Moksha Shastra-Gujarati (Devanagari transliteration). Sixth Chapter Pg 389 to 437; Sutra: 1-8 (Chapter 6).

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अ. प उपसंहार ] [ ३८प

बीजा प्रश्ननुं समाधानः–
सघै वस्तु असहाय जहाँ, तहाँ निमित्त है कोन;
ज्यों
जहाज पर वाहमें, तिरे सहज विन पौन. ६

अर्थः– प्रत्येक वस्तु वस्तंत्रताथी पोतानी अवस्थाने (-कार्यने) प्राप्त करे छे त्यां निमित्त कोण? जेम वहाण प्रवाहमां सहेजे ज पवन विना ज तरे छे.

भावार्थः– जीव अने पुद्गल द्रव्य शुद्ध के अशुद्ध अवस्थामां स्वतंत्रपणे ज पोताना परिणामो करे छे. अज्ञानी जीव पण स्वतंत्रपणे निमित्ताधीन परिणमन करे छे. कोई निमित्त तेने आधीन बनावी शक्तुं नथी. ६.

उपादान विधि निर्वचन, है निमित्त उपदेश;
वसे जु जैसे देशमें; करे सु तैसे भेष. ७

भावार्थः– उपादाननुं कथन एक ‘योग्यता’ शब्द द्वारा ज थाय छे. उपादान पोतानी योग्यताथी अनेक प्रकारे परिणमन करे छे त्यारे उपस्थित निमित्त पर भिन्न भिन्न कारणपणानो आरोप (-भेष) आवे छे. उपादाननी विघि निर्वचन होवाथी निमित्त द्वारा आ कार्य थयुं एम व्यवहारथी कहेवाय छे.

विशेषार्थः– उपादान ज्यारे जेवुं कार्य करे छे त्यारे तेवा कारणपणानो आरोप (-भेष) निमित्त उपर आवे छे. जेम कोई वज्रकायवाळो पुरुष सातमा नरकने योग्य मलिन भाव करे तो वज्रकायशरीर उपर नरकना कारणपणानो आरोप आवे छे अने जो जीव मोक्षने योग्य निर्मळभाव करे तो ते ज निमित्त पर मोक्षना कारणपणानो आरोप आवे छे. आ रीते उपादानना कार्यानुसार निमित्तनां कारणपणानो भिन्न भिन्न आरोप करवामां आवे छे. एथी एम सिद्ध थाय छे के निमित्तथी कार्य थतुं नथी परंतु कथन थाय छे. माटे उपादान साचुं कारण छे अने निमित्त आरोपित्त कारण छे. १३४ पुद्गल कर्म, योग इन्द्रियोना भोग, धन, घरना माणसो, मकान इत्यादि आ

जीवने राग-द्वेष परिणामनां पे्ररक छे? १३४ नहीं, छए द्रव्य सर्व पोताना स्वरूपथी सदा असहाय (-स्वतंत्र) परिणमन

करे छे, कोई द्रव्य कोईनुं पे्ररक कदी नथी तेथी कोई पण परद्रव्य रागद्वेषनुं पे्ररक नथी परंतु मिथ्यात्व मोहरूप मदिरापान छे ते ज (अनंतानुबंधी) रागद्वेषनुं कारण छे. १३प पुद्गल कर्मनी जोरावरीथी जीवने रागद्वेष करवा पडे छे, पुद्गलद्रव्य कर्मोनो


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३८६ ] [ मोक्षशास्त्र

वेश धारण करीने जेम जेम बळ करे छे तेम तेम जीवने रागद्वेष अधिक थाय छे ए वात साची छे? १३प ना; केमके जगतमां पुद्गलनो संग तो हमेशां रहे छे, जो एनी बळजोरीथी

जीवने रागादि विकार थाय तो शुद्धभावरूप थवानो कदी अवसर आवी शके
नहि तेथी एम समजवुं जोईए के शुद्ध के अशुद्ध परिणमन करवामां चेतन
स्वयं समर्थ छे. (स. सार नाटक सर्वविशुद्धद्वार काव्य ६१ थी ६६)
[निमित्तना कोई जग्याए पे्ररक अने उदासीन एवा बे भेद कह्या होय त्यां

ते गमन क्रियावाळा अथवा इच्छावाळा छे के नहि एम समजाववाने माटे छे परंतु उपादानने माटे तो सर्व प्रकारना निमित्त धर्मास्तिकायवत् उदासीन ज कह्या छे. जुओ श्री पूज्यपादाचार्यकृत ईष्टोपदेश गा. ३प] १३६ निमित्त नैमित्तिक संबंध कोने कहे छे? १३६ उपादान स्वतः कार्यरूपे परिणमे छे ते वखते भावरूप के अभावरूप कया उचित

(-योग्य) निमित्त कारणनो तेनी साथे संबंध छे ए बताववाने माटे ते
कार्यने नैमित्तिक कहे छे. आ रीते भिन्न पदार्थोना स्वतंत्र संबंधने निमित्त-
नैमित्तिक संबंध कहे छे.
[निमित्त-नैमित्तिक संबंध परतंत्रतानो सूचक नथी परंतु नैमित्तिकनी साथे

क्यो निमित्तरूप पदार्थ छे तेनुं ज्ञान करावे छे. जे कार्यने नैमित्तिक कह्युं छे तेने ज उपादाननी अपेक्षाए उपादेय पण कहे छे.]

निमित्त नैमित्तिक संबंधना द्रष्टांत- (१) केवळज्ञान नैमित्तिक छे अने लोकालोकरूप सर्व ज्ञेयो निमित्त छे. (प्रवचनसार गा. र६ नी टीका).

(र) सम्यग्दर्शन नैमित्तिक छे अने सम्यक्ज्ञानीना उपदेशादि निमित्त छे. (आत्मानुशासन गा. १० नी टीका)

(३) सिद्धदशा नैमित्तिक छे अने पुद्गल कर्मनो अभाव निमित्त छे. (समयसार गा. ८३ नी टीका)

(४) “जेवी रीते अधःकर्मथी उत्पन्न अने उदे्शथी उत्पन्न थयेल निमित्तभूत (आहारादि) पुद्गल द्रव्यनो त्याग न करतो आत्मा (-मुनि) नैमित्तिकभूत बंधसाधक


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अ. प उपसंहार ] [ ३८७ भावनुं प्रत्याख्यान (त्याग) करतो नथी तेवी ज रीते समस्त परद्रव्यनुं प्रत्याख्यान न करतो आत्मा तेना निमित्तथी थवावाळा भावने त्यागतो नथी.” आमां जीवनो बंधसाधकभाव नैमित्तिक छे अने ते परद्रव्य निमित्त छे.

(समयसार गाथा र८६-८७ नी टीका)
निमित्त कर्तानुं वजन केटलुं?

ग्रंथाधिराज पंचाध्यायी शास्त्रमां नयाभासोनुं वर्णन छे तेमां ‘जीव शरीरनुं कांई पण करी शकतो नथी-परस्पर बंध्य-बंधकभाव नथी’ एम कहीने शरीर अने आत्माने निमित्त-नैमित्तिकभावनुं प्रयोजन शुं छे? तेना उत्तरमां प्रत्येक द्रव्य स्वयं अने स्वतः निजशक्तिथी परिणमन करे छे त्यां निमित्तपणानुं कांई प्रयोजन ज नथी एवुं समाधान श्लोक नं. प७१ मां कह्युं छे.

अथचेदवश्यमेतन्निमित्त नैमित्तिकत्वमास्तिमिथः। न यतः स्वयं स्वतो वा परिणममानस्य किं निमित्ततया।। ५७१।।

अन्वयार्थः– [अर्थचेत्] जो कदापि एम कहेवामां आवे के ‘[मिथः] परस्पर

[एतन्निमित्तनैमित्तिकत्वं] ए बन्नेमां निमित्तनैमित्तिकपणुं [अवश्यंअस्ति] अवश्य छे’ तो आ प्रकारनुं कथन पण [ना] बराबर नथी; [यतः] कारण के [स्वयं वा स्वतः] स्वयं अथवा स्वतः [परिणममानस्य] परिणमनारी वस्तुने [निमित्ततया] निमित्तपणाथी [किम्?] शुं फायदो छे? अर्थात् स्वतः परिणमनशील वस्तुने निमित्तकारणथी कांई ज प्रयोजन नथी. आ विषयमां स्पष्टता माटे पंचाध्यायी भा. १ श्लोक प६प थी प८प सुधी देखवुं जोईए.

प्रयोजनभूत

आ रीते छ द्रव्यनुं स्वरूप अनेक प्रकारे वर्णव्युं. आ छ द्रव्योमां समये समये परिणमन थाय छे, तेने ‘पर्याय’ (हालत, अवस्था, Condition) कहेवाय छे. धर्म-अधर्म-आकाश अने काळ ए चार द्रव्योना पर्याय तो सदाय शुद्ध ज छे; बाकीना जीव अने पुद्गल ए बे द्रव्योमां शुद्ध पर्याय होय छे अथवा अशुद्ध पर्याय पण होई शके छे.

जीव अने पुद्गल ए बे द्रव्योमांथी पण पुद्गल द्रव्यमां ज्ञान नथी, तेनामां जाणपणुं नथी अने तेथी तेनामां ज्ञाननी ऊंधाईरूप भूल नथी; माटे पद्गलने सुख के दुःख होतां नथी. साचा ज्ञान वडे सुख अने ऊंधा ज्ञान वडे दुःख थाय छे, परंतु पुद्गल द्रव्यमां ज्ञानगुण ज नथी, तेथी तेने सुखदुख नथी; तेनामां सुखगुण ज नथी.


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३८८ ] [ मोक्षशास्त्र आम होवाथी पुद्गल द्रव्यने तो अशुद्धदशा हो के शुद्धदशा हो, बन्ने समान छे; शरीर पुद्गलद्रव्यनी अवस्था छे माटे शरीरमां सुख-दुःख थतां नथी. शरीर नीरोग हो के रोगी हो, ते साथे सुख-दुःखनो संबंध नथी.

हवे बाकी रह्यो जाणनारो जीव

छए द्रव्योमां आ एक ज द्रव्य ज्ञानसामर्थ्यवान छे. जीवमां ज्ञानगुण छे अने ज्ञाननुं फळ सुख छे, तेथी जीवमां सुखगुण छे. जो साचुं ज्ञान करे तो सुख होय, परंतु जीव पोताना ज्ञानस्वभावने ओळखतो नथी अने ज्ञानथी जुदी अन्य वस्तुओमां सुखनी कल्पना करे छे. आ तेना ज्ञाननी भूल छे अने ते भूलने लीधे ज जीवने दुःख छे. अज्ञान ते जीवनो अशुद्ध पर्याय छे. जीवनो अशुद्ध पर्याय ते दुःख होवाथी ते दशा टाळीने साचा ज्ञान वडे शुद्ध दशा करवानो उपाय समजाववामां आवे छे; केम के बधाय जीवो सुख इच्छे छे अने सुख तो जीवनी शुद्धदशामां ज छे; माटे जे छ द्रव्यो जाण्यां तेमांना जीव सिवायनां पांच द्रव्योना गुण-पर्याय साथे तो जीवने प्रयोजन नथी; पण पोताना गुण-पर्याय साथे ज जीवने प्रयोजन छे.

ए प्रमाणे श्री उमास्वामी विरचित मोक्षशास्त्रना
पांचमा अध्यायनी गुजराती टीका पूरी थई.

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मोक्षशास्त्र गुजराती टीका
अध्याय छठ्ठो

भूमिका

१. पहेला अध्यायना चोथा सूत्रमां सात तत्त्वो कह्यां छे अने ते तत्त्वोनी यथार्थ श्रद्धा ते सम्यग्दर्शन छे-एम पहेला अध्यायना बीजा सूत्रमां कह्युं छे. बीजाथी पांचमा अध्याय सुधीमां जीव अने अजीव तत्त्वनुं वर्णन कर्युं. आ अध्यायमां तथा सातमां अध्यायमां आस्रव तत्त्वनुं स्वरूप समजाववामां आव्युं छे. आस्रवनी व्याख्या पूर्वे १४ मा पाने आपी छे ते अहीं लागु पडे छे.

र. सात तत्त्वोनी सिद्धि
(बृहत् द्रव्यसंग्रह पा. ७१-७र ना आधारे)

आ जगतमां जीव अने अजीव द्रव्यो छे अने तेमना परिणमनथी आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा अने मोक्ष तत्त्वो थाय छे. ए रीते जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा अने मोक्ष ए सात तत्त्वो छे.

हवे अहीं शिष्य प्रश्न करे छे के-हे गुरुदेव? (१) जो जीव तथा अजीव ए बन्ने द्रव्यो एकांते (-सर्वथा) परिणामी ज होय तो तेमना संयोगपर्यायरूप एक ज पदार्थ सिद्ध थाय छे, अने (र) जो तेओ सर्वथा अपरिणामी होय तो जीव अने अजीव द्रव्य एवा बे ज पदार्थो सिद्ध थाय छे. जो आम छे तो आस्रवादि तत्त्वो कई रीते सिद्ध थाय छे.

श्रीगुरु तेनो उत्तर कहे छे के-जीव अने अजीव द्रव्यो ‘कथंचित् परिणामी’ होवाथी बाकीनां पांच तत्त्वोनुं कथन न्याययुक्त सिद्ध थाय छे.

(१) ‘कथंचित्-परिणामीपणुं’ तेनो शुं अर्थ छे ते कहेवाय छेः जेम स्फटिकमणि छे ते जो के स्वभावथी निर्मळ छे तोपण जासुद पुष्प वगेरेनी समीपे पोतानी लायकातना कारणे पर्यायांतर परिणति ग्रहण करे छे; पर्यायमां स्फटिकमणि जो के उपाधिनुं ग्रहण करे छे तोपण निश्चयथी पोतानो जे निर्मळस्वभाव छे तेने ते छोडतो नथी. तेम जीवनो स्वभाव पण शुद्धद्रव्यार्थिक नयथी तो सहज शुद्ध चिदानंद एकरूप छे,


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३९० ] [ मोक्षशास्त्र परंतु अनादि कर्मबंधरूप पर्यायने पोते वश थवाथी ते रागादि परद्रव्य उपाधि- पर्यायने ग्रहण करे छे. पर्यायमां जीव जोके पर पर्यायपणे (परद्रव्यना लक्षे थता अशुद्ध पर्यायपणे) परिणमे छे तो पण निश्चयनयथी शुद्धस्वरूपने छोडतो नथी. पद्गलद्रव्यनुं पण तेम ज थाय छे. आ कारणे जीव-अजीवनुं परस्पर अपेक्षासहित परिणमन होवुं ते ज ‘कथंचित्-परिणामीपणुं,’ शब्दनो अर्थ छे.

(र) आ प्रमाणे ‘कथंचित्-परिणामीपणुं’ सिद्ध थता जीव अने पुद्गलना संयोगनी परिणति (-परिणाम) थी रचायेलां बाकीनां आस्रवादि पांच तत्त्वो सिद्ध थाय छे. जीवमां आस्रवादि पांच तत्त्वोना परिणमन वखते पुद्गलकर्मरूप निमित्तनो सद्भाव के अभाव होय छे अने पुद्गलमां आस्रवादि पांच तत्त्वोना परिणमनमां जीवना भावरूप निमित्तनो सद्भाव के अभाव होय छे. आथी ज सात तत्त्वोने ‘जीव अने पुद्गलना संयोगनी परिणतिथी रचायेलां’ कहेवाय छे; परंतु जीव अने पुद्गलनी भेगी परिणति थईने बाकीनां पांच तत्त्वो थाय छे एम न समजवुं.

पूर्वोक्त जीव अने अजीव ए बे द्रव्योने आ पांच तत्त्वोमां मेळवतां कुल सात तत्त्वो थाय छे. अने तेमां पुण्य-पापने जुदां गणवामां आवे तो नव पदार्थो थाय छे. पुण्य अने पाप नामना बे पदार्थोनो अंतर्भाव (समावेश) अभेदनये आस्रव-बंध पदार्थमां करवामां आवे त्यारे सात तत्त्वो कहेवामां आवे छे.

३. सात तत्त्वोनुं प्रयोजन
(बृहत् द्रव्यसंग्रह पा. ७२-७३ ना आधारे)

शिष्य फरी प्रश्न करे छे के-हे भगवन्! जो के जीव-अजीवनुं कथंचित्- परिणामीपणुं मानतां भेदप्रधान पर्यायार्थिकनयनी अपेक्षाए सात तत्त्वो सिद्ध थई गयां, तोपण तेनाथी जीवनुं शुं प्रयोजन सिद्ध थयुं? - कारण के, जेम अभेदनयथी पुण्य-पाप ए बे पदार्थोनो सात तत्त्वोमां अंतर्भाव प्रथम कर्यो छे ते ज प्रमाणे विशेष अभेदनयनी विवक्षामां आस्रवादि पदार्थोनो पण जीव अने अजीव ए बे ज पदार्थोमां अंतर्भाव करी लेवाथी ए बे ज पदार्थो सिद्ध थई जशे.

श्रीगुरु ते प्रश्ननुं समाधान करे छे-कया तत्त्वो होय छे अने कया तत्त्वो उपादेय छे तेनुं परिज्ञान थाय ए प्रयोजनथी आस्रवादि तत्त्वोनुं निरुपण करवामां आवे छे.

हेय, उपादेय तत्त्वो कया छे ते हवे कहे छेः अक्षय अनंत सुख ते उपादेय छे; तेनुं कारण मोक्ष छे; मोक्षनुं कारण संवर अने निर्जरा छे; तेनुं कारण विशुद्ध


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अ. ६ भूमिका ] [ ३९१ ज्ञानदर्शनस्वभावी निज आत्मतत्त्वस्वरूपना सम्यक्श्रद्धान-ज्ञान तथा आचरणलक्षण स्वरूप ते निश्चयरत्नत्रय; ते निश्चयरत्नत्रयने साधवा मागनार जीवे व्यवहाररत्नत्रय शुं छे ते समजीने परद्रव्यो तेम ज राग उपरथी पोतानुं लक्ष वाळवुं जोईए; ए प्रमाणे करतां निश्चयसम्यग्दर्शन प्रगटे छे, अने तेना जोरे संवर, निर्जरा तथा मोक्ष प्रगटे छे, माटे ए त्रण तत्त्वो उपादेय छे.

हवे हेयतत्त्वो कया छे ते कहे छेः आकुळताने उत्पन्न करनारां एवा निगोदनरकादि गतिनां दुःख तेम ज इन्द्रियो द्वारा उत्पन्न थयेल कल्पित सुख ते हेय (-छोडवा योग्य) छे; तेनुं कारण संसार छे; ते संसारनुं कारण आस्रव तथा बंध ए बे तत्त्वो छे, पुण्य-पाप बन्ने बंधतत्त्व छे; ते आस्रव तथा बंधनां कारण, पूर्वे कहेला निश्चय तेम ज व्यवहाररत्नत्रयथी विपरीत लक्षणनां धारक एवां मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान अने मिथ्याचारित्र ए त्रण छे. तेथी आस्रव अने बंध ए बे तत्त्वो हेय छे.

आ प्रमाणे हेय उपादेय तत्त्वोनुं ज्ञान थवा माटे सात तत्त्वोनुं स्वरूप ज्ञानीओ निरूपण करे छे.

४. तत्त्वनी श्रद्धा क्यारे थई कहेवाय?

(१) जैनशास्त्रोमां कहेला जीवना त्रस-स्थावर वगेरे भेदोने, गुणस्थान- मार्गणा वगेरे भेदोने, जीव-पुद्गल वगेरेना भेदोने तथा वर्णादि भेदोने तो जीव जाणे छे, पण अध्यात्मशास्त्रोमां भेदविज्ञानना कारणभूत अने वीतरागदशा थवाना कारणभूत वस्तुनुं जेवुं निरूपण कर्युं छे तेवुं जे जाणतो नथी, तेने जीव अने अजीवतत्त्वनी यथार्थ श्रद्धा नथी.

(र) वळी कोई प्रसंगथी भेदविज्ञानना कारणभूत अने वीतरागदशाना कारणभूत वस्तुना निरूपणनुं जाणवुं मात्र शास्त्रानुसार होय परंतु पोताने पोतारूप जाणीने तेमां परनो अंश पण (मान्यतामां) न मेळववो तथा पोतानो अंश पण (मान्यतामां) परमां न मेळववो-एवुं श्रद्धान ज्यां सुधी जीव न करे त्यां सुधी तेने जीव अने अजीवतत्त्वनी यथार्थ श्रद्धा नथी.

(३) जेम अन्य मिथ्याद्रष्टि निर्धार विना (-निर्णय वगर) पर्यायबुद्धिथी (-देह द्रष्टिथी) जाणपणामां तथा वर्णादिमां अहंबुद्धि धारे छे, तेम जे जीव आत्माश्रित ज्ञानादिमां तथा शरिराश्रित थती उपदेश, उपवासादि क्रियामां पोतापणुं माने छे, तेने जीव-अजीवतत्त्वनी यथार्थ श्रद्धा नथी. एवो जीव कोई वखत शास्त्रानुसार साची वात पण बोले परंतु त्यां तेने अंतरंग निर्धाररूप श्रद्धा नथी, तेथी, जेम केफी मनुष्य माताने माता कहे तो पण ते शाणो नथी तेम, आ जीव पण सम्यग्द्रष्टि नथी.


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३९२ ] [ मोक्षशास्त्र

(४) वळी ते जीव, कोई बीजानी ज वात करतो होय तेम आत्मानुं कथन करे छे, परंतु ‘ए आत्मा हुं ज छुं’ एवो भाव तेने भासतो नथी. वळी जेम कोई बीजाने बीजाथी भिन्न बतावतो होय तेम आ आत्मा अने शरीरनी भिन्नता प्ररूपे छे; परंतु ‘हुं ए शरीरादिकथी भिन्न छुं’ एवो भाव तेने भासतो नथी; तेथी तेने जीव-अजीवनी यथार्थ श्रद्धा नथी.

(प) पर्यायमां (-वर्तमान दशामां) जीव-पुद्गलना परस्पर निमित्तथी अनेक क्रिया थाय छे; ते सर्वने बे द्रव्योना मेळापथी बनेली माने छे, पण ‘आ जीवनी क्रिया छे अने आ पुद्गलनी क्रिया छे’ एम भिन्न भिन्न भाव तेने भासतो नथी. आवो भिन्न भाव भास्या विना तेने जीव-अजीवनो साचो श्रद्धानी कही शकाय नहि, कारण के जीव-अजीवने जाणवानुं प्रयोजन तो ए ज हतुं; ते आने थयुं नही.

(जुओ, मोक्षमार्ग-प्रकाशक पा. रर९)

(६) ज्यां सुधी आवी यथार्थ श्रद्धा न थाय त्यां सुधी जीव सम्यग्द्रष्टि थतो नथी-एम पहेला अध्यायना बत्रीसमां सूत्रमां* कह्युं छे. तेमां ‘सत्’ शब्दथी जीव पोते त्रिकाळी शुद्ध चैतन्यस्वरूप शुं छे ते समजवा कह्युं छे अने ‘असत्’ शब्दथी ए बताव्युं छे के-जीवमां थतो विकार जीवमांथी टाळी शकाय छे माटे ते पर छे. परवस्तुओ अने आत्मा भिन्न होवाथी कोई परनुं कांई करी शके नहि; आत्मानी अपेक्षाए परवस्तुओ असत् छे-नास्तिपणे छे आम यथार्थ समजे त्यारे ज सत्- असत्ना विशेषनुं यथार्थ ज्ञान जीवने थाय छे. ज्यां सुधी एवुं ज्ञान न थाय त्यां सुधी जीवने आस्रव टळे नहि; ज्यां सुधी जीव पोतानो अने आस्रवनो भेद जाणे नहि त्यां सुधी तेने विकार टळे नहि. तेथी ए भेद समजाववा आस्रवनुं स्वरूप छठ्ठा अने सातमा अध्यायोमां कह्युं छे.

आ आस्रव–अधिकार छे; तेमां प्रथम योगना भेद अने तेनुं
स्वरूप कहे छे–
कायवाङ़्मनःकर्म योगः।। १।।
अर्थः– [कायवाङ़्मनःकर्म] काय, वचन अने मनना अवलंबने (-निमित्ते)

आत्माना प्रदेशोनुं सकंप थवुं ते [योगः] योग छे. _________________________________________________________________ *सदसतोरविशेषाद्यद्रच्छोपलब्धेरुन्मत्तवत्।। ३२।।


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अ. ६ सूत्र १-२ ] [ ३९३

टीका

१. अध्याय प, सूत्र रर मां ‘क्रिया’ शब्द कह्यो छे अने अहीं ‘कर्म’ शब्द कह्यो छे ते बन्नेनो अर्थ एक ज छे.

र. योगः– आत्माना प्रदेशोनुं सकंप थवुं ते; सूत्रमां योगना जे त्रण प्रकार कह्या छे ते निमित्त अपेक्षाए छे. उपादानरूप योगमां त्रण प्रकार नथी पण एक ज प्रकार छे. बीजी रीते योगना बे प्रकार पाडी शकाय छे-१. भावयोग अने र. द्रव्ययोग. कर्म-नोकर्मने ग्रहण करवानी आत्मानी शक्तिविशेष ते भावयोग छे, अने ते शक्तिना कारणे आत्मप्रदेशोनुं परिस्पंदन (चंचळ थवुं) ते द्रव्ययोग छे- (अहीं ‘द्रव्य’ नो अर्थ ‘आत्मद्रव्यना प्रदेशो’ थाय छे).

३. आ आस्रव अधिकार छे. योग ते आस्रव छे-एम बीजा सूत्रमां कहेशे. आ योगना बे प्रकार छे-१. सकषाय योग अने र. अकषाय योग. (जुओ, सूत्र ४.)

४. भावयोग जो के एक ज प्रकारनो छे तोपण निमित्त अपेक्षाए तेना पंदर भेद पडे छे; ज्यारे ते योग मन तरफ वळे छे त्यारे तेमां मन निमित्त होवाथी, योग अने मननो निमित्त-नैमित्तिकसंबंध बताववा माटे, ते योगने ‘मनोयोग’ कहेवामां आवे छे. आ ज प्रमाणे ज्यारे वचन तथा काय तरफ वळे छे त्यारे वचन अने काययोग कहेवाय छे. तेमां मनोयोगना चार प्रकार, वचनयोगना चार प्रकार अने काययोगना सात प्रकार छे; ए रीते निमित्तनी अपेक्षाए भावयोगना कुल पंदर भेदो पडे छे. (जैन सिद्धांत प्रवेशिका-प्र. रर०, ४३र, ४३३)

प. आत्माना अनंत गुणोमानो एक ‘योग’ गुण छे; ते अनुजीवी गुण छे. ते गुणना पर्यायमां बे प्रकार पडे छे-१. परिस्पंदनरूप एटले के आत्मप्रदेशोनां कंपनरूप अने र. आत्मप्रदेशोनी निश्चलतारूप-निष्कंपरूप. पहेलो प्रकार ते योगगुणनो अशुद्ध पर्याय छे अने बीजो प्रकार ते योगगुणनो शुद्ध पर्याय छे.

आ सूत्रमां योगगुणना कंपनरूप अशुद्ध पर्यायने ‘योग’ कहेल छे.
आस्रवनुं स्वरूप
स आस्रवः।। २।।
अर्थः– [सः] ते योग [आस्रवः] आस्रव छे.

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३९४ ] [ मोक्षशास्त्र

टीका

१. सकषाय योग अने अकषाय योग आस्रव अर्थात् आत्माना विकारभाव छे, एम आगळ सूत्र ४मां कहेशे.

र. केटलाक जीवो कषायनो अर्थ क्रोध-मान-माया-लोभ करे छे, पण ते अर्थ पूरतो नथी. मोहना उदयमां जोडातां जीवने मिथ्यात्व क्रोधादिभाव थाय छे ते सर्वनुं नाम सामान्यपणे ‘कषाय’ छे (जुओ, मोक्षमार्ग-प्रकाशक पा. ३१.) सम्यग्द्रष्टिने मिथ्यात्वभाव नथी एटले तेने क्रोधादिभाव थाय ते कषाय छे.

३. योगनी क्रिया नवां कर्मना आस्रवनुं निमित्तकारण छे. आ सूत्रमां कहेलां ‘आस्रव’ शब्दमां द्रव्यआस्रवनो समावेश थाय छे. योगनी क्रिया तो निमित्तकारण छे; तेमां परद्रव्यना द्रव्यास्रवरूप कार्यनो उपचार करीने आ सूत्रमां योगनी क्रियाने ज आस्रव कहेल छे.

एक द्रव्यना कारणने बीजा द्रव्यना कार्यमां मेळवीने व्यवहारनयथी कथन करवामां आवे छे. ते पद्धति अहीं ग्रहण करीने जीवना भावयोगनी क्रिया कारणने द्रव्यकर्मना कार्यमां मेळवीने आ सूत्रमां कथन कर्युं छे; आवा व्यवहारनयने आ शास्त्रमां नैगमनये कथन कर्युं कहेवाय छे; केम के योगनी क्रियामां द्रव्यकर्मरूप कार्यनो संकल्प करवामां आव्यो छे.

४. प्रश्नः– आस्रवने जाणवानी शुं जरूर छे? उत्तरः– दुःखनुं कारण शुं छे ते जाण्या सिवाय दुःख टाळी शकाय नहि; मिथ्यात्वादिक भाव पोते ज दुःखमय छे, तेने जेम छे तेम न जाणे तो तेनो अभाव पण जीव न करे अने तेथी जीवने दुःख ज रहे; माटे आस्रवने जाणवो आवश्यक छे.

(जुओ, मोक्षमार्ग-प्रकाशक पा. ८र)

प. प्रश्नः– अनादिथी जीवनी आस्रवतत्त्वनी विपरीत श्रद्धा शुं छे? उत्तरः– मिथ्यात्व-रागादिक प्रगट दुःखदायक छे छतां तेनुं सेवन करवाथी सुख थशे एम मानवुं ते आस्रवतत्त्वनी विपरीत श्रद्धा छे.

६. प्रश्नः– सूत्र १-र मां योगने आस्रव कह्यो छे अने अन्यत्र तो मिथ्यात्वादिने आस्रव कह्यां-तेनो शुं खुलासो छे?

उत्तरः– सकषाय योग अने अकषाय योग एवा बे प्रकारनो योग छे एम चोथा सूत्रमां स्पष्ट कह्युं छे; माटे सकषाय योगमां मिथ्यात्वादिनो समावेश थई जाय छे एम समजवुं.


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अ. ६ सूत्र २-३ ] [ ३९प

७. आ बन्ने प्रकारना योगोमांथी जे पदे जे योग होय ते जीवनो विकारी पर्याय छे; तेनुं निमित्त पामीने नवां द्रव्यकर्मो आत्मप्रदेशे आवे छे, तेथी ते योग द्रव्यास्रवनुं निमित्तकारण कहेवाय छे.

८. प्रश्नः– पहेलां योग टळे छे के मिथ्यात्वादि टळे छे? उत्तरः– सौथी पहेलां मिथ्यात्वभाव टळे छे. योग तो चौदमा अयोगकेवळी गुणस्थाने टळे छे. तेरमा गुणस्थाने ज्ञान वीर्यादि संपूर्ण प्रगटे छे तोपण योग होय छे; माटे प्रथम मिथ्यात्व टाळवुं जोईए. अने मिथ्यात्व टळतां ते पूरतो योग सहज टळे छे.

९. सम्यग्द्रष्टिने मिथ्यात्व अने अनंतानुबंधी कषाय नहि होवाथी तेने ते प्रकारना भाव-आस्रवो थता ज नथी. सम्यग्द्रष्टिने मिथ्यात्व टळी जवाथी अनंतानुबंधी कषायनो तेम ज अनंतानुबंधी कषायनी साथे संबंध राखता अविरति अने योगभावनो अभाव थई जाय छे (जुओ, श्री समयसार पा. ररप). वळी मिथ्यात्व टळी जवाथी तेनी साथे रहेनारी प्रकृतिओनो बंध थतो नथी अने अन्य प्रकृतिओ सामान्यसंसारनुं कारण नथी. मूळथी कपायेला वृक्षनां लीलां पांदडां जेवी ते प्रकृतिओ शीघ्र सुकावा योग्य छे. संसारनुं मूळ अर्थात् संसारनुं कारण मिथ्यात्व ज छे. (श्री समयसार पा. र१७-र१८).।। २।।

योगना निमित्तथी आस्रवना भेद
शुभः पुण्यस्याशुभः पापस्य।। ३।।
अर्थः– [शुभः] शुभयोग [पुण्यस्य] पुण्यकर्मना आस्रवमां कारण छे अने

[अशुभः] अशुभयोग [पापस्य] पापकर्मना आस्रवमां कारण छे.

टीका

१. योगमां शुभ के अशुभ एवा भेद नथी, पण आचरणरूप उपयोगमां शुभोपयोग अने अशुभोपयोग एवा भेद होय छे; तेथी शुभोपयोग साथेना योगने उपचारथी शुभयोग कहेवाय छे अने अशुभोपयोग साथेना योगने उपचारथी अशुभयोग कहेवाय छे.

२. पुण्य आस्रव अने पाप आस्रव संबंधमां थती विपरीतता
प्रश्नः– आस्रवसंबंधी मिथ्याद्रष्टि जीवनी शुं विपरीतता छे?
उत्तरः– आस्रवतत्त्वमां जे हिंसादिक पापास्रव छे तेने तो जीव हेय जाणे छे,

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३९६ ] [ मोक्षशास्त्र पण अहिंसादिरूप पुण्यास्रव छे तेने उपादेय माने छे; हवे ए बन्ने आस्रवो होवाथी कर्मबंधनां कारणो छे, तेमां उपादेयपणुं मानवुं ए ज मिथ्यादर्शन छे. सर्व जीवोने जीवन-मरण, सुख-दुःख पोतपोताना कर्मोदयना निमित्तथी थाय छे छतां ज्यां अन्य जीव अन्य जीवनां कार्योनो कर्ता थाय एम मानवुं ए ज मिथ्या अध्यवसाय बंधनुं कारण छे. अन्य जीवने जीवाडवानो के सुखी करवानो अध्यवसाय थाय ते तो पुण्यबंधना कारणरूप छे, अने मारवानो तथा दुःखी करवानो अध्यवसाय थाय ते पापबंधना कारणरूप छे. ए सर्व मिथ्या-अध्यवसाय छे, ते त्याज्य छे; माटे हिंसादिकनी माफक अहिंसादिकने पण बंधनां कारणरूप जाणीने हेय मानवां. हिंसामां सामा जीवने मारवानी बुद्धि थाय पण तेनुं आयु पूर्ण थया विना ते मरे नहि अने पोतानी द्वेषपरिणतिथी पोते ज पाप बांधे छे; तथा अहिंसामां परनी रक्षा करवानी बुद्धि थाय पण तेना आयुअवशेष विना ते जीवे नहि, मात्र पोतानी शुभराग परिणतिथी पोते ज पुण्य बांधे छे. ए प्रमाणे ए बन्ने हेय छे. पण ज्यां जीव वीतराग थई द्रष्टा-ज्ञातारूप प्रवर्ते त्यां ज निर्बंधता छे माटे ते उपादेय छे.

एवी निर्बंधदशा न थाय त्यांसुधी जीवने शुभराग थाय; परंतु श्रद्धान तो एवुं राखवुं के आ पण बंधनुं कारण छे-हेय छे-अधर्म छे. जो श्रद्धानमां जीव तेने मोक्षमार्ग जाणे तो ते मिथ्याद्रष्टि ज छे. (मोक्षमार्ग प्रकाशक पा. रर९-र३०).

३. शुभयोग तथा अनुभयोगना अर्थो

शुभयोगः– पंच परमेष्ठीनी भक्ति, प्राणीओ प्रत्ये उपकारभाव, रक्षाभाव, सत्य बोलवानो भाव, परधन हरण न करवानो भाव-इत्यादि शुभ परिणामथी रचायेला योगने शुभयोग कहे छे.

अशुभयोगः– जीवोनी हिंसा करवी; असत्य बोलवुं, परधन हरण करवुं, ईर्षा करवी-इत्यादि भावोरूप अशुभपरिणामथी रचायेला योगने अशुभयोग कहे छे.

४ आस्रवमां शुभ अने अशुभ एवा भेद शा माटे?

प्रश्नः– आत्माने पराधीन करवामां पुण्य अने पाप बन्ने समान कारण छे- सुवर्णनी सांकळ अने लोढानी सांकळनी जेम पुण्य अने पाप ते बन्ने आत्मानी स्वतंत्रतानो अभाव करवामां सरखां छे- तो पछी तेमां शुभ अने अशुभ एवा भेद केम कह्या?

उत्तरः– तेमना कारणे मळती इष्ट-अनिष्ट गति, जाति वगेरेनी रचनाना भेदनुं


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अ. ६ सूत्र ३ ] [ ३९७ ज्ञान कराववा माटे तेमां भेद कह्यो छे, -एटले के संसार अपेक्षाए भेद छे, धर्म अपेक्षाए भेद नथी अर्थात् बन्ने प्रकारना भाव ‘अधर्म’ छे.

प. शुभ तेम ज अशुभ बन्ने भावोथी सात के आठ कर्मो
बंधाय छे छतां अहीं तेम केम कह्युं नथी?

प्रश्नः– आयु सिवायना साते कर्मनो आस्रव रागी जीवने निरंतर थाय छे छतां शुभपरिणामने पुण्यआस्रवनुं ज कारण अने अशुभ परिणामने पापआस्रवनुं ज कारण आ सूत्रमां केम कह्युं छे?

उत्तरः– जोके संसारी रागी जीवने साते कर्मनो आस्रव निरंतर थाय छे, तोपण संकलेश (अशुभ) परिणामथी देव, मनुष्य अने तिर्यंच आयुष्य सिवाय एकसो पीस्तालीस प्रकृतिओनी स्थिति वधी जाय छे अने मंद (शुभ) परिणामथी ते समस्त कर्मनी स्थिति घटी जाय छे अने उपर्युक्त त्रण आयुनी स्थिति वधी जाय छे.

वळी तीव्र कषायथी शुभप्रकृतिनो रस तो घटी जाय छे अने असातावेदनीयादिक अशुभप्रकृतिनो रस वधी जाय छे. मंद कषायथी पुण्यप्रकृतिमां रस वधे छे अने पापप्रकृतिमां रस घटे छे; माटे स्थिति तथा रस (अनुभाग) नी अपेक्षाए शुभ परिणामने पुण्यास्रव कह्या अने अशुभ परिणामने पापास्रव कह्या छे.

६. शुभ–अशुभ कर्मो बंधावाना कारणे शुभ–अशुभयोग एवो भेद नथी

प्रश्नः– शुभ परिणामना कारणे शुभयोग अने अशुभ परिणामना कारणे अशुभ योग छे- एम मानवाने बदले शुभ-अशुभ कर्मो बंधावाना निमित्ते आ योगना शुभ-अशुभ भेद पडे छे एम मानवामां शुं वांधो छे?

उत्तरः– जो कर्मना बंध अनुसार योग मानवामां आवशे तो शुभयोग ज रहेशे नहि, केम के शुभयोगना निमित्ते ज्ञानावरणादि अशुभकर्मो पण बंधाय छे; तेथी शुभ-अशुभकर्मो बंधावाना कारणे शुभ-अशुभयोग एवा भेद नथी. परंतु मंदकषायना कारणे शुभ योग अने तीव्र कषायना कारणे अशुभ योग छे-एम मानवुं ते न्यायसर छे.

७. शुभभावथी पापनी निर्जरा थती नथी.

प्रश्नः– शुभभावथी पुण्यनो बंध थाय ए खरु; पण तेनाथी पापनी निर्जरा थाय एम मानवामां शुं दोष छे?


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३९८ ] [ मोक्षशास्त्र

उत्तरः– आ सूत्रमां कहेली तत्त्वद्रष्टिथी जोतां ए मान्यता भूल भरेली छे; शुभभावथी पुण्यनो बंध थाय छे, बंध ते संसार छे, अने संवरपूर्वक निर्जरा ते धर्म छे. जो शुभभावथी पापनी निर्जरा म मानीए तो ते (शुभभाव) धर्म थयो; धर्मथी बंध केम थाय? माटे शुभभावथी जूनां पापकर्मनी निर्जरा थाय (आत्मप्रदेशेथी पापकर्म खरी जाय) -ए मान्यता साची नथी. निर्जरा शुद्धभावथी ज थाय छे एटले के तत्त्वद्रष्टि वगर संवर पूर्वक निर्जरा थाय नहि.

८. त्रीजा सूत्रनो सिद्धांत

शुभभाव अने अशुभभाव बन्ने कषाय छे, तेथी ते संसारनुं कारण छे. शुभभाव वधतां वधतां तेनाथी शुद्धभाव थाय ज नहि. ज्यारे शुद्धना लक्षे शुभ टाळे त्यारे शुद्धता थाय. जेटला अंशे शुद्धता प्रगटे तेटला अंशे धर्म छे. शुभ के अशुभमां धर्मनो अंश पण नथी एम मानवुं ते यथार्थ छे; ते मान्यता कर्या विना सम्यग्दर्शन कदी थाय नहि. शुभयोग ते संवर छे एम केटलाक माने छे-ते असत्य छे एम बताववा आ सूत्रमां बन्ने योगने स्पष्टपणे आस्रव कह्या छे. ।। ।।

आस्रव सर्वे संसारीओने समान फळनो हेतु थाय छे के तेमां
विशेषता छे तेनो खुलासो

सकषायाकषाययोः साम्परायिकेर्यांपथयोः।। ४।।

अर्थः– [सकषायस्य साम्परायिकस्य] कषायसहित जीवने संसारना कारणरूप

कर्मनो आस्रव थाय छे अने [अकषायस्य ईर्यापथस्य] कषायरहित जीवने स्थितिरहित कर्मनो आस्रव थाय छे.

टीका

१. कषायनो अर्थ मिथ्यादर्शनरूप-क्रोधादि थाय छे. सम्यग्द्रष्टि जीवोने मिथ्यादर्शनरूप कषाय होतो नथी एटले सम्यग्द्रष्टि जीवोने लागु पडतो कषायनो अर्थ ‘पोतानी नबळाईथी थता क्रोध-मान-माया-लोभ वगेरे’ एवो समजवो. मिथ्यादर्शन एटले आत्माना स्वरूपनी मिथ्यामान्यता-ऊंधी मान्यता.

र. साम्परायिक आस्रव– आ आस्रव संसारनुं ज कारण छे. मिथ्यात्वभावरूप आस्रव अनंत संसारनुं कारण छे; मिथ्यात्वनो अभाव थया पछी थतो भावास्रव अल्प संसारनुं कारण छे.


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अ. ६. सूत्र प ] [ ३९९

३. ईर्यापथ आस्रव– आ आस्रव स्थिति अने अनुभाग रहित छे, अने ते अकषायी जीवोने ११, १२ अने १३मा गुणस्थाने होय छे. चौदमे गुणस्थाने वर्तना जीव अकषायी अने अयोगी बन्ने छे, तेथी त्यां आस्रव छे ज नहिं.

४. कर्मबंधना चार प्रकार

कर्मबंधना चार भेद छेः प्रकृति, प्रदेश, स्थिति अने अनुभाग. तेमां पहेला बे प्रकारना भेदनुं कारण योग छे अने छेल्ला बे भेदनुं कारण कषाय छे. कषाय ते संसारनुं कारण छे अने तेथी कषाय होय त्यां सुधीना आस्रवने साम्परायिक आस्रव कहे छे; अने कषाय टळ्‌या पछी एकलो योग रहे छे; कषायरहित योगथी थता आस्रवने इर्यापथ आस्रव कहे छे; आत्मानो ते वखतनो प्रगटतो भाव ते भाव- इर्यापथ छे अने द्रव्यकर्मनो आस्रव ते द्रव्य-इर्यापथ छे. आ प्रमाणे भाव अने द्रव्य एवा बे भेद साम्परायिक आस्रवमां पण समजी लेवा. ११ थी १३ मां गुणस्थान सुधी इर्यापथ आस्रव होय छे. ते पहेलानां गुणस्थानोए साम्परायिक आस्रव होय छे.

जेम वडनुं फळ वगेरे वस्त्रने कषायेला रंगनुं निमित्त थाय छे तेम मिथ्यात्व-क्रोधादिक आत्माने कर्म-रंग लागवानुं निमित्त छे, तेथी ते भावोने कषाय कहेवामां आवे छे. जेम कोरा घडाने रज अडीने चाली जाय तेम कषायरहित आत्माने कर्म-रज अडीने ते ज वखते चाली जाय छे-आने इर्यापथ आस्रव कहेवामां आवे छे.

साम्परायिक आस्रवना ३९ भेद
इन्द्रियकषायाव्रतक्रियाः पंचचतुःपंचपंचविंशतिसंख्याः
पूर्वस्य भेदाः।। ५।।
अर्थः– [इन्द्रियाणि पंच] स्पर्श वगेरे पांच इन्द्रियो, [कषायाः चतुः] क्रोध

वगेरे चार कषाय, [अव्रतानि पंच] हिंसा वगेरे पांच अव्रत अने [क्रियाःपंचविंशति] सम्यक्त्व वगेरे पचीस प्रकारनी क्रियाओ [संख्या भेदाः] प्रमाणे कुल ३९ भेद [पूर्वस्य] पहेला (साम्परायिक) आस्रवना छे, अर्थात् ए सर्व भेदो द्वारा साम्परायिक कर्मनो आस्रव थाय छे.

टीका

१. इन्द्रिय– बीजा अध्यायना १प थी १९ सूत्रमां इन्द्रियनो विषय आवी गयो छे. पुद्गल-इन्द्रियो परद्धव्य छे, तेनाथी आत्माने लाभ के नुकशान थाय नहि; मात्र


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४०० ] [ मोक्षशास्त्र भावेन्द्रियना उपयोगमां ते निमित्त थाय. ‘इन्द्रिय’ नो अर्थ भावेन्द्रिय द्रव्य-इन्द्रिय अने इन्द्रियना विषयो-एम थाय छे, ए त्रणे ज्ञेयो छे; ज्ञायक आत्मा साथे तेओना एकत्वनी मान्यता ते (मिथ्यात्वभाव) ज्ञेयज्ञायकसंकरदोष छे.

(जुओ, श्री समयसार गाथा ३१. टीका पा. प७-प८)

कषाय–राग-द्वेषरूप आत्मानी प्रवृत्ति ते कषाय छे. ते प्रवृत्ति तीव्र अने मंद एम बे प्रकारनी होय छे.

अव्रत– हिंसा, जू ठुं, चोरी, मैथुन अने परिग्रह-एम पांच प्रकारनां अव्रत छे. र. क्रियाः– आत्माना प्रदेशोना परिस्पंदनरूप योग ते क्रिया छे; तेमां मन, वचन अने काया निमित्त होय छे. आ क्रिया सकषाय योगमां दशमा गुणस्थान सुधी होय छे. पौद्गलिक मन, वचन के कायानी कोई पण क्रिया आत्मानी नथी अने ते आत्माने लाभकारक के नुकशानकारक नथी. आत्मा ज्यारे सकषाय योगरूपे परिणमे अने नवां कर्मोनो आस्रव थाय त्यारे आत्मानो सकषाय योग ते पुद्गल-आस्रवमां निमित्त छे अने पुद्गल पोते ते आस्रवनुं उपादानकारण छे, भावास्रवनुं उपादानकारण आत्मानी ते ते अवस्थानी लायकात छे अने निमित्त जूनां कर्मोनो उदय छे.

३. पचीस प्रकारनी क्रियानां नाम तथा तेना अर्थ
[नोंधः– पचीस प्रकारनी क्रियाना वर्णनमां ‘क्रिया’ नो अर्थ उपर नं. र मां कह्यो ते प्रमाणे

करवो - अर्थात् आत्माना प्रदेशोनी परिस्पंदनरूप क्रिया- एम करवो.]

(१) सम्यक्त्व क्रियाः– चैत्य, गुरु, प्रवचननी पूजा वगेरे कार्योथी सम्यक्त्वनी वृद्धि थाय छे तेथी ते सम्यक्त्वक्रिया छे. अहीं मन, वचन, कायानी जे क्रिया थाय छे ते सम्यक्त्वी जीवने शुभभावमां निमित्त छे; तेओ शुभभावने धर्म मानता नथी, तेथी ते मान्यतानी द्रढता वडे तेमने सम्यक्त्वनी वृद्धि थाय छे; माटे ते मान्यता आस्रव नथी, पण जे सकषाय (शुभभावसहित) योग छे ते भाव- आस्रव छे; द्रव्यकर्मना आस्रवमां ते सकषाययोग मात्र निमित्तकारण छे.

(२) मिथ्यात्व क्रियाः– कुदेव, कुगुरु अने कुशास्त्रनां स्तवनादिरूप मिथ्यात्वना कारणवाळी क्रियामां अभिरुचि ते मिथ्यात्व क्रिया छे.

(३) प्रयोग क्रियाः– हाथ, पग वगेरे चलाववाना भावरूप क्रिया ते प्रयोग क्रिया छे.

(४) समादान क्रियाः– संयमी पुरुषनुं असंयम सन्मुख थवुं ते समादान क्रिया छे.


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अ. ६ सूत्र प ] [ ४०१

(प) इर्यापथ क्रिया– समादान क्रियाथी ऊलटी क्रिया एटले के संयम वधारवा माटे साधु जे क्रिया करे ते इर्यापथ क्रिया छे. इर्यापथ पांच समितिरूप छे; तेमां जे शुभभाव छे ते इर्यापथ क्रिया छे. [समितिनुं स्वरूप नवमा अध्यायना पांचमा सूत्रमां कहेवाशे.]

हवे बीजी पांच क्रियाओ कहेवामां आवे छे; तेमां परहिंसाना
भावनी मुख्यता छे.

(६) प्रादोषिक क्रिया–क्रोधना आवेशथी द्वेषादिकरूप बुद्धि करवी ते प्रादोषिक क्रिया छे.

(७) कायिकी क्रिया–उपर्युक्त प्रदोष उत्पन्न थतां हाथथी मारवुं, मुखथी गाळो देवी-इत्यादि प्रवृत्तिनो भाव ते कायिकि क्रिया छे.

(८) अधिकरणिकी क्रिया–हिंसाना साधनभूत बंदूक, छरी वगेरेनुं लेवुं, राखवुं ते सर्वे अधिकरणिकी क्रिया छे.

(९) परिताप क्रियाः– बीजाने दुःख देवामां लागवुं ते परिताप क्रिया छे. (१०) प्राणातिपात क्रिया–बीजानां शरीर, इन्द्रिय के श्वासोश्वासने नष्ट करवा ते प्राणातिपात क्रिया छे.

नोंधः– व्यवहार-कथन छे, तेनो अर्थ एम समजवो के जीव पोतामां आ प्रकारना अशुभभाव करे छे, त्यारे आ क्रियामां बतावेली परवस्तुओ ब्राह्य निमित्तरूपे स्वयं होय छे. जीव परपदार्थोनुं कांई करी शके के परपदार्थो जीवनुं कांई करी शके एम मानवुं नहि.

हवे ११ थी १प सुधीनी पांच क्रियाओ कहे छे; तेनो संबंध
इन्द्रियना भोगो साथे छे.

(११) दर्शन क्रिया– सौदंर्य जोवानी इच्छा ते दर्शन क्रिया छे. (१२) स्पर्शन क्रिया–कोई चीजने स्पर्श करवानी ईन्छा ते स्पर्शन क्रिया छे (आमां बीजी इन्द्रियो संबंधी वांछानो समावेश समजी लेवो).

(१३) प्रात्ययिकी क्रिया– इन्द्रियना भोगोनी वृद्धि माटे नवी नवी सामग्री एकठी करवी के उत्पन्न करवी ते प्रात्ययिकी क्रिया छे.


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४०२ ] [ मोक्षशास्त्र

(१४) समन्तानुपान क्रिया–स्त्री, पुरुष तथा पशुओने बेसवा-उठवाना स्थानो मळ-मूत्रथी खराब करवां ते समन्तानुपात क्रिया छे.

(१प) अनाभोग क्रिया–भूमि जोया वगर के यत्नथी शोध्या वगर बेसवुं, ऊठवुं, सूवुं के कांई नांखवुं ते अनाभोग क्रिया छे.

हवे १६ थी २० सुधीनी पांच क्रियाओ कहे छे, ते ऊंचा
धर्माचरणमां धकको पहोंचाडनारी छे

(१६) स्वहस्त क्रिया–जे काम बीजाने लायक होय ते पोते करवुं ते स्वहस्त क्रिया छे.

(१७) निसर्ग क्रिया– पापनां साधनो लेवा-देवामां संमति आपवी ते निसर्ग क्रिया छे.

(१८) विदारण क्रिया–आळसने वश थई सारां कामो न करवां अने बीजाना दोषो जाहेर करवा ते विदारण क्रिया छे.

(१९) आज्ञा व्यापादिनी क्रिया–शास्त्रनी आज्ञानुं पोते पालन न करवुं अने तेना विपरीत अर्थ करवा तथा विपरीत उपदेश आपवो ते आज्ञा व्यापादिनी क्रिया छे.

(२०) अनाकांक्षा क्रिया–उन्मत्तपणुं के आळसने वश थई प्रवचनमां (-शास्त्रोमां) कहेली आज्ञाओ प्रत्ये आदर के पे्रम न राखवो ते अनाकांक्षा क्रिया छे.

हवे छेल्ली पांच क्रियाओ कहे छे; तेना होवाथी धर्म
धारवामां विमुखता रहे छे.

(२१) आरंभ क्रिया– नुकसानकारी कार्योमां रोकावुं, छेदवुं, तोडवुं, भेदवुं के बीजा कोई तेम करे तो हर्षित थवुं ते आरंभ क्रिया छे.

(२२) परिग्रह क्रिया–परिग्रहनो कांई पण ध्वंस न थाय एवा उपायोमां लाग्या रहेवुं ते परिग्रह क्रिया छे.

(२३) माया क्रिया–ज्ञानादि गुणोने मायाचारथी छुपाववा ते माया क्रिया छे. (२४) मिथ्यादर्शन क्रिया–मिथ्याद्रष्टिओनी तेम ज मिथ्यात्वथी भरेलां कामोनी प्रशंसा करवी ते मिथ्यादर्शन क्रिया छे.

(२प) अप्रत्याख्यान क्रिया–जे त्याग करवा लायक होय तेनो त्याग न करवो


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अ. ६ सूत्र ६-७ ] [ ४०३ ते अप्रत्याख्यान क्रिया छे. (प्रत्याख्याननो अर्थ त्याग छे, विषयो प्रत्येनी आसक्तिनो त्याग करवाने बदले तेमां आसक्ति करवी ते अप्रत्याख्यान छे.)

नोंध– नं. १० नी क्रिया नीचे जे नोंध छे ते नं. ११ थी २प सुधीनी क्रियाने पण लागु पडे छे.

नं. ६ थी २प सुधीनी क्रियाओमां आत्मानो अशुभभाव छे; अशुभभावरूप कषाय योग ते भाव-आस्रव छे, परंतु जड मन, वचन के शरीरनी क्रिया ते कांई भाव आस्रवनुं कारण नथी. भावास्रवनुं निमित्त पामीने जड रजकणरूप कर्मो जीव साथे एकक्षेत्रावगाहरूपे आवे छे. इन्द्रिय, कषाय तथा अव्रत कारण छे अने क्रिया तेनुं कार्य छे.।। ।।

आस्रवमां विशेषता (–हीनाधिकता) नुं कारण
ताव्रमन्दज्ञाताज्ञातभावाधिकरणवीर्यविशेषेभ्यस्तद्विशेषः।। ६।।
अर्थः– [तीव्र मन्द ज्ञात अज्ञातभाव] तीव्रभाव, मंदभाव, ज्ञातभाव,

अज्ञातभाव, [अधिकरणछीर्यविशेषेभ्यः] अधिकरण विशेष अने वीर्य विशेषथी [तत् विशेषः] आस्रवमां विशेषता-हीनाधिकता थाय छे.

टीका
तीव्रभाव–अत्यंत वधेला क्रोधादि द्वारा जे तीव्ररूप भाव थाय छे ते तीव्रभाव छे.
मंदभाव– कषायोनी मंदताथी जे भाव थाय छे ते मंदभाव छे.
ज्ञातभाव–जाणीने ईरादापूर्वक करवामां आवती प्रवृत्ति ते ज्ञातभाव छे.
अज्ञातभाव–जाण्या विना असावधानताथी प्रवर्तवुं ते अज्ञातभाव छे.
अधिकरण–जे द्रव्यनो आश्रय लेवामां आवे ते अधिकरण छे.
वीर्य– द्रव्यनी शक्ति विशेष ते वीर्य-बळ छे.
।। ।।
अधिकरणना भेद
अधिकरणं जीवाऽजीवाः।। ७।।
अर्थः– [अधिकरणं] अधिकरण [जीवाऽजीवाः] जीवद्रव्य अने अजीवद्रव्य

एम बे भेदरूप छे; तेनो स्पष्ट अर्थ ए छे के आत्मामां जे कर्मास्रव थाय छे तेमां बे प्रकारनां निमित्तो छेः एक जीवनिमित्त अने बीजुं अजीवनिमित्त.


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४०४ ] [ मोक्षशास्त्र

टीका

१. अहीं अधिकरणनो अर्थ निमित्त थाय छे. छठ्ठा सूत्रमां आस्रवनी तारतम्यताना कारणमां एक कारण ‘अधिकरण’ कह्युं छे. ते अधिकरणना प्रकार बताववा माटे आ सूत्रमां जीव अने अजीव कर्मास्रवमां निमित्त छे एम जणाव्युं छे.

र. जीव अने अजीवना पर्यायो अधिकरण छे एम बताववा माटे सूत्रमां द्विवचन नहि वापरतां बहुवचन वापरेल छे. जीव-अजीव सामान्य अधिकरण नथी पण जीव-अजीवना विशेष पर्यायो अधिकरण थाय छे. जो जीव-अजीव ना सामान्यने अधिकरण कहेवामां आवे तो सर्वे जीव अने सर्वे अजीव अधिकरण थाय. पण तेम थतुं नथी, केम के जीव-अजीवना विशेष-विशेष पर्याय ज अधिकरण स्वरूप थाय छे. ।। ।।

जीव–अधिकरणना भेद
आद्यं संरंभसमारंभारंभयोगकृतकारितानुमतकषाय–
विशेषैस्त्रिस्त्रिस्त्रिश्चतुश्चैकशः।। ८।।
अर्थः– [आद्यं] पहेलो अर्थात् जीव अधिकरण-आस्रव [संरम्भ समारम्भ

आरंभ] संरंभ-समारंभ-आरंभ [योग] मन-वचन-कायरूप त्रण योग [कृत कारित अनुमत] कृत-कारित-अनुमोदना तथा [कषायविशेषैःच] क्रोधादि चार कषायोनी विशेषताथी [त्रिः त्रिः त्रिः चतुः] × ३ × ३ × ३ × ४ [एकशः] १०८ भेदरूप छे.

टीका

सरंम्भादि त्रण प्रकार छे; ते दरेकमां मन-वचन-काय ए त्रण बोल लगाडवाथी नव भेद थया; ते दरेक भेदमां कृत-कारित-अनुमोदना ए त्रण बोल लगाडवाथी सत्तावीस भेद थया अने ते दरेकमां क्रोध-मान-माया-लोभ ए चार बोल लगाडवाथी कुल एकसो आठ भेद थाय छे. आ बधा भेद जीव-अधिकरण आस्रवना छे.

सूत्रमां शब्द अनंतानुबंधी, अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान अने संज्वलन

कषायना चार प्रकार सूचवे छे.

अनंतानुबंधी कषाय–जे कषायथी जीव पोताना स्वरूपाचरण चारित्रनुं ग्रहण न करी शके तेने अनंतानुबंधी कषाय कहेवाय छे अर्थात् आत्माना स्वरूपाचरण चारित्रने जे घाते तेने अनंतानुबंधी कषाय कहेवाय छे.

अनंत संसारनुं कारण होवाथी मिथ्यात्वने ‘अनंत’ कहेवामां आवे छे; तेनी साथे जे कषायनो बंध थाय छे तेने अनंतानुबंधी कषाय कहेवाय छे.