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अ. ६ सूत्र १९-२० ] [ ४२प
१. आ सूत्रने सत्तरमा सूत्रथी जुदुं लखवानुं कारण ए छे के आ सूत्रमां जणावेली बाबत देवायुना आस्रवनुं पण कारण थाय छे.
केम के निजस्वभाव बंधनुं कारण होय नहि. अहीं ‘स्वभाव’ नो अर्थ ‘कोईए शीखव्या वगर’ एम थाय छे. मार्दव पण आत्मानो एक शुद्धभाव छे. परंतु अहीं ‘मार्दव’ नो अर्थ ‘शुभभावरूप (मंदकषायरूप) सरळ परिणाम’ एम करवो; केम के शुद्धभावरूप मार्दव छे ते बंधनुं कारण नथी पण शुभभावरूप मार्दव छे ते ज बंधनुं कारण छे. ।। १८।।
बधा प्रकारनां आयुना आस्रवनुं कारण छे.
१. प्रश्नः– जे व्रत अने शील रहित होय तेने देवायुनो आस्रव केम थाय? उत्तरः– भोगभूमिना जीवोने शील-व्रतादि नथी तोपण देवायुनो ज आस्रव थाय छे.
र. ए वात खास लक्षमां राखवी के मिथ्याद्रष्टिने साचां शील के व्रत होतां नथी. मिथ्याद्रष्टि जीव गमे तेवा शुभरागरूप शीलव्रत पाळतो होय तोपण ते साचां शीलव्रतरहित ज छे. सम्यग्द्रष्टि थया पछी जीव अणुव्रत के महाव्रत धारण करे तेटलाथी ते जीव आयुना बंधरहित थई जतो नथी; सम्यग्द्रष्टिनां साचां अणुव्रत अने महाव्रत देवायुना आस्रवनुं कारण छे केम के ते पण राग छे. मात्र वीतरागभाव ज बंधनुं कारण न थाय; कोई पण प्रकारनो राग होय ते तो आस्रव अने बंधनुं कारण थाय ज. हवे पछीना (र० मा) सूत्रमां ते स्पष्ट कर्युं छे. ‘बाळतप’ आस्रवनुं कारण छे एम १र तथा र० मा सूत्रमां कह्युं छे. ।। १९।।
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४२६ ] [ मोक्षशास्त्र
संयमासंयम, अकामनिर्जरा अने बाळतप [देवस्य] ते देवायुना आस्रवनां कारणो छे.
१. आ सूत्रमां जणावेला भावोना अर्थ पूर्वे १र मा सूत्रनी टीकामां आवी गया छे. जुओ पानुं ४३१. परिणामो बगडया वगर मंदकषाय राखीने दुःख सहन करवुं ते अकामनिर्जरा छे.
र. मिथ्याद्रष्टिने सरागसंयम अने संयमासंयम होतां नथी पण ‘बाळतप’ होय छे; माटे बाह्य व्रत धारण कर्यां होय ते उपरथी ते जीवने सरागसंयम के संयमासंयम छे-एम मानी लेवुं नहि. सम्यग्दर्शन थया पछी पांचमा गुणस्थाने अणव्रत अर्थात् संयमासंयम अने छठ्ठा गुणस्थाने महाव्रत अर्थात् सरागसंयम होय छे. सम्यग्दर्शन होवा छतां अणुव्रत के महाव्रत न होय एम पण बने छे. तेवा जीवोने वीतरागदेवनां दर्शन-पूजा, स्वाध्याय, अनुकंपा इत्यादि शुभभाव होय छे; पहेलाथी चोथा गुणस्थान सुधी ते जातना शुभभाव होय छे; पण त्यां व्रत होतां नथी. अज्ञानीना मानेलां व्रत अने तपने बाळव्रत अने बाळतप कह्यां छे. ‘बाळतप’ शब्द तो आ सूत्रमां जणाव्यो छे अने बाळव्रतनो समावेश उपरना (१९ मा) सूत्रमां थाय छे. (जुओ, सूत्र १र तथा र१नी टीका.)
३. अहीं पण ए जाणवुं के सरागसंयम अने संयमासंयममां जेटलो वीतरागीभावरूप संयम प्रगटयो छे ते आस्रवनुं कारण नथी पण तेनी साथे जे राग वर्ते छे ते आस्रवनुं कारण छे. ।। र०।।
सम्यग्दर्शन साथे रहेलो राग ते पण देवायुना आस्रवनुं कारण छे,
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अ. ६ सूत्र २२ ] [ ४२७ नथी तोपण ते भूमिकामां जे रागांश मनुष्य अने तिर्यंचने होय छे ते देवायुना आस्रवनुं कारण थाय छे. सरागसंयम अने संयमासंयम संबंधमां पण ए ज प्रमाणे छे ते उपर कहेवाई गयुं छे.
र. देवायुना आस्रवनां कारण संबंधी र० मुं सूत्र कह्या पछी आ सूत्र जुदुं लखवानुं प्रयोजन ए छे के, सम्यग्द्रष्टि मनुष्य तथा तिर्यंचने जे राग होय छे ते वैमानिक देवायुना ज आस्रवनुं कारण थाय छे, हलका देवोनां आयुनुं कारण ते राग थतो नथी.
३. सम्यग्द्रष्टिने जेटला अंशे राग नथी तेटला अंशे आस्रव-बंध नथी अने जेटला अंशे राग छे तेटला अंशे आस्रव-बंध छे. (जुओ, श्री अमृतचंद्राचार्यकृत पुरुषार्थसिद्धि उपाय गाथा र१र थी र१४) सम्यग्दर्शन पोते अबंध छे अर्थात् ते पोते कोई प्रकारना बंधनुं कारण नथी. मिथ्याद्रष्टिने कोई पण अंशे रागनो अभाव होय एम बनतुं ज नथी तेथी ते संपूर्णपणे हंमेशां बंधभावमां ज होय छे.
योगवक्रता विसंवादनं चाशुभस्य नाम्नः।। २२।।
अर्थात् अन्यथा प्रवर्तन ते [अशुभस्य नाम्नः] अशुभनामकर्मना आस्रवनुं कारण छे.
१. आत्माना प्रदेशोनुं परिस्पंदन ते योग छे (जुओ, आ अध्यायना पहेला सूत्रनी टीका). एकेलो योग मात्र सातावेदनीयना आस्रवनुं कारण छे. योगमां वक्रता होती नथी पण उपयोगमां वक्रता (-कुटिलता) होय छे. जे योगनी साथे उपयोगनी वक्रता रहेली होय ते अशुभनामकर्मना आस्रवनुं कारण छे. आस्रवना प्रकरणमां योगनुं मुख्यपणुं छे अने बंधना प्रकरणमां बंधपरिणामोनुं मुख्यपणुं छे; तेथी आ अध्यायमां अने आ सूत्रमां योग शब्द वापर्यो छे. परिणामोनुं वक्रपणुं जड-मन, वचन के काया-मां होतुं नथी तेम ज योगमां पण होतुं नथी पण उपयोगमां होय छे. अहीं आस्रवनुं प्रकरण होवाथी अने आस्रवनुं कारण योग होवाथी, उपयोगनी
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४२८ ] [ मोक्षशास्त्र वक्रताने उपचारथी योग-वक्रता कहेल छे; योगना विसंवादन संबंधमां पण ते प्रमाणे समजी लेवुं.
र. प्रश्नः– विसंवादननो अर्थ अन्यथा प्रवर्तन एवो थाय छे अने तेनो समावेश वक्रतामां थई जाय छे छतां ‘विसंवादन’ शब्द जुदो शा माटे कह्यो?
उत्तरः– जीवनी पोतानी अपेक्षाए योग वक्रता कहेवाय छे अने परनी अपेक्षाए विसंवादन कहेवाय छे. मोक्षमार्गमां प्रतिकूळ एवी मन-वचन-काया द्वारा खोटी प्रयोजना करवी ते योग वक्रता छे अने बीजाने तेम करवानुं कहेवुं ते विसंवादन छे. कोई जीव शुभ करतो होय तेने अशुभ करवानुं कहेवुं ते पण विसंवादन छे. कोई जीव शुभराग करतो होय अने तेमां धर्म मानतो होय तेने एम कहेवुं के, शुभरागथी धर्म न थाय पण बंध थाय अने साची समजण तथा वीतराग भावथी धर्म थाय; आवो उपदेश आपवो ते विसंवादन नथी केम के तेमां तो सम्यक् न्यायनुं प्रतिपादन छे, तेथी ते कारणे अशुभ बंध थाय नहि.
चित्तनुं अस्थिरपणुं, कपटरूप माप-तोल, परनी निंदा, पोतानी प्रशंसा इत्यादिनो समावेश थई जाय छे. ।। रर।।
कारणो कह्यां तेनाथी विपरीतभावो [शुभस्य] शुभनामकर्मना आस्रवनां कारणो छे.
१. बावीसमां सूत्रमां योगनी वक्रता अने विसंवादनने अशुभकर्मना आस्रवनां कारणो कह्यां छे तेनाथी विपरीत एटले सरळता होवी अने अन्यथा प्रवृत्तिनो अभाव होवो ते शुभनामकर्मना आस्रवनां कारणो छे.
र. अहीं ‘सरळता’ शब्दनो अर्थ ‘पोताना शुद्धस्वभावरूप सरळता’ एम न समजवो पण ‘शुभभावरूप सरळता’ एम समजवो. अन्यथा प्रवृत्तिनो अभाव ते पण शुभभावरूप समजवो. शुद्धभाव तो आस्रव-बंधनुं कारण होय नहि. ।। र३।।
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अ. ६ सूत्र २४ ] [ ४२९
प्रवचनवत्सलत्वमितिती–थकरत्वस्य।। २४।।
विनयसम्पन्नता, [शीलव्रतेषु अनतोचारो] ३-शील अने व्रतोमां अनतिचार, [अभिक्ष्णज्ञानोपयोगः] ४-निरंतर ज्ञानोपयोग, [संवेगः] प-संवेग अर्थात् संसारथी भयभीत होवुं, [शक्तितः त्याग तपसी] ६-७-शक्ति अनुसार त्याग तथा तप करवो, [साधुसमाधिः] ८-साधु-समाधि, [वैयावृत्यकरणम्] ९-वैयावृत्य करवी, [अर्हत् आचार्य बहुश्रुत प्रवचन भक्तिः] १०-१३-अर्हत्-आचार्य-बहुश्रुत (उपाध्याय) अने प्रवचन प्रत्ये भक्ति, [आवश्यक अपरिहाणिः] १४-आवश्यकमां हानि न करवी, [मार्गप्रभावनाः] १प-मार्ग प्रभावना अने [प्रवचनवत्सलत्वम्] १६-प्रवचन-वात्सल्य [इति तीर्थंकरत्वस्य] ए सोळ भावना तीर्थंकरनामकर्मना आस्रवनां कारणो छे.
१. आ बधी भावनाओमां दर्शनविशुद्धि मुख्य छे, तेथी प्रथम ज ते जणावेल छे; तेना अभावमां बीजी बधी भावना होय तोपण तीर्थंकरनामकर्मनो आस्रव थतो नथी, अने तेना सद्भावमां बीजी भावनाओ होय के न होय तोपण तीर्थंकरनामकर्मनो आस्रव थाय छे.
दर्शनविशुद्धि एटले सम्यग्दर्शननी विशुद्धि. सम्यग्दर्शन पोते आत्मानो शुद्ध पर्याय होवाथी ते बंधनुं कारण नथी, पण सम्यग्दर्शननी भूमिकामां एक खास प्रकारनी कषायनी विशुद्धि थाय छे ते तीर्थंकरनामकर्मना बंधनुं कारण थाय छे. द्रष्टांतः- वचनकर्मने (अर्थात् वचनरूपी कार्यने) योग कहेवाय छे. परंतु ‘वचन योग’नो अर्थ ‘वचनद्वारा थतुं आत्मकर्म ते योग’ एवो थाय छे, केम के जड वचन कांई बंधनुं कारण नथी. आत्मामां जे आस्रव थाय छे ते आत्मानी चंचळताथी थाय छे,
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४३० ] [ मोक्षशास्त्र पुद्गलथी थतो नथी; पुद्गल तो निमित्तमात्र छे. सिद्धांतः- दर्शनविशुद्धिने तीर्थंकरनामकर्मना आस्रवनुं कारण कह्युं छे, त्यां खरेखर दर्शननी शुद्धि पोते आस्रव- बंधनुं कारण नथी पण राग ज बंधनुं कारण छे. तेथी दर्शनविशुद्धिनो अर्थ ‘दर्शन साथे रहेलो राग’ एम समजवो योग्य छे. कोई पण प्रकारना बंधनुं कारण कषाय ज छे, सम्यग्दर्शनादि बंधनां कारण नथी. सम्यग्दर्शन के जे आत्माने बंधथी छोडावनारुं छे ते पोते बंधनुं कारण केम थई शके? तीर्थंकरनामकर्म ते पण आस्रव- बंध ज छे; तेथी तेनुं कारण पण सम्यग्दर्शनादि खरेखर नथी. सम्यग्द्रष्टि जीवने जिनोपद्रिष्ट निर्ग्रंथ मोक्षमार्गमां जे दर्शन संबंधी धर्मानुराग थाय छे ते दर्शनविशुद्धि छे. सम्यग्दर्शनना शंकादि दोषो टळी जवाथी ते विशुद्धि थाय छे. (जुओ, तत्त्वार्थसार अध्याय ४, गाथा ४९ थी पर नी टीका पा. रर१.)
१. विनयथी परिपूर्ण रहेवुं ते विनयसंपन्नता छे. सम्यग्ज्ञानादि गुणोनो तथा ज्ञानादि गुणसंयुक्त ज्ञानीनो आदर उत्पन्न थवो ते विनय छे. आ विनयमां जे राग छे ते आस्रव-बंधनुं कारण छे.
र. विनय बे प्रकारना छे-एक शुद्धभावरूप विनय छेः तेने निश्चयविनय पण कहेवामां आवे छे; पोताना शुद्धस्वरूपमां टकी रहेवुं ते निश्चयविनय छे. आ विनय बंधनुं कारण नथी. बीजो शुभभावरूप विनय छे, तेने व्यवहारविनय पण कहेवामां आवे छे. अज्ञानीने साचो विनय होतो ज नथी. सम्यग्द्रष्टिने शुभभावरूप विनय होय छे अने ते तीर्थंकरनामकर्मना आस्रवनुं कारण छे. छठ्ठा गुणस्थान पछी व्यवहारविनय होतो नथी पण निश्चयविनय होय छे.
‘शील’ शब्दना त्रण अर्थ थाय छेः- १. सत्स्वभाव, र. स्वदारा संतोष अने ३. दिग्व्रत वगेरे सात व्रत जे अहिंसादि व्रतना रक्षणार्थ होय छे ते. सत् स्वभावनो अर्थ क्रोधादि कषायने वश न थवुं ते. आ शुभभाव छे, अतिमंद कषाय होय त्यारे ते थाय छे. ‘शील’नो पहेलो अने त्रीजो अर्थ अहीं लेवो; बीजो अर्थ ‘व्रत’ शब्दमां आवी जाय छे. अहिंसा आदि व्रतो छे. अनतिचार एटले दोष रहितपणुं,
अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग एटले सदा ज्ञानोपयोगमां रहेवुं ते; सम्यग्ज्ञानद्वारा प्रत्येक कार्यमां विचार करीने तेमां प्रवृत्ति करवी ते ज्ञानोपयोगनो अर्थ छे. ज्ञाननुं साक्षात्
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अ. ६ सूत्र २४ ] [ ४३१ तेम ज परंपरा फळ विचारवुं. अज्ञाननी निवृत्ति अने हिताहितनी समजण साचा ज्ञानथी ज थाय छे; तेथी ते पण ज्ञानोपयोगनो अर्थ छे. माटे साचा ज्ञानने पोतानुं हितकारी मानवुं जोईए. ज्ञानोपयोगमां जे वीतरागता छे ते बंधनुं कारण नथी पण जे शुभभावरूप राग छे ते बंधनुं कारण छे.
नित्य संसारना दुःखोथी भीरुतानो भाव ते संवेग छे; तेमां जे वीतरागभाव छे ते बंधनुं कारण नथी पण जे शुभराग छे ते बंधनुं कारण छे. सम्यग्द्रष्टिओने जे व्यवहार संवेग होय छे ते रागभाव छे; ज्यारे निर्विकल्पदशामां न रही शकाय त्यारे तेवो संवेगभाव निरंतर होय छे.
१. त्याग बे प्रकारना छे- शुद्धभावरूप अने शुभभावरूप; तेमां जेटले अंशे शुद्धता होय तेटले अंशे वीतरागता छे अने ते बंधनुं कारण नथी. सम्यग्द्रष्टिने शुभभावरूप त्याग शक्ति-अनुसार होय छे; शक्तिथी हीन के अधिक होतो नथी, शुभरागरूप त्यागभाव बंधनुं कारण छे.
‘त्याग’नो अर्थ ‘दान देवुं’ एवो पण थाय छे. र. इच्छा-निरोध ते तप छे एटले के शुभाशुभभावनो निरोध ते तप छे; आ तप सम्यग्द्रष्टिने ज होय छे; तेने निश्चयतप कहेवाय छे. सम्यग्द्रष्टिने जेटले अंशे वीतरागभाव छे तेटले अंशे निश्चयतप छे अने ते बंधनुं कारण नथी; पण जेटले अंशे शुभरागरूप व्यवहारतप छे ते बंधनुं कारण छे. मिथ्याद्रष्टिने साचुं तप होतुं नथी; तेना शुभरागरूप तपने ‘बाळतप’ कहेवामां आवे छे. ‘बाळ’नो अर्थ अज्ञान, मूढ एवो छे. अज्ञानीना तप वगेरेना शुभभाव तीर्थंकरप्रकृतिना आस्रवनुं कारण थई शके ज नहि.
सम्यग्द्रष्टि साधुने तपमां तथा आत्मसिद्धिमां विघ्न आवतुं देखीने ते दूर करवानो भाव अने तेमने समाधि टकी रहे एवो भाव ते साधुसमाधि छे; आ शुभराग छे. आवो राग यथार्थपणे सम्यग्द्रष्टिने ज होय छे, पण तेओने ते रागनी भावना होती नथी.
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४३२ ] [ मोक्षशास्त्र वैयावृत्यकरण छे. ‘साधुसमाधि’मां साधुनुं चित्त संतुष्ट राखवुं एवो अर्थ थाय छे अने ‘वैयावृत्यकरण’मां तपस्वीओने योग्य साधन एकठुं करवुं के जे सदा उपयोगी थाय-एवा हेतुथी जे दान देवामां आवे ते वैयावृत्य छे, पण साधुसमाधि नथी. साधुओना स्थानने साफ राखवुं, दुःखनुं कारण ऊपजतुं देखी तेमना पग दाबवा वगेरे प्रकारे सेवा करवी ते पण वैयावृत्य छे; आ शुभभाव छे.
भक्ति बे प्रकारनी छे- एक शुद्धभावरूप अने बीजी शुभभावरूप, सम्यग्दर्शन ते परमार्थ भक्ति एटले के शुद्धभावरूप भक्ति छे. सम्यग्द्रष्टिनी निश्चयभक्ति शुद्धात्मतत्त्वनी भावनारूप छे; ते शुद्धभावरूप होवाथी बंधनुं कारण नथी. सम्यग्द्रष्टिने शुभभावरूप जे सरागभक्ति होय छे ते पंचपरमेष्ठीनी आराधनारूप छे (जुओ, श्री हिंदी समयसार, आस्रव-अधिकार गाथा १७३ थी १७६, जयसेनाचार्यकृत संस्कृत टीका, पा. रप०).
१. अर्हत् अने आचार्यनो समावेश पंचपरमेष्ठीमां थई जाय छे. सर्वज्ञकेवळी जिन भगवान अर्हत् छे; तेओ संपूर्ण धर्मोपदेशना विधाता (करनार) छे; तेओ साक्षात् ज्ञानी पूर्ण वीतराग छे. र. साधुसंघमां जे मुख्य साधु होय तेमने आचार्य कहेवामां आवे छे; तेओ सम्यग्दर्शन-ज्ञानपूर्वक चारित्रना पालक छे अने बीजाने तेमां निमित्त थाय छे; तेमने घणी वीतरागता प्रगटी होय छे. ३. बहुश्रुतनो अर्थ ‘बहु ज्ञानी,’ ‘उपाध्याय’ के ‘सर्व शास्त्रसंपन्न’ एम थाय छे; ४. सम्यग्द्रष्टिनी शास्त्रभक्ति ते प्रवचनभक्ति छे. आ भक्तिमां जेटलो राग भाव छे ते आस्रवनुं कारण छे एम समजवुं.
आवश्यक अपरिहाणिनो अर्थ ‘आवश्यक क्रियाओमां हानि थवा न देवी’ एम छे. सम्यग्द्रष्टि जीव ज्यारे शुद्धभावमां न रही शके त्यारे अशुभभाव टाळतां शुभभाव रही जाय छे; आ वखते शुभरागरूप छ आवश्यक क्रियाओ तेमने होय छे. ते आवश्यक क्रियाना भावमां हानि न थवा देवी तेने आवश्यक अपरिहाणि कहेवाय छे. आ क्रिया आत्माना शुभभावरूप छे पण जड शरीरनी अवस्थामां आवश्यक क्रिया होती नथी. शरीरनी क्रिया आत्माथी थई शकती नथी.
सम्यग्ज्ञानना माहात्म्य वडे, इच्छानिरोधरूप सम्यक्तप वडे तथा जिनपूजा इत्यादि
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अ. ६ सूत्र २४ ] [ ४३३ वडे धर्मने प्रकाशित करवो ते मार्गप्रभावना छे. प्रभावनामां सर्वथी उत्तम आत्मप्रभावना छे-के जे रत्नत्रयना तेजथी देदीप्यमान थतां सर्वोत्कृष्ट फळ आपे छे. सम्यग्द्रष्टिने शुभरागरूप जे प्रभावना छे ते आस्रव-बंधनुं कारण छे. परंतु सम्यग्दर्शनादिरूप जे प्रभावना छे ते आस्रव-बंधनुं कारण नथी.
साधर्मीओ प्रत्ये प्रीति ते वात्सल्य छे. वात्सल्य अने भक्तिमां ए फेर छे के, वात्सल्य तो नाना-मोटा बधा साधर्मीओ प्रत्ये होय छे अने भक्ति पोताथी जे मोटा होय तेमना प्रत्ये होय छे. श्रुत अने श्रुतना धारण करनार बन्ने प्रत्ये वात्सल्य राखवुं ते प्रवचन वात्सल्य छे. आ शुभरागरूप भाव छे, ते आस्रव- बंधनुं कारण छे.
तीर्थंकरदेवो त्रण प्रकारना छे- (१) पंच कल्याणिक (र) त्रण कल्याणिक अने (३) बे कल्याणिक. जेमने पूर्वभवमां तीर्थंकरप्रकृति बंधायेली होय तेओने तो नियमथी गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान अने निर्वाण ए पांच कल्याणिक होय छे. जेओने वर्तमान मनुष्यपर्यायना भवमां ज गृहस्थ अवस्थामां तीर्थंकरप्रकृति बंधाय तेमने तप, ज्ञान अने निर्वाण ए त्रण कल्याणिक होय छे अने जेओने वर्तमान मनुष्यपर्यायना भवमां मुनि दीक्षा लीधा पछी तीर्थंकरप्रकृति बंधाय तेने ज्ञान अने निर्वाण ए बे ज कल्याणिक होय छे. बीजा अने त्रीजा प्रकारना तीर्थंकरो महाविदेहक्षेत्रमां ज थाय छे. महाविदेहमां जे पंच-कल्याणिक तीर्थंकरो छे, तेमना सिवायना बे के त्रण कल्याणिकवाळा तीर्थंकरो पण होय छे; तथा तेओ महाविदेहना जे क्षेत्रे बीजा तीर्थंकरो न होय त्यां ज थाय छे. महाविदेहक्षेत्र सिवाय भरत- ऐरावत क्षेत्रोमां जे तीर्थंकरो थाय छे तेओ नियमथी पंचकल्याणिक ज होय छे.
उपर तीर्थंकरोना जे त्रण प्रकार कह्या ते त्रण प्रकार अरिहंतोना समजवा अने ते उपरांत बीजा प्रकारो नीचे मुजब छे-
(४) सातिशय केवळी– जे अरिहंतोने तीर्थंकरप्रकृतिनो उदय होतो नथी परंतु गंधकुटी इत्यादि होय छे तेमने सातिशय केवळी कहेवाय छे.
(प) सामान्य केवळी– जे अरिहंतोने गंधकुटी इत्यादि विशेषता न होय तेमने सामान्य केवळी कहेवाय छे.
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४३४ ] [ मोक्षशास्त्र
(६) अंतकृत केवळी– जे अरिहंतो केवळज्ञान प्रगट थतां लघु अंतर्मुहूर्तकाळमां ज निर्वाण पामे छे तेमने अंतकृत केवळी कहेवाय छे.
(७) उपसर्ग केवळी– जेओने उपसर्ग अवस्थामां ज केवळज्ञान थयुं होय ते अरिहंतोने उपसर्ग केवळी कहेवाय छे (जुओ, सत्तास्वरूप गुजराती पा. ३८-३९). केवळज्ञान थया पछी उपसर्ग होई शके ज नहि.
अरिहंतोना आ भेदो पुण्य अने संयोगनी अपेक्षाए समजवा; केवळज्ञानादि गुणोमां तो बधाय अरिहंतो समान ज छे.
(१) जे भावे तीर्थंकरनामकर्म बंधाय ते भावने अथवा ते प्रकृतिने जे जीव धर्म माने अगर तो तेने उपादेय माने ते मिथ्याद्रष्टि छे, केम के ते रागने-विकारने धर्म माने छे. जे शुभभावे तीर्थंकरनामकर्मनो आस्रव-बंध थाय ते भावने के ते प्रकृतिने सम्यग्द्रष्टिओ उपादेय मानता नथी. सम्यग्द्रष्टिने जे भावे तीर्थंकर प्रकृति बंधाय छे ते पुण्यभाव छे, तेने तेओ आदरणीय मानता नथी (जुओ, परमात्मप्रकाश अध्याय र, गाथा प४नी टीका, पानुं १९प).
(र) जेने आत्माना स्वरूपनुं भान नथी तेने शुद्धभावरूप भक्ति अर्थात् भावभक्ति तो होती ज नथी पण आ सूत्रमां कहेली सत् प्रत्येना शुभरागवाळी व्यवहारभक्ति अर्थात् द्रव्यभक्ति पण खरेखर होती नथी. लौकिक भक्ति भले होय (जुओ, परमात्मप्रकाश, अध्याय र, गाथा १४३ नी टीका, पा. २०३, र८८).
(३) सम्यग्द्रष्टि सिवायना जीवोने तीर्थंकरप्रकृति होय ज नहि. सम्यग्दर्शन वगर कोई प्रकारनो धर्म होतो नथी. आथी सम्यग्दर्शननुं परम माहात्म्य ओळखीने जीवोए ते प्राप्त करवा माटे मथवुं जोईए. सम्यग्दर्शन सिवाय धर्मनी शरूआत बीजी कोई नथी एटले के सम्यग्दर्शन ते ज धर्मनी शरूआत छे अने सिद्धदशा ते धर्मनी पूर्णता छे. ।।र४।।
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अ. ६ सूत्र २६-२७ ] [ ४३प [सत् गुण उच्छादन असत् उद्भावने च] तेमज प्रगट गुणोने ढांकवा अने न होय तेवा गुणोने जाहेर करवा ते [नीचैः गोत्रस्य] नीचगोत्रकर्मना आस्रवनां कारणो छे.
एकेन्द्रियथी संज्ञी पंचेन्द्रिय सुधीना बधा तिर्यंचो, नारकीओ तथा लब्धि- अपर्याप्तक मनुष्यो ते बधाने नीच गोत्र छे, देवोने उच्च गोत्र छे, गर्भज मनुष्योने बन्ने प्रकारनां गोत्रकर्मो होय छे. ।। रप।।
तद्विपर्ययो नीचैर्वृत्त्यनुत्सेकौ चोत्तरस्य।। २६।।
परप्रशंसा, आत्मनिंदा वगेरे [च] तेमज [नीचैःवृत्ति अनुत्सेकौ] नम्र वृत्ति होवी तथा मदनो अभाव-ते [उत्तरस्य] बीजा गोत्रकर्मना एटले के उच्च गोत्रकर्मना आस्रवनां कारणो छे.
अहीं नम्रवृत्ति होवी अने मदनो अभाव होवो ते अशुभभावनो अभाव समजवो; तेमां जे शुभभाव छे ते उच्च गोत्रकर्मना आस्रवनुं कारण छे. ‘अनुत्सेक’नो अर्थ अभिमान न होवुं एम थाय छे. ।। र६।।
अहीं सुधी सात कर्मना आस्रवनां कारणोनुं वर्णन कर्युं. हवे छेल्ला अंतरायकर्मना आस्रवनुं कारण जणावीने आ अध्याय पूरो करे छे.
ते [अंतरायस्य] अंतरायकर्मना आस्रवनुं कारण छे.
आ अध्यायना १० थी र७ सुधीना सूत्रोमां कर्मना आस्रवनुं जे कथन कर्युं छे ते अनुभागसंबंधी नियम बतावे छे. जेम के, कोई पुरुषना दान देवाना भावमां कोईए अंतराय कर्यो तो, ते समये तेने जे कर्मोनो आस्रव थयो ते जो के साते कर्मोमां वहेंचाई गयो तोपण, ते वखते दानांतरायकर्ममां प्रचूर (घणो) अनुभाग पडयो अने
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४३६ ] [ मोक्षशास्त्र अन्य प्रकृतिओमां मंद अनुभाग पडयो. प्रकृति अने प्रदेशबंध योगने आधीन छे तथा स्थिति अने अनुभागबंध कषायभावने आधीन छे. ।। र७।।
१. आ आस्रव अधिकार छे. कषायसहित योग होय ते आस्रवनुं कारण छे. तेने सांपरायिक आस्रव कहेवामां आवे छे. कषाय शब्दमां मिथ्यात्व, अविरति अने कषाय ए त्रणेनो समावेश थई जाय छे; तेथी अध्यात्मशास्त्रोमां मिथ्यात्व, अविरति, कषाय तेम ज योगने आस्रवना भेद गणवामां आवे छे. ते भेदोने बाह्यरूपथी माने पण अंतरंगमां ते भावोनी जातिने यथार्थ न ओळखे तो ते मिथ्याद्रष्टि छे अने तेने आस्रव थाय छे.
र. आ व्यवहार शास्त्र होवाथी योगने आस्रवनुं कारण कही योगना पेटाविभाव पाडी सकषाय अने अकषाय योगने आस्रव कह्यो छे.
३. अज्ञानी जीवोने राग-द्वेष, मोहरूप जे आस्रवभाव छे तेनो नाश करवानी तो तेने चिंता नथी अने बाह्यक्रियाने तथा बाह्य निमित्तोने मटाडवानो उपाय ते जीवो राखे छे; परंतु एना मटाडवाथी कांई आस्रव मटता नथी. द्रष्टांतः द्रव्यलिंगी मुनि अन्य कुदेवादिकनी सेवा करता नथी, हिंसा तथा विषयमां प्रवर्तता नथी. क्रोधादि करता नथी तथा मन-वचन-कायाने रोकवाना भाव करे छे तोपण तेने मिथ्यात्वादि चारे आस्रव होय छे; वळी ए कार्यो तेओ कपट वडे पण करता नथी, केम के जो कपटथी करे तो ते ग्रैवेयक सुधी केवी रीते पहोंचे? सिद्धांतः आथी एम सिद्ध थाय छे के बाह्य शरीरादिनी क्रिया ते आस्रव नथी पण अंतरंग अभिप्रायमां जे मिथ्यात्वादि रागादिभाव छे ते ज आस्रव छे, तेने जे जीव न ओळखे ते जीवने आस्रवतत्त्वनुं साचुं श्रद्धान नथी.
४. सम्यग्दर्शन थया वगर आस्रवतत्त्व जरा पण टळे नहि; माटे जीवोए सम्यग्दर्शन प्राप्त करवानो सत्य उपाय प्रथम करवो जोईए. सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान वगर कोई पण जीवने आस्रव टळे नहि अने धर्म थाय नहि.
प. मिथ्यादर्शन ते संसारनुं मूळ कारण छे अने आत्माना साचा स्वरूपनो अवर्णवाद ते मिथ्यात्वना आस्रवनुं कारण छे; माटे पोताना स्वरूपनो तेम ज आत्माना शुद्ध पर्यायोनो अवर्णवाद न करवो एटले के स्वरूप जेवुं छे तेवुं यथार्थ समजीने प्रतीति करवी (जुओ, सूत्र १३ तथा तेनी टीका).
६. सम्यग्द्रष्टि जीवोने समिति, अनुकंपा, व्रत, सरागसंयम, भक्ति, तप, त्याग, वैयावृत्य, प्रभावना, आवश्यकक्रिया इत्यादि जे शुभभाव छे ते बधा आस्रव-बंधनां
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उपसंहार ] [ ४३७ कारणो छे एम आ अध्यायमां जणाव्युं छे; मिथ्याद्रष्टिने तो तेवा शुभभाव खरेखर होता नथी, तेना व्रत-तपना शुभभावने ‘बाळव्रत’ने ‘बाळतप’ कहेवाय छे.
७. मार्दवपणुं, परनी प्रशंसा, आत्मनिंदा, नम्रता, अन्उत्सेकता-ए शुभराग होवाथी बंधनां कारणो छे; तथा राग ते कषायनो अंश होवाथी तेनाथी घाति तेम ज अघाति बन्ने प्रकारना कर्मो बंधाय छे तथा ते शुभभाव होवाथी अघाति कर्मोमां शुभआयु, शुभगोत्र, सातावेदनीय तथा शुभनामकर्मो बंधाय छे; अने तेनाथी विपरीत अशुभभावो वडे अघाति कर्मो अशुभ बंधाय छे. आ रीते शुभ के अशुभ बन्ने भावो बंधनुं ज कारण छे, एटले ए सिद्धांत ठरे छे के शुभ के अशुभभाव करतां करतां तेनाथी कदी शुद्धता प्रगटे ज नहि.
८. सम्यग्दर्शन ते आत्मानो पवित्र भाव छे, ते पोते बंधनुं कारण नथी; पण सम्यग्दर्शननी भूमिकामां शुभ राग होय त्यारे ते रागना निमित्ते केवा प्रकारना कर्मनो आस्रव थाय ते अहीं जणाव्युं छे. वीतरागता प्रगटतां मात्र इर्यापथ आस्रव होय छे. आ आस्रव एक ज समयनो होय छे (अर्थात् तेमां लांबी स्थिति होती नथी तेम ज अनुभाग पण होतो नथी.) आ उपरथी सिद्ध थयुं के सम्यग्दर्शन प्रगटया पछी जेटला जेटला अंशे वीतरागता होय छे तेटला तेटला अंशे आस्रव अने बंध होतां नथी तथा जेटले अंशे राग-द्वेष होय छे तेटले अंशे आस्रव अने बंध थाय छे. आथी ज्ञानीने तो अंशे आस्रव-बंधनो अभाव निरंतर वर्ते छे. मिथ्याद्रष्टिने ते शुभाशुभरागनुं स्वामीत्व होवाथी तेने कोई पण अंशे राग-द्वेषनो अभाव थतो नथी अने तेथी तेने आस्रव-बंध टळतां नथी. सम्यग्दर्शननी भूमिकामां आगळ वधतां जीवने केवा प्रकारना शुभ भावो आवे छे तेनुं वर्णन हवे सातमा अध्यायमां करीने आस्रवनुं वर्णन पूर्ण करशे. त्यार पछी आठमा अध्यायमां बंधतत्त्वनुं अने नवमा अध्यायमां संवर तथा निर्जरातत्त्वनुं स्वरूप कहेशे. धर्मनी शरुआत सम्यग्दर्शनथी थाय छे. सम्यग्दर्शन थतां संवर थाय छे, संवरपूर्वक निर्जरा थाय छे अने निर्जरा थतां मोक्ष थाय छे, तेथी मोक्षतत्त्वनुं स्वरूप छेल्ला अध्यायमां जणाव्युं छे.
९. आ अध्यायमां, जीवना विकारीभावोने परद्रव्यो साथे केवो निमित्त- नैमित्तिक संबंध छे ते पण समजाव्युं छे. जीवमां थती पच्चीस प्रकारनी विकारी क्रिया अने तेनो पर साथे निमित्त-नैमित्तिकसंबंध केवो होय तेनुं वर्णन पण आ अध्यायमां आप्युं छे.
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भूमिका
‘सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र ते ज मोक्षमार्ग छे’ एम आचार्य भगवाने आ शास्त्र शरु करतां पहेला ज सूत्रमां कह्युं छे; तेमां गर्भितपणे एम आव्युं के तेनाथी विरुद्ध भावो अर्थात् शुभाशुभभावो ते मोक्षमार्ग नथी पण संसारमार्ग छे. ए रीते ते सूत्रमां जे विषय गर्भित राख्यो हतो ते विषय आ छठ्ठा-सातमा अध्यायोमां आचार्यदेवे स्पष्ट कर्यो छे. छठ्ठा अध्यायमां कह्युं के शुभाशुभ बन्ने भावो आस्रव छे, अने ते विषयने वधारे स्पष्ट करवा माटे आ सातमा अध्यायमां मुख्यपणे शुभास्रवने जुदो वर्णव्यो छे.
पहेला अध्यायना चोथा सूत्रमां जे सात तत्त्वो कह्यां छे तेमांथी आस्रवतत्त्वना अजाणपणाना कारणे जगतना जीवो पुण्यथी धर्म थाय छे’ एम माने छे. वळी केटलाक शुभयोगने संवर माने छे, तथा व्रत-मैत्री वगेरे भावना, करुणाबुद्धि वगेरेथी धर्म थाय अथवा तो ते धर्मनुं (संवरनुं) कारण थाय-एम केटलाक माने छे. पण ते मान्यता अज्ञान भरेली छे. ए अज्ञानता दूर करवा माटे आ एक अध्याय खास जुदो रच्यो छे अने तेमां ए विषयने स्पष्ट कर्यो छे.
धर्मनी अपेक्षाए पुण्य अने पापनुं एकत्व गणवामां आवे छे. ए सिद्धांत श्री समयसारमां १४प थी १६३ गाथा सुधीमां समजाव्यो छे. तेमां पहेला ज १४प मी गाथामां कह्युं छे के अशुभकर्म कुशील छे अने शुभकर्म सुशील छे एम लोको माने छे, पण जे संसारमां दाखल करे ते सुशील केम होय? -न ज होई शके. त्यारपछी १प४ मी गाथामां कह्युं छे के-जे जीवो परमार्थथी बाह्य छे तेओ मोक्षना हेतुने नहि जाणता थका-जो के पुण्य संसारगमननो हेतु छे तोपण-अज्ञानथी पुण्यने इच्छे छे. आ प्रमाणे धर्म अपेक्षाए पुण्य-पापनुं एकत्व जणाव्युं छे. वळी श्री प्रवचनसार गाथा ७७ मां पण कह्युं छे के- पुण्य-पापमां विशेष नथी (अर्थात् समानता छे) एम जे मानतो नथी ते मोहथी आच्छन्न छे अने घोर अपार संसारे भमे छे.
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४४० ] [ मोक्षशास्त्र आचार्यदेवे ते बन्नेने आस्रवमां ज समावी दईने तेने लगता छठ्ठो अने सातमो ए बे अध्याय कह्या छे; तेमां छठ्ठो अध्याय पूरो थया पछी आ सातमा अध्यायमां आस्रव अधिकार चालु राख्यो छे अने तेमां शुभास्रवनुं वर्णन कर्युं छे.
आ अध्यायमां जणाव्युं छे के सम्यग्द्रष्टि जीवने थता व्रत, दया, दान, करुणा, मैत्री वगेरे भावो पण शुभआस्रवो छे अने तेथी तेओ बंधनुं कारण छे; तो पछी मिथ्याद्रष्टि जीवने (-के जेने साचां व्रत ज होई शकता नथी) तेना शुभभाव धर्म, संवर के तेनुं कारण शी रीते थई शके? कदी थई शके ज नहि.
प्रश्नः– शुभभाव ते परंपराओ धर्मनुं कारण छे एम शास्त्रमां केटलीक जग्याए कहेवामां आवे छे तेनो शुं अर्थ छे?
उत्तरः– सम्यग्द्रष्टि जीवो पोताना स्वरूपमां ज्यारे स्थिर रही शकता नथी त्यारे राग-द्वेष तोडवानो पुरुषार्थ करे छे पण पुरुषार्थ नबळो होवाथी अशुभभाव टळे छे अने शुभभाव रही जाय छे. तेओ ते शुभभावने धर्म के धर्मनुं कारण मानता नथी पण तेने आस्रव जाणीने टाळवा मागे छे. तेथी ज्यारे ते शुभभाव टळी जाय त्यारे जे शुभभाव टळ्यो तेने शुद्धभाव (-धर्म) नुं परंपरा कारण कहेवामां आवे छे, साक्षात् पणे ते भाव शुभास्रव होवाथी बंधनुं कारण छे अने जे बंधनुं कारण होय ते संवरनुं कारण थई शके नहि.
अज्ञानी तो शुभभावने धर्म के धर्मनुं कारण माने छे अने तेने ते भलो जाणे छे, तेथी तेनो शुभभाव साक्षात् बंधनुं कारण छे अने तेने थोडा वखतमां टाळीने अशुभभावरूपे पोते परिणमशे; आ रीते अज्ञानीना शुभभाव तो अशुभभावनुं (पापनुं) परंपरा कारण कहेवाय छे एटले के ते शुभ टाळीने ज्यारे अशुभपणे परिणमे त्यारे पूर्वनो जे शुभभाव टळ्यो तेने अशुभभावनुं परंपरा कारण थयुं कहेवाय छे.
आटली भूमिका लक्षमां राखीने आ अध्यायना सूत्रोमां रहेला भावो बराबर समजवाथी वस्तुस्वरूपनी भूल टळी जाय छे.
हिंसाऽनृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहेभ्यो विरतिर्व्रतम्।। १।।
मैथुन अने परिग्रह (अर्थात् पदार्थ) प्रत्ये ममत्वरूप परिणाम-ए पांच पापोथी (बुद्धिपूर्वक) निवृत्ति ते [व्रतम्] व्रत छे.
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अ. ७ सूत्र १ ] [ ४४१
१. आ अध्यायमां आस्रवतत्त्वनुं निरुपण कर्युं छे; छठ्ठा अध्यायना बारमा सूत्रमां व्रती प्रत्येनी अनुकंपा साता वेदनीयना आस्रवनुं कारण छे एम कह्युं हतुं, पण त्यां मूळ सूत्रमां ‘व्रती’नी व्याख्या करवामां आवी न हती, तेथी अहीं आ सूत्रमां व्रतनुं लक्षण आपवामां आव्युं छे. आ अध्यायना १८ मा सूत्रमां कह्युं छे के निःशल्यो व्रतो -मिथ्यादर्शन वगेरे शल्यरहित जीव ज व्रती होय छे एटले मिथ्याद्रष्टिने कदी व्रत होतां ज नथी, सम्यग्द्रष्टि जीवने ज व्रत होई शके. मिथ्याद्रष्टिना शुभरागरूप व्रतने भगवाने बाळव्रत कह्यां छे. (जुओ, श्री समयसार गाथा १पर तथा तेनी टीका.) ‘बाळ’नो अर्थ अज्ञान छे.
र. आ अध्यायमां महाव्रत अने अणुव्रत पण आस्रवरूप कह्यां छे, माटे ते उपादेय केवी रीते होय? आस्रव तो बंधनो साधक छे तेथी महाव्रत अने अणुव्रत पण बंधना साधक छे अने वीतरागभावरूप चारित्र ते मोक्षनुं साधक छे; आथी महाव्रतादिरूप आस्रवभावोने चारित्रपणुं संभवतुं नथी. सर्व कषायरहित जे उदासीनभाव छे तेनुं ज नाम चारित्र छे. जेम कोई पुरुष कंदमूळादि घणा दोषवाळी हरितकायनो त्याग करे छे तथा बीजी हरितकायनो अहार करे छे पण तेने धर्म मानतो नथी तेम सम्यग्द्रष्टि मुनि अने श्रावक हिंसादि तीव्र कषायरूप भावोनो त्याग करे छे तथा कोई मंद कषायरूप महाव्रत-अणुव्रतादि पाळे छे, परंतु तेने मोक्षमार्ग मानता नथी.
३. प्रश्नः– जो ए प्रमाणे छे तो महाव्रत अने देशव्रतने चारित्रना भेदोमां शा माटे कह्यां छे? (जुओ, रत्नकरंड श्रावकाचार गाथा ४९-प०)
उत्तरः– त्यां ते महाव्रतादिने व्यवहारचारित्र कहेल छे, अने व्यवहार नाम उपचारनुं छे. निश्चयथी तो जे निष्कषायभाव छे ते ज साचुं चारित्र छे. सम्यग्द्रष्टिना भाव मिश्ररूप छे एटले कंईक वीतरागरूप थया छे अने कंईक सराग छे; आ कारणे ज्यां अंशे वीतरागचारित्र प्रगटयुं छे त्यां जे अंशे सरागता छे ते महाव्रतादिकरूप होय छे, आवो संबंध जाणीने ते महाव्रतादिकमां चारित्रनो उपचार कर्यो छे; पण ते पोते साचुं चारित्र नथी, परंतु शुभभाव छे-आस्रवभाव छे. ते शुभभावने धर्म मानवो ते मान्यता आस्रवतत्त्वने संवरतत्त्व मानवारूप छे तेथी ते मान्यता खोटी छे. (जुओ, मोक्षमार्ग प्रकाशक पा. र३१-र३३)
चारित्रनो विषय आ शास्त्रना ९ मा अध्यायना १८ मा सूत्रमां लीधो छे, त्यां ते बाबतनी टीका लखी छे ते अहीं पण लागु पडे छे.
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४४२ ] [ मोक्षशास्त्र
४. व्रत बे प्रकारनां छे-निश्चय अने व्यवहार. राग-द्वेषादि विकल्प रहित थवुं ते निश्चयव्रत छे (जुओ, द्रव्यसंग्रह गाथा ३प टीका.) सम्यग्द्रष्टि जीवने स्थिरतानी वृद्धिरूप निर्विकल्प दशा ते निश्चयव्रत छे, तेमां जेटला अंशे वीतरागता छे तेटले अंशे साचुं चारित्र छे; अने सम्यग्दर्शन-ज्ञान थया पछी परद्रव्यनुं आलंबन छोडवारूप जे शुभभाव ते अणुव्रत-महाव्रत छे, तेने व्यवहारव्रत कहेवाय छे. आ सूत्रमां व्यवहारव्रतनुं लक्षण आप्युं छे; तेमां अशुभभाव टळे छे पण शुभभाव रहे छे, ते पुण्यास्रवनुं कारण छे.
प. श्री परमात्मप्रकाश अध्याय र, गाथा-पर नी टीकामां व्रत ते पुण्यबंधनुं कारण छे अने अव्रत ते पापबंधनुं कारण छे एम जणावीने, आ सूत्रनो अर्थ नीचे प्रमाणे कर्यो छे. -
“तेनो अर्थ ए छे के-प्राणीओने पीडा देवी, जूठ्ठां वचन बोलवा, परधन हरवुं, कुशीलनुं सेवन अने परिग्रह तेनाथी विरक्त थवुं ते व्रत छे; ए अहिंसादि व्रत प्रसिद्ध छे. ते व्यवहारनये एकदेश व्रत छे-ए देखाडवामां आवे छे.
जीवघातमां निवृत्ति-जीवदयामां प्रवृत्ति, असत्य वचनमां निवृत्ति-सत्य वचनमां प्रवृत्ति, अदत्तादान (चोरी)थी निवृत्ति-अचौर्यमां प्रवृत्ति इत्यादि स्वरूपथी ते एकदेश व्रत छे.” (परमात्मप्रकाश पा. १९१-१९र) अहीं अणुव्रत अने महाव्रत बन्नेने एकदेश व्रत कह्यां छे.
त्यारपछी तरत ज निश्चयव्रतनुं स्वरूप नीचे प्रमाणे कह्युं छे (निश्चयव्रत एटले स्वरूपस्थिरता अथवा सम्यक्चारित्र)-
“अने रागद्वेषरूप संकल्प विकल्पोना कल्लोलोथी रहित त्रण गुप्तिथी गुप्त समाधिमां शुभाशुभना त्यागथी परिपूर्ण व्रत थाय छे.” (परमात्मप्रकाश पा. १९र)
सम्यग्द्रष्टिने शुभाशुभनो त्याग अने शुद्धनुं ग्रहण ते निश्चयव्रत छे अने तेमने अशुभनो त्याग अने शुभनुं ग्रहण ते व्यवहार व्रत छे-एम समजवुं. मिथ्याद्रष्टिने निश्चय के व्यवहार बेमांथी एके प्रकारना व्रत होतां नथी. तत्त्वज्ञान वगर महाव्रतादिकनुं आचरण ते मिथ्याचारित्र ज छे. सम्यग्दर्शनरूप भूमि वगर व्रतरूपी वृक्ष थाय ज नहि.
१. व्रतादि शुभोपयोग वास्तवमां बंधनुं कारण छे. पंचाध्यायी भा. र गा. ७प९ थी ६र मां कह्युं छे के ‘जो के लोकरूढिथी शुभोपयोग पण चारित्र’ ए नामथी कहेवामां आवे छे पण पोतानी अर्थक्रिया करवामां असमर्थ छे,
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अ. ७ सूत्र १ ] [ ४३३ माटे ते निश्चयथी सार्थक नामवाळुं नथी. ७प९. परंतु वास्तवमां ते अशुभोपयोग समान बंधनुं ज कारण छे माटे ते श्रेष्ठ नथी. श्रेष्ठ तो ते छे जे उपकार-अपकार करवावाळुं नथी. ७६०. शुभोपयोग विरुद्ध कार्यकारी छे ए वात विचार करवाथी असिद्ध पण प्रतीत थती नथी, केम के शुभोपयोग एकान्तथी बंधनुं कारण होवाथी ते शुद्धोपयोगना अभावमां ज होय छे. ७६१. बुद्धिना दोषथी एवी तर्कणा पण न करवी जोईए के शुभोपयोग एक अंशे निर्जरानुं कारण छे, केम के न तो शुभोपयोग ज बंधना अभावनुं कारण छे अने न तो अशुभोपयोग ज बंधना अभावनुं कारण छे अर्थात् शुभ-अशुभ भाव बेउ बंधना ज कारण छे.
र. सम्यग्द्रष्टिना शुभोपयोगथी पण बंधनी प्राप्ति थाय छे एम श्री कुन्दकुन्दाचार्यकृत प्रवचनसार गा. ११मां कह्युं छे तेमां श्री अमृतचंद्राचार्य ते गाथानी सूचनिकामां कहे छे के ‘हवे जेनो चारित्र परिणाम साथे संपर्क छे एवो जे शुद्ध अने शुभ (बे प्रकार) परिणाम छे, तेना ग्रहण त्याग माटे (-शुद्ध परिणामना ग्रहण अने शुभ परिणामना त्याग माटे) तेनुं फळ विचारे छेः-
प्राप्नोति निर्वाण सुखं शुभोपयुक्तो वा स्वर्ग सुखम्।। ११।।
अन्वयार्थः– धर्मथी परिणमेला स्वरूपवाळो आत्मा जो शुद्धोपयोगमां जोडायेलो होय तो मोक्षना सुखने पामे छे अने जो शुभोपयोगवाळो होय तो स्वर्गना सुखने (बंधने) पामे छे.
ज्यारे आ आत्मा धर्मपरिणत स्वभाववाळो वर्ततो थको शुद्धोपयोग परिणतिने वहन करे छे- टकावी राखे छे त्यारे, जे विरोधी शक्ति विनानुं होवाने लीधे पोतानुं कार्य करवाने समर्थ छे एवा चारित्रवाळो होवाथी, (ते) साक्षात् मोक्षने पामे छे; अने ज्यारे ते धर्म परिणत स्वभाववाळो होवा छतां शुभोपयोग परिणति साथे जोडाय छे त्यारे, जे विरोधी शक्ति सहित होवाने लीधे स्वकार्य करवाने असमर्थ छे अने कथंचित् विरुद्ध कार्य करनारुं छे. एवा चारित्रवाळो होवाथी, जेम अग्निथी गरम थयेलुं घी जेना उपर छांटवामां आव्युं होय ते पुरुष दाहदुःखने पामे
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४४४ ] [ मोक्षशास्त्र छे तेम, स्वर्गसुखना बंधने पामे छे. आथी शुद्धोपयोग उपादेय छे अने शुभोपयोग हेय छे. (प्रवचनसार गा. ११ नी टीका)
मिथ्याद्रष्टिने अथवा सम्यग्द्रष्टिने पण राग तो बंधनुं ज कारण छे; शुद्धस्वरूप परिणाम मात्रथी ज मोक्ष छे.
३. समयसार शास्त्रना पुण्य-पाप अधिकार ११० मा कळशमां आचार्यदेव कहे छे केः- “यावत्पाकमुपैति कर्म विरति”
अर्थः– ज्यां सुधी ज्ञाननी कर्म विरति बराबर परिपूर्णता पामती नथी त्यां सुधी कर्मज्ञाननुं एकठापणुं शास्त्रमां कह्युं छे; तेमना एकठा रहेवामां कांइ पण क्षति अर्थात् विरोध नथी. पण अहीं एटलुं विशेष जाणवुं के आत्मामां अवशपणे (जबर-जस्तीथी) के कर्म प्रगट थाय छे अर्थात् उदय थाय छे ते तो बंधनुं कारण थाय छे. अने मोक्षनुं कारण तो, जे एक परमज्ञान छे ते एक ज थाय छे-के जे ज्ञान स्वतः विमुक्त (अर्थात् त्रणे काळे पर द्रव्यभावोथी भिन्न छे.)
भावार्थः– ज्यां सुधी यथाख्यातचारित्र थतुं नथी त्यां सुधी सम्यग्द्रष्टिने बे धारा रहे छे-शुभाशुभकर्मधारा अने ज्ञानधारा, ते बन्ने साथे रहेवामां कांइ पण विरोध नथी. (जेम मिथ्याज्ञानने अने सम्यग्ज्ञाननो परस्पर विरोध छे तेम कर्म सामान्यने अने ज्ञानने साथे होवामां विरोध नथी) ते स्थितिमां कर्म पोतानुं कार्य करे छे अने ज्ञान पोतानुं कार्य करे छे. जेटला अंशे शुभाशुभ कर्मधारा छे तेटला अंशे कर्म बंध थाय छे अने जेटला अंशे ज्ञानधारा छे तेटला अंशे कर्मनो नाश थतो जाय छे. विषय-कषायना विकल्पो के व्रत नियमना विकल्पो-शुद्ध स्वरूपनो विचार(-विकल्प) पण बंधनुं कारण छे; शुद्ध परिणतिरूप ज्ञानधारा ज मोक्षनुं कारण छे. ११०(समयसार गुजराती पृ. र६३-६४)
वळी आ कळशनां अर्थमां श्री राजमल्लजीए पण स्पष्टपणे कह्युं छे के- “ अहीं कोई भ्रान्ति करशे के– ‘मिथ्याद्रष्टिने यतिपणुं क्रियारूप छे ते तो बंधनुं कारण छे; पण सम्यग्द्रष्टिने जे यतिपणुं (मुनिपणुं) शुभक्रियारूप छे ते मोक्षनुं कारण छे; केमके अनुभवज्ञान तथा दया, व्रत, तप, संयमरूपी क्रिया-ए बेउ मळीने ज्ञानावरणादि कर्मोनो क्षय करे छे’-एवी प्रतीति कोई अज्ञानी जीव करे छे, तेनुं समाधान आ प्रकारे छे के-
जे कोईपण शुभ-अशुभ क्रिया-बहिर्जल्परूप विकल्प अथवा अंतर्जल्परूप अथवा द्रव्यना विचाररूप अथवा शुद्ध स्वरूपना विचार इत्यादि छे ते सर्व कर्म बंधनुं कारण
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अ. ७ सूत्र १ ] [ ४४प छे; एवी क्रियानो एवो ज स्वभाव छे. तेमां सम्यग्द्रष्टि, मिथ्याद्रष्टिनो एवो तो कोई भेद नथी. (अर्थात् अज्ञानीना उपरोक्त कथनानुसार शुभक्रिया मिथ्याद्रष्टिने तो बंधनुं कारण थाय अने ते ज क्रिया सम्यग्द्रष्टिने मोक्षनुं कारण थाय-एवो तो तेनो भेद नथी) एवी क्रियाथी तो तेने (सम्यग्द्रष्टिवंतने पण) बंध छे अने शुद्ध स्वरूप परिणमन मात्रथी मोक्ष छे. जो के एक ज काळमां सम्यग्द्रष्टि जीवने शुद्धज्ञान पण छे अने क्रियारूप परिणाम पण छे; पण तेमां जे विक्रियारूप परिणाम छे तेनाथी तो मात्र बंध थाय छे; तेनाथी कर्मनो क्षय एक अंश पण थतो नथी- एवुं वस्तुनुं स्वरूप छे; तो पछी उपाय शुं? ते काळे ज्ञानीने शुद्धस्वरूपना अनुभवनुं अनुभवज्ञान पण छे, ते वडे ते समये कर्मनो क्षय थाय छे, तेनाथी तो एक अंश मात्र पण बंधन थतुं नथी;- एवुं ज वस्तुनुं स्वरूप छे; ते जेवुं छे तेवुं कहे छे.”
(जुओ, समयसार कळशटीका राजमल्लजी हिन्दी पृ. १रर सुरतथी प्रकाशित) उपर मुजब स्पष्टीकरण करीने पछी ते कळशनो अर्थ तेमणे ज विस्तारपूर्वक लख्यो छे; तेमां ते संबंधी पण स्पष्टता छे तेमां छेवटे लखे छे के “शुभ क्रिया कदापि मोक्षनुं साधन थई शकती नथी, ते मात्र बंधन ज करवावाळी छे– एवी श्रद्धा करवाथी ज मिथ्याबुद्धिनो नाश थईने सम्यग्ज्ञाननो लाभ थशे. मोक्षनो उपाय तो एक मात्र निश्चयरत्नत्रयमय आत्मानी शुद्ध वीतराग परिणति छे.”
४. श्री राजमल्लजीकृत समयसार कळशटीका(सुरतथी प्रकाशित) तेमां पृ. ११४ लीटी १७ थी एम लख्युं छे के-“अहींया ए वातने द्रढ करी छे के कर्मोनी निर्जरानुं साधन तो मात्र शुद्धज्ञानभाव छे. जेटला अंशे कालिमा छे तेटला अंशे तो बंध ज छे, शुभक्रिया कदी पण मोक्षनुं साधन थइ शकती नथी. ते केवळ बंधने ज करवावाळी छे, एवी श्रद्धा करवाथी ज मिथ्याबुद्धिनो नाश थइ सम्यग्ज्ञाननो लाभ थाय छे.
मोक्षनो उपाय तो एक मात्र निश्चयरत्नत्रयमय आत्मानी शुद्ध वीतराग परिणति छे. जेमके पुरुषार्थ सिद्धिउपायमां आचार्ये कह्युं छे के “असमग्रं भावयतो” गा. ।। र११।। येनांशेन सुद्रष्टि।। र१र।। पछी भावार्थमां लख्युं छे के-ज्यां शुद्धभावनी पूर्णता थई नथी त्यां पण रत्नत्रय छे पण जे कांई त्यां कर्मोनो बंध थाय छे ते रत्नत्रयथी थतो नथी, पण अशुद्धताथी-रागभावथी छे, केमके जेटली त्यां अपूर्णता छे अर्थात् शुद्धतामां कमी छे ते मोक्षनो उपाय नथी ते तो कर्मनुं बंधन ज करवावाळी छे. जेटला अंशमां शुद्धद्रष्टि छे अर्थात् सम्यग्दर्शन सहित शुद्धभावनी परिणति छे तेटला