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अ. ६ सूत्र ८-९ ] [ ४०प
अप्रत्याख्यान कषाय–जे कषायथी जीव एकदेशरूप संयम (-सम्यग्द्रष्टि- श्रावकनां व्रत) किंचित् मात्र पामी न शके तेने अप्रत्याख्यान कषाय कहेवाय छे.
प्रत्याख्यान कषाय–जे कषायथी जीव सम्यग्दर्शनपुर्वकना सकळ संयमने ग्रहण करी शके नहि तेने प्रत्याख्यान कषाय कहेवाय छे.
संज्वलन कषाय–जे कषायथी संयमी जीवनो संयम तो टकी रहे परंतु शुद्ध स्वभावमां-शुद्धोपयोगमां पूर्णपणे लीन थई शके नहि तेने संज्वलन कषाय कहेवाय छे.
संरम्भ–कोई पण विकारी कार्य करवानो निर्णय-संकल्प करवो तेने संरम्भ कहेवाय छे. (संकल्प बे प्रकारना छे. १. मिथ्यात्वरूप संकल्प, र. अस्थिरतारूप संकल्प)
समारंभ–ते निर्णयने अनुसरीने साधनो मेळववानो भाव तेने समारंभ कहेवाय छे.
कृत– पोते जाते करवानो भाव तेने कृत कहेवाय छे.
कारित–बीजा पासे कराववानो भाव तेने कारित कहेवाय छे.
अनुमत–बीजाओ करे तेने भलुं समजवुं तेने अनुमत कहेवाय छे. ।। ८।।
प्रकारनी निर्वर्तना, [निक्षेप चतुः] चार प्रकारना निक्षेप, [संयोग द्वि] बे प्रकारना संयोग अने [निसर्गाः त्रि भेदाः] त्रण प्रकारना निसर्ग-एम कुल ११ भेदरूप छे.
निर्वर्तना–रचना करवी-निपजाववुं ते निर्वर्तना छे; तेना बे प्रकार छेः १- शरीरथी कुचेष्टा उपजाववी ते देह-दुःप्रयुक्त निर्वर्तना छे अने र-शस्त्र वगेरे हिंसाना उपकरणनी रचना करवी ते उपकरणनिर्वर्तना छे. अथवा बीजा प्रकारे बे भेद आ प्रमाणे पडे छेः १- पांच प्रकारनां शरीर, मन, वचन, श्वासोश्वासनुं निपजाववुं ते मूळगुण निर्वर्तना छे अने काष्ट, माटी वगेरेथी चित्र वगेरेनी रचना करवी ते उत्तरगुण निर्वर्तना छे.
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४०६ ] [ मोक्षशास्त्र मूकवी ते अप्रत्यवेक्षित निक्षेपाधिकरण छे, र. यत्नाचाररहित थईने वस्तु मूकवी ते दुःखप्रमृष्टनिक्षेपाधिकरण छे, ३. भयादिकथी के अन्य कार्य करवानी उतावळमां पुस्तक, कमंडळ, शरीर के शरीरादिना मेलने मूकवा ते सहसानिक्षेपाधिकरण छे अने ४. जीव छे के नहि ते जोया वगर के विचार कर्या वगर शीघ्रताथी पुस्तक, कमंडळ, शरीर के शरीरना मेलने मूकवा (-नांखवा) अने वस्तु ज्यां राखवी जोईए त्यां न राखवी ते अनाभोगनिक्षेपाधिकरण छे.
संयोगः– मिलाप थवो ते संयोग छे; तेना बे भेद छेः १. भक्तपान संयोग अने र. उपकरण संयोग. एक आहारपाणीने बीजा आहारपाणी साथे मेळवी देवा ते भक्तपान संयोग छे; अने ठंडा, पुस्तक, कमंडळ, शरीरादिकने तप्त पींछी वगेरेथी पीछवुं तथा शोधवुं ते उपकरण संयोग छे.
निसर्ग– प्रवर्तवुं ते निसर्ग छे; तेना त्रण भेद छेः १. मनने प्रवर्ताववुं ते मन निसर्ग छे, र. वचनोने प्रवर्ताववां ते वचन निसर्ग छे अने ३. कायाने प्रवर्ताववी ते कायनिसर्ग छे.
नोंध– ज्यां ज्यां परनुं करवानी वात जणावी छे त्यां त्यां व्यवहारकथन छे एम समजवुं. जीव परनुं काई करी शकतो नथी तेम ज परपदार्थो जीवनुं कांई करी शकता नथी; पण मात्र निमित्त-नैमित्तिकसंबंध दर्शावनारुं आ सूत्रनुं कथन छे. ।। ९।।
अहीं सुधी सामान्य–आस्रवनां कारणो कह्यां; हवे विशेष आस्रवनां कारणो वर्णवे छे, तेमां दरेक कर्मना आस्रवनां कारणो बतावे छे.
[निह्नव मात्सर्य अन्तराय आसादन उपघाताः] निह्नव, मात्सर्य, अंतराय, आसादन अने उपघात ते [ज्ञानदर्शनावरणयोः] ज्ञानावरण तथा दर्शनावरण कर्माआस्रवनां कारणो छे.
१. प्रदोष– मोक्षनुं कारण अर्थात् मोक्षनो उपाय तत्त्वज्ञान छे, तेनुं कथन करनारा पुरुषनी प्रशंसा न करतां अंतरंगमां दुष्ट परिणाम थाय ते प्रदोष छे.
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अ. ६ सूत्र १० ] [ ४०७
निह्नवः– वस्तुस्वरूपना ज्ञानादिनुं छूपाववुं-जाणतो होवा छतां हुं नथी जाणतो एम कहेवुं ते चिह्नव छे.
मात्सर्यः– वस्तुस्वरूपने जाणतां छतां ‘जो हुं आने कहीश तो ते पंडित थई जशे’ एम विचारी कोईने न भणाववो ते मात्सर्य छे.
अंतरायः– साचा ज्ञाननी प्राप्तिमां विघ्न नाखवुं ते अंतराय छे. आसादनः– पर द्वारा प्रकाश थवायोग्य ज्ञानने रोकवुं ते आसादन छे. उपघातः– सत्य, यथार्थ प्रशस्त ज्ञानमां दोष लगाडवो अथवा प्रशंसवा लायक ज्ञानने दूषण लगाडवुं ते उपघात छे.
उपर कहेला छ दोषो जो ज्ञानसंबंधी होय तो ज्ञानावरणनुं निमित्त छे अने जो दर्शनसंबंधी होय तो दर्शनावरणनुं निमित्त छे.
र. आ सूत्रमां ज्ञानावरण-दर्शनावरण कर्मना आस्रवना जे छ कारणो कह्यां छे ते उपरांत ज्ञानावरण माटेनां विशेष कारणो जे तत्त्वार्थसारना चोथा अध्यायनी १३ थी १६ गाथामां नीचे मुजब आप्या छे-
(७) तत्त्वोनुं उत्सूत्र कथन करवुं, (८) तत्त्वनो उपदेश सांभळवामां अनादर करवो, (९) तत्त्वनो उपदेश सांभळवामां आळस राखवी, (१०) लोभबुद्धिए शास्त्रो वेचवां, (११) पोताने बहुश्रुत मानीने अभिमानथी मिथ्या उपदेश आपवो, (१२) अध्ययन माटे जे समयनो निषेध छे ते समये (अकाळमां) शास्त्र भणवां,
(१४) तत्त्वोमां श्रद्धा न राखवी,
(१प) तत्त्वोनुं अनुचिंतन न करवुं,
(१६) सर्वज्ञ भगवानना शासनना प्रचारमां बाधा नाखवी,
(१७) बहुश्रुतज्ञानीओनुं अपमान करवुं,
(१८) तत्त्वज्ञाननो अभ्यास करवामां शठता करवी.
३. अहीं तात्पर्य ए छे के जे कामो करवाथी पोताना तथा बीजाना तत्त्वज्ञानमां
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४०८ ] [ मोक्षशास्त्र बाधा आवे के मलिनता थाय ते सर्वे ज्ञानावरणकर्मना आस्रवनां कारणो छे. जेम के-एक ग्रंथने असावधानीथी लखतां कोई पाठ छोडी देवो अथवा तो कांईकनो कांईक लखी नाखवो ते ज्ञानावरणकर्मना आस्रवनुं कारण थाय छे. (जुओ, तत्त्वार्थसार पा. २००-२०१)
४. वळी दर्शनावरण माटे आ सूत्रमां कहेलां छ कारणो उपरांत बीजां विशेष कारणो श्री तत्त्वार्थसारना चोथा अध्यायनी १७-१८-१९ मी गाथामां नीचे मुबज आप्यां छे.
(७) कोईनी आंख काढी लेवी, (८) बहु ऊंघवुं, (९) दिवसमां ऊंघवुं, (१०) नास्तिकपणानी वासना राखवी, (११) सम्यग्दर्शनमां दोष लगाडवो, (१२) कुतीर्थवाळानी प्रशंसा करवी, (१३) तपस्वीओने देखीने ग्लानि करवी. - आ बधा दर्शनावरण कर्मना आस्रवना हेतुओ छे.
प. शंकाः– नास्तिकपणानी वासना वगेरेथी दर्शनावरणनो आस्रव केम थाय? तेनाथी तो दर्शनमोहनो आस्रव थवा संभव छे, केम के सम्यग्दर्शनथी विपरीत कार्यो वडे सम्यग्दर्शन मलिन थाय छे, नहि के दर्शन-उपयोग.
समाधानः– जेम बाह्य इन्द्रियोथी मूर्तिक पदार्थोनुं दर्शन थाय छे तेम विशेष ज्ञानीओने अमूर्तिक आत्मानुं पण दर्शन थाय छे; जेम सर्वे ज्ञानोमां आत्मज्ञान अधिक पूज्य छे तेम बाह्य पदार्थोना दर्शन करतां अंर्तदर्शन अर्थात् आत्मदर्शन अधिक पूज्य छे; तेथी आत्मदर्शननां बाधक कारणोने दर्शनावरण कर्मना आस्रवना हेतु मानवा ते अनुचित नथी. आ प्रकारे नास्तिकपणानी मान्यता वगेरे जे लख्या छे ते दोषो दर्शनावरण कर्मना आस्रवना हेतु थई शके छे.
जो के आयुकर्म सिवाय बाकीना साते कर्मोनो आस्रव समये समये थया करे छे तोपण प्रदोषादि भावो द्वारा जे ज्ञानावरणादि खास कर्मनो बंध थवानुं जणाव्युं छे ते स्थितिबंध अने अनुभागबंधनी अपेक्षाए समजवुं अर्थात् प्रकृतिबंध अने प्रदेशबंध तो सर्वे कर्मोनो थया करे छे पण ते वखते ज्ञानावरणादि खास कर्मनो स्थिति अने अनुभागबंध विशेष अधिक थाय छे.।। १०।।
स्थित
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अ. ६. सूत्र ११ ] [ ४०९ [दुःख शोक ताप आक्रन्दन वध परिदेवनानि] दुःख, शोक, ताप, आक्रंदन, वध अने परिदेवना ते [असत् वेद्यस्य] असातावेदनीय कर्माआस्रवनां कारणो छे.
१. दुःख–पीडारूप परिणामविशेषने दुःख कहे छे. शोक– पोताने लाभदायक लागता पदार्थनो वियोग थतां विकळता थवी ते शोक छे.
ताप- संसारमां पोतानी निंदा वगेरे थतां पश्वात्ताप थवो ते ताप छे. आक्रंदन– पश्चात्तापथी अश्रुपात करीने रोवुं ते आक्रंदन छे. वध–प्राणोनो वियोग करवो ते वध छे. परिदेवना–संकलेश परिणामोना आलंबने एवुं रूदन करवुं के जेथी सांभळनारना हृदयमां दया उत्पन्न थई जाय ते परिदेवना छे.
शोक, ताप वगेरे जो के दुःखना ज भेदो छे, तोपण दुःखनी जातिओ बताववा माटे आ भेदो बताव्या छे.
र. पोताने, परने के बन्नेने एक साथे दुःख, शोकादि उत्पन्न करे ते असातावेदनीय कर्मना आस्रवनुं कारण थाय छे.
प्रश्नः– जो दुःखादिक पोतामां, परमां के बन्नेमां स्थित थवाथी असातादेवनीय कर्मना आस्रवनुं कारण थाय छे तो अर्हन्तमतने माननारा जीवो केश-लोंच, अनशनतप, आतपस्थान वगेरे दुःखनां निमित्तो पोतामां करे छे अने बीजाने पण तेवो उपदेश आपे छे तो तेथी तेमने पण असातावेदनीय कर्मनो आस्रव थशे?
उत्तरः– ना, ए दूषण नथी. अंतरंग क्रोधादिक परिणामोना आवेशपूर्वक पोताने, परने के बन्नेने दुःखादि आपवाना भाव होय तो ज ते असात्तावेदनीय कर्मना आस्रवनुं निमित्त थाय छे- आ विशेष कथन ध्यानमां राखवुं. भावार्थ ए छे के-अंतरंग क्रोधादिने वश थवाथी आत्माने जे दुःख थाय छे ते दुःख केशलोच, अनशनतप के आतापयोग वगेरे धारण करवामां सम्यग्द्रष्टि मुनिने थतुं नथी, माटे तेनाथी तेमने असातावेदनीयनो आस्रव थतो नथी, ते तो तेमनो शरीर प्रत्येनो वैराग्यभाव छे.
आ वात द्रष्टांत द्वारा समजाववामां आवे छेः- द्रष्टांतः– जेम कोई दयाना अभिप्रायवाळा अने शल्यरहित वैद्य संयमी पुरुषना फोडलाने कापवा के चीरवानुं काम करे अने ते पुरुषने दुःख थाय छतां ते बाह्य निमित्तमात्रना कारणे पापबंध थतो नथी, केम के वैद्यना भाव तेने दुःख आपवाना नथी.
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४१० ] [ मोक्षशास्त्र
सिद्धांतः– तेम संसार संबंधी महा दुःखथी उद्विग्न थयेल मुनि संसार संबंधी महादुःखनो अभाव करवाना उपाय प्रत्ये लागी रह्या छे तेओने संकलेशपरिणामनो अभाव होवाथी शास्त्रमां विद्यान करवामां आवेलां कार्योमां पोते प्रवर्तवाथी के बीजाने प्रवर्ताववाथी पापबंध थतो नथी, केम के तेमनो अभिप्राय दुःख आपवानो नथी; नबळाईना कारणे किंचित् बाह्य दुःख थाय तोपण ते असातावेदनीयना आस्रवनुं कारण नथी.
बाह्य निमित्तोने अनुसरीने आस्रव के बंध थतो नथी, पण जीव पोते जेवा भाव करे ते भावने अनुसरीने आस्रव अने बंध थाय छे. जो जीव पोते विकार भाव करे तो बंध थाय, अने पोते विकार भाव न करे तो बंध न थाय।। ११।।
अनुकंपा [दान सरागसंयमादीयोगः] दान, सराग-संयमादिना योग, [क्षान्ति शौचम् इति] क्षान्ति शौच, अर्हन्तभक्ति इत्यादि [सत् वेद्यस्य] सातावेदनीय कर्माआस्रवनां कारणो छे.
१. भूत = चारे गतिनां प्राणीओ, व्रती = सम्यग्दर्शनपूर्वक अणुव्रत के महाव्रत धारण करेल होय तेवा जीवो; आ बन्ने उपर अनुकंपा करवी ते भूतव्रत्यनुकंपा छे. प्रश्नः– ‘भूत’ कहेतां तेमां बधा जीवो आवी गया तो पछी ‘व्रती’ जणाववानी शुं जरूर छे?
उत्तरः– सामान्य प्राणीओ करतां व्रती जीवो प्रत्ये अनुकंपानुं विशेषपणुं जणाववा माटे ते कहेल छे; व्रती जीवो प्रत्ये भक्तिपूर्वक भाव होवा जोईए.
दान= दुःखित, भूख्या वगेरे जीवोना उपकार अर्थे धन, औषधि, आहारादिक देवां तथा व्रती सम्यग्द्रष्टि सुपात्र जीवोने भक्तिपूर्वक दान आपवुं ते दान छे.
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अ. ६ सूत्र १२ ] [ ४११
सरागसंयम = सम्यग्दर्शनपूर्वक चारित्रना धारक मुनिने जे महाव्रतरूप शुभभाव छे ते संयम साथेनो राग होवाथी, सराग संयम कहेवाय छे. राग कांई संयम नथी; जेटलो वीतरागभाव छे ते संयम छे.
२. प्रश्नः– वीतराग चारित्र अने सराग चारित्र एम बे प्रकारे चारित्र कह्युं छे, अने चारित्र बंधनुं कारण नथी; तो पछी अहीं सरागसंयमने आस्रव अने बंधनुं कारण केम कह्युं छे?
उत्तरः– सरागसंयमने बंधनुं कारण कह्युं त्यां एम समजवुं के खरेखर चारित्र (संयम) ते बंधनुं कारण नथी, पण राग छे ते बंधनुं कारण छे. जेम चावल बे प्रकारे छे-एक तो फोतरां सहित अने बीजा फोतरां रहित; त्यां फोतरां छे ते चावलनुं स्वरूप नथी पण चावलमां ते दोष छे; हवे कोई डाह्यो पुरुष फोतरां सहित चावलनो संग्रह करतो होय तेने जोईने कोई भोळो माणस फोतरांने ज चावल मानीने तेनो संग्रह करे तो ते निरर्थक खेदखिन्न ज थाय. तेम चारित्र (संयम) बे प्रकारथी छे- एक तो सराग छे तथा बीजुं वीतराग छे; त्यां एम जाणवुं के जे राग छे ते चारित्रनुं स्वरूप नथी पण चारित्रमां ते दोष छे. हवे कोई सम्यग्ज्ञानी प्रशस्त राग सहित चारित्र धारे तेने देखीने कोई अज्ञानी प्रशस्त रागने ज चारित्र मानीने तेने अंगीकार करे तो ते निरर्थक खेदखिन्न ज थाय. (जुओ, मोक्षमार्ग- प्रकाशक-पा. २४९ तथा श्री समयसार पा. ४८२).
मुनिने चारित्रभाव मिश्ररूप छे, कंईक वीतराग थया छे अने कंईक सराग छे; त्यां जे अंशे वीतराग थया छे ते वडे तो संवर ज छे अने जे अंशे सराग रह्या छे ते वडे बंध छे. पोताना मिश्रभावमां ‘आ सरागता छे अने आ वीतरागता छे’ एवी ओळखाण सम्यग्द्रष्टिने ज होय छे; तेथी तेओ बाकी रहेला सराग भावने हेयरूप श्रद्धे छे. (जुओ, मोक्षमार्ग-प्रकाशक पा. २३१).
आ रीते सराग संयममां जे महाव्रतादि पाळवानो शुभभाव छे ते आस्रवबंधनुं कारण छे, पण जेटलुं निर्मळ चारित्र प्रगटयुं छे ते आस्रव-बंधनुं कारण नथी.
बाळतपनो समावेश थाय छे.
संयमासंयम = सम्यग्द्रष्टि श्रावकनां व्रत. अकामनिर्जरा = पराधीनपणे (-पोतानी इच्छा वगर) भोग-उपभोगनो निरोध थतां संकलेशता रहित थवुं अर्थात् कषायनी मंदता करवी ते.
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४१२ ] [ मोक्षशास्त्र
४. आ सूत्रमां
मुनिओनी वैयावृत्य करवामां उद्यमी रहेवुं, योगनी सरळता अने विनयनो समावेश थई जाय छे.
योग– शुभपरिणाम सहितनी निर्दोष क्रिया विशेषने योग कहे छे. क्षान्ति– शुभपरिणामनी भावनाथी क्रोधादि कषायमां थती तीव्रताना अभावने क्षान्ति (क्षमा) कहे छे.
शौच–शुभपरिणामपूर्वक लोभनो त्याग ते शौच. वीतरागी-निर्विकल्प क्षमा अने शौचने ‘उत्तमक्षमा’ अने ‘उत्तमशौच’ कहे छे; ते आस्रवनुं कारण नथी.।। १२।।
[अवर्णवादः] अवर्णवाद करवो ते [दर्शनमोहस्य] दर्शनमोहनीय कर्माआस्रवनां कारणो छे.
१. अवर्णवादः– जेनामां जे दोष न होय तेनामां ते दोषनुं आरोपण करवुं ते अवर्णवाद छे.
केवळीपणुं, मुनिपणुं, धर्म अने देवपणुं ते आत्मानी ज जुदी जुदी अवस्थाओनुं स्वरूप छे. अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय अने मुनि ए पांचे पद निश्चयथी आत्मा ज छे, (जुओ, योगीन्द्रदेवकृत योगसार गाथा १०४, परमात्म- प्रकाश पा. ३९३-३९४). तेथी तेमनुं स्वरूप समजवामां जो भुल थाय अने तेमनामां न होय तेवा दोषो तेमनामां कल्पवामां आवे तो आत्मानुं स्वरूप समजाय नहि अने मिथ्यात्वभावनुं विशेष पोषण थाय. धर्म ते आत्मानो स्वभाव छे माटे धर्मसंबंधी जुठ्ठी दोष कल्पना करवी ते पण महान दोष छे.
र. श्रुत एटले शास्त्र; जिज्ञासु जीवोने आत्मानुं स्वरूप समजवामां ते निमित्त छे, तेथी मुमुक्षुओए खरा शास्त्रोना स्वरूपनो पण निर्णय करवो जोईए.
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अ. ६. सूत्र १३ ] [ ४१३
(१) क्षुधा अने तृषा ते पीडा छे, ते पीडाथी आर्त्त (दुःखी) थता जीवो ज आहार लेवानी इच्छा करे छे. क्षुधा के तृषाना कारणे दुःखनो अनुभव थवो ते आर्त्तध्यान छे. केवळी भगवानने संपूर्ण ज्ञान अने अनंत सुख होय छे, तथा तेमने परम शुक्लध्यान वर्ते छे; ते अवस्थाने शुक्लध्यान पण उपचारथी कहेवाय छे. इच्छा तो वर्तमान वर्तती दशा. परनो अणगमो अने पर वस्तु तरफना रागनी हैयाती सूचवे छे, केवळी भगवानने इच्छा होय ज नहि; छतां केवळी भगवान अन्ननो आहार (कवळाहार) करे एम मानवुं ते न्यायविरुद्ध छे. केवळी भगवानने संपूर्ण वीर्य प्रगटयुं होवाथी क्षुधा अने तृषानी पीडा तेमने होय ज नहि. अने अनंत सुख प्रगटयुं होवाथी इच्छा होय ज नहि. इच्छा ते दुःख छे-लोभ छे, माटे केवळी भगवानमां आहारनी इच्छानो दोष कल्पवो ते जीवना पोताना शुद्ध स्वरूपनो अवर्णवाद छे अने उपचारथी अनंत केवळी भगवानोनो अवर्णवाद छे. ते दर्शनमोहनीयकर्मना आस्रवनुं कारण छे एटले के ते अनंत संसारनुं कारण छे.
(र) आत्माने केवळज्ञान प्रगटया पछी शरीरमां झाडानुं के बीजुं कोई दरद थाय अने तेनी दवा लेवी के दवा लाववा माटे कोईने कहेवुं-ते अशक्य छे. *दवा लेवानी इच्छा थवी अने दवा लाववा माटे कोई शिष्यने कहेवुं ते बधुं दुःखनी हयाती सूचवे छे. अनंत सुखना स्वामी केवळी भगवानने आकुळता, विकल्प, लोभरूप इच्छा के दुःख होय एम कल्पवुं एटले के केवळी भगवानने सामान्य छद्मस्थ जेवा कल्पी लेवा ते न्यायविरुद्ध छे. जो आत्मा पोतानुं साचुं स्वरूप समजे तो आत्मानी बधी दशाओनुं स्वरूप ख्यालमां आवे. भगवान छद्मस्थ मुनिदशामां करपात्र (हाथमां भोजन करनारा) होय छे अने आहार माटे जाते ज जाय छे; अने केवळज्ञान थया पछी रोग थाय, दवानी इच्छा ऊपजे अने ते लाववा माटे शिष्यने आज्ञा करे-ते अशक्य छे. केवळज्ञान थतां शरीरनी अवस्था उत्तम थाय छे अने परम औदारिकपणे परिणमी जाय छे. ते शरीरमां रोग होय ज नहि. ‘ज्यां रोग होय त्यां राग होय ज’ ए अबाधित सिद्धांत छे. भगवानने राग नथी तेथी तेमना शरीरने रोग पण कदी होतो ज नथी. आनाथी विरुद्ध मानवुं ते पोताना आत्मस्वरूपनो अने उपचारथी अनंत केवळी भगवंतोनो अवर्णवाद छे. _________________________________________________________________
*तीर्थंकर भगवानने जन्मथी ज मळ-मूत्र होतां नथी अने तमाम केवळी भगवानोने केवळज्ञान थया पछी आहार-निहार होता नथी.
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४१४ ] [ मोक्षशास्त्र
(३) कोई पण जीवने गृहस्थदशामां केवळज्ञान प्रगटे एम मानवुं ते भूल भरेलुं छे. गृहस्थपणुं छोडया विना भावसाधुपणुं आवी शके ज नहि; भावसाधुपणुं आव्या वगर केवळज्ञान ते प्रगटे ज शी रीते? भावसाधुपणुं छठ्ठा-सातमा गुणस्थाने होय छे अने केवळज्ञान तेरमा गुणस्थाने होय छे; माटे गृहस्थपणामां कदी पण कोई जीवने केवळज्ञान थाय नहि. आनाथी विरुद्ध मान्यता ते पोताना आत्माना शुद्धस्वरूपनो अने उपचारथी अनंत केवळी भगवानोनो अवर्णवाद छे.
(४) छद्मस्थ जीवोने जे ज्ञान-दर्शन-उपयोग थाय छे ते ज्ञेयसन्मुख थवाथी थाय छे, ए दशामां एक ज्ञेयथी खसीने बीजा ज्ञेय तरफ प्रवृत्ति करे छे. एवी प्रवृत्ति विना छद्मस्थ जीवनुं ज्ञान प्रवृत थतुं नथी; तेथी पहेलां चार ज्ञान सुधीना कथनमां ‘उपयोग’ शब्दनो प्रयोग तेना अर्थ प्रमाणे (-‘उपयोग ना अन्वयार्थ प्रमाणे) कही शकाय; परंतु केवळज्ञान अने केवळदर्शन तो अखंड अविच्छिन्न छे; तेने ज्ञेय-सन्मुख थवुं पडतुं नथी एटले के केवळज्ञान तथा केवळदर्शनने एक ज्ञेयथी खसीने बीजा ज्ञेय तरफ जोडावुं पडतुं नथी; माटे केवळज्ञान अने केवळदर्शनने उपयोग कहेवो ते उपचार छे. (जुओ, अमितगति आचार्यकृत पंचसंग्रह हिंदी टीका. पा. १२१ उपयोगअधिकार). केवळी भगवानने केवळज्ञान अने केवळदर्शन एक साथे ज प्रवर्ते छे. आ प्रमाणे होवा छतां ‘केवळीभगवानने तेम ज सिद्धभगवानने जे समये ज्ञानोपयोग होय त्यारे दर्शनोपयोग न होय अने ज्यारे दर्शनोपयोग होय त्यारे ज्ञानोपयोग न होय’ एम मानवुं ते मिथ्या मान्यता छे; ते मान्यता “ केवळीभगवानने तथा सिद्धभगवानने केवळज्ञान प्रगटया पछी जे अनंत काळ छे तेना अर्धाकाळमां ज्ञानना कार्य वगर अने अर्धाकाळमां दर्शनना कार्य वगर काढवानो होय छे” एम कहेवा बराबर छे. ए मान्यता न्यायविरुद्ध छे, माटे तेवी खोटी मान्यता राखवी ते पोताना आत्माना शुद्धस्वरूपनो अने उपचारथी अनंत केवळी भगवानोनो अवर्णवाद छे.
(प) चोथुं गुणस्थान (-सम्यग्दर्शन) साथे लई जनार आत्मा पुरुषपणे जन्मे छे, स्त्रीपणे जन्मता नथी; तेथी स्त्रीपणे कोई तीर्थंकर होई शके नहि; केम के तीर्थंकर थनार आत्मा सम्यग्दर्शन सहित ज जन्मे छे, तेथी ते पुरुष ज होय छे. जो कोई काळे पण एक स्त्री तीर्थंकर थाय एम मानीए तो भूत-भविष्यनी अपेक्षाए भले लांबा काळे थाय तोपण) अनंत स्त्रीओ तीर्थंकर थाय अने तेथी सम्यग्दर्शन सहित आत्मा स्त्रीपणे न जन्मे ए सिद्धांत तूटी जाय; माटे स्त्रीने तीर्थंकरपणुं मानवुं ते मिथ्या मान्यता छे; अने एम माननारे आत्मानी शुद्धदशानुं स्वरूप जाण्युं नथी. ते खरेखर पोताना शुद्ध स्वरूपनो अने उपचारथी अनंत केवळीभगवानोनो अवर्णवाद करे छे.
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अ. ६ सूत्र १३ ] [ ४१प
(६) कोई पण कर्मभूमिनी स्त्रीने प्रथमनां त्रण उत्तम संहननो उदय होतो ज नथी;*ज्यारे जीवने केवळज्ञान थाय त्यारे पहेलुं ज संहनन होय छे एवो केवळज्ञान अने पहेलां संहननने निमित्त-नैमित्तिक संबंध छे. स्त्रीने पांचमा गुणस्थान उपरनी दशा प्रगट थती नथी, छतां स्त्रीने ते ज भवे केवळज्ञान थाय एम मानवुं ते पोताना शुद्धस्वरूपनो अवर्णवाद छे अने उपचारथी अनंत केवळी भगवानोनो तथा साधु संघनो अवर्णवाद छे.
(७) केवळी भगवाननी वाणी ताळु, ओष्ठ वगेरे द्वारा नीकळे नहि अने तेमां क्रमरूप भाषा न होय पण सर्वांग निरक्षरी वाणी नीकळे; आनाथी विरुद्ध मानवुं ते आत्माना शुद्धस्वरूपनो अने उपचारथी केवळीभगवाननो अवर्णवाद छे.
(८) सातमा गुणस्थानथी वंद्य-वंदकभाव होतो नथी, तेथी त्यां व्यवहार विनयवैयावृत्य वगेरे होतां नथी. कोई जीव केवळज्ञान थया पछी गृहस्थ, कुटुंबीओ साथे रहे के गृहकार्यमां भाग ले एम मानवुं ते वीतरागने सरागी मानवा बराबर छे. कोई पण द्रव्य स्त्रीने केवळज्ञान उत्पन्न थाय एम मानवुं ते न्यायविरुद्ध छे. कर्मभूमिनी महिलाने पहेलां त्रण संहनन होतां ज नथी अने चोथुं संहनन होय त्यारे वधारेमां वधारे सोळमा स्वर्ग सुधी ते जीव जई शके छे. -(जुओ गोम्मटसार-कर्मकांडगाथा २९-३२) आथी विरुद्ध मानवुं ते आत्माना शुद्धस्वरूपनो अने उपचारथी अनंत केवळी भगवाननो अवर्णवाद छे.
(९) आत्मा सर्वज्ञ न थई शके एम केटलाकनुं मानवुं छे; ते मान्यता भूलभरेली छे. आत्मानुं स्वरूप ज ज्ञान छे, ज्ञान शुं न जाणे? ज्ञान सर्वने जाणे एवी तेनामां शक्ति छे अने वीतरागी विज्ञान वडे ते शक्ति प्रगट करी शकाय छे. वळी केटलाएक एम माने छे के ‘केवळज्ञानी आत्मा सर्व द्रव्यो, तेना अनंत गुणो अने तेना अनंत पर्यायोने एक साथे जाणे छे छतां तेमांथी केटलुंक जाणपणुं होतुं नथी- जेम के, एक छोकरो बीजा छोकराथी केटलो मोटो, केटला हाथ लांबो; एक घर बीजा घरथी केटला हाथ दूर- ए वगेरे बाबत केवळज्ञानमां जणाती नथी.’ आ मान्यता दोषित छे; तेमां आत्माना शुद्ध स्वरूपनो अने उपचारथी अनंत केवळी भगवानोनो अवर्णवाद छे.
(१०) ‘शुभथी धर्म थाय; शुभ करतां करतां धर्म थाय’ एवो उपदेश केवळी-तीर्थंकर भगवाने कर्यो छे-एम मानवुं ते तेमनो अवर्णवाद छे. शुभभाव वडे धर्म थतो होवाथी भगवाने शुभभावो कर्या हता. भगवाने तो बीजाओनुं भलुं करवामां पोतानुं जीवन अर्पी दीधुं हतुं.’ ए वगेरे प्रकारे भगवाननी जीवनकथा _________________________________________________________________
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४१६ ] [ मोक्षशास्त्र आलेखवी ते पोताना शुद्ध स्वरूपनो अने उपचारथी अनंत केवळी भगवाननो अवर्णवाद छे.
(११) प्रश्नः– जो भगवाने परनुं कांई नथी कर्यु तो पछी जगत्उद्धारक, तरण- तारण, जीवनदाता, बोधिदाता ईत्यादि उपनामोथी भगवान केम ओळखाय छे?
उत्तरः– ए बधां उपनामो उपचारथी छे; ज्यारे भगवानने दर्शनविशुद्धिनी भूमिकामां अनिच्छकभावे धर्मराग थयो त्यारे तीर्थंकरनामकर्म बंधाई गयुं. तत्त्वस्वरूप एम छे के भगवानने तीर्थंकरप्रकृति बंधाती वखते जे शुभभाव थयो हतो ते तेमणे उपादेय मान्यो ज न हतो, पण ते शुभभाव अने ते तीर्थंकरप्रकृति- बन्नेनो अभिप्रायमां नकार ज हतो तेओ रागने तोडवानो पुरुषार्थ करता हता. छेवटे राग टाळी वीतराग थया पछी केवळज्ञान प्रगटयुं अने दिव्यध्वनि स्वयं प्रगटयो; लायक जीवो ते सांभळीने स्वरूप समज्या अने तेवा जीवोए उपचारथी जगत्उद्धारक, तरणतारण इत्यादि उपनाम भगवानने आप्यां. जो खरेखर भगवाने बीजा जीवोनुं कांई कर्यु होय के करी शक्ता होय तो जगना सर्वे जीवोने मोक्षमां साथे केम न लई गया? माटे शास्त्रनुं कथन कया नयनुं छे ते लक्षमां राखीने तेना यथार्थ अर्थ समजवा जोईए. भगवानने परना कर्ता ठराववा ते पण भगवाननो अवर्णवाद छे.
ए वगेरे प्रकारे आत्माना शुद्धस्वरूपमां दोषोनी कल्पना आत्माने अनंत संसारनुं कारण छे.
(१) जे शास्त्रो न्यायनी कसोटीए चडावतां अर्थात् सम्यग्ज्ञान वडे परीक्षा करतां प्रयोजनभुत बाबतोमां साचां मालूम पडे तेने ज खरां मानवां जोईए. ज्यारे लोकोनी यादशक्ति नबळी पडे त्यारे ज शास्त्रो लखवानी पद्धति थाय; तेथी लखेलां शास्त्रो गणधरभगवाने गूंथेला शब्दोमां न ज होय, पण सम्यग्ज्ञानी आचार्योए तेमना यथार्थ भावो जाळवीने पोतानी भाषामां शास्त्ररूपे गूंथ्या होय अने ते सत्श्रुत छे.
(र) सम्यग्ज्ञानी आचार्योनां बनावेलां शास्त्रोनी निंदा करवी ते पोताना सम्यग्ज्ञाननी ज निंदा करवा बराबर छे; केम के जेणे साचां शास्त्रनी निंदा करी तेनो भाव एवो थयो के मने आवां साचां निमित्तनो संयोग न हो पण खोटां निमित्तनो संयोग हो एटले के मारुं उपादान सम्यग्ज्ञानने लायक न हो पण मिथ्याज्ञानने लायक हो.
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अ. ६ सूत्र १३ ] [ ४१७
(३) कोई ग्रंथना कर्ता तरीके तीर्थंकर भगवाननुं, केवळीनुं, गणधरनुं के आचार्यनुं नाम आपेल होय तेथी तेने साचुं ज शास्त्र मानी लेवुं ते न्यायसर नथी. मुमुक्षु जीवोए तत्त्वद्रष्टिथी परीक्षा करीने सत्य-असत्यनो निर्णय करवो जोईए. भगवानना नामे असत् शास्त्रो बनाव्यां होय तेने सत्श्रुत मानी लेवां ते सत्श्रुतनो अवर्णवाद छे; जे शास्त्रोमां मांसभक्षण, मदिरापान, वेदनाथी पीडितने मैथुनसेवन, रात्रिभोजन इत्यादिने निर्दोष कह्यां होय, भगवती सतीने पांच पति कह्या होय, जेमां तीर्थंकर भगवानने बे माता अने बे पिता कह्या होय-ते शास्त्रो यथार्थ नथी, माटे सत्यासत्यनी परीक्षा करी असत्यनी मान्यता छोडवी.
सम्यग्दर्शन प्रगटया पछी जे जीवने सातमुं-छठ्ठुं गुणस्थान प्रगटे तेने साचुं साधुपणुं होय छे; तेमने शरीर उपरनो स्पर्शेन्द्रियने लगतो राग टळी गयो होय छे; तेथी टाढ, तडको, वरसाद वगेरेथी रक्षण करवानो रागभाव तेमने होतो नथी; मात्र संयमना हेतु माटे ते पदने लायक निर्दोष शुद्ध आहारनी लागणी होय छे, तेथी ते गुणस्थानवाळा जीवोने एटले के साधुने शरीरना रक्षण माटे वस्त्र होय ज नहि. छतां ‘ज्यारे तीर्थंकर भगवान दीक्षा ले त्यारे धर्मबुद्धिथी देव तेमने वस्त्र आपे अने भगवान तेने पोतानी साथे राख्या करे’ एम मानवुं ते न्यायविरुद्ध छे, एमां संघ अने देव बन्नेनो अवर्णवाद छे. स्त्रीलिंगने साधुपणुं मानवुं, अति शुद्र जीवोने साधुपणुं होय एम मानवुं ते संघनो अवर्णवाद छे. देहमां निर्ममत्वी, निर्ग्रंथ, वीतराग मुनिओना देहने अपवित्र कहेवो, निर्लज्ज कहेवो, बेशरम कहेवो; अहीं पण दुःख भोगवे छे तो परलोकमां केम खुशी थशे-इत्यादि प्रकारे कहेवुं ते संघनो अवर्णवाद छे.
साधु-संघ चार प्रकारना छे. ते आ प्रमाणे-जेमने ऋद्धि प्रगटी होय ते ऋषि; जेमने अवधि-मनःपर्ययज्ञान होय ते मुनि; इन्द्रियोने जीते ते यति अने अणगार एटले के सामान्य साधु.
आत्मानो स्वभाव ते धर्म छे; सम्यग्दर्शन प्रगटतां ते धर्म शरू थाय छे. शरीरनी क्रियाथी धर्म थाय नहि; पुण्य विकार होवाथी तेनाथी धर्म थतो नथी तेम ज ते धर्ममां सहायक थतुं नथी. आवुं धर्मनुं स्वरूप छे. तेनाथी विपरीत मानवुं ते धर्मनो अवर्णवाद छे. “जिनेन्द्र भगवाने कहेला धर्ममां कांई पण गुण नथी, तेने सेववावाळा असुर थशे, तीर्थंकर भगवाने जे धर्म कह्यो छे ते ज प्रमाणे जगतना
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४१८ ] [ मोक्षशास्त्र अन्यमतोना प्रवर्तको पण कहे छे” एम मानवुं ते धर्मनो अवर्णवाद छे. आत्माना साचा स्वरूपने समजवुं अने साची मान्यता करवी तथा खोटी मान्यता छोडवी ते दर्शनअपेक्षाए आत्मानी अहिंसा छे अने क्रमे क्रमे सम्यक्चारित्र वधतां रागद्वेष सर्वथा टळी जाय छे ते आत्मानी संपूर्ण अहिंसा छे. आवी अहिंसा ते जीवनो धर्म छे एम अनंत ज्ञानीओए कह्युं छे; तेनाथी विरुद्ध मान्यता ते धर्मनो अवर्णवाद छे.
स्वर्गना देवना अवर्णवादनो एक प्रकार पारा प मां जणाव्यो छे. ते उपरांत ते देव मांसभक्षण करे, मद्यपान करे, भोजनादिक करे, मनुष्यणी साथे कामसेवन करे-इत्यादि मान्यता ते देवनो अवर्णवाद छे.
८. आ पांचे प्रकारना अवर्णवाद दर्शनमोहनीयना आस्रवनुं कारण छे अने दर्शनमोह ते अनंत संसारनुं कारण छे.
शुभ विकल्पथी धर्म थाय-एवी मान्यतारूप अगृहीतमिथ्यात्व तो जीवने अनादिनुं चाल्युं आवे छे. मनुष्यगतिमां जीव जे कुळमां जन्मे छे ते कुळमां घणे भागे कोई ने कोई प्रकारे धर्मनी मान्यता होय छे. वळी ते कुळधर्ममां कोईने देव तरीके, कोईने गुरु तरीके, कोई पुस्तकोने शास्त्र तरीके अने कोई क्रियाने धर्म तरीके मानवामां आवे छे. नानपणमां ते मान्यतानुं जीवने पोषण मळे छे अने मोटी उंमरे पोताना कुळना धर्मस्थाने जतां त्यां पण मुख्यपणे ते ज मान्यतानुं पोषण मळे छे. आ अवस्थामां जीव विवेकपूर्ण सत्य-असत्यनो निर्णय घणे भागे करतो नथी अने सत्य-असत्यना विवेकरहित दशा होवाथी साचां देव, गुरु, शास्त्र अने धर्म उपर अनेक प्रकारना जूठा आरोपो करे छे. ते मान्यता आ भवमां नवी ग्रहण करेली होवाथी अने ते मिथ्या होवाथी तेने गृहीतमिथ्यात्व कहेवामां आवे छे. आ अगृहीत अने गृहीतमिथ्यात्व अनंत संसारमां कारण छे. माटे सत् देव-गुरु- शास्त्र-धर्मनुं अने पोताना आत्मानुं साचुं स्वरूप समजीने अगृहीत तेम ज गृहीत- बन्ने मिथ्यात्वनो नाश करवा माटे ज्ञानीओनो उपदेश छे. (अगृहीतमिथ्यात्वनो विषय आठमा बंध अधिकारमां आवशे.) आत्माने न मानवो, सत्य मोक्षमार्गने दूषित कल्पवो, असत् मार्गने सत्य मोक्षमार्ग कल्पवो, परम सत्य वीतरागी विज्ञानमय उपदेशनी निंदा करवी-इत्यादि जे जे कार्यो सम्यग्दर्शन गुणने मलिन करे छे ते सर्वे दर्शनमोहना आस्रवनां कारणो छे. ।। १३।।
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अ. ६ सूत्र १४ ] [ ४१९
कषायोदयात्तीव्रपरिणामश्चारित्रमोहस्य ।। १४।।
थाय ते [चारित्रमोहस्य] चारित्रमोहनीयना आस्रवनुं कारण छे.
१. कषायनी व्याख्या आ अध्यायना पांचमा सूत्रमां आवी गई छे. उदयनो अर्थ विपाक-अनुभव छे. जीव कषायकर्मना उदयमां जोडाईने जेटलो राग-द्वेष करे तेटलो कषायनो उदय-विपाक-अनुभव ते जीवने थयो एम कहेवाय. कषायकर्मना उदयमां जोडातां जीवने तीव्रभाव थाय ते चारित्रमोहनीयकर्मना आस्रवनुं कारण (निमित्त) छे एम समजवुं.
र. चारित्रमोहनीयना आस्रवनुं आ सूत्रमां संक्षेपथी वर्णन छे; तेनो विस्तार नीचे प्रमाणे छे-
(र) तपस्वी जनोने चारित्रदोष लगाडवो;
(३) संकलेश परिणामने उपजाववावाळा वेष-व्रत वगेरे धारण करवा; ए
वगेरे लक्षणवाळा परिणाम कषाय कर्मना आस्रवनुं कारण छे.
(र) घणो वृथा प्रलाप करवो;
(३) हास्यस्वभाव राखवो;
ए वगेरे लक्षणवाळा परिणाम हास्यकर्मना आस्रवनुं कारण छे.
(र) व्रत-शीलमां अरुचिपरिणाम करवा;
ए वगेरे लक्षणवाळा परिणाम रतिकर्मना आस्रवनुं कारण छे.
(र) परनी रतिनो विनाश करवो;
(३) पाप करवानो स्वभाव होवो;
(४) पापनो संसर्ग करवो;
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४२० ] [ मोक्षशास्त्र
(र) परना शोकमां हर्ष मानवो;
(र) बीजाने भय उपजाववो;
भली क्रिया-आचार प्रत्ये ग्लानी ए वगेरे परिणाम होवा ते जुगुप्सा कर्मना आस्रवनुं कारण छे.
(१) जुठ्ठुं बोलवानो स्वभाव होवो; (र) मायाचारमां तत्परता रहेवी; (३) परना छिद्रनी आकांक्षा अथवा अति घणो राग होवो; ए वगेरे परिणाम स्त्रीवेदकर्मना आस्रवनुं कारण छे.
(र) इष्ट पदार्थोमां ओछी आसक्ति होवी;
(३) पोतानी स्त्रीमां संतोष होवो;
(र) गुह्य इन्द्रियोनुं छेदन करवुं;
(३) परस्त्रीगमन करवुं;
३. ‘तीव्रता ते बंधनुं कारण छे अने सर्व जघन्यता ते बंधनुं कारण नथी’ आ सिद्धांत आत्माना तमाम गुणोमां लागु पडे छे. आत्मामां थता मिथ्यादर्शननो जे भाव छेल्लामां छेल्लो जघन्य होय ते दर्शनमोहनीयकर्मना आस्रवनुं कारण नथी. जो छेल्लो अंश पण बंधनुं कारण थाय तो कोई जीव व्यवहारे पण कर्मरहित न थई शके. (जुओ, अ. प सू. ३४ नी टीका पा. ४पर.) ।। १४।।
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अ. ६ सूत्र १प ] [ ४२१
आयुषः] नारकीना आयुना आस्रवनुं कारण छे.
१. बहु आरंभ-परिग्रह राखवानो जे भाव छे ते नरकायुना आस्रवनो हेतु छे. ‘बहु’ शब्द संख्यावाचक छे तेम ज परिणामवाचक छे; ए बन्ने अर्थो अहीं लागु पडे छे. अधिक संख्यामां आरंभ-परिग्रह राखवाथी नारकायुनो आस्रव थाय छे. आरंभ-परिग्रह राखवाना बहु परिणामथी नारकायुनो आस्रव थाय छे; बहु आरंभ-परिग्रहनो भाव ते उपादान कारण छे अने बाह्य बहु आरंभ-परिग्रह ते निमित्तकारण छे.
र. आरंभः– हिंसादि प्रवृत्तिनुं नाम आरंभ छे. जेटलो पण आरंभ करवामां आवे तेमां स्थावरादि जीवोनो नियमथी वध थाय छे. आरंभनी साथे ‘बहु’ शब्दनो समास करीने घणो आरंभ अथवा बहु तीव्र परिणामथी जे आरंभ करवामां आवे ते बहु आरंभ, एवो अर्थ थाय छे.
३. परिग्रह– ‘आ वस्तु मारी छे, हुं तेनो स्वामी छुं’ एवुं परमां पोतापणानुं अभिमान अथवा पर वस्तुमां ‘आ मारी छे’ एवो जे संकल्प ते परिग्रह छे. केवळ बाह्य धन-धान्यादि पदार्थोने ज ‘परिग्रह’ नाम लागु पडे छे एम नथी; बाह्यमां कांइ पण पदार्थ न होवा छतां पण जो भावमां ममत्व होय तो त्यां पण परिग्रह कही शकाय छे.
४. सूत्रमां नारकायुना आस्रवनां कारणनुं जे वर्णन कर्युं छे ते संक्षेपथी छे, भावोनुं विस्तारथी वर्णन नीचे प्रमाणे छे-
(र) अत्यंत मान करवुं,
(३) शिलाभेद समान अत्यंत तीव्र क्रोध करवो;
(४) अत्यंत तीव्र लोभनो अनुराग रहेवो,
(प) दयारहित परिणामोनुं होवुं,
(६) बीजाओने दुःख देवानुं चित्त राखवुं,
(७) जीवोने मारवानो तथा बांधवानो भाव करवो,
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४२२ ] [ मोक्षशास्त्र
(९) जेमां बीजा प्राणीनो वध थाय एवां जूठां वचन बोलवानो स्वभाव
राखवो,
(११) बीजानी स्त्रीओने आलिंगन करवानो स्वभाव राखवो,
(१र) मैथुनसेवनथी विरक्ति न थवी,
(१३) अत्यंत आरंभमां इन्द्रियोने लगावी राखवी,
(१४) कामभोगोनी अभिलाषाने सदैव वधार्या करवी,
(१प) शील-सदाचाररहित स्वभाव राखवो,
(१६) अभक्ष्य भक्षणने ग्रहण करवानो के कराववानो भाव राखवो,
(१७) घणा काळ सुधी वैर बांधी राखवुं,
(१८) महाक्रूर स्वभाव राखवो,
(१९) विचार्या विना रोवा-कूटवानो स्वभाव राखवो.
(र०) देव-गुरु-शास्त्रोमां मिथ्या दोष लगाडवा,
(र१) कृष्णलेश्याना परिणाम राखवा,
(रर) रौद्रध्यानमां मरण करवुं.
आ वगेरे लक्षणवाळा परिणाम नरकायुनुं कारण थाय छे. ।। १प।।
कारण छे.
आत्मानो कुटिल स्वभाव ते माया छे; तेनाथी तिर्यंचयोनिनो आस्रव थाय छे. तिर्यंचायुना आस्रवना कारणनुं आ सूत्रमां जे वर्णन कर्युं छे ते संक्षेपमां छे. ते भावोनुं विस्तारथी वर्णन नीचे प्रमाणे छे-
(र) बहु आरंभ-परिग्रहमां कपटमय परिणाम करवा,
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अ. ६ सूत्र १६-१७ ] [ ४२३
(४) पृथ्वीभेद समान क्रोधीपणुं होवुं,
(प) शीलरहितपणुं होवुं,
(६) शब्दथी-चेष्टाथी तीव्र मायाचार करवो,
(७) परना परिणाममां भेद उपजाववो.
(८) अति अनर्थ प्रगट करवो,
(९) गंध-रस-स्पर्शनुं विपरीतपणुं करवुं,
(१०) जाति-कुळ-शीलमां दूषण लगाडवुं,
(११) विसंवादमां प्रीति राखवी,
(१र) परना उत्तम गुणने छूपाववो.
(१३) पोतामां न होय तेवा गुणो कहेवा,
(१४) नील-कापोत लेश्यारूप परिणाम करवा,
(१प) आर्त्तध्यानमां मरण करवुं,
- आ वगेरे लक्षणवाळा परिणामो तिर्यंचायुना आस्रवनां कारणो छे. ।। १६।।
मनुष्यना आयुना आस्रवनुं कारण छे.
नरकायुना आस्रवनुं कथन १प मा सूत्रमां करवामां आव्युं छे, ते नरकायुना आस्रवथी जे विपरीत छे ते मनुष्यना आयुना आस्रवनुं कारण छे. आ सूत्रमां मनुष्यायुना आस्रवना कारणनुं संक्षेप कथन छे; तेनुं विस्तारथी वर्णन नीचे प्रमाणे छे-
(र) स्वभावमां विनय होवो,
(३) प्रकृतिमां भद्रता होवी,
(४) परिणामोमां कोमळता होवी अने मायाचारनो भाव न होवो,
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४२४ ] [ मोक्षशास्त्र
(प) सारां आचरणोमां सुख मानवुं, (६) वेळुनी रेखा समान क्रोधनुं होवुं. (७) विशेष गुणी पुरुषोनी साथे व्यवहारप्रिय होवुं, (८) थोडो आरंभ, थोडो परिग्रह राखवो, (९) संतोष राखवामां रुचि करवी, (१०) प्राणीओना घातथी विरक्त थयुं, (११) माठां कार्योथी निवृत्ति होवी, (१र) मनमां जे वात होय ते अनुसार सरळताथी बोलवुं, (१३) व्यर्थ बकवाद न करवो, (१४) परिणामोमां मधुरतानुं होवुं, (१प) सर्वे लोको प्रत्ये उपकारबुद्धि राखवी, (१६) परिणामोमां वैराग्यवृत्ति राखवी, (१७) कोई प्रत्ये ईर्षाभाव न राखवो, (१८) दान देवानो स्वभाव राखवो, (१९) कापोत तथा पीत लेश्या सहित होवुं, (र०) धर्मध्यानमां मरण थवुं, -आ वगेरे लक्षणवाळा परिणामो मनुष्यायुना आस्रवनां कारणो छे. प्रश्नः– मिथ्यादर्शनसहित जेनी बुद्धि होय तेने मनुष्यायुनो आस्रव केम कह्यो? उत्तरः– मनुष्य, तिर्यंचने सम्यक्त्वपरिणाम थतां ते कल्पवासीदेवनुं आयु बांधे छे, मनुष्यायुनो बंध तेओ करता नथी, एटलुं बताववा माटे उपर प्रमाणे कह्युं छे. ।। १७।।
मनुष्यना आयुना आस्रवनुं कारण छे.