुण कहेवाय; २. द्रव्यना पूरा भागमां तथा तेनी बधी हालतमां जे रहे तेने गुण कहे छे. (जैनसिद्धांत प्रवेशिका प्रश्न ११३). ३. द्रव्यमां शक्तिनी अपेक्षाए जे भेद करवामां आवे ते गुण शब्दोनो अर्थ छे. (तत्त्वार्थसार-अ. ३. गाथा ९, पा. १३१). गुणनी व्याख्या सूत्रकार सूत्र ४१ मां आपशे.

(२) पर्याय-१. क्रमथी थती वस्तुनी-गुणनी अवस्थाने पर्याय कहे छे; २. गुणना विकारने (विशेष कार्यने) पर्याय कहे छे. (जैन सिद्धांत प्रवेशिका प्रश्न १४८.) ३. द्रव्यमां जे विक्रिया थाय-अथवा जे अवस्था बदले ते पर्याय कहेवाय. (जुओ, तत्त्वार्थसार अ. ३. गाथा ९. पा. १३१)

पर्यायनी व्याख्या सूत्रकार ४२ मा सूत्रमां आपशे. (३) आगळ सूत्र २९-३० मां कहेवामां आवेला लक्षणथी आ लक्षण जुदुं नथी,


Page 358 of 655
PDF/HTML Page 413 of 710
single page version

अ. प सूत्र ३८-३९ ] [ ३प७ शब्दभेद छे, परंतु भावभेद नथी. पर्यायथी उत्पाद-व्ययथी अने गुणथी ध्रौव्यनी प्रतीति थई जाय छे.

(४) गुणने अन्वय, सहवर्ती पर्याय के अक्रमवर्ती पर्याय पण कहेवाय छे तथा पर्यायने व्यतिरेकी अथवा क्रमवर्ती कहेवाय छे. द्रव्यनो स्वभाव गुण-पर्यायरूप छे, एम सूत्रमां कहीने द्रव्यनुं अनेकांतपणुं सिद्ध कर्युं.

(प) द्रव्य, गुण अने पर्याय वस्तुपणे अभेद-अभिन्न छे. नाम, संख्या, लक्षण अने प्रयोजननी अपेक्षाए द्रव्य, गुण अने पर्यायमां भेद छे, परंतु प्रदेशथी अभेद छे, एम वस्तुनुं भेदाभेदस्वरूप समजवुं.

(६) सूत्रमां ‘वत्’ शब्द वापर्यो छे ते कथंचित् भेदाभेदपणुं सूचवे छे.

(७) जे गुण वडे ‘एक द्रव्य बीजा द्रव्यथी द्रव्यांतर छे’ एम जणाय तेने विशेषगुण कहे छे. ते वडे ते द्रव्यनुं विधान करवामां आवे छे. जो एम न होय तो द्रव्योनी संकरता-एकताने प्रसंग आवे अने एक द्रव्य पलटीने बीजुं थई जाय तो व्यतिकरदोषनो प्रसंग आवे. माटे ए दोषो रहित वस्तुनुं स्वरूप जेम छे तेम समजवुं. ।। ३८।।

काळ पण द्रव्य छे.
कालश्च।। ३९।।
अर्थः– [कालः] काळ [च] पण द्रव्य छे.
टीका
(१) ‘च’ नो अन्वय ‘द्रव्याणि’ आ अध्यायना बीजा सूत्रनी साथे छे.

(२) काळ उत्पाद-व्यय-ध्रुव तेम ज गुण-पर्याय सहित छे माटे ते द्रव्य छे. (३) काळद्रव्योनी संख्या असंख्यात छे. तेओ रत्नोना राशिनी माफक एकबीजाथी पृथक् लोकाकाशना समस्त प्रदेशो पर स्थित छे. ते दरेक कालाणु जड, एकप्रदेशी अने अमूर्तिक छे. तेनामां स्पर्श गुण नथी तेथी एक बीजानी साथे मळीने स्कंधरूप थता नथी. काळमां मुख्यपणे के उपचारपणे प्रदेशमूहनी कल्पना थई शकती नथी. तेथी तेने अकायपणुं छे. ते निष्क्रिय छे एटले के एक प्रदेशथी बीजा प्रदेशे जतुं नथी.

(४) मुख्य काळनुं लक्षण वर्तना सूत्र २२ मां कह्युं. व्यवहारकाळनुं लक्षण ते ज सूत्रमां परिणाम, क्रिया, परत्व अने अपरत्व कह्युं. ए व्यवहारकाळना अनंत समयो छे एम हवे पछीना सूत्रमां कहे छे. ।। ३९।।


Page 359 of 655
PDF/HTML Page 414 of 710
single page version

३प८ ] [ मोक्षशास्त्र

व्यवहारकाळनुं प्रमाण
सोऽनन्तसमयः।। ४०।।
अर्थः– [सः] ते काळद्रव्य [अनन्त समयः] अनंत समयवाळुं छे. काळनो

पर्याय ते समय छे. जो के वर्तमानकाळ एक समयमात्र ज छे, तोपण भूत- भविष्यनी अपेक्षाथी तेना अनंत समयो छे.

टीका

(१) समय-मंदगतिथी गमन करनार एक पुद्गल परमाणुने आकाशना एक प्रदेशथी बीजा प्रदेश पर जतां जेटलो वखत लागे ते एक समय छे. ते काळनो पर्याय होवाथी व्यवहार छे. समयोना समूहथी ज आवलि, घडी, कलाक आदि व्यवहारकाळ छे. व्यवहारकाळ निश्चयकाळनो पर्याय छे.

निश्चयकाळद्रव्य-लोकाकाशना प्रत्येक प्रदेश उपर रत्नोना राशिनी माफक काळाणु स्थित होवानुं सूत्र ३९ नी टीकामां कह्युं छे; ते दरेक निश्चयकाळद्रव्य छे. तेनुं लक्षण वर्तना छे; ते सूत्र २२ मां कहेवामां आव्युं छे.

(२) एक समये अनंत पदार्थोनी परिणति-जे अनंत प्रकारनी छे; तेने एक कालाणुनो पर्याय निमित्त होय छे, ते अपेक्षाए एक कालाणुने उपचारथी ‘अनंत’ कहेवामां आवे छे.

(३) समय ते नानामां नानो वखत छे तेथी तेना विभाग पडी शकता नथी. ।। ४०।।

आ प्रमाणे छ द्रव्योनुं वर्णन पूरुं थयुं. हवे बे सूत्रो द्वारा गुणनुं अने पर्यायनुं लक्षण जणावीने आ अधिकार पूरो थशे.

गुणनुं लक्षण
द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणाः।। ४१।।
अर्थः– [द्रव्याश्रयाः] जेओ द्रव्यना आश्रये होय अने [निर्गुणाः] पोते बीजा

गुणोथी रहित होय [गुणाः] ते गुणो छे.

टीका

(१) ज्ञानगुण जीवद्रव्यने आश्रये रहे छे, तथा ज्ञानमां कोई बीजो गुण रहेतो नथी. जो तेमां गुण रहे तो ते गुण मटीने गुणी (-द्रव्य) थई जाय, पण तेम बने नहि. ‘आश्रयाः’ शब्द भेदाभेद बन्ने सूचवे छे.


Page 360 of 655
PDF/HTML Page 415 of 710
single page version

अ. प सूत्र ४२ ] [ ३प९

(२) प्रश्नः– पर्याय पण द्रव्यने आश्रये छे अने गुण रहित छे माटे पर्यायमां पण गुणपणुं आवी जशे, अने तेथी आ सूत्रमां कहेला लक्षणने अतिव्याप्ति दोष लागशे?

उत्तरः– ‘द्रव्याश्रयाः’ पद होवाथी नित्य द्रव्यनो आश्रय करी वर्ते छे तेनी वात छे; ते गुण छे, पर्याय नथी. तेथी ‘द्रव्याश्रयाः’ पदथी पर्याय तेमां आवतो नथी. पर्याय एक ज समयवर्ती छे.

(३) आ सूत्रनो सिद्धांत

दरेक गुण पोतपोताना द्रव्यने आश्रये रहे छे तेथी एक द्रव्यनो गुण बीजा द्रव्यने कांई करी शके नहि, तेम ज बीजा द्रव्यने प्रेरणा, असर के सहाय करी शके नहि. परद्रव्य निमित्तपणे होय छे पण एक द्रव्य परद्रव्यमां अकिंचित्कर छे (समयसार गाथा २६७ नी टीका. गुजराती पा. ३२८). प्रेरणा, सहाय, मदद, उपकार वगेरे शब्दो निमित्तने उद्देशीने वापरवामां आवे छे, पण ते उपचारमात्र छे एटले के निमित्तनुं ज्ञानमात्र कराववा माटे छे. ।। ४१।।

पर्यायनुं लक्षण
तद्भावः परिणामः।। ४२।।
अर्थः– [तत् भावः] द्रव्यनो स्वभाव (निजभाव, निजतत्त्व) [परिणामः]

ते परिणाम छे.

टीका

(१) द्रव्य जे स्वरूपे होय छे तथा जे स्वरूपे परिणमे छे ते तद्भाव परिणाम छे.

(२) प्रश्नः– गुण अने द्रव्य सर्वथा भिन्न छे, एम कोई कहे छे ते खरुं छे? उत्तरः– ना; गुण अने द्रव्य कथंचित् भिन्न छे, कथंचित् अभिन्न छे एटले के भिन्नाभिन्न छे. संज्ञा-संख्या-लक्षण-विषयादि भेदथी भिन्न छे, वस्तुपणे- प्रदेशपणे अभिन्न छे, केम के गुण द्रव्यनो ज परिणाम छे.

(३) बधां द्रव्योने अनादि अने आदिमान परिणाम होय छे. प्रवाहरूपे अनादि परिणाम छे; पर्याय ऊपजे-विणसे छे माटे ते आदि सहित छे. धर्म, अधर्म, आकाश अने काळ ए चार द्रव्यना अनादि तथा आदिमान परिणाम आगमगम्य छे तथा जीव अने पुद्गलना अनादि परिणाम आगमगम्य छे पण तेना आदिमान परिणाम कथंचित् प्रत्यक्ष पण छे.


Page 361 of 655
PDF/HTML Page 416 of 710
single page version

३६० ] [ मोक्षशास्त्र

(४) गुणने सहवर्तीपर्याय अथवा अक्रमवर्तीपर्याय कहेवामां आवे छे अने पर्यायने क्रमवर्तीपर्याय कहेवामां आवे छे.

द्रव्य, गुण ने पर्याय-एम वस्तुना त्रण भेद कह्या छे, परंतु नय तो द्रव्यार्थिक अने पर्यायार्थिक एम बे ज कह्या छे, त्रीजो ‘गुणार्थिक’ नय कह्यो नथी, तेनुं शुं कारण छे? तेम ज गुणो कया नयना विषयमां आवे छे? तेनो खुलासो पूर्वे अध्याय १ सूत्र ६ नी टीका पा. ३१-३२ मां आप्यो छे.

पर्यायार्थिकनयने भावार्थिकनय पण कहेवामां आवे छे. (जुओ, श्रीमद् राजचंद्र कृत मोक्षमाळा पाठ-९१)

(प) आ सूत्रनो सिद्धांत

सूत्र ४१ मां जे सिद्धांत कह्यो छे ते ज प्रमाणे ते अहीं पण लागु पडे छे एटले के दरेक द्रव्य पोताना भावे परिणमे छे, परना भावे परिणमतुं नथी; तेथी एम सिद्ध थयुं के दरेक द्रव्य पोतानुं काम करी शके पण परनुं कांई करी शके नहि.।। ४२।।

उपसंहार

आ पांचमा अध्यायमां अजीवतत्त्वनुं मुख्यपणे कथन छे. अजीवतत्त्वनुं कथन करतां, तेनो जीवतत्त्व साथे संबंध बताववानी जरूर जणातां जीवनुं स्वरूप पण अहीं जणाववामां आव्युं छे. वळी छए द्रव्योनुं सामान्यस्वरूप जीव अने अजीवने लागु पडतुं होवाथी ते पण कह्युं छे. ए रीते आ अध्यायमां नीचेना विषयो आव्या छे.

(१) छए द्रव्योने एकसरखी रीते लागु पडता नियमोनुं स्वरूप, (२) द्रव्योनी संख्या अने तेनां नामो, (३) जीवनुं स्वरूप (४) अजीवनुं स्वरूप, (प) स्याद्वाद सिद्धांत अने (६) अस्तिकाय.

(१) छए द्रव्योने लागु पडतुं स्वरूप

१. द्रव्यनुं लक्षण अस्तित्व-होवापणुं (सत्) छे. (सूत्र २९) २. होवापणानुं (-सत्नुं) लक्षण त्रणे काळ टकीने दरेक समये जूनी अवस्था टाळी नवी अवस्था उत्पन्न करवी ते छे (सूत्र ३०). ३. द्रव्य पोताना गुण अने अवस्थावाळुं होय छे, गुण द्रव्यने आश्रये रहे छे अने गुणमां गुण होता नथी. ते पोताना जे भाव छे ते भावे परिणमे छे. (सू. ३८, ४२). ४. द्रव्यना पोताना भावनो नाश थतो नथी माटे नित्य छे अने ते परिणमे छे माटे अनित्य छे. (सूत्र ३१, ४२)

(२) द्रव्योनी संख्या अने तेनां नामो
द्रव्यो अनेक छे. (सूत्र २). तेनां नामो-१. जीवो (सूत्र ३), २. पद्गलो,

Page 362 of 655
PDF/HTML Page 417 of 710
single page version

अ. प उपसंहार ] [ ३६१ ३. एक धर्मास्तिकाय, ४. अधर्मास्तिकाय, प. एक आकाश (सूत्र १), ६. काळ, (सूत्र २२, ३९).

(३) जीवनुं स्वरूप

१. जीवो अनेक छे (सूत्र ३), दरेक जीवना असंख्यात प्रदेशो छे (सूत्र ८), ते लोकाकाशमां ज रहे छे (सूत्र १२), जीवना प्रदेशो संकोच-विस्तार पामे छे, तेथी लोकना असंख्यातमा भागथी लईने आखा लोकने अवगाहे छे. (सूत्र प, १प), लोकाकाशना जेटला प्रदेशो छे तेटला ज जीवना प्रदेशो छे. एक जीवना, धर्मद्रव्यना अने अधर्मद्रव्यना प्रदेशोनी संख्या सरखी छे (सूत्र ८); परंतु जीवना अवगाह अने धर्मद्रव्य तथा अधर्मद्रव्यना अवगाहमां फेर छे. धर्म-अधर्म द्रव्य आखा लोकाकाशने अवगाहे छे ज्यारे जीवना प्रदेशो संकोच-विस्तार पामे छे. (सूत्र १३, १६).

२. जीवने विकारी अवस्थामां, सुख-दुःख तथा जीवन-मरणमां पुद्गल द्रव्यो निमित्त छे; जीव द्रव्यो पण परस्पर ते कार्योमां निमित्त थाय छे. संसारी जीवोने संयोगरूपे कार्मणादि शरीर, वचन, मन अने श्वासोच्छ्वास होय छे (सूत्र १९, २०, २१).

३. जीव क्रियावान छे, तेनी क्रियावती शक्तिनो पर्याय कोईवार गतिरूप अने कोई वार स्थितिरूप थाय छे; ज्यारे गतिरूप होय त्यारे धर्मद्रव्य अने ज्यारे स्थितिरूप होय त्यारे अधर्मद्रव्य निमित्त छे (सूत्र-१७).

४. जीवने परिणमनमां काळ द्रव्य निमित्त छे (सूत्र २२), अने अवगाहनमां आकाश निमित्त छे (सूत्र १८).

प. जीव द्रव्ये नित्य छे, तेनी संख्या एक सरखी रहेनारी छे अने ते अरूपी छे (सूत्र ४).

नोटः- छए द्रव्योनुं जे स्वरूप उपर नं. (१) मां चार बोलथी जणाव्युं छे ते ज स्वरूप दरेक जीव द्रव्यने पण लागु पडे छे. जीवनुं लक्षण उपयोग छे एम जीवने लगता अधिकारमां अध्याय २. सूत्र ८ मां कहेवाई गयुं छे.

(४) अजीवनुं स्वरूप

ज्ञान रहित एवा अजीव द्रव्यो पांच छे-१. एक धर्म, २. एक अधर्म ३. एक आकाश, ४. अनेक पुद्गलो तथा प. असंख्यात काळाणुं (सूत्र १, ३९). हवे पांच पेटा विभाग द्वारा ते पांच द्रव्यनुं स्वरूप कहेवाय छे.


Page 363 of 655
PDF/HTML Page 418 of 710
single page version

३६२ ] [ मोक्षशास्त्र

. धर्मद्रव्य

धर्मद्रव्य एक, अजीव, बहुप्रदेशी छे (सूत्र १, २, ६). ते नित्य, अवस्थित अरूपी अने हलनचलन रहित छे (सूत्र ४, ७). तेना लोकाकाश जेटला असंख्य प्रदेशो छे अने ते आखा लोकाकाशमां व्यापक छे. (सूत्र ८, १३). ते पोते हलनचलन करता जीव तथा पुद्गलोने गतिमां निमित्त छे (सूत्र १७). तेने अवगाहनमां आकाश निमित्त छे अने परिणमनमां काळ निमित्त छे (सूत्र १८, २२) अरूपी (सूक्ष्म) होवाथी धर्म अने अधर्मद्रव्यो लोकाकाशमां एकसरखी रीते (एकबीजाने व्याघात पहोंचाडया विना) व्यापी रह्यां छे. (सूत्र १३).

. अधर्मद्रव्य

उपर कहेली बधी बाबतो अधर्मद्रव्यने पण लागु पडे छे. विशेषता एटली ज के धर्मद्रव्य जीव-पुद्गलोने गतिमां निमित्त छे त्यारे अधर्म जीव-पुद्गलोने स्थितिमां निमित्त छे.

. आकाशद्रव्य

आकाशद्रव्य एक, अजीव, अनंतप्रदेशी छे (सूत्र १, २, ६, ९). नित्य, अवस्थित, अरूपी अने हलनचलन रहित छे (सूत्र ४, ७). बीजा पांचेय द्रव्योने अवगाहन आपवामां निमित्त छे (सूत्र १८). तेने परिणमनमां काळद्रव्य निमित्त छे (सू. २२).

. काळद्रव्य

काळद्रव्य दरेक अणुरूप, अरूपी, अस्तिपणे पण काय रहित, नित्य अने अवस्थित अजीव पदार्थ छे. (सूत्र २, ३९, ४). ते बधां द्रव्योने परिणमनमां निमित्त छे (सूत्र २२). काळद्रव्यने अवगाहनमां आकाशद्रव्य निमित्त छे. (सूत्र १८). एक आकाशप्रदेशे रहेलां अनंत द्रव्योने परिणमनमां एक कालाणु निमित्त थाय छे ते कारणे उपचारथी तेने अनंत समय कहेवामां आवे छे, तथा भूत- भविष्यनी अपेक्षाए अनंत छे. काळना एक पर्यायने समय कहे छे (सूत्र ४०).

. पुद्गलद्रव्य

१. आ पुद्गल द्रव्यो अनंतानंत छे. ते दरेक एक प्रदेशी छे. (सूत्र १, २, १०, ११,) तेमां स्पर्श, रस, गंध, वर्ण आदि विशेष गुणो होवाथी ते रूपी छे (सूत्र २३, प.) ते विशेष गुणोमांथी स्पर्श गुणनी स्निग्ध के रुक्षनी अमुक प्रकारनी


Page 364 of 655
PDF/HTML Page 419 of 710
single page version

अ. प उपसंहार ] [ ३६३ अवस्था थाय त्यारे बंध थाय छे (सूत्र ३३). बंध प्राप्त पुद्गलोने स्कंध कहेवामां आवे छे. तेमांथी जीवने संयोगरूप थता स्कंधो शरीर, वचन, मन अने श्वासोच्छ्वासपणे परिणमे छे (सूत्र २प, १९). केटलाक स्कंधो जीवने सुख, दुःख, जीवन अने मरणमां निमित्त थाय छे. (सूत्र २०).

२. स्कंधरूपे परिणमेला परमाणुओ संख्यात, असंख्यात, अनंत होय छे. तथा बंधनी विशिष्टता एवी छे के एक प्रदेशमां अनेक रहे छे, अनेक स्कंधो संख्यातप्रदेशोने अने अनेक स्कंधो असंख्यात प्रदेशोने रोके छे तेमज एक महास्कंध लोकप्रमाण असंख्यात आकाशना प्रदेशोने रोके छे (सूत्र १०, १४, १२.)

३. जे पुद्गलनी स्निग्धता के रुक्षता जघन्यपणे होय ते बंधने पात्र नथी. तेम ज एक सरखा गुणवाळा पुद्गलोनो बंध थतो नथी (सूत्र ३४-३प). जघन्य गुण छोडीने बे अंश ज अधिक होय त्यां (पछी एकी गुण होय के बेकी गुण होय) स्निग्धनो स्निग्ध साथे, रुक्षनो रुक्ष साथे तथा स्निग्ध रुक्षनो परस्पर बंध थाय छे अने जेना गुणो अधिक होय ते-रूपे आखो स्कंध थाय छे (सूत्र ३६, ३७). स्कंधनी उत्पत्ति परमाणुओना भेद (छूटा पडवाथी), संघात (मळवाथी) अथवा एकी वखते बन्ने रूपे (भेद-संघात) थवाथी थाय छे (सूत्र २६), अने अणुनी उत्पत्ति भेदथी थाय छे (सूत्र २७). भेद-संघात बन्नेथी मळी उत्पन्न थयेल स्कंध चक्षुइन्द्रियगम्य होय छे. (सूत्र २८).

४. शब्द, बंध, सूक्ष्म, स्थूळ, संस्थान, भेद, तम, छाया, आतप अने उद्योत -ए बधा पुद्गलना पर्यायो (अवस्था) छे.

प. पुद्गल द्रव्यने हलनचलनमां धर्मद्रव्य अने स्थितिमां अधर्मद्रव्य निमित्त छे (सूत्र १७), अवगाहनमां आकाशद्रव्य निमित्त छे अने परिणमनमां काळद्रव्य निमित्त छे (सूत्र १८, २२).

६. पुद्गल स्कंधोने शरीर, वचन, मन अने श्वासोच्छ्वासरूपे परिणमवामां जीव निमित्त छे (सूत्र १९); बंधरूप थवामां परस्पर निमित्त छे (सूत्र ३३).

नोंधः- स्निग्धता अने रुक्षताना अनंत अविभागप्रतिच्छेद थाय छे. तेमांना एक अविभागी अंशने ‘गुण’ कहे छे, एम अहीं ‘गुण’ शब्दनो अर्थ छे.

(प) स्याद्वाद सिद्धांत

दरेक द्रव्य गुण-पर्यायात्मक छे; उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य युक्त छे; सप्तभंगस्वरूप छे. ए रीते द्रव्यमां त्रिकाळी अखंड स्वरूप अने दरेक समये वर्तती अवस्था-एम बे


Page 365 of 655
PDF/HTML Page 420 of 710
single page version

३६४ ] [ मोक्षशास्त्र पडखां पडे छे. वळी पोते पोताथी अस्तिरूप छे. अने परथी नास्तिरूप छे. तेथी द्रव्य, गुण अने पर्याय बधुं *अनेकांतात्मक (-अनेक धर्मरूपे) छे. अपूर्ण मनुष्य कोई पण पदार्थनो विचार करतां आखा पदार्थने एकी साथे विचारमां लई शके नहि; परंतु विचारवामां आवता पदार्थनो एक पडखानो विचार करी शके अने पछी बीजा पडखानो विचार करी शके; एम तेना विचारमां अने कथनमां क्रम पडया विना रहे नहि. तेथी जे वखते त्रिकाळी ध्रुव पडखानो विचार करे त्यारे बीजुं पडखुं विचार माटे मुलतवी रहे. तेथी जेनो विचार करवामां आवे तेने मुख्य अने विचारमां जे बाकी रह्युं तेने गौण करवामां आवे. आ प्रकारे वस्तुना अनेकांतस्वरूपनो निर्णय करवामां क्रम पडे छे. ए अनेकांत स्वरूपनुं कथन करवा माटे तथा ते समजवा माटे उपर कहेली पद्धति ग्रहण करवी तेनुं नाम ‘स्याद्वाद’ छे; अने ते आ अध्यायना ३२ मा सूत्रमां आपी छे. जे वखते जे पडखाने (अर्थात् धर्मने) ज्ञानमां लेवामां आवे तेने ‘अर्पित’ कहेवाय छे, अने ते ज वखते जे पडखां अर्थात् धर्मो ज्ञानमां गौण रह्या होय तेने ‘अनर्पित’ कहेवाय छे. ए रीते आखा स्वरूपनी सिद्धि-प्राप्ति-साबिती-ज्ञान थई शके छे. ते आखा पदार्थना ज्ञानने प्रमाण अने एक पडखाना ज्ञानने नय कहे छे अने ‘स्यात् अस्ति-नास्ति’ ना भेदो द्वारा ते ज पदार्थना ज्ञानने ‘सप्तभंगी’ स्वरूप कहेवामां आवे छे.

(६) अस्तिकाय

छ द्रव्योमांथी जीव, धर्म, अधर्म आकाश अने पुद्गल ए पांच अस्तिकाय छे (सूत्र १, २, ३); अने काळ अस्ति छे (सूत्र २-३९) पण काय (-बहुप्रदेशी) नथी (सूत्र १).

(७) जीव अने पुद्गल द्रव्यनी सिद्धि १–२.

१. ‘जीव’ एक पद छे अने तेथी ते जगतनी कोई वस्तुने-पदार्थने सूचवे छे, माटे ते शुं छे ए आपणे विचारीए. ए विचारवामां आपणे एक मनुष्यनुं उदाहरण लईए; जेथी विचारवामां सुगमता पडे.

२. एक मनुष्यने आपणे जोयो. त्यां सर्व प्रथम आपणी द्रष्टि तेना शरीर उपर पडशे, तथा ते मनुष्य ज्ञानसहित पदार्थ पण छे एम जणाशे. शरीर छे एम नक्की करवामां आव्युं ते इन्द्रियद्वारा नक्की थयुं पण ते मनुष्यने ज्ञान छे एम जे नक्की कर्युं ते इन्द्रियद्वारा नक्की कर्युं नथी; केमके अरूपी ज्ञान इन्द्रियगम्य नथी, पण ते मनुष्यना _________________________________________________________________

*अनेकांत = अनेक + अंत (-धर्म) = अनेक धर्मो.