Moksha Shastra-Gujarati (Devanagari transliteration). Sutra: 2-14 (Chapter 7).

< Previous Page   Next Page >


Combined PDF/HTML Page 26 of 36

 

Page 446 of 655
PDF/HTML Page 501 of 710
single page version

४४६ ] [ मोक्षशास्त्र अंशे नवीन कर्मबंध करती नथी परंतु संवर निर्जरा करे छे अने ते ज समये जेटला अंशे रागभाव छे तेटला अंशे कर्मबंध पण थाय छे.

प. श्री राजमल्लजीए ‘वृत्तं कर्म स्वभावेन ज्ञानस्य भवनं नहि’ समयसार पुण्य-पाप अधिकारना आ कळशनी टीकामां लख्युं छे के ‘जेटली शुभ अथवा अशुभ क्रियारूप आचरण छे-चारित्र छे तेनाथी तो स्वभावरूप चारित्र-ज्ञाननुं (शुद्ध चैतन्य वस्तुनुं) शुद्ध परिणमन न थई शके एवो निश्चय छे. भावार्थ-जेटली शुभाशुभक्रियाआचरण छे अथवा बाह्य वकतव्य अथवा सूक्ष्म अंतरंग चिंतवन रूप अभिलाष, स्मरण इत्यादि समस्त अशुद्ध परिणमन छे ते शुद्ध परिणमन नथी तेथी ते बंधनुं कारण छे-मोक्षनुं कारण नथी. जेम कामळानो सिंह (कपडा उपर चितरेलो वाघ) ते कहेवामात्र सिंह छे तेम–शुभक्रिया आचरणरूप चारित्र कहेवामात्र चारित्र छे पण चारित्र नथी एम निःसंदेहपणे जाणो.

(जुओ, स. कळशटीका हि. पृ. १०८)

६. ए ज कळशटीका पृ. ११३ मां सम्यग्द्रष्टिनी पण शुभभावनी क्रियाने- बंधक कहेल छे-‘बंधायसमुल्लसति’ एटले जेटली क्रिया छे तेटली ज्ञानावरणीय आदि कर्मनो बंध करे छे, संवर निर्जरा अंशमात्र पण करती नथी;’ तत् एकं ज्ञानं मोक्षायस्थितं’ परंतु ते एक शुद्ध चैतन्यप्रकाश ज्ञानावरणादि कर्मक्षयनुं निमित्त छे. भावार्थ एवो छे के एक जीवमां शुद्धत्व, अशुद्धत्व एक ज काळे एक ज साथे होय छे पण जेटला अंशे शुद्धत्व छे, तेटला अंशे कर्मक्षपण छे. अने जेटला अंशे अशुद्धत्व छे, तेटला अंशे कर्मबंध थाय छे, एक ज समये बेउ कार्य थाय छे, एम ज छे तेमां संदेह करवो नहीं.

कविवर बनारसीदासजीए कह्युं छे के-पुण्यपापकी दोउ क्रिया मोक्षपंथकी कतरणी; बंधकी करैया दोउ, दुहूकी प्रकृति न्यारी, न्यारी, न्यारी घरनी, एटलुं विशेष के-कर्मधारा बंधरूप, पराधीन शक्ति विविध बंध करनी, ज्ञानधारा मोक्षरूप, मोक्षकी करनहार, दोषकी हरनहार भौ समुद्रतरनी. १४.

७. श्री अमृतचंद्राचार्यकृत पृ. सि. उपाय गा. र१र थी १४ मां सम्यग्द्रष्टिना संबंधमां कह्युं छे के जेटला अंशे आ आत्मा पोताना स्वभावरूपे परिणमे छे ते अंश सर्वथा बंधनो हेतु नथी; पण जे अंशोथी आ रागादिक विभावरूप परिणमन करे छे ते ज अंश बंधनो हेतु छे.

श्री रायचन्द्र जैन शास्त्रमाळाथी प्रकाशित पुरुषार्थसिद्धिउपाय गा. १११ नो

Page 447 of 655
PDF/HTML Page 502 of 710
single page version

अ. ७ सूत्र १-२ ] [ ४४७ अर्थ भाषा टीकाकारे विरुद्ध करेल छे तथा अणगार धर्मामृतमां पण तेनी फूटनोटमां जूठो अर्थ छे ते नीचे बताववामां आवे छे.

असमग्रं भावयतो रत्नत्रयमस्ति कर्मबन्धोयः।

स विपक्ष कृतोऽवस्य मोक्षोपाय न बन्धनोपायः।। २११।।

अन्वयार्थ– असंपूर्ण रत्नत्रयने भावनार आत्माने जे शुभ कर्मनो बंध थाय छे ते बंध विपक्षकृत अर्थात् बंधरागकृत होवाथी अवश्य ज मोक्षनो उपाय छे, बंधनो उपाय नथी.

हवे सुसंगत साचो अर्थ जुओ. तेने माटे आधार श्री टोडरमलजी कृत टीकावाळो पुरुषार्थसिद्धि ग्रंथ, प्रकाशक जिनवाणी प्रचारक कार्यालय कलकत्ता-तेनुं पृ. ११प गा. १११.

अन्वयार्थ– असमग्रं रत्नत्रय भावयतः यः कर्मबंध अस्ति सः विपक्षकृत रत्नत्रय तु मोक्षोपाय अस्ति, न बन्धनोपायः.

(अथर्-एकदेश रत्नत्रयने प्राप्त करवावाळा पुरुषने जे कर्मबंध थाय छे ते रत्नत्रयथी नथी थतो, पण रत्नत्रयना विपक्षी जे राग-द्वेष छे तेनाथी थाय छे, ते रत्नत्रय तो वास्तवमां मोक्षनो उपाय छे बंधनो उपाय नथी थतो.)

भावार्थ– सम्यग्द्रष्टि जीव जे एकदेश रत्नत्रय धारण करे छे, तेमां जे कर्मबंध थाय छे ते रत्नत्रयथी नथी थतो पण तेनी साथे जे शुभ कषायो छे तेनाथी ज थाय छे. तेथी सिद्ध थयुं के कर्मबंध करवावाळी शुभ कषायो छे परंतु रत्नत्रय नथी.

हवे रत्नत्रय अने रागनुं फळ बतावे छे ते स्थाने गा. र१र थी र१४ मां गुणस्थानानुसार सम्यग्द्रष्टिना रागने बंधनुं ज कारण कह्युं छे अने वीतरागभावरूप सम्यक्रत्नत्रयने मोक्षनुं ज कारण कह्युं छे. पछी गाथा रर० मां कह्युं छे के- रत्नत्रयरूप धर्म मोक्षनुं ज कारण छे अने बीजी गतिनुं कारण नथी पण रत्नत्रयना सद्भावमां जे शुभप्रकृतिओनो आस्रव थाय ते बधाय (कर्मोनो आस्रवबंध शुभकषायथी; शुभोपयोगथी ज थाय छे अर्थात् ते शुभोपयोगनो ज अपराध छे पण रत्नत्रयनो नथी.

कोई एम माने छे के सम्यग्द्रष्टिने शुभोपयोगमां (-शुभभावमां) अंशे शुद्धता छे पण एम मानवुं विपरीत छे, कारण के निश्चयसम्यक्त्व थया पछी चारित्रनी अंशे शुद्धि सम्यग्द्रष्टिने थाय छे ते तो चारित्रगुणनी शुद्ध परिणति छे अने जे शुभोपयोग छे ते तो अशुद्धता छे.

कोई एम माने छे के, सम्यग्द्रष्टिनो शुभोपयोग मोक्षनुं साचुं कारण छे अर्थात्

Page 448 of 655
PDF/HTML Page 503 of 710
single page version

४४८ ] [ मोक्षशास्त्र तेनाथी संवर निर्जरा छे माटे ते बंधनुं कारण नथी, तो ए बेउ मान्यता अयथार्थ ज छे एवुं उपरोकत शास्त्राधारोथी सिद्ध थाय छे.

६. आ सूत्रनो सिद्धांत

सौथी प्रथम तत्त्वज्ञाननो उपाय करीने जीवोए सम्यग्दर्शन-ज्ञान प्रगट करवां जोईए, ते प्रगट कर्या पछी पोताना स्वरूपमां स्थिर रहेवा प्रयत्न करवो; अने ज्यारे स्थिर न रही शके त्यारे अशुभभाव टाळी देशव्रत-महाव्रतादि शुभभावमां जोडाय पण ते शुभने धर्म न माने, तेम ज तेने धर्मनो अंश के धर्मनुं साधन न माने. पछी ते शुभभावने पण टाळीने निश्चयचारित्र प्रगट करवुं अर्थात् निर्विकल्पदशा प्रगट करवी.

व्रतना भेद
देशसर्वतोऽणुमहती।। २।।
अर्थः– व्रतना बे भेद छे- [देशतः अणु] उपर कहेलां हिंसादि पापोनो

एकदेश त्याग ते अणुव्रत अने [सर्वतः महती] सर्वदेश त्याग ते महाव्रत छे.

टीका

१. शुभभावरूप व्यवहारव्रतना आ बे प्रकार छे. पांचमा गुणस्थाने देशव्रत होय छे अने छठ्ठा गुणस्थाने महाव्रत होय छे. आ व्यवहारव्रत आस्रव छे एम छठ्ठा अध्यायना वीसमा सूत्रमां कहेवामां आव्युं छे. निश्चयव्रतनी अपेक्षाए आ बन्ने प्रकारना व्रतो एकदेश व्रत छे (जुओ, सूत्र १ नी टीका, पारो प). सातमा गुणस्थाने निर्विकल्प दशा थतां आ व्यवहार महाव्रत पण छूटी जाय छे अने आगळनी अवस्थामां निर्विकल्प दशा विशेष विशेष द्रढ होय छे तेथी त्यां पण आ महाव्रत होतां नथी.

र. सम्यग्द्रष्टि देशव्रती श्रावक होय ते संकल्पपूर्वक त्रस जीवनी हिंसा करे नहि, करावे नहि अने अन्य कोई करे तेने भली जाणे नहि. तेने स्थावर जीवोनी हिंसानो त्याग नथी तोपण प्रयोजन विना स्थावर जीवोनी विराधना करे नहि अने प्रयोजनवश पृथ्वी, जल वगेरे जीवोनी विराधना थाय तेने भली जाणे नहि.

३. प्रश्नः– आ शास्त्रना अ. ९ ना सूत्र १८ मां व्रतने संवर गणेल छे अने अ. ९ ना सूत्र र मां तेने संवरना कारणमां गर्भित कर्युं छे; त्यां दश प्रकारना धर्ममां अथवा संयममां तेनुं गर्भितपणुं छे अर्थात् उत्तम क्षमामां अहिंसा, उत्तम सत्यमां सत्यवचन, उत्तम शौचमां अचौर्य, उत्तम ब्रह्मचर्यमां ब्रह्मचर्य अने उत्तम आकिंचन्यमां


Page 449 of 655
PDF/HTML Page 504 of 710
single page version

अ. ७ सूत्र २ ] [ ४४९ परिग्रहत्याग-ए रीते व्रतोनो समावेश तेमां आवी जाय छे, छतां अही व्रतने आस्रवनुं कारण केम कह्युं छे?

उत्तरः– तेमां दोष नथी; नवमो संवर अधिकार छे त्यां निवृत्तिस्वरूप वीतरागभावरूप व्रतने संवर कह्यो छे अने अहीं आस्रव अधिकार छे तेमां प्रवृत्ति देखाडवामां आवी छे; केम के हिंसा, असत्य, चोरी वगेरे छोडी देतां अहिंसा, सत्य, अचौर्य-दीधेली वस्तुनुं ग्रहण वगेरे क्रिया थाय छे, तेथी ते व्रत शुभकर्मोना आस्रवनुं कारण छे. ए व्रतोमां पण अव्रतोनी माफक कर्मोनो प्रवाह होय छे; तेनाथी कर्मोनी निवृत्ति थती नथी तेथी व्रतोनो समावेश आस्रव अधिकारमां कर्यो छे. (जुओ, सर्वार्थसिद्धि अध्याय ७ सूत्र १ नी टीका पा. प-६).

४. मिथ्यात्व जेवा महापापने छोडाववानी प्रवृति मुख्यताए न करवी अने केटलीक बाबतोमां हिंसा बतावीने ते छोडाववानी मुख्यता करवी ते क्रमभंग उपदेश छे.

(मोक्षमार्ग-प्रकाशक पा. १६३-१६४)

प. एकदेश वीतरागता अने श्रावकदशाने निमित्तनैमित्तिकसंबंध छे, एटले के एकदेश वीतरागता थतां श्रावकनां व्रत होय ज; ए प्रमाणे वीतरागताने अने महाव्रतने निमित्त-नैमित्तिकसंबंध छे, धर्मनी परीक्षा अंतर वीतरागभावथी थाय, बाह्य संयोगथी थाय नहि. (जुओ, मोक्षमार्ग-प्रकाशक पा. २७३)

६. आ सूत्र मां कहेला त्यागनुं स्वरूप

अहीं छद्मस्थने बुद्धिगोचर स्थूळपणानी अपेक्षाए लोकप्रवृतिनी मुख्यतासहित कह्युं छे पण केवळज्ञानगोचर सूक्ष्मपणानी अपेक्षाए कह्युं नथी, केमके तेनुं आचरण थई शकतुं नथी. तेना दष्टांतो-

(१) अहिंसा व्रत संबंधी

अणुव्रतीने त्रसहिंसानो त्याग कह्यो छे; तेने स्त्रीसेवनादि कार्योमां त्रसहिंसा तो थाय छे, वळी ए पण जाणे छे के जिनवाणीमां अहीं त्रस जीव कह्या छे, परंतु तेने त्रस जीव मारवानो अभिप्राय नथी तथा लोकमां जेनुं नाम त्रसघात छे तेने ते करतो नथी; ए अपेक्षाए तेने त्रसहिंसानो त्याग छे.

महाव्रतधारी मुनिने स्थावर हिंसानो पण त्याग कह्यो. हवे मुनि पृथ्वी, जळादिकमां गमन करे छे; त्यां त्रसनो पण सर्वथा अभाव नथी कारण के त्रसजीवोनी


Page 450 of 655
PDF/HTML Page 505 of 710
single page version

४प० ] [ मोक्षशास्त्र पण एवी सूक्ष्म अवगाहना छे के जे द्रष्टिगोचर पण थती नथी, तथा तेनी स्थिति पण पृथ्वी, जळादिकमां छे. वळी मुनि जिनवाणीथी ते जाणे छे अने कोई वेळा अवधिज्ञानादि वडे पण जाणे छे; पण मुनिने प्रमादथी स्थावर-त्रसहिंसानो अभिप्राय नथी, लोकमां भूमि खोदवी, अप्रासुक जळथी क्रिया करवी इत्यादि प्रवृत्तिनुं नाम स्थावरहिंसा छे अने स्थूळ त्रसजीवोने पीडवानुं नाम त्रसहिंसा छे. तेने मुनि करता नथी तेथी तेमने हिंसानो सर्वथा त्याग कहेवामां आवे छे.

(२) सत्यादि चार व्रतो संबंधी

मुनिने असत्य, चोरी, अब्रह्यचर्य अने परिग्रहनो त्याग छे; पण केवळज्ञानमां जाणवानी अपेक्षाए असत्यवचनयोग बारमा गुणस्थान सुधी कह्यो छे, अदत्त कर्म-परमाणु आदि पर द्रव्योनुं ग्रहण तेरमा गुणस्थान सुधी छे, वेदनो उदय नवमा गुणस्थान सुधी छे, अंतरंग परिग्रह दसमा गुणस्थान सुधी छे, तथा समवसरणादि बाह्य परिग्रह केवळी भगवानने पण होय छे; परंतु त्यां प्रमादपूर्वक पापरूप अभिप्राय नथी. लोकप्रवृत्तिमां जे क्रियाओ वडे ‘आ जूठुं बोले छे, चोरी करे छे, कुशील सेवे छे तथा परिग्रह राखे छे’ एवुं नाम पामे छे ते क्रियाओ तेमने नथी तेथी तेमने असत्यादिकनो त्याग कहेवामां आव्यो छे.

(३) मूळगुणोमां पांच इंद्रियोना विषयोनो त्याग कह्यो ते संबंधी

मुनिने मूळगुणोमां पांच इंद्रियोना विषयोनो त्याग कह्यो छे. पण इंद्रियोनुं जाणवुं तो मटतुं नथी; तथा जो विषयोमां राग-द्वेष सर्वथा दूर थया होय तो त्यां यथाख्यातचारित्र थई जाय, ते तो अहीं थयुं नथी; परंतु स्थूळपणे विषय-इच्छानो अभाव थयो छे तथा बाह्य विषयसामग्री मेळववानी प्रवृति दूर थई छे तेथी तेमने इंद्रियविषयोनो त्याग कह्यो छे.

(४) त्रसहिंसानां त्याग संबंधी

कोईए त्रसहिंसानो त्याग कर्यो, तो त्यां तेणे चरणानुयोगमां अथवा लोकमां जेने त्रसहिंसा कहे छे तेनो त्याग कर्यो छे, पण केवळज्ञान वडे जे त्रसजीवो देखाय छे तेनी हिंसानो त्याग बनतो नथी. अहीं जे त्रसहिंसानो त्याग कर्यो तेमां तो ते हिंसारूप मननो विकल्प न करवो ते मनथी त्याग छे, वचन न बोलवां ते वचनथी त्याग छे अने कायाथी न प्रवर्तवुं ते कायाथी त्याग छे. ।। २।।


Page 451 of 655
PDF/HTML Page 506 of 710
single page version

अ. ७ सूत्र २ ] [ ४प१

व्रतोमां स्थिरतानां कारणो
तत्स्थैर्यार्थं भावनाः पंच पंच।। ३।।
अर्थः– [तत् स्थैर्य अर्थ] ते व्रतोनी स्थिरता माटे [भावनाः पंच पंच] दरेक

व्रतनी पांच पांच भावनाओ छे.

कोई वस्तुनुं वारंवार चिंतवन करवुं ते भावना छे. ।। ।।
अहिंसा व्रतनी पांच भावनाओ
वाङ्मनोगुप्ती र्यादाननिक्षेपणसमित्यालोकितपान
भोजनानि पंच।। ४।।
अर्थः– [वाङ्मनोगुप्ति] वचनगुप्ति-वचनने रोकवुं, मनगुप्ति-मननी प्रवृतिने

रोकवी, [ईया आदाननिक्षेपणसमिति] इर्यासमिति-चार हाथ जमीन जोईने चालवुं. आदाननिक्षेपणसमिति-जीवरहित भूमि जोईने सावधानीथी कोई वस्तुने लेवी- मूकवी अने [आलोकितपानभोजनानी] जोईने-शोधीने भोजन-पाणी ग्रहण करवां [पंच] ए पांच अहिंसा व्रतनी भावनाओ छे.

टीका

१. जीव परद्रव्यनुं कांई करी शके नहि; तेथी वचन, मन वगेरेनी प्रवृत्तिने जीव रोकी शके नहि पण बोलवाना भावने तथा मन तरफ लक्ष करवाना भावने जीव रोकी शके; तेने वचनगुप्ति तथा मनगुप्ति कहेवाय छे. इर्यासमिति वगेरेमां पण ते ज प्रमाणे अर्थ थाय छे. जीव शरीर ने चलावी शकतो नथी पण पोते एक क्षेत्रथी बीजा क्षेत्रे जवानो भाव करे छे अने शरीर तेनी पोतानी ते वखतनी लायकातना कारणे चालवा लायक होय तो स्वयं चाले छे. ज्यारे जीव चालवानो भाव करे त्यारे घणे भागे शरीर तेनी पोतानी लायकातथी स्वयं चाले छे. - एवा निमित्तनैमित्तिकसंबंध होय छे तेथी व्यवहारनये ‘वचनने रोकवुं, मनने रोकवुं, जोई ने चालवुं, विचारीने बोलवुं’ एम कहेवामां आवे छे. ते कथननो खरो अर्थ शब्द प्रमाणे नहि पण भाव प्रमाणे थाय छे.

२. प्रश्नः– अहीं गुप्ति अने समितिने पुण्यास्रवमां गणी, अने अ. ९ ना सूत्र २ मां तेने संवरना कारणमां गणी छे. - ए रीते तो कथनमां परस्पर विरोध थशे?

उत्तरः– ए विरोध नथी; केम के अहीं गुप्ति तथा समितिनो अर्थ अशुभवचननो विरोध तथा अशुभ विचारोनो निरोध- एम थाय छे; तथा नवमा अध्यायना


Page 452 of 655
PDF/HTML Page 507 of 710
single page version

४प२ ] [ मोक्षशास्त्र बीजा सूत्रमां शुभाशुभ बन्ने भावोनो निरोध एवो अर्थ थाय छे. (जुओ, तत्त्वार्थ-सार अध्याय ४ गाथा ६३ हिंदी टीका, पा. २१९)

३. प्रश्नः– अहीं कायगुप्ति केम लीधी नथी? उत्तरः– इर्यासमिति अने आदान निक्षेपणनो अर्थ शुभकायगुप्ति थई शके छे केम के ते बन्ने प्रवृत्तिमां अशुभकायप्रवृत्तिनो निरोध सारी रीते थई जाय छे.

४. आलोकितपानभोजनमां रात्रिभोजन त्यागनो समावेश थई जाय छे. ।। ।।
सत्य व्रतनी पांच भावनाओ
क्रोधलोभभीरुत्वहास्यप्रत्याख्यानान्यनुवीचिभाषणं च पंच।। ५।।
अर्थः– [क्रोध लोभ भीरुत्व हास्यप्रत्याख्यानानि] क्रोधप्रत्याख्यान,

लोभप्रत्याख्यान, भीरुत्वप्रत्याख्यान, हास्यप्रत्याख्यान अर्थात् क्रोधनो त्याग करवो, लोभनो त्याग करवो, भयनो त्याग करवो, हास्यनो त्याग करवो, [अनुवीचि भाषणं च] अने शास्त्रनी आज्ञा अनुसार निर्दोष वचन बोलवा-[पंच] ए पांच सत्य व्रतनी भावनाओ छे.

टीका

१. प्रश्नः– सम्यग्द्रष्टि निर्भय छे तेथी निःशंक छे, अने एवी अवस्था चोथा गुणस्थाने होय छे. तो अहीं सम्यग्द्रष्टि श्रावकने अने मुनिने भयनो त्याग करवानुं केम कह्युं छे?

उत्तरः– चोथा गुणस्थाने सम्यग्द्रष्टि अभिप्राय अपेक्षाए निर्भय छे; अनंतानुबंधी कषाय होय त्यारे जे प्रकारनो भय होय छे ते प्रकारनो भय तेमने होतो नथी तेथी तेमने निर्भय कह्या छे; पण चारित्र अपेक्षाए तेओ सर्वथा निर्भय थया छे-एम कहेवानो आशय त्यां नथी. आठमा गुणस्थान सुधी भय होय छे, तेथी अहीं श्रावकने तथा मुनिने भय छोडवानी भावना करवानुं कह्युं छे.

२. प्रत्याख्यान बे प्रकारनां होय छे- एक निश्चयप्रत्याख्यान अने बीजुं व्यवहारप्रत्याख्यान. निश्चयप्रत्याख्यान ते निर्विकल्पदशारूप छे, तेमां बुद्धिपूर्वक थता शुभाशुभभावो छूटे छे; व्यवहार प्रत्याख्यान शुभभावरूप छे; तेमां सम्यग्द्रष्टिने अशुभभावो छुटीने शुभभाव रहे छे. आत्मस्वरूपना अजाण-आत्मस्वरूपनुं ज्ञान वर्तमानमां करवानी ना पाडे तेने-आत्मस्वरूपनुं ज्ञान वर्तमानमां मेळववाना उपदेश प्रत्ये जेने अरुचि होय तेने शुभभावरूप प्रत्याख्यान पण होतुं नथी; मिथ्याद्रष्टि द्रव्यलिंगी मुनि पांच महाव्रत निरतिचार पाळे पण तेने आ भावनामां बतावेल


Page 453 of 655
PDF/HTML Page 508 of 710
single page version

अ. ७ सूत्र ६-७ ] [ ४प३ प्रत्याख्यान होतां नथी. केम के आ भावनाओ पांचमा अने छठ्ठा गुणस्थाने सम्यग्द्रष्टिने ज होय छे. मिथ्याद्रष्टिने होती नथी.

३. अनुवीचि भाषण– आ भावना पण सम्यग्द्रष्टि ज करी शके, केम के तेने ज शास्त्रना मर्मनी खबर छे तेथी ते सत्शास्त्र अनुसार निर्दोष वचन बोलवाना भाव करे छे. आ भावनानुं रहस्य ए छे के, साचा सुखना शोधके शास्त्र अभ्यास करीने तेनो मर्म समजवो जोईए. शास्त्रोमां जुदे जुदे ठेकाणे प्रयोजन साधवा अनेक प्रकारनो उपदेश आप्यो छे, तेने सम्यग्ज्ञान वडे यथार्थ प्रयोजनपूर्वक ओळखे तो जीवने हित-अहितनो निश्चय थाय. माटे ‘स्यात्’ पदनी सापेक्षता सहित सम्यग्ज्ञान वडे ज जीवो प्रीतिसहित जिनवचनमां रमे छे ते जीव थोडा ज वखतमां शुद्ध आत्मस्वरूपने प्राप्त करे छे. मोक्षमार्गनो प्रथम उपाय आगमज्ञान कह्युं छे, माटे साचा आगम कया छे तेनी परीक्षा करीने आगमज्ञान मेळववुं जोईए. आगमज्ञान विना धर्मनुं सत्य साधन थई शके नहि; माटे दरेक मुमुक्षु जीवे यथार्थ बुद्धि वडे सत्य आगमनो अभ्यास करवो अने सम्यग्दर्शन प्रगट करवुं, तेनाथी ज जीवनुं कल्याण थाय छे. ।। ।।

अचौर्य व्रतनी पांच भावनाओ
शून्यागारविमोचितावासपरोपरोधाकरणभैक्ष्यशुद्धि
सघर्माऽविसंवादाः पंच।। ६।।
अर्थः– [शून्यागार विमोचितावास] शून्यागारवास-पर्वतोनी गूफा, वृक्षनी

कोटर वगेरे निर्जन स्थानोमां रहेवुं, विमोचितावास- बीजाओए छोडी दीधेला स्थानमां निवास करवो, [परोपरोधाकरण] कोई स्थान पर रहेलो बीजाओने उठाडवा नहि तथा कोई पोताना स्थानमां आवे तो तेने रोकवा नहि, [भैक्ष्यशुद्धि] शास्त्रानुसार भिक्षानी शुद्धि राखवी अने [सधर्मा अविसंवादाः] सहधर्मीओ साथे आ मारुं छे- आ तारुं छे एवो कलेश न करवो-[पंच] आ पांच अचौर्यव्रतनी भावनाओ छे.

टीका

समान धर्मना धारक जैन साधु-श्रावकोए परस्पर विसंवाद करवो नहि, केम के विसंवादथी आ मारुं-आ तारुं एवो पक्ष ग्रहण थाय छे अने तेथी अग्राह्यनुं ग्रहण करवानो संभव थाय छे. ।। ।।


Page 454 of 655
PDF/HTML Page 509 of 710
single page version

४प४ ] [ मोक्षशास्त्र

ब्रह्मचर्य व्रतनी पांच भावनाओ
स्त्रीरागकथाश्रवणतन्मनोहराङ्गनिरीक्षणपूर्वरतानुस्मरणवृष्येष्टरस–
स्वशरीरसंस्कारत्यागाः पंच।। ७।।
अर्थः– [स्त्रीरागकथाश्रवणत्यागः] स्त्रीओमां राग वधारनारी कथा

सांभळवानो त्याग, [तत् मनोहर अंगनिरीक्षण त्यागः] तेना मनोहर अंगो निरखीने जोवानो त्याग, [पूर्वरत अनुस्मरण त्यागः] अव्रत अवस्थामां भोगवेला विषयोना स्मरणनो त्याग, [वृष्येष्टरस त्यागः] कामवर्धक गरिष्ट रसोनो त्याग अने [स्व शरीर संस्कार त्यागः] पोताना शरीरना संस्कारोनो त्याग-[पंच] पांच ब्रह्मचर्य व्रतनी भावनाओ छे.

टीका

प्रश्नः– पर वस्तु आत्माने कांई लाभ-नुकशान करी शकती नथी तेमज परवस्तुनो त्याग आत्माथी थई शकतो नथी, तो पछी अहीं स्त्रीरागनी कथा सांभळवी ए वगेरेनो त्याग केम कह्यो छे?

उत्तरः– पर वस्तुओने आत्माए कदी ग्रहण करी नथी तेम ग्रहण करी पण शकतो नथी तेथी तेनो त्याग बने ज शी रीते? माटे खरेखर परनो त्याग ज्ञानीओए कह्यो छे-एम मानवुं ते याग्य नथी. ब्रह्मचर्य पालन करनाराए स्त्रीओ अने शरीर प्रत्येनो राग टाळवो जोईए माटे ते प्रत्येना रागनो त्याग करवानुं आ सूत्रमां कह्युं छे. व्यवहारनां कथनोने ज निश्चयना कथन तरीके मानवां नहि; परंतु ते कथननो जे परमार्थ अर्थ थाय ते करवो.

जो जीवने स्त्री आदि प्रत्ये राग टळी गयो होय तो ते संबंधी रागवाळी वात सांभळवा तरफ तेनी रुचिनुं वलण केम थाय? ते प्रकारणनी रुचिनो विकल्प ते तरफनो राग सूचवे छे; माटे ते रागनो त्याग करवानी भावना आ सूत्रमां जणावी छे. ।। ।।

परिग्रहत्याग व्रतनी पांच भावनाओ
मनोज्ञामनोज्ञेन्द्रियविषयरागद्वेषवर्जनानि पंच।। ८।।
अर्थः– [इन्द्रिय] स्पर्शन वगेरे पांचे इन्द्रियोना [मनोज्ञ अमनोज विषय]

इष्टअनिष्ट विषयो प्रत्ये [रागद्वेष वर्जनानि] राग-द्वेषनो त्याग करवो-[पंच] ते पांच परिग्रहत्याग व्रतनी भावनाओ छे.


Page 455 of 655
PDF/HTML Page 510 of 710
single page version

अ. ७ सूत्र ९-१० ] [ ४पप

टीका

इंद्रियो बे प्रकारनी छे-द्रव्येन्द्रिय अने भावेन्द्रिय; तेनी व्याख्या बीजा अध्यायना १७-१८ मा सूत्रनी टीकामां आपी छे-जुओ पा. २६प थी र६७, भावेन्द्रिय ते ज्ञाननो उधाड छे; ते ज पदार्थोने जाणे ते पदार्थो ज्ञानना विषय होवाथी ज्ञेय छे, पण जो ते प्रत्ये राग-द्वेष करवामां आवे तो तेने उपचारथी ईंद्रियोना विषयो कहेवामां आवे छे. खरेखर ते विषयो (ज्ञेय पदार्थो) पोते इष्ट के अनिष्ट नथी पण जीव ज्यारे राग-द्वेष करे त्यारे उपचारथी ते पदार्थोने ईष्ट- अनिष्ट कहेवाय छे. आ सूत्रमां ते पदार्थो तरफना राग-द्वेष छोडवानी भावना करवानुं जणाव्युं छे.

रागनो अर्थ लोलुपता छे अने द्वेषनो अर्थ नाराजी, तिरस्कार छे. ।। ८।।
हिंसा वगेरेथी विरक्त थवानी भावना
हिंसादिष्विहामुत्रापायावधदर्शनम्।। ९।।
अर्थः– [हिंसादिषु] हिंसा वगेरे पांच पापोथी [इह अमुत्र] आ लोकमां

तथा परलोकमां [अपायावधदर्शनम्] नाशनी (दुःख, आपत्ति, भय तथा निंधगतिनी) प्राप्ति थाय छे-एम वारंवार चिंतवन करवुं जोईए.

टीका

अपाय–अभ्युदय अने मोक्ष माटेनी जीवनी क्रियाने नाश करनारो उपाय ते अपाय छे.

अवध= निंध, निंदवायोग्य.
हिंसा वगेरे पापोनी व्याख्या सूत्र १३ थी १७ सुधीमां आवशे.
।। ।।
दुःखमेव वा।। १०।।
अर्थः– [वा] अथवा ते हिंसादिक पांच पापो [दुःखम् एव] दुःखरूप ज छे-

एम विचारवुं.

टीका

१. अहीं कारणमां कार्यनो उपचार समजवो, केम के हिंसादि तो दुःखनां कारण छे पण तेने ज कार्य अर्थात् दुःखरूप वर्णव्यां छे.

२. प्रश्नः– विषयरमणताथी तथा भोगविलासथी रतिसुख ऊपजे छे, एम अमे देखीए छीए, छतां तेने दुःखरूप केम कह्युं?


Page 456 of 655
PDF/HTML Page 511 of 710
single page version

४प६ ] [ मोक्षशास्त्र

उत्तरः– ए विषयादिमां सुखनथी, अज्ञानी लोको भ्रांतिथी तेने सुखरूप माने छे; परथी सुख थाय एम मानवुं ते मोटी भ्रमणा छे. जेम, चामडी-मांस-लोहीमां ज्यारे विकार थाय त्यारे नख-पत्थर वगेरेथी शरीरने खंजोळे छे, त्यां जो के खंजोळवाथी वधारे दुःख थाय छे छतां भ्रमणाथी सुख माने छे; तेम अज्ञानी जीव परथी सुख-दुःख माने छे ते मोटी भ्रमणा छे.

जीव पोते इंद्रियोने वश थाय ते ज स्वाभाविक दुःख छे; जो तेमने दुःख न होय तो इंद्रियविषयोमां जीव प्रवृत्ति शा माटे करे? निराकुळता ते ज साचुं सुख छे; सम्यग्दर्शन-ज्ञान विना ते सुख होई शके नहि. पोताना स्वरूपनी भ्रमणारूप मिथ्यात्व अने ते पूर्वक थतुं मिथ्याचारित्र ते ज बधा दुःखनुं कारण छे. वेदना ओछी थाय तेने अज्ञानीओ सुख माने छे, पण ते सुख नथी. वेदना ज न उपजे ते सुख छे अथवा तो अनाकुळता ते सुख छे-बीजुं नथी; अने ते सुख सम्यग्ज्ञाननुं अविनाभावी छे.

३. प्रश्नः– धनसंचयथी तो सुख देखाय छे, छतां त्यां पण दुःख केम कहो छो? उत्तरः– धनसंचय वगेरेथी सुख नथी. एक पंखी पासे मांसनो कटको पडयो होय त्यारे बीजा पंखीओ तेने चूंथे छे अने ते पंखीने पण चांचो मारे छे, त्यारे ते पंखीनी जेवी हालत थाय छे तेवी हालत धन-धान्य वगेरे परिग्रहधारी मनुष्योनी थाय छे. संपत्तिमान मनुष्यने लोको तेवी ज रीते चूंथे छे. धनने संभाळवामां पण आकुळताथी दुःखी थवुं पडे छे, एटले धनसंचयथी सुख थाय छे ए मान्यता भ्रमरूप छे. पर वस्तुथी सुख-दुःख के लाभ-नुकशान थाय एम मानवुं ते ज मोटी भ्रमणा छे. पर वस्तुमां आ जीवना सुख-दुःखनो संग्रह पडयो नथी के जेथी ते परवस्तु आ जीवने सुख-दुःख आपे.

४. प्रश्नः– हिंसादि पांच पापोथी विरक्त थवानी भावना करवानुं कह्युं, परंतु महापाप तो मिथ्यात्व छे छतां ते छोडवा संबंधी कांई केम न कह्युं?

उत्तरः– सम्यग्द्रष्टि जीवने केवा शुभास्रव होय तेनी प्ररुपणा आ अध्याय करे छे. सम्यग्द्रष्टिने मिथ्यात्वरूप महापाप तो होतुं ज नथी तेथी ते संबंधी वर्णन आ अध्यायमां नथी. आ अध्यायमां सम्यग्दर्शन पछीना व्रतसंबंधी वर्णन छे. जेणे मिथ्यात्व छोडयुं होय ते ज असंयत सम्यग्द्रष्टि देशविरति अने सर्वविरति थई शके छे. - ए सिद्धांत आ अध्यायना १८ मा सूत्रमां कह्यो छे.

मिथ्यादर्शन महापाप छे, तेने छोडवानुं पूर्वे छठ्ठा अध्यायना १३ मा सूत्रमां कह्युं छे तथा हवे पछी आठमा अध्यायना पहेला सूत्रमां कहेशे. ।। १०।।


Page 457 of 655
PDF/HTML Page 512 of 710
single page version

अ. ७ सूत्र ११ ] [ ४प७

व्रतधारी सम्यग्द्रष्टिनी भावना
मैत्रीप्रमोदकारुण्यमाध्यस्थ्यानि च सत्त्वगुणाधिक
क्लिश्यमानाविनयेषु।। ११।।
अर्थः– [सत्त्वेषु मैत्री] प्राणी मात्र प्रत्ये मैत्री-निर्वेरबुद्धि [गुणाधिकेषु

प्रमोद] अधिक गुणवानो प्रत्ये प्रमोद, [क्लिश्यमानेषु कारुण्य] दुःखी-रोगी जीवो प्रत्ये करुणा [अविनयेषु माध्यस्थ्यानि च] अने हठाग्रही-मिथ्याद्रष्टि जीवो प्रत्ये माध्यस्थभावना- आ चार भावना अहिंसादि पांच व्रतोनी स्थिरता माटे वारंवार चिंतववी योग्य छे.

टीका

१. आ चार भावना सम्यग्द्रष्टि जीवोने शुभभावरूपे होय छे. आ भावना मिथ्याद्रष्टिने होती नथी. केम के तेने वस्तुस्वरूपनो विवेक नथी.

मैत्री– बीजाने दुःख न देवानी भावना ते मैत्री छे.
प्रमोद–अधिक गुणोना धारक जीवो प्रत्ये प्रसन्नता वगेरेथी अंतरंग भक्ति
प्रगट थाय ते प्रमोद छे.
कारुण्य– दुःखी जीवोने देखीने तेमना प्रत्ये करुणाभाव थवो ते कारुण्य छे.
माध्यस्थ्य–जे जीव तत्त्वार्थश्रद्धाथी रहित छे अने तत्त्वनो उपदेश देवाथी
उलटो चिडाय छे, तेनी प्रत्ये उपेक्षा राखवी ते माध्यस्थपणुं छे.
२. आ सूत्रना अर्थनी पूर्णता करवा माटे नीचेना त्रणमांथी कोई एक वाक्य
उमेरवुं-
१. ‘तत्स्थैयर्थिम् भावयितव्यानि’ = ते अहिंसादिक पांच व्रतोनी स्थिरता

माटे भाववायोग्य छे.

२. ‘भावयतः पुर्णान्यहिंसादीनि व्रतानि भवन्ति’ = आ भावना भाववाथी

अहिंसादिक पांच व्रतोनी पूर्णता थाय छे.

३. ‘तत्स्थैर्यार्थम् भावयेत्’ = ते पांच व्रतोनी द्रढता माटे भावना करे.
[जुओ, सर्वार्थसिद्धि अ. ७. पानुं-२९]

३. ‘ज्ञानीओने अज्ञानी जीवो प्रत्ये द्वेष होतो नथी, पण करुणा होय छे; आ संबंधमां श्री आत्मसिद्धिशास्त्रनी त्रीजी गाथामां कह्युं छे के-

कोई क्रियाजड थई रह्या, शूष्क ज्ञानमां कोई,
माने मारग मोक्षनो, करुणा उपजे जोई. ३.

Page 458 of 655
PDF/HTML Page 513 of 710
single page version

४प८ ] [ मोक्षशास्त्र

अर्थः– कोई क्रियामां ज जड थई रह्या छे, कोई ज्ञानमां शूष्क थई रह्या छे अने एमां तेओ मोक्षमार्ग मानी रह्या छे ते जोईने करुणा ऊपजे छे.

४. गुणाधिक–सम्यग्ज्ञानादि गुणोमां जे प्रधान-मान्य-मोटा होय ते गुणाधिक छे.
किलश्यमान– महामोहरूप मिथ्यात्वथी जे ग्रस्त छे, कुमति-कुश्रुतादि अज्ञानथी
परिपूर्ण छे, विषयो सेववानी तीव्र तृष्णारूप अग्निथी जेओ
अत्यंतदग्ध थई रह्या छे अने वास्तविक हितनी प्राप्ति अने
अहितनो परिहार करवामां जे विपरीत छे- ते कारणे जेओ
दुःखथी पीडित छे, ते जीवो किलश्यमान छे.
अविनयीः माटीनो पिंड, लाकडुं के भींत समान जे जीव जड-अज्ञानी छे,
जेओ वस्तुस्वरूपनुं ग्रहण करवा (समजवा अने धारण करवा)
मागता नथी, विवेक शक्ति द्वारा हिताहितनो विचार करवा
मागता नथी, तर्कशक्तिथी ज्ञान करवा मागता नथी तथा
द्रढपणे विपरीत श्रद्धावाळा छे अने द्वेषादिकने वश थई
वस्तुस्वरूपने अन्यथा ग्रहण करी राखे छे, तेवा जीवो अविनयी
छे; आवा जीवोने अपद्रष्टि पण कहेवाय छे.
।। ११।।
व्रतोनी रक्षा अर्थे सम्यग्द्रष्टिनी विशेष भावना

जगत्कायस्वभावौ वा संवेगवैराग्यार्थम्।। १२।।

अर्थः– [संवेगवैराग्य अर्थम्] संवेग अर्थात् संसारनो भय अने वैराग्य

अर्थात् रागद्वेषनो अभाव-ते माटे [जगत् कायस्वभावौ वा] क्रमथी संसार अने शरीरना स्वभावनुं चिंतवन करवुं.

टीका
१. जगतनो स्वभाव

छ द्रव्योनो समूह ते जगत छे. दरेक द्रव्य अनादिअनंत छे; तेमां जीव सिवायना पांच द्रव्यो जड छे अने जीवद्रव्य चेतन छे. जीवोनी संख्या अनंत छे; पांच अचेतन द्रव्योने सुख-दुःख नथी, जीवद्रव्यने सुख-दुःख छे. अनंत जीवोमां केटलाक सुखी छे अने मोटा भागना जीवो दुःखी छे. जे जीवो सुखी छे तेओ सम्यग्ज्ञानी ज छे, सम्यग्ज्ञान वगर कोई जीव सुखी होई शके नहि; सम्यग्ज्ञाननुं कारण सम्यग्दर्शन छे; आ रीते सुखनी शरुआत सम्यग्दर्शनथी ज थाय छे, अने सुखनी पूर्णता सिद्धदशामां


Page 459 of 655
PDF/HTML Page 514 of 710
single page version

अ. ७ सूत्र १२ ] [ ४प९ थाय छे. पोतानुं स्वरूप नहि समजनारा मिथ्याद्रष्टि जीवो दुःखी छे. ते जीवोने अनादिथी बे महान भूलो चाली आवे छे; ते भूलो नीचे मुजब छे-

(१) शरीर वगेरे परद्रव्यनुं हुं करी शकुं अने परद्रव्य मारुं करी शके, एम परवस्तुथी मने लाभ-नुकशान थाय अने पुण्यथी जीवने लाभ थाय- आवी मान्यता मिथ्याद्रष्टिनी छे. आ मान्यता खोटी छे. शरीरादिनां रजकणे रजकण स्वतंत्र द्रव्य छे, जगतनुं दरेक द्रव्य स्वतंत्र छे. परमाणु द्रव्यो स्वतंत्र छे, छतां जीव तेने हलावी चलावी शके, तेनी व्यवस्था संभाळी शके ए मान्यता द्रव्योनी स्वतंत्रता छीनवी लेवा बराबर छे, अने तेमां दरेक रजकण उपर जीवनुं स्वामित्व होवानी मान्यता आवे छे; ते अज्ञानरूप मान्यता संसारनुं कारण छे. दरेक जीव पण स्वतंत्र छे; जो आ जीव परजीवोनुं कांई करी शके अगर परजीवो आ जीवनुं कांई करी शके तो एक जीव उपर बीजा जीवनुं स्वामीत्व आवी पडे अने स्वतंत्र वस्तुनो नाश थाय. पुण्यभाव ते विकार छे, स्वद्रव्यनो आश्रय चूकीने अनंत परद्रव्योना आश्रये ते भाव थाय छे, तेनाथी जीवने लाभ थाय एम माने तो ‘पराश्रय-पराधीनताथी लाभ छे अर्थात् पराधीनता ते सुख छे’-एवो सिद्धांत ठरे, पण ते मान्यता अपसिद्धांत छे-मिथ्या छे.

(२) मिथ्याद्रष्टि जीवनी अनादिथी बीजी भूल ए छे के-जीव विकारी अवस्था जेटलो ज छे अगर तो जन्मथी मरण सुधी ज छे एम मानीने पोताना दरेक समये ध्रुवरूप त्रिकाळ शुद्ध चैतन्यचमत्कारस्वरूपने ओळखतो नथी अने ते तरफ लक्ष करतो नथी.

आ बे भूलो ते ज संसार छे, ते ज दुःख छे. ते टाळ्‌या सिवाय कोई जीव सम्यग्ज्ञानी-धर्मी -सुखी थई शके नहीं . ज्यां सुधी ते मान्यता होय त्यां सुधी जीव दुःखी ज छे.

श्री समयसारशास्त्रमांथी आ संबंधी केटलाक आधारो आपवामां आवे छेः- (पा. ३८०) “ सर्व द्रव्योना परिणामो जुदा जुदा छे, पोतपोताना परिणामोना सौ द्रव्यो कर्ता छे; तेओ ते परिणामोना कर्ता छे, ते परिणामो तेमनां कर्म छे. निश्चयथी (खरेखर) कोईनो कोईनी साथे कर्ताकर्मसंबंध नथी, माटे जीव पोतानां परिणामोनो ज कर्ता छे, पोतानां परिणाम कर्म छे. एवी ज रीते अजीव पोताना परिणामनो ज कर्ता छे. पोताना परिणाम कर्म छे. आ रीते जीव बीजाना परिणामोनो अकर्ता छे.”

(पा. ३९० कलश १९९) “ जेओ अज्ञान-अंधकारथी आच्छादित थया थका आत्माने (परनो) कर्ता माने छे, तेओ भले मोक्षने इच्छनारा होय तोपण सामान्य(लौकिक) जनोनी माफक तेमनो पण मोक्ष थतो नथी.”


Page 460 of 655
PDF/HTML Page 515 of 710
single page version

४६० ] [ मोक्षशास्त्र

(पा. ३९४) “ जे व्यवहारथी मोही थईने परद्रव्यनुं कर्तापणुं माने छे ते- लौकिकजन हो के मुनिजन हो-मिथ्याद्रष्टि ज छे.”

(पा. ३९४) “ कारण के आ लोकमां एक वस्तुनो अन्य वस्तुनी साथे सघळोय संबंध ज निषेधवामां आव्यो छे, तेथी ज्यां वस्तुभेद छे अर्थात् भिन्न वस्तुओ छे त्यां कर्ताकर्म घटना होती नथी- एम मुनिजनो अने लौकिकजनो तत्त्वने (वस्तुना यथार्थ स्वरूपने) अकर्ता देखो (-कोई कोईनुं कर्ता नथी, परद्रव्य परनुं अकर्ता ज छे एम श्रद्धामां लावो).”

आवी साची बुद्धिने शिवबुद्धि अथवा कल्याणकारी बुद्धि कहेवाय छे. शरीर, स्त्री पुत्र, धन वगेरे परवस्तुओमां जीवनो संसार नथी; पण हुं ते परद्रव्योनुं कांई करी शकुं अथवा तेमनाथी मने सुख-दुःख थाय एवी ऊंधी मान्यता (मिथ्यात्व) ते ज संसार छे. संसार एटले (सं+सार) सारी रीते सरी जवुं. जीव पोताना स्वरूपनी साची मान्यतामांथी सारी रीते सरी जवानुं कार्य (अर्थात् ऊंधी मान्यतारूपी कार्य) अनादिथी करे छे तेथी ते संसारअवस्थाने प्राप्त थयो छे. आ रीते जीवनी विकारी अवस्था ते ज संसार छे, पण जीवनो संसार जीवथी बहार नथी. दरेक जीव पोते पोताना गुण-पर्यायोमां छे, पोताना गुण-पर्यायो ते जीवनुं स्व-जगत छे. जीवमां जगतना अन्य द्रव्यो नथी अने जगतनां अन्य द्रव्योमां आ जीव नथी.

आवा प्रकारे जगतना स्वरूपनुं चिंतवन सम्यग्द्रष्टि जीवो करे छे.
२. शरीरनो स्वभाव

शरीर अनंत रजकणोनो पिंड छे. कार्मणशरीर अने तैजसशरीर साथे जीवने अनादिथी संबंध छे, ते शरीरो सूक्ष्म होवाथी इंद्रियगम्य नथी. आ सिवाय जीवने एक स्थूळ शरीर होय छे; परंतु जीव ज्यारे एक शरीर छोडीने बीजुं शरीर धारण करे त्यारे वचमां जेटलो वखत लागे तेटलो वखत सुधी (एटले के विग्रहगति वखते) ते स्थूळ शरीर जीवने होतुं नथी. मनुष्यो तथा एकेंद्रियथी पंचेंद्रिय सुधीना तिर्यंचोने जे स्थूळ शरीर होय छे ते औदारिकशरीर छे, अने देव तथा नारकीओने वैक्रियिक शरीर होय छे. आ सिवाय एक आहारक शरीर थाय छे, आ शरीर स्थूळ होय छे अने विशुद्ध संयमना धारक मुनिराजने ज ते होय छे. आ पांचे प्रकारना शरीरो खरेखर जड छे-अचेतन छे एटले खरी रीते ते शरीरो जीवना नथी. कार्मणशरीर तो इंद्रियथी देखातुं नथी; छतां पण ‘संसारी जीवोने कार्मणशरीर होय छे’ एवुं


Page 461 of 655
PDF/HTML Page 516 of 710
single page version

अ. ७ सूत्र १२ ] [ ४६१ व्यवहारकथन सांभळीने तेनो खरो आशय समजवाने बदले तेने निश्चयकथन मानी लईने अज्ञानीओ खरेखर जीवनुं ज शरीर होय-एम मानी ले छे.

शरीर अनंत रजकणोनो पिंड छे अने ते दरेक रजकण स्वतंत्र द्रव्य छे; ते हलनचलनादिरूप पोतानी अवस्था पोताना कारणे स्वतंत्रपणे धारण करे छे. दरेक परमाणु द्रव्य पोतानी नवी पर्याय समये-समये उत्पन्न करे छे अने जूनी पर्यायनो अभाव करे छे. आ रीते पर्यायना उत्पाद-व्ययरूप कार्य करता थका ते दरेक परमाणु ध्रुवपणे हंमेशा टकी रहे छे. आ रीते जगतमां समस्त द्रव्यो टकीने बदलनारा (Permanent with a Change) छे. आम होवा छतां शरीरना अनंत परमाणुद्रव्योनी पर्याय जीव करी शके एवी भ्रमणा अज्ञानी जीव सेवे छे, अने जगतना अज्ञानीओ तरफथी जीवने पोतानी ते ऊंधी मान्यतानुं बळवानपणे पोषण मळ्‌या करे छे. शरीर साथेनी एकत्वबुद्धि ते आ अज्ञाननुं कारण होवाथी तेना फळरूपे; जीवने पोताना विकारभावो अनुसार नवा नवा शरीरनो संयोग थया करे छे. आ भूल टाळवा माटे चेतन अने जड वस्तुना स्वभावनी स्वतंत्रता समजवानी जरूर छे.

आ वस्तुस्वभावने सम्यग्द्रष्टि जीवो सम्यग्ज्ञानथी जाणे छे. आ सम्यग्ज्ञान अने साची मान्यताने विशेष स्थिर-निश्चल करवा माटे तेनो वारंवार विचार- चिंतवन करवानुं अहीं कह्युं छे.

३. संवेग

सम्यग्दर्शनादि धर्ममां तथा तेना फळमां उत्साह होवो अने संसारनो भय होवो ते संवेग छे. पर वस्तु ते संसार नथी पण पोतानो विकारीभाव ते संसार छे. ते विकारीभावनो भय राखवो एटले के ते विकारीभाव न थवानी भावना राखवी, अने वीतरागदशानी भावना वधारवी. सम्यग्द्रष्टि जीवोने संपूर्ण वीतरागता न प्रगटे त्यां सुधी अनित्य राग-द्वेष रहे छे, तेनाथी भय राखवानुं अहीं कह्युं छे. जेम बने तेम विकारभाव थवा देवो नहि, अने जे विकार थाय तेमां पण अशुभ तो थवा देवो नहि, अशुभ टाळतां शुभ रही जाय तेने पण धर्म मानवो नहि, पण ते टाळवानी भावना करवी.

४. वैराग्य

राग-द्वेषनो अभाव ते वैराग्य आ शब्द ‘नास्ति’ वाचक छे; परंतु कंईक अस्ति वगर नास्ति होय नहि. ज्यारे जीवमां राग-द्वेषनो अभाव होय त्यारे शेनो सदभाव होय? जीवमां जेटला अंशे राग-द्वेषनो अभाव छे तेटला अंशे वीतरागता-


Page 462 of 655
PDF/HTML Page 517 of 710
single page version

४६२ ] [ मोक्षशास्त्र ज्ञान-आनंद-सुखनो सद्भाव थाय छे. सम्यग्द्रष्टि जीवोने संवेग अने वैराग्यने माटे जगत अने शरीरना स्वभावनुं वारंवार चिंतवन करवानुं अहीं जणाव्युं छे.

प. विशेष खुलासा

प्रश्नः– जो जीव शरीरनुं कांई करतो नथी अने शरीरनी क्रिया तेनाथी स्वयं ज थाय छे, तो शरीरमांथी जीव नीकळी गया पछी शरीर केम चालतुं नथी?

उत्तरः– परिणामो (पर्यायनो फेरफार) पोतपोताना द्रव्यना आश्रये थाय छे; एक द्रव्यना परिणामने अन्य द्रव्यनो आश्रय होतो नथी. वळी कोई पण कर्म (कार्य) कर्ता विना होतुं नथी; तेम ज वस्तुना एकरूपे स्थिति होती नथी. आ सिद्धांत प्रमाणे मृतकशरीरना पुद्गलोनी लायकात ज्यारे लंबाईरूपे स्थिर पडी रहेवानी होय छे त्यारे तेओ तेवी दशामां पडया रहे छे, अने ते मृतकशरीरना पुद्गलोना पिंडनी लायकात ज्यारे घरबहार अन्यत्र क्षेत्रांतर थवानी होय त्यारे तेओ पोताना कारणे क्षेत्रांतर थाय छे; अने ते वखते रागी जीव वगेरे निमित्तपणे- हाजररूप होय छे, पण ते रागीजीव वगेरे पदार्थोए मडदानी अवस्था करी नथी. मडदानां पुद्गलो स्वतंत्र वस्तु छे; ते दरेक रजकणनुं परिणमन तेना पोताना कारणे थाय छे; ते रजकणोनी जे वखते जेवी हालत थवा योग्य होय तेवी ज हालत तेना स्वाधीनपणे थाय छे. परद्रव्योनी अवस्थामां जीवनुं कांई पण कर्तापणुं नथी. एटली वात खरी छे के, ते वखते रागी जीवने पोतामां जे कषायवाळो उपयोग अने योग थाय छे तेनो कर्ता ते जीव पोते छे.

संसार (अर्थात् जगत) अने शरीरना स्वभावनो यथार्थ विचार सम्यग्द्रष्टि ज करी शके छे. जेओने जगत अने शरीरना स्वभावनुं यथार्थ भान नथी एवा जीवो-(-मिथ्याद्रष्टि जीवो), ‘आ शरीर अनित्य छे, संयोगी छे; जेनो संयोग थाय तेनो वियोग थाय छे’ ए प्रकारे शरीराश्रित मान्यताथी उपलक वैराग्य (अर्थात् मोहगर्भित के द्वेषगर्भित वैराग्य) प्रगट करे छे, पण ते खरो वैराग्य नथी. सम्यग्ज्ञानपूर्वकनो वैराग्य ते ज साचो वैराग्य छे. आत्माना स्वभावने जाण्या वगर यथार्थ वैराग्य होय नहि. आत्माना भान वगर, मात्र जगत अने शरीरनी क्षणिकताने लक्षे थयेलो वैराग्य ते अनित्य जाग्रीका छे, ते भावमां धर्म नथी. सम्यग्द्रष्टिने पोताना असंयोगी नित्य ज्ञायक स्वभावना लक्षपूर्वक अनित्यभावना होय छे, ते ज साचो वैराग्य छे. ।। १२।।


Page 463 of 655
PDF/HTML Page 518 of 710
single page version

अ. ७ सूत्र १३ ] [ ४६३

हिसां–पापनुं लक्षण
प्रमत्तयोगात्प्राणव्यपरोपणं हिंसा।। १३।।
अर्थः– [प्रमत्तयोगात्] कषाय-राग-द्वेष अर्थात् अयत्नाचार (असावधानी,

प्रमाद) ना संबंधथी-अथवा तो प्रमादी जीवना मन-वचन-काययोगथी [प्राणव्यपरोपणं] जीवना भावप्राणनो, द्रव्यप्राणनो, अगर ते बन्नेनो वियोग करवो ते [हिंसा] हिंसा छे.

टीका
१. जैनशासननुं आ एक महासूत्र छे; ने ते बराबर समजवानी जरूर छे.
आ सुत्रमां
‘प्रमत्तयोगात्’ शब्द भाववाचक छे; ते एम बतावे छे के, प्राणोनो

वियोग थवा मात्रथी हिंसानुं पाप नथी पण प्रमादभाव ते हिंसा छे अने तेनाथी पाप छे. शास्त्रोमां कह्युं छे के- प्राणीओना प्राणोथी जुदा थवा मात्रथी हिंसानो बंध थतो नथी; जेम के इर्यासमितिवाळा मुनिने तेमना नीकळवाना स्थानमां कोई जीव आवी पडे अने पगना संयोगथी ते जीव मरी जाय तो त्यां ते मुनिने ते जीवना मृत्युना निमित्ते जरा पण बंध थतो नथी, केमके तेमना भावमां प्रमादयोग नथी.

२. आत्माना शुद्धोपयोगरूप परिणामने घातवावाळो भाव ते संपूर्ण हिंसा छे; खरेखर रागादि भावोनी उत्पत्ति न थवी ते अहिंसा छे अने ते रागादि भावोनी उत्पत्ति थवी ते हिंसा छे-आवुं जैनशास्त्रनुं टुंकुं रहस्य छे.

(पुरुषार्थसिद्धि उपाय गाथा ४२-४४)

३. प्रश्नः– जीव मरे के न मरे, तोपण प्रमाद योगथी (अयत्नाचारथी) निश्चय हिंसा थाय छे, तो पछी अहीं सूत्रमां ‘प्राणव्यपरोपणं’ ए शब्द शा माटे वापर्यो छे?

उत्तरः– प्रमादयोगथी जीवना पोताना भावप्राणोनुं मरण अवश्य थाय छे. प्रमादमां प्रवर्ततां, जीव प्रथम तो पोताना ज शुद्धभावप्राणोनो वियोग करे छे; पछी त्यां अन्य जीवना द्रव्य प्राणोनो वियोग (व्यपरोपण) थाय के न थाय, तोपण पोताना भावप्राणोनुं मरण तो अवश्य थाय छे-एम बताववा माटे ‘प्राणव्यपरोपणं’ शब्द वापर्यो छे.

४. जे पुरुषने क्रोधादिक कषाय प्रगट थाय छे तेने पोताना शुद्धोपयोगरूप भावप्राणोनो घात थाय छे. कषायना प्रगटवाथी जीवना भावप्राणोनुं जे व्यपरोपण थाय छे ते भाव हिंसा छे अने ते हिंसा वखते जो सामा जीवना प्राणनो वियोग थाय तो ते द्रव्यहिंसा छे.

प. आत्मामां विभाव भावोनी उत्पत्ति थाय तेनुं नाम ज भावहिंसा छे, -आ जैन सिद्धांतनुं रहस्य छे. धर्मनुं लक्षण ज्यां अहिंसा कह्युं छे त्यां ‘रागादिविभाव-


Page 464 of 655
PDF/HTML Page 519 of 710
single page version

४६४ ] [ मोक्षशास्त्र भावोनो अभाव ते अहिंसा’ एम समजवुं माटे रागादि विभाव रहित पोतानो स्वभाव छे एवा भावपूर्वक जे प्रकारे जेटलो बने तेटला पोताना रागादि भावोनो नाश करवो ते धर्म छे. मिथ्याद्रष्टि जीवने रागादि भावोनो नाश थतो नथी; तेने दरेक समये भावमरण थया ज करे छे; भावमरण ते ज हिंसा छे, तेथी तेने धर्मनो अंश पण नथी.

६. इंद्रियोनी प्रवृत्ति पापमां हो के पुण्यमां हो, पण ते प्रवृत्ति टाळवा विचार न करवो ते प्रमाद छे. (तत्त्वार्थसार पा. २२३).

७. आ हिंसा-पापमां असत्य वगेरे बीजा चारे पापो समाई जाय छे. असत्य वगेरे भेदो तो शिष्यने समजाववा माटे द्रष्टांतरूपे जुदा कह्यां छे.

८. कोई जीव बीजाने मारवा चाहतो होय पण प्रसंग न मळवाथी मारी न शकयो, तोपण ते जीवने हिंसानुं पाप तो लाग्युं, केम के ते जीव प्रमादभाव सहित छे अने प्रमादभाव ते ज भावप्राणोनी हिंसा छे.

९. जे एम माने छे के‘हुं पर जीवोने मारुं छुं अने पर जीवो मने मारे छे’ ते मूढ छे, अज्ञानी छे, अने आनाथी विपरीत-अर्थात् जे आवुं नथी मानतो ते - ज्ञानी छे (जुओ, समयसार गाथा-२४७)

जीवोने मारो के न मारो-अध्यवसानथी ज कर्मबंध थाय छे. सामो जीव मरे के न मरे ते कारणे बंध नथी (जुओ, समयसार गा. २६२).

१०. ‘योग’नो अर्थ अहीं संबंध थाय छे. ‘प्रमत्तयोगात्’ एटले प्रमादना संबंधथी. वळी, मन-वचन-कायाना लक्षे आत्माना प्रदेशोनुं हलन-चलन ते योगएवो अर्थ पण अहीं थई शके छे. प्रमादरूप परिणामना संबंधथी थतो योग ते ‘प्रमत्तयोग’ छे.

११. प्रमादना पंदर भेद छे-४ विकथा (स्त्रीकथा, भोजनकथा, राजकथा, चोरकथा), प पांच इंद्रियना विषयो, ४ कषाय (क्रोध, मान, माया, लोभ), १ निद्रा अने १ प्रणय. इंद्रियादि तो निमित्त छे अने जीवनो असावधान भाव ते उपादानकारण छे. प्रमादनो अर्थ पोताना स्वरूपनी असावधानी-एवो पण थाय छे.

१२. तेरमा सूत्रनो सिद्धांत

जीवनो प्रमत्तभाव ते शुद्धोपयोगनो घात करे छे माटे ते हिंसा छे; अने स्वरूपना उत्साहथी शुद्धोपयोगनो जेटले अंशे घात न थाय तेटले अंशे अहिंसा छे. मिथ्याद्रष्टिने खरी अहिंसा कदी होती नथी. ।। १३।।


Page 465 of 655
PDF/HTML Page 520 of 710
single page version

अ. ७ सूत्र १४ ] [ ४६प

असत्यनुं स्वरूप
असदभिधानमनृतम्।। १४।।
अर्थः– प्रमादना योगथी [असत् अभिधानं] जीवोने दुःखदायक अथवा

मिथ्यारूप वचन बोलवां ते [अनृतम्] असत्य छे.

टीका

१. प्रमादना संबंधथी जूठुं बोलवुं ते असत्य छे. जे शब्दो नीकळे छे ते तो पुद्गल द्रव्यनी अवस्था छे, तेने जीव परिणमावतो नथी, तेथी मात्र शब्दोना उच्चारनुं पाप नथी पण जीवनो असत्य बोलवानो प्रमादभाव ते ज पाप छे.

र. सत्यनुं परमार्थ स्वरूप

(१) आत्मा सिवाय बीजो कोई पदार्थ आत्मानो थई शकतो नथी, बीजा कोईनुं आत्मा करी शकतो नथी-आम वस्तुस्वरूपनो निश्चय करवो जोईए; अने देह, स्त्री, पुत्र, मित्र, धन, धान्य, गृह वगेरे पर वस्तुओना संबंधमां व्यवहारथी भाषा बोलतां ए उपयोग (-अभिप्राय) राखवो जोईए के ‘हुं आत्मा छुं, एक आत्मा सिवाय बीजुं कोई मारुं नथी; ए कोईनुं हुं कांई करी शकतो नथी.’ अन्य आत्माना संबंधमां बोलतां पण ए उपयोग (अभिप्राय) राखवो जोईए के ‘जाति, लिंग इंद्रियादिक उपचरित भेदवाळो ते आत्मा खरेखर नथी, पण प्रयोजन पूरतुं व्यवहारनयथी संबोधवामां आवे छे.’ जो आ रीतनी ओळखाणना उपयोगपूर्वक सत्य बोलवानो भाव होय तो ते पारमार्थिक सत्य छे. वस्तुस्वरूपना भान वगर सत्य परमार्थे होय नहि. आ संबंधी स्पष्ट समजाववामां आवे छे-

. कोई जीव आरोपित वात करतां ‘मारो देह, मारुं घर, मारी स्त्री, मारा

पुत्र’ इत्यादि प्रकारे भाषा बोले छे; ते वखते, हुं ते अन्य द्रव्योथी भिन्न छुं, कोई खरेखर मारां नथी, हुं तेमनुं कांई करी शकतो नथी’ आवुं जो ते जीवने स्पष्टपणे भान होय तो ते परमार्थ सत्य कहेवाय.

. कोई ग्रंथकार श्रेणिक राजा अने चेलणा राणीनुं वर्णन करतां होय; ते

वखते ‘ते बन्ने आत्मा हता. अने मात्र श्रेणिकना भव-आश्रये तेमनो संबंध हतो’ ए वात जो तेमना लक्षमां होय अने ग्रंथ रचवानी प्रवृत्ति करे, तो ते परमार्थ सत्य छे. (जुओ, श्रीमद् राजचंद्र आवृत्ति २. पानुं ६१३)