Moksha Shastra-Gujarati (Devanagari transliteration). Upsanhar (Chapter 7); Eight Chapter Pg 491 to 519; Sutra: 1-4 (Chapter 8).

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४८६ ] [ मोक्षशास्त्र भगवान महावीर ज्यारे छद्मस्थ मुनि हता त्यारे चंदनबाळाए नवधाभक्तिपूर्वक तेमने आहार आप्यो हतो ए वात प्रसिद्ध छे.

मुनिने तथा क्षुल्लकने ‘तिष्ठ! तिष्ठ! तिष्ठ! (अहीं बिराजो) एम अति अनुराग अने अति पूज्यभावथी कहेवुं तथा अन्य श्रावकादिक योग्य पात्र जीवोने तेमना पद अनुसार आदरनां वचन कहेवां ते संग्रह छे. जेने हृदयमां नवधाभक्ति नथी तेने त्यां मुनि भोजन करे ज नहि; अने अन्य धर्मात्मा पात्र जीवो पण आदर वगर, लोभी थईने धर्मनो निरादर करावीने भोजनादिक कदी ग्रहण करे नहि. जैनीपणुं तो दीनता रहित परम संतोष धारण करवो ते छे.

३. द्रव्य विशेष

पात्रदाननी अपेक्षाए देवा योग्य पदार्थो चार प्रकारना छे-१. आहार, र. औषध, ३. उपकरण (पीछी, कमंडळ, शास्त्र वगेरे) अने ४. आवास. आ पदार्थो तप, स्वाध्यायादि धर्मकार्यमां वृद्धिनां कारण थाय एवां होवां जोईए. (तप = मुनिपणुं)

४. दातृविशेष
दातारमां नीचेना सात गुणो होवा जोईए-
(१) ऐहिक फळ अनपेक्षा– सांसारिक लाभनी इच्छा न होवी ते.
(र) क्षांति–दान आपतां गुस्सारहित शांतिपरिणाम होवा ते.
(३) मुदित– दान आपतां प्रसन्नता होवी ते,
(४) निष्कपटता- कपटरहितपणुं होवुं ते.
(प) अनसूयत्व–इर्षारहितपणुं होवुं ते.
(६) अविषादित्व– विषाद (खेद) रहितपणुं होवुं ते.
(७) निरहंकार्त्वि–अभिमानरहितपणुं ते.
दातारमां रहेला आ गुणोनी हीनाधिकता प्रमाणे तेने दाननुं फळ थाय छे.
प. पात्रविशेष
सत्पात्रना त्रण प्रकार छेः-
(१) उत्तमपात्र-सम्यक्चारित्रवान मुनि.
(र) मध्यमपात्र-व्रतधारी सम्यग्द्रष्टि.

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अ. ७ सूत्र ३९ ] [ ४८७

(३) जघन्यपात्र- अव्रती सम्यग्द्रष्टि. आ त्रणे सम्यग्द्रष्टि होवाथी सुपात्र छे. सम्यग्दर्शन वगरना जे जीवो बाह्यव्रत सहित होय ते कुपात्र छे अने सम्यग्दर्शन रहित तेम ज बाह्यव्रत- चारित्रथी पण रहित होय ते जीवो अपात्र छे.

६. दान संबंधी जाणवा योग्य विशेष बाबतो

(१) अपात्र जीवोने दुःखथी पीडित देखीने तेमना उपर दयाभाव वडे तेमनुं दुःख दूर करवानी भावना गृहस्थ अवश्य करे, पण तेमना पत्ये भक्तिभाव न करे; केम के तेवा प्रत्ये भक्तिभाव करवो ते तेमना पापनी अनुमोदना छे. कुपात्रने योग्य रीते (करुणाबुद्धि वडे) आहारादि दान देवुं जोईए.

(र) प्रश्नः– अपात्रने दान आपतां अज्ञानीने जो शुभभाव होय तो तेनुं फळ शु? अपात्रने दान आपवानुं फळ नरक निगोद छे- एम कोई कहे छे ते खरुं छे?

उत्तरः– अपात्रने दान आपतां शुभभाव छे, तेनुं फळ नरक-निगोद होई शके नहि. आत्मानुं ज्ञान अने आचरण नहि होवाथी जे परमार्थशून्य छे एवा अज्ञानी छद्मस्थ विपरीत गुरु प्रत्ये सेवा-भक्तिथी वैयावृत्य, तथा आहारादिक दान देवानी क्रियाथी जे पुण्य थाय छे तेनुं फळ नीच देव अने नीच मनुष्यपणुं छे.

[जुओ, गुजराती प्रवचनसार पानुं ४१६ तथा चर्चा समाधान पानुं ४८]

(३) आहार, औषध, अभय अने ज्ञानदान-एवा दानना चार प्रकार पण छे. केवळी भगवानने दानांतरायनो सर्वथा नाश थवाथी क्षायिक दानशक्ति प्रगट थई छे. तेनुं मुख्य कार्य ए छे के संसारना शरणागत जीवोने अभय प्रदान करे. आ अभयदाननी पूर्णता केवळज्ञानीओने होय छे. तेम ज दिव्य वाणीद्वारा तत्त्वोपदेश देवाथी भव्य जीवोने ज्ञानदाननी प्राप्ति पण थाय छे. बाकीनां बे दान (आहार अने औषध) रह्यां ते गृहस्थनां कार्य छे. ए बे सिवायना पहेलां बे दान पण गृहस्थोने यथाशक्ति होय छे. केवळी भगवान वीतरागी छे तेमने दाननी इच्छा होती नथी. ।। ३९।। (जुओ, तत्त्वार्थसार पा. २प६)

उपसंहार

१. आ अधिकारमां पुण्यास्रवनुं वर्णन छे; व्रत ते पुण्यास्रवनुं कारण छे. अढारमा सूत्रमां व्रतीनी व्याख्या आपी छे. तेमां जणाव्युं छे के, जे जीव मिथ्यात्व, माया अने निदान ए त्रण शल्यरहित होय ते ज व्रती होई शके. ‘जेने व्रत होय ते व्रती’


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४८८ ] [ मोक्षशास्त्र एवी व्याख्या करी नथी, माटे ए खास लक्षमां राखवुं के व्रती थवा माटे सम्यग्दर्शन अने व्रत बन्ने होवां जोईए.

र. सम्यग्द्रष्टि जीवने अंशे वीतरागचारित्रपूर्वक महाव्रतादिरूप शुभोपयोग होय तेने सरागचारित्र कहेवाय छे; ते सरागचारित्र अनिष्ट फळवाळुं होवाथी छोडवायोग्य छे. जेमां कषायकण विद्यमान होवाथी जीवने जे पुण्यबंधनी प्राप्तिनुं कारण छे एवुं ते सरागचारित्र वच्चे आवी पडयुं होवा छतां तेने दूर ओळंगी जवानो प्रयत्न सम्यग्द्रष्टिने चालु होय छे. (जुओ, प्रवचनसार गाथा १-प-६)

३. महाव्रतादि शुभोपयोगने उपादेयपणाथी ग्रहणरूप मानवुं ते मिथ्याद्रष्टिपणुं छे. आ अध्यायमां ते व्रतोने आस्रवरूपे वर्णव्यां छे तो ते उपादेय केवी रीते होय? आस्रव तो बंधनो साधक छे अने चारित्र तो मोक्षनुं साधक छे, तेथी ए महाव्रतादिरूप आस्रवभावोमां चारित्रपणुं संभवतुं नथी. चारित्रमोहना देशघाती स्पर्द्धकोना उदयमां जोडावाथी जे महामंद प्रशस्त राग थाय छे ते तो चारित्रनो दोष छे. तेने नहि छूटतो जाणीने ज्ञानीओ तेनो त्याग करता नथी अने सावद्ययोगनो ज त्याग करे छे. पण जेम कोई पुरुष कंदमूळादि घणा दोषवाळी हरितकायनो त्याग करे छे अने कोई हरितकायने वापरे छे पण तेने धर्म मानतो नथी तेम मुनि हिंसादि तीव्र कषायरूप भावोनो त्याग करे छे तथा कोई मंद कषायरूप महाव्रतादिने पाळे छे परंतु तेने मोक्षमार्ग मानता नथी.

(जुओ, मोक्षमार्ग प्रकाशक पा. २३३)

४. आ आस्रव अधिकारमां अहिंसादि व्रतोनुं वर्णन कर्युं छे तेथी एम समजवुं के, कोई जीवने न मारवो एवा शुभभावरूप अहिंसा, सत्य, अचौर्यता, ब्रह्यचर्य अने अपरिग्रह भाव ए बधा पुण्यास्रव छे. आ अधिकारमां संवर- निर्जरानुं वर्णन नथी. ते अहिंसादि जो संवर-निर्जरानुं कारण होत तो आ आस्रव- अधिकारमां तेमनुं वर्णन आचार्यदेव करत नहि.

प. व्रतादिना शुभभाव वखते पण चार घातिकर्मो बंधाय छे अने घातिकर्मो तो पाप छे. सम्यग्द्रष्टि जीवने साची श्रद्धा होवाथी दर्शनमोह, अनंतानुबंधी क्रोध- मान-माया-लोभ तथा नरकगति इत्यादि कुल ४१ कर्मप्रकृतिओनो बंध थतो नथी; ते तो चोथा गुणस्थाने सम्यग्दर्शननुं फळ छे अने उपरनी दशामां जेटले अंशे चारित्रनी शुद्धता प्रगटे छे ते वीतरागचारित्रनुं फळ छे, परंतु महाव्रत के देशव्रतनुं फळ ते शुद्धता नथी. महाव्रत के देशव्रतनुं फळ तो बंधन छे.

६. अशुभभावमां तो धर्म नथी एम तो साधारण जीवो ओघद्रष्टिए माने छे एटले ते संबंधी विशेष कहेवानी जरूर नथी. परंतु पोताने धर्मी तरीके मानता


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अ. ७ सूत्र उपसंहार ] [ ४८९ जीवो पण मोटे भागे शुभभावने धर्म अगर तो धर्मनो सहायक माने छे-ते मान्यता खरी नथी. शुभभाव ते धर्मनुं कारण नथी पण कर्मबंधनुं कारण छे ए वात छठ्ठा अने सातमा अध्यायमां करी छे, तेनी टूंक नोंध नीचे प्रमाणे छे-

१.शुभभाव पुण्यनो आस्रव छे.अ. ६. सू. ३
र.सम्यक्त्वक्रिया, ईर्यापथ समितिअ. ६. सू. प
३.मंद कषाय ते आस्रव छे.अ. ६. सू. ६
४.सर्व प्राणीओ अने व्रतधारी प्रत्ये अनुकंपाअ. ६. सू. १८
प.मार्दवअ. ६. सू. १८
६.सरागसंयम, संयमासंयम.अ. ६. सू. २०
७.योगोनी सरळता.अ. ६. सू. २३
८.तीर्थंकरकर्मबंधना कारणरूप सोळ भावना.अ. ६. सू. २४
९.पर प्रशंसा, आत्मनिंदा, नम्रवृत्ति, मदनो अभाव.अ. ६. सू. २६
१०. महाव्रत, अणुव्रत.अ. ७. सू. १ थी ८ तथा २१
११. मैत्री वगेरे चार भावनाओ.अ. ७. सू. ११
१र. जगत् अने कायना स्वभावनो विचार.अ. ७. सू. १२
१३. सल्लेखना.अ. ७. सू. २२
१४. दान.अ. ७. सू. ३८-३९

उपर कहेला बधा बोलोने आस्रव तरीके वर्णव्या छे. ए रीते छठ्ठा अने सातमा अधिकारमां आस्रवनुं वर्णन पूरुं करीने हवे आठमा अधिकारमां बंधनुं वर्णन कहेवामां आवशे.

७. हिंसा, जुठ्ठुं, चोरी, कुशील अने परिग्रहनो त्याग ते व्रत छे-एम श्री अमृतचंद्राचार्ये तत्त्वार्थसारना चोथा अध्यायनी १०१ मी गाथामां कह्युं छे. एटले के व्रत पुण्यास्रव छे एम जणाव्युं छे. गाथा १०३ मां कह्युं के-संसारमार्गमां पुण्य अने पाप वच्चे भेद छे; पण त्यारपछी गाथा १०४ मां स्पष्टपणे जणाव्युं के-मोक्षमार्गमां पुण्य अने पाप वच्चे भेद (विशेष, जुदापणुं) नथी. केमके ते बन्ने संसारनुं कारण छे-आ प्रमाणे जणावीने आस्रव अधिकार पूरो कर्यो छे.

८. प्रश्नः– व्रत तो त्याग छे, जो त्यागने पुण्यास्रव कहेशो पण धर्म नहि कहो तो त्यागनो त्याग ते धर्म केम थई शके?


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४९० ] [ मोक्षशास्त्र

उत्तरः– (१) व्रत ते शुभभाव छे; शुभभावनो त्याग बे प्रकारे थाय के-एक तो शुभने छोडीने अशुभमां जवुं ते; आ प्रकारनो त्याग तो जीव अनादिथी करतो आव्यो छे, पण आ त्याग ते धर्म नथी पण पाप छे. बीजो प्रकार ए छे के- सम्यक्भानपूर्वक शुद्धता प्रगट करतां शुभनो त्याग थाय छे; आ त्याग ते धर्म छे. तेथी सम्यग्द्रष्टि जीवो व्रतरूप शुभभावनो त्याग करीने ज्ञानमां स्थिरता करे छे, ए स्थिरता ते ज चारित्रधर्म छे. आ रीते, जेटले अंशे वीतरागचारित्र वधे तेटले अंशे व्रतनो त्याग थाय छे.

(र) ए ध्यानमां राखवुं के-व्रतमां शुभ-अशुभ बन्नेनो त्याग नथी, परंतु व्रतमां अशुभभावनो त्याग अने शुभभावनुं ग्रहण छे एटले के व्रत ते राग छे; अने अव्रत तेमज व्रत (अशुभ तेमज शुभ) बन्नेनो त्याग ते वीतरागता छे. शुभ-अशुभ बन्नेनो त्याग तो सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रपूर्वक ज होई शके.

(३) ‘त्याग’ तो नास्तिवाचक छे; यथार्थ नास्ति त्यारे कहेवाय के जो ते अस्ति सहित होय. हवे जो व्रतने त्याग कहीए तो ते त्यागरूप नास्ति थतां आत्मामां अस्तिरूपे शुं थयुं? वीतरागता तो सम्यक्चारित्र वडे प्रगटे छे अने व्रत तो आस्रव छे-एम आ अधिकारमां जणाव्युं छे, तेथी व्रत ते खरो त्याग नथी, पण जेटला अंशे वीतरागता प्रगटी तेटलो खरो त्याग छे. केम के ज्यां जेटले अंशे वीतरागता होय त्यां तेटला अंशे सम्यक्चारित्र प्रगटयुं होय छे, अने तेमां शुभ- अशुभ बन्नेनो (अर्थात् व्रत-अव्रत बन्नेनो) त्याग होय छे.

ए प्रमाणे श्री उमास्वामीविरचित मोक्षशास्त्रनी
गुजराती टीकामां सातमो अध्याय पूरो थयो.

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मोक्षशास्त्र–गुजराती टीका
अध्याय आठमो

भूमिका

पहेला अध्यायना पहेला सूत्रमां कह्युं के सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रनी अकेता ते मोक्षमार्ग छे. बीजा सूत्रमां कह्युं के तत्त्वार्थश्रद्धान ते सम्यग्दर्शन छे; त्यारपछी चोथा सूत्रमां सात तत्त्वोनां नाम जणाव्यां; तेमांथी जीव, अजीव अने आस्रव ए त्रण तत्त्वोनुं वर्णन सात अध्याय सुधीमां कर्युं. आस्रव पछी बंधतत्त्व आवे छे; तेथी आचार्यदेव आ अध्यायमां बंध तत्त्वनुं वर्णन करे छे.

बंधना बे प्रकार छे-भावबंध अने द्रव्यबंध. आ अध्यायना पहेला बे सूत्रमां जीवना भावबंधनुं अने ते भावबंधनुं निमित्त पामीने थता द्रव्यकर्मना बंधनुं वर्णन कर्युं छे. त्यारपछीना सूत्रोमां द्रव्यबंधना प्रकार, तेनी स्थिति अने ते क्यारे छूटे ए वगेरेनुं वर्णन कर्युं छे.

बंधनां कारणो
मिथ्यादर्शनाऽविरतिप्रमादकषाययोगा बंधहेतवः।। १।।
अर्थः– [मिथ्यादर्शन अविरति प्रमाद कषाय योगाः] मिथ्यादर्शन, अविरति,

प्रमाद, कषाय अने योग- ए पांच [बंधहेतवः] बंधनां कारणो छे.

टीका

१. आ सूत्र घणुं उपयोगी छे; संसार शुं कारणे छे ते आ सूत्र बतावे छे. धर्म मां प्रवेश करवा इच्छता जीवो तथा उपदेशको, ज्यां सुधी आ सूत्रनो मर्म न समजे त्यां सुधी एक महान भूल करे छे. ते आ प्रमाणे छे. बंधनां पांच कारणोमांथी सौथी पहेलां मिथ्यादर्शन टळे छे अने पछी अविरति वगेरे टळे छे, छतां तेओ प्रथम मिथ्यादर्शनने टाळ्‌या वगर अविरतिने टाळवा मथे छे अने ते हेतुथी तेमणे मानेला बाळव्रत वगेरे ग्रहण करे छे तथा बीजाने पण तेओ उपदेश आपे छे; वळी आ बाळव्रत वगेरे ग्रहण करवाथी अने तेनुं पालन करवाथी मिथ्यादर्शन टळी जशे-एम


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४९२ ] [ मोक्षशास्त्र माने छे. ते जीवोनी आ मान्यता संपूर्णपणे जुठ्ठी छे एम आ सूत्रमां ‘मिथ्यादर्शन’ पहेलुं जणावीने सूचव्युं छे.

र. आ सूत्रमां बंधना कारणोनां नाम जे क्रमथी आप्या छे ते ज क्रमथी ते टळे छे, परंतु पहेलुं कारण विद्यमान होय अने त्यारपछीनुं कारण टळी जाय ए रीते क्रमभंग थतो नथी. तेमना टळवानो क्रम आ प्रमाणे छे- (१) मिथ्यादर्शन चोथा गुणस्थाने टळे छे. (र) अविरति पांचमा-छठ्ठा गुणस्थाने टळे छे. (३) प्रमाद सातमा गुणस्थाने टळे छे. (४) कषाय बारमा गुणस्थाने टळे छे. अने (प) योग चौदमा गुणस्थाने टळे छे. वस्तुस्थितिनो आ नियम नहि समजवाथी अज्ञानीओ प्रथम बाळव्रत अंगीकार करे छे अने तेने धर्म माने छे; ए रीते अधर्मने धर्म मानवाना कारणे तेओने मिथ्यादर्शन अने अनंतानुबंधी कषायनुं पोषण थाय छे. माटे जिज्ञासुओए वस्तुस्थितिनो आ नियम समजवानी खास जरूर छे. आ नियम समजीने खोटा उपायो छोडी प्रथम मिथ्यादर्शन टाळवा माटे सम्यग्दर्शन प्रगट करवानो पुरुषार्थ करवो योग्य छे.

३. मिथ्यात्वादि के जेओ बंधना कारणो छे तेओ जीव अने अजीव एम बे प्रकारना छे. जे मिथ्यात्वादि परिणामो जीवमां थाय छे तेओ जीव छे, तेने भावबंध कहेवाय छे; अने जे मिथ्यात्वादि परिणामो पुद्गलमां थाय छे तेओ अजीव छे, तेने द्रव्यबंध कहेवामां आवे छे. (जुओ, श्री समयसार गाथा ८७-८८)

४. बंधना पांच कारणो कह्यां तेमा अंतरंग
भावोनी ओळखाण करवी जोईए

मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय अने योगना भेदोने जीव बाह्यरूपथी जाणे पण अंतरंगमां ए भावोनी जातने ओळखे नहि तो मिथ्यात्व टळे नहि. अन्य कुदेवादिना सेवनरूप गृहीतमिथ्यात्वने तो मिथ्यात्व तरीके जाणे पण अनादि अगृहीतमिथ्यात्व छे तेने न ओळखे, तेमज बाह्य त्रस-स्थावरनी हिंसाने तथा इंद्रिय-मनना विषयोमां प्रवृत्ति थाय तेने अविरति जाणे पण हिंसामां प्रमाद परिणति ते मूळ छे तथा विषयसेवनमां अभिलाषा मूळ छे तेने अवलोके नहि, तो खोटी मान्यता टळे नहि. बाह्य क्रोध करवो तेने कषाय जाणे पण अभिप्रायमां जे राग-द्वेष रहे छे ते ज मूळ क्रोध छे; जो तेने न ओळखे तो मिथ्या मान्यता टळे नहि. बाह्य चेष्टा थाय तेने योग जाणे पण शक्तिभूत (-आत्मप्रदेशोना परिस्पंदनरूप) योगने न जाणे तो मिथ्या मान्यता टळे नहि माटे तेमना अंतरंग भावने ओळखीने ते संबंधी अन्यथा मान्यता टाळवी जोईए.


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अ. ८ सूत्र १ ] [ ४९३

प. मिथ्यादर्शननुं स्वरूप

(१) जीवने अनादिथी मिथ्यादर्शनरूप अवस्था छे. तमाम दुःखनुं मूळ्‌ा (संसारनी जड) मिथ्यादर्शन छे. जेवुं जीवने श्रद्धान छे तेवुं पदार्थस्वरूप न होय अने जेवुं पदार्थस्वरूप न होय तेवुं ए माने तेने मिथ्यादर्शन कहेवामां आवे छे. जीव पोताने अने शरीरने एकरूप माने छे; शरीर कोई वेळा दुबळुं थाय, कोई वेळा जाडुं थाय, कोई वार नष्ट थई जाय, कोई वार नवीन ऊपजे त्यारे ए बधी क्रियाओ शरीराधीन थवा छतां आ जीव तेने पोताने आधीन मानी खेदखिन्न थाय छे.

द्रष्टांत–जेम कोई जग्याए एक गांडो बेठो हतो त्यां अन्य ठेकाणेथी माणस, घोडा अने धनादिक आवी उतर्या; ते सर्वे ने आ गांडो पोताना मानवा लाग्यो, पण ए बधां पोतपोताने आधीन होवाथी तेमां कोई आवे, कोई जाय; कोई अनेक अवस्थारूपे परिणमे, एम सर्वेनी क्रिया पोतपोताने आधीन होवा छतां आ गांडो तेने पोताने आधीन मानी खेदखिन्न थाय छे.

सिद्धांतः– तेम आ जीव ज्यां शरीर धारण करे त्यां, कोई अन्य ठेकाणेथी पुत्र, घोडा, धनादिक आवीने स्वयं प्राप्त थाय छे; ते सर्वेने आ जीव पोतानां जाणे छे, पण ए बधां तो पोतपोताने आधीन होवाथी कोई आवे, कोई जाय तथा कोई अनेक अवस्थारूप परिणमे, ते क्रिया तेमने आधीन छे, आ जीवने आधीन नथी, तोपण तेने पोताने आधीन मानीने आ जीव खेदखिन्न थाय छे.

(र) आ जीव पोते जेम छे तेम पोताने मानतो नथी पण जेम नथी तेम माने छे ते मिथ्यादर्शन छे. पोते अमूर्तिक प्रदेशोनो पुंज, प्रसिद्ध ज्ञानादि गुणोनो धारक, अनादिनिधन वस्तुरूप छे, तथा मूर्तिक पुद्गल द्रव्योनो पिंड, प्रसिद्ध ज्ञानादि गुणो रहित, नवीन ज जेनो संयोग थयो छे एवा आ शरीरादि पुद्गल के जे पोताथी पर छे-ए बन्नेना संयोगरूप मनुष्य, तिर्यंचादि अनेक प्रकारनी अवस्थाओ थाय छे, तेमां आ मूढ जीव पोतापणुं धारी रह्यो छे, स्व-परनो भेद करी शकतो नथी; जे पर्याय पाम्यो होय तेने ज पोतापणे माने छे. ए पर्यायमां (१) जे ज्ञानादि गुणो छे ते तो पोताना गुणो छे, (र) जे रागादिक भावो थाय छे ते विकारीभावो छे, तथा (३) जे वर्णादि छे ते पोताना गुणो नथी पण शरीरादि पुद्गलना गुणो छे अने (४) शरीरादिमां पण वर्णादिनुं तथा परमाणुओनुं पलटावुं घणा जुदा जुदा प्रकारे थाय छे; ते सर्वे पुद्गलनी अवस्थाओ छे; आ बधांने आ जीव पोतानुं स्वरूप माने छे; स्वभाव अने परभावनो विवेक करतो नथी; वळी पोताथी प्रत्यक्ष भिन्न धन-कुटुंबादिकनो संयोग थाय छे तेओ पोतपोताने आधीन परिणमे छे,


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४९४ ] [ मोक्षशास्त्र तथा आ जीवने आधीन थई परिणमता नथी; छतां पण तेमां आ जीव ममकार करे छे के ‘आ बधां मारां छे,’ पण ए कोई पण प्रकारथी तेनां थतां नथी, मात्र पोतानी मान्यताथी जीव तेने पोतानां माने छे.

(३) मनुष्यादि अवस्थामां कोई वेळा देव-गुरु-शास्त्र अथवा धर्मनुं जे अन्यथा कल्पित स्वरूप होय तेनी तो प्रतीत करे छे पण तेओनुं जे यथार्थ स्वरूप छे तेनी प्रतीत करतो नथी.

(४) जगतनी दरेक वस्तु अर्थात् दरेक द्रव्यो पोतपोताने आधीन परिणमे छे, पण आ जीव तेम मानतो नथी अने पोते तेने परिणमावी शके अथवा कोई वखते अंशे परिणमावी शके-एम माने छे.

उपर प्रमाणे बधी मान्यता मिथ्याद्रष्टिनी छे. पोतानुं अने परद्रव्योनुं जेवुं स्वरूप नथी तेवुं मानवुं तथा जेवुं छे तेवुं न मानवुं ते विपरीत अभिप्राय होवाथी मिथ्यादर्शन छे.

(प) जीव अनादिकाळथी अनेक शरीर धारण करे छे, पूर्वनुं छोडी नवीन धारण करे छे; त्यां एक तो पोते आत्मा (जीव) तथा अनंत पुद्गल परमाणुमय शरीर-ए बन्नेना एक पिंड बंधनरूप ए अवस्था होय छे; तेमां ते सर्वमां ‘आ हुं छुं’ एवी अहंबुद्धि करे छे. जीव तो ज्ञानस्वरूप छे अने पुद्गल परमाणुओनो स्वभाव वर्ण-गंध-रस-स्पार्शादि छे, ए सर्वने पोतानुं स्वरूप मानी ‘आ मारां छे’ एवी बुद्धि करे छे. हालवुं-चालवुं इत्यादि क्रिया शरीर करे छे तेने ‘हुं करुं छुं’ एम जीव माने छे. अनादिथी इंद्रियज्ञान तरफ लक्ष छे तेथी अमूर्तिक एवो पोते तो पोताने भासतो नथी अने मूर्तिक एवुं शरीर ज भासे छे, तेथी अन्यने पोतारूप जाणीने जीव तेमां अहंबुद्धि धारण करे छे. पोतानुं स्वरूप पोताने परथी जुदुं न भास्युं एटले शरीर, ज्ञानादिगुण, क्रोधादि विकार तथा सगासंबंधीनो समुदाय ते सर्वेमां पोते अहंबुद्धि धारे छे. वळी पोताने अने शरीरने निमित्त-नैमित्तिक धनिष्ट संबंध होवाथी शरीरथी पोतानी भिन्नता यथार्थपणे भासती नथी. (आत्माना स्थाननुं चलन थतुं होय त्यारे शरीरनुं स्थान पण चलनरूप होय ज-तेथी घनिष्ट संबंध कह्यो छे.)

(६) पोतानो स्वभाव तो ज्ञाताद्रष्टा छे छतां पोते केवळ देखवा जाणवावाळो तो रहेतो नथी, पण जे जे पदार्थोने देखे-जाणे छे तेमां इष्ट-अनिष्टपणुं माने छे; ए इष्ट- अनिष्टपणुं मानवुं ते मिथ्या छे कारण के कोई पण पर पदार्थ इष्ट-अनिष्टरूप नथी. पदार्थोमां जो ईष्ट-अनिष्टपणुं होय तो जे पदार्थ इष्टरूप होय ते सर्वेने इष्टरूप ज थाय तथा जे पदार्थ अनिष्टरूप होय ते सर्वेने अनिष्टरूप ज थाय, पण एम तो थतुं


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अ. ८ सूत्र १ ] [ ४९प नथी; मात्र जीव पोते ज कल्पना करीने तेने इष्ट-अनिष्टरूप माने छे. ए मान्यता जूठी छे. कल्पित छे.

(७) जीव कोई पदार्थना सद्भाव तथा कोईना अभावने इच्छे छे पण तेनो सद्भाव के अभाव आ जीवनो कर्यो थतो नथी कारण के कोई द्रव्य कोई अन्यद्रव्यनुं के तेनी पर्यायनुं कर्ता छे ज नहि, पण सर्व द्रव्यो पोतपोतानां स्वरूपे पोताथी ज परिणमे छे.

(८) रागादि भावो वडे मिथ्याद्रष्टि जीव तो सर्व द्रव्योने अन्य प्रकारे परिणमाववा इच्छे छे पण ते सर्व द्रव्यो जीवनी इच्छाने आधीन परिणमता नथी, तेथी तेने आकुळता थाय छे. जो सर्व कार्य जीवनी इच्छानुसार ज थाय, अन्यथा न थाय तो ज निराकुळता रहे, पण एम तो थई शकतुं ज नथी, कारण के कोई द्रव्यनुं परिणमन कोई द्रव्यने आधीन नथी. माटे जीवने रागादि भाव दूर थाय तो ज निराकुळता थाय छे.- एम न मानतां पोते पर द्रव्यनो कर्ता, भोक्ता, दाता, हर्ता आदि छे अने परद्रव्यथी पोताने लाभ-नुकशान थाय छे-एम मानवुं ते मिथ्या छे.

(९) मिथ्यादर्शननी टूंकी व्याख्याओ

१. स्व-पर एकत्वदर्शन. र. परनी कर्तृत्वबुद्धि. ३. पर्यायबुद्धि. ४. व्यवहार- विमूढ. प. अतत्त्व श्रद्धान. ६. पोताना स्वरूपनी भ्रमणा. ७. रागथी शुभभावथी आत्माने लाभ थाय एवी बुद्धि. ८. बहिरद्रष्टि. ९. विपरीत रुचि. १०. वस्तुस्वरूप न होय तेम मानवुं, होय तेम न मानवुं. ११. अविद्या. १र. परथी लाभ-नुकशान थाय एवी मान्यता. १३. अनादिअनंत चैतन्यमात्र त्रिकाळी आत्माने न मानवो पण विकार जेटलो ज आत्मा मानवो. १४. विपरीत अभिप्राय. १प. परसमय. १६. पर्यायमूढ. १७. शरीरनी क्रिया जीव करी शके एवी मान्यता. १८. पर द्रव्योनी व्यवस्था करनार तथा तेनो कर्ता, भोक्ता, दाता, हर्ता जीवने मानवो. १९. जीवने ज न मानवो. र०. निमित्ताधीनद्रष्टि. र१. पराश्रये लाभ थाय एवी मान्यता. रर. शरीराश्रित क्रियाथी लाभ थाय एवी मान्यता. र३. सर्वज्ञनी वाणीमां जेवुं आत्मानुं पूर्णस्वरूप कह्युं छे तेवा स्वरूपनी अश्रद्धा. र४. व्यवहारनय खरेखर आदरणीय होवानी मान्यता. रप. शुभाशुभभावनुं स्वामीत्व. र६. शुभविकल्पथी आत्माने लाभ थाय एवी मान्यता. र७. व्यवहाररत्नत्रय करतां करतां निश्चयरत्नत्रय प्रगटे एवी मान्यता. र८. शुभ-अशुभमां सरखापणुं न मानवुं ते अर्थात् शुभ सारां अने अशुभ खराब एवी मान्यता. र९. मनुष्य अने तिर्यंच प्रत्ये ममत्वबुद्धिथी करुणा थवी ते.


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४९६ ] [ मोक्षशास्त्र

६. मिथ्यादर्शनना बे प्रकार

(१) मिथ्यात्वना बे प्रकार छे-अगृहीतमिथ्यात्व अने गृहीतमिथ्यात्व. अगृहीतमिथ्यात्व अनादिथी चाल्युं आवे छे. जीव परद्रव्यनुं कांई करी शके के शुभ विकल्पथी आत्माने लाभ थाय एवी मान्यता ते अनादिनुं अगृहीतमिथ्यात्व छे. जन्म थया पछी परोपदेशना निमित्तथी जे अतत्त्वश्रद्धा जीव ग्रहण करे छे ते गृहीतमिथ्यात्व कहेवाय छे. अगृहीतमिथ्यात्वने निसर्गज मिथ्यात्व अने गृहीतमिथ्यात्वने बाह्य प्राप्त मिथ्यात्व पण कहेवामां आवे छे. जेने गृहीतमिथ्यात्व होय तेने तो अगृहीतमिथ्यात्व होय ज.

अगृहीतमिथ्यात्व– शुभविकल्पथी आत्माने लाभ थाय एवी अनादिथी चाली आवती जीवनी मान्यता ते मिथ्यात्व छे; ते कोईना शीखववाथी थयुं नथी माटे अगृहीत छे.

गृहीतमिथ्यात्व–खोटा देव, खोटा गुरु अने खोटां शास्त्रोनी श्रद्धा ते गृहीतमिथ्यात्व छे.

(र) प्रश्नः– जीव जे कुळमां जन्म्यो होय ते कुळमां मानवामां आवतां देव, गुरु, शास्त्र साचां होय अने जीव तेने ओघद्रष्टिए साचां मानतो होय तो तेने गृहीतमिथ्यात्व टळ्‌युं छे के नहि?

उत्तरः– ना, तेने पण गृहीतमिथ्यात्व छे, केम के साचा देव, साचा गुरु अने साचां शास्त्रोनुं स्वरूप शुं छे तथा कुदेव, कुगुरु, कुशास्त्रमां शुं दोषो होय तेनो सूक्ष्मद्रष्टिथी विचार करीने बधा पडखेथी तेना गुण (merits) अने दोष (demerits) नो यथार्थ निर्णय न कर्यो होय त्यां सुधी जीवने गृहीतमिथ्यात्व छे अने ते सर्वज्ञ वीतरागदेवनो खरो अनुयायी नथी.

(३) प्रश्नः– आ जीवे पूर्वे कोई वार गृहीतमिथ्यात्व छोडयुं हशे के नहि? उत्तरः– हा; जीवे पूर्वे अनंतवार गृहीतमिथ्यात्व छोडयुं अने द्रव्यलिंगी मुनि थई निरतिचार महाव्रत पाळ्‌यां; परतुं अगृहीतमिथ्यात्व छोडयुं नहि तेथी संसार उभो रह्यो; फरी पाछुं गृहीतमिथ्यात्व अंगीकार कर्युं. निर्ग्रंथदशापूर्वक पंच महाव्रत तथा अठ्ठावीश मूळगुणादिना शुभविकल्प ते द्रव्यलिंग छे; गृहीतमिथ्यात्व छोडया वगर जीव द्रव्यलिंगी थई शके नहि अने द्रव्यलिंग वगर निरतिचार महाव्रत होई शके नहि. द्रव्यलिंगीना निरतिचार महाव्रतने पण वीतराग भगवाने बाळव्रत अने असंयम कह्यां छे, केम के तेणे अगृहीतमिथ्यात्व छोडयुं नथी.


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अ. ८ सूत्र १ ] [ ४९७

७. गृहीतमिथ्यात्वना भेद

गृहीतमिथ्यात्वना पांच भेद छे- (१) एकांत मिथ्यात्व; (र) संशय मिथ्यात्व; (३) विनय मिथ्यात्व; (४) अज्ञान मिथ्यात्व; अने (प) विपरीत मिथ्यात्व. ते दरेकनी व्याख्या नीचे मुजब छे.

(१) एकांत मिथ्यात्व–पदार्थनुं स्वरूप अनेकांतमय (अनेक धर्मोवाळुं) होवा छतां तेने सर्वथा एक ज धर्मवाळुं मानवुं ते एकांत मिथ्यात्व छे. जेम के जीवने सर्वथा क्षणिक अथवा सर्वथा नित्य मानवो ते एकांत मिथ्यात्व छे.

(र) संशय मिथ्यात्व– आत्मा पोताना कार्यनो कर्ता थतो हशे के पर वस्तुना कार्यनो कर्ता थतो हशे? ए वगेरे प्रकारे संशय रहेवो ते संशय मिथ्यात्व छे.

(३) विपरीत मिथ्यात्व–सग्रंथने निर्ग्रंथ मानवा, मिथ्याद्रष्टि साधुने साचा गुरु मानवा, केवळीना स्वरूपने विपरीतपणे मानवुं इत्यादि प्रकारे ऊंधी रुचि ते विपरीत मिथ्यात्व छे.

(४) अज्ञान मिथ्यात्व–ज्यां हित-अहितनो कांई पण विवेक न होय, के कांई पण परीक्षा कर्या वगर धर्मनी श्रद्धा करवी ते अज्ञान मिथ्यात्व छे. जेम के पशुवधमां धर्म मानवो ते अज्ञान मिथ्यात्व छे.

(प) विनय मिथ्यात्व– समस्त देवने तथा समस्त धर्ममतोने सरखा मानवा ते विनय मिथ्यात्व छे.

८. गृहीतमिथ्यात्वना पांच भेदोनो विशेष खुलासो

(१) एकांत मिथ्यात्व– वस्तुने सर्वथा अस्तिरूप, सर्वथा नास्तिरूप, सर्वथा एकरूप, सर्वथा अनेकरूप, सर्वथा नित्य, सर्वथा अनित्य, गुण-पर्यायोथी सर्वथा अभिन्न, गुण-पर्यायोथी सर्वथा भिन्न इत्यादि स्वरूपे मानवी ते एकांत मिथ्यात्व छे; वळी, काळ ज बधुं करे छे, काळ ज बधानो नाश करे छे, काळ ज फळ, फूल वगेरेने उपजावे छे, काळ ज संयोग-वियोग करावे छे, काळ ज धर्म पमाडे छे- इत्यादि मान्यता जुठ्ठी छे, ते एकांत मिथ्यात्व छे. दरेक वस्तु पोते पोताना कारणे पोतानी पर्याय धारण करे छे, ते ज ते वस्तुनो स्वकाळ छे अने ते वखते वर्तती काळद्रव्यनी पर्याय (समय) ते निमित्त छे; आम समजवुं ते यथार्थ समजण छे अने ते वडे एकांत मिथ्यात्वनो नाश थाय छे.

कोई कहे छे के आत्मा तो अज्ञानी छे, आत्मा अनाथ छे; आत्मानां सुख-

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४९८ ] [ मोक्षशास्त्र दुःख, जीवन-मरण, लाभ-अलाभ, ज्ञानीपणुं, पापीपणुं, धर्मीपणुं, स्वर्गगमन, नरकगमन इत्यादि बधुं इश्वर करे छे; संसारना कर्ता ईश्वर छे, हर्ता पण ईश्वर छे, ईश्वरथी ज संसारनी उत्पत्ति अने प्रलय छे, -इत्यादि प्रकारे ईश्वरकर्तृत्वनी कल्पना करे छे ते मिथ्या छे. ईश्वरपणुं तो आत्मानी संपूर्ण शुद्ध (सिद्ध) अवस्था छे. आत्मा निजस्वभावे ज्ञानी छे पण पोताना स्वरूपनी अनादिथी खोटी मान्यताना कारणे पर्यायमां अज्ञानीपणुं; दुःख, जीवन, मरण, लाभ, अलाभ, पापीपणुं वगेरे पोते प्राप्त करे छे, अने ज्यारे पोते पोताना स्वरूपनी खोटी मान्यता टाळे त्यारे पोते ज ज्ञानी, धर्मी थाय छे; ईश्वर (सिद्ध) तो तेना ज्ञाता-द्रष्टा छे.

(र) विपरीत मिथ्यात्व –१ स्त्रीना रागी, रोटला खानार, पाणी पीनार, मांदा थनार, मंदवाड थतां दवा लेनार इत्यादि दोष सहित जीवने परमात्मा के केवळज्ञानी मानवा, र-सति स्त्रीने पांच भरथारवाळी मानवी, ३-गृहस्थदशामां केवळज्ञाननी उत्पत्ति मानवी, ४-केवळज्ञानी भगवान छद्मस्थ जीवनी वैयावच्च करे एम मानवुं, प-छठ्ठा गुणस्थान पछी पण वंधवंदकभाव होय अने केवळी भगवानने छद्मस्थगुरु प्रत्ये, चतुर्विधसंघ अर्थात् तीर्थ प्रत्ये के बीजा केवळी प्रत्ये वंधवंदकभाव होय एम मानवुं, ६- वस्त्रोने परिग्रह तरीके न गणवा अर्थात् वस्त्र सहित होवा छतां अपरिग्रहपणुं मानवुं, ७- वस्त्र वडे आत्मानुं साधन वधारे थई शके एवी बधी मान्यताओ ते विपरीत मिथ्यात्व छे.

८-सम्यग्दर्शन प्राप्त थया पहेलां अने पछी छठ्ठा गुणस्थान सुधी जे शुभभावो थाय छे ते शुभभावमां जुदे जुदे वखते जुदी जुदी व्यक्तिओने जुदा जुदा पदार्थो निमित्त होय छे, केम के शुभभाव ते विकार छे अने विकारने परावलंबन होय छे. केटलाक जीवोने शुभराग वखते वीतरागदेवनी तदाकार प्रतिमाना दर्शन- पूजनादि निमित्तरूपे होय छे. वीतरागी प्रतिमाना दर्शन-पूजन ते पण राग छे, परंतु कोई पण जीवने शुभराग वखते वीतरागी प्रतिमाना दर्शन-पूजनादिनुं निमित्त न ज होय एम मानवुं ते शुभभावना स्वरूपनी विपरीत मान्यता होवाथी विपरीत मिथ्यात्व छे.

९-वीतरागी प्रतिमाना दर्शन-पूजनादिना शुभरागने धर्मानुराग कहेवामां आवे छे; धर्म तो निरावलंबी छे, देव-गुरु-शास्त्रना अवलंबनथी छूटीने स्वभावनो आश्रय करे त्यारे धर्म प्रगटे छे. जो ते शुभरागने धर्म माने तो ते शुभभावना स्वरूपनी विपरीत मान्यता होवाथी विपरीत मिथ्यात्व छे.

छठ्ठा अध्यायना तेरमा सूत्रनी टीकामां अवर्णवादनुं स्वरूप वर्णव्युं छे तेनो समावेश विपरीत मिथ्यात्वमां थाय छे. (जुओ, अ. ६ सू. १३ नी टीका)


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अ. ८ सूत्र १ ] [ ४९९

(३) संशय मिथ्यात्वः सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रने मोक्षमार्ग कह्यो छे, ते ज साचो मोक्षमार्ग हशे के अन्य समस्त मतोमां जुदा जुदा मार्ग प्ररुप्या छे ते मार्ग साचो हशे? तेमना वचनमां परस्पर विरुद्धता छे अने कोई प्रत्यक्ष जाणवावाळा सर्वज्ञ नथी, शास्त्रो परस्पर एक बीजाने मळतां नथी तेथी कोई निश्चयनिर्णय थई शकतो नथी, -इत्यादि प्रकारनो अभिप्राय ते संशय मिथ्यात्व छे.

(४) विनय मिथ्यात्वः– १-सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र-तप-संयम-ध्यानादि वगर मात्र गुरु पूजनादिक विनयथी ज मुक्ति थशे एम मानवुं ते, र-सर्व देव, सर्व शास्त्र, समस्त मत तथा समस्त वेषधारको समान मानीने ते बधायनो विनय करवो ते अने ३-विनय मात्रथी ज पोतानुं कल्याण थई जशे एम मानवुं ते विनय मिथ्यात्व छे. ४-संसारमां जेटला देवो पूजाय छे अने जेटला शास्त्रो के दर्शनो प्रचलित छे ते बधाय सुखदायी छे, तेमनामां भेद नथी, ते बधायथी मुक्ति (अर्थात् आत्मकल्याणनी प्राप्ति) थई शके छे एवी मान्यता ते विनय मिथ्यात्व छे अने ते मान्यतावाळा जीवो वैनयिक मिथ्याद्रष्टि छे.

गुणग्रहणनी अपेक्षाथी अनेक धर्ममां प्रवृत्ति करवी अर्थात् सत्-असत्नो विवेक कर्या वगर साचा तथा खोटा बधा धर्मोने समानपणे जाणीने तेनुं सेवन करवुं तेमां अज्ञाननी मुख्यता नथी. पण विनयना अतिरेकनी मुख्यता छे तेथी तेने विनय मिथ्यात्व कहेवामां आवे छे.

(प) अज्ञान मिथ्यात्वः– १-स्वर्ग, नरक, मुक्ति कोणे दीठां? र-स्वर्गना समाचार कोने आव्या? बधां धर्मशास्त्र जुठ्ठां छे, कोई साचुं ज्ञान बतावी शकता नथी, ३-पुण्य-पाप क्यां लागे अथवा पुण्य-पाप कांई छे ज नहि, ४-परलोकने कोणे जाण्यो? शुं परलोकना समाचार-पत्र के तार कोईने आव्या? प-स्वर्ग-नरक तो इत्यादि बधुं कहेवामात्र छे, स्वर्ग-नरक तो अहीं ज छे; अहीं सुख भोगवे ते स्वर्ग, दुःख भोगवे ते नरक; ६-हिंसाने पाप कहे छे तथा दयाने पुण्य कहे छे ते कहेवामात्र छे, कोई ठेकाणुं हिंसारहित नथी, सर्वमां हिंसा छे, क्यांय पग मूकवानुं ठेकाणुं नथी, जमीन पवित्र छे ते पग मूकवा आपे छे, ७- आ भक्ष्य अने आ अभक्ष्य-एवा विचार पण निरर्थक छे, एकेंद्रिय वृक्ष तथा अन्न वगेरे भक्षण करवामां अने मांसभक्षण करवामां तफावत नथी, ते बन्नेमां जीवहिंसा समान छे. ८-जीवने जीवनो ज आहार भगवाने बताव्यो छे अथवा जगतनी बधी वस्तुओ खावा भोगववा माटे ज छे इत्यादि-आ बधा अभिप्रायो अज्ञान मिथ्यात्व छे.

९- उपर प्रमाणे मिथ्यात्व स्वरूप जाणीने सर्व जीवोए गृहीत तथा अगृहीत

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प०० ] [ मोक्षशास्त्र मिथ्यात्व छोडवुं जोइए. सर्व प्रकारनां बंधनुं मूळकारण मिथ्यात्व छे, अने ते ज सौथी पहेलां टळे छे. मिथ्यात्व टळ्‌या वगर अन्य बंधना कारणो (अविरति आदि) पण टळतां नथी, माटे सौथी पहेलां मिथ्यात्व टाळवुं जोईए.

१०. अविरतिनुं स्वरूप

पांच इंद्रियो तथा मननां विषयो अने पांच स्थावर तथा एक त्रसनी हिंसा ए बार प्रकारना त्यागरूप भाव न थवा ते बार प्रकारनी अविरति छे.

जेने मिथ्यात्व होय तेने तो अविरति होय ज छे, परंतु मिथ्यात्व छूटी जवा छतां ते केटलोक काळ रहे छे. अविरतिने असंयम पण कहेवाय छे. सम्यग्दर्शन प्रगटया पछी देशचारित्रना बळ वडे एकदेशविरति थाय तेने अणुव्रत कहेवाय छे. मिथ्यात्व छूटया पछी तरत अविरतिनो पूर्ण अभाव थई जाय अने साचां महाव्रत तथा मुनिदशा प्रगट करे एवा जीवो तो थोडा विरला ज होय छे.

११. प्रमादनुं स्वरूप

उत्तम क्षमादि दश धर्मोमां उत्साह न राखवो तेने सर्वज्ञदेवे प्रमाद कह्यो छे. जेने मिथ्यात्व अने अविरति होय तेने तो प्रमाद होय ज छे. परंतु मिथ्यात्व अने अविरति टळ्‌या पछी प्रमाद तरत टळी ज जाय एवो नियम नथी, तेथी सूत्रमां अविरति पछी प्रमाद कह्यो छे, ते अविरतिथी जुदो छे. सम्यग्दर्शन प्रगट थतां ज प्रमाद टाळीने अप्रमत्तदशा प्रगट करे एवा जीवो विरला ज होय छे.

१२. कषायनुं स्वरूप

कषायना २प प्रकार छे. क्रोध, मान, माया, लोभ; ते दरेकना अनंतानुबंधी आदि चार प्रकार- ए रीत १६ तथा हास्यादिक ९ नोकषाय; ए बधा कषाय छे, अने ते बधामां आत्महिंसा करवानुं सामर्थ्य छे. मिथ्यात्व, अविरति अने प्रमाद ए त्रणे अथवा अविरति अने प्रमाद ए बे अथवा तो प्रमाद ज्यां होय त्यां तो कषाय अवश्य होई ज छे, पण ए त्रणे टळी जवा छतां पण कषाय होय शके छे.

१३. योगनुं स्वरूप

योगनुं स्वरूप छठ्ठा अध्यायना पहेला सूत्रनी टीकामां आवी गयुं छे. (जुओ, पा. ३९३) मिथ्याद्रष्टिथी ठेठ तेरमा गुणस्थान सुधी योग रहे छे. ११, १२, ने १३ मा गुणस्थानने मिथ्यात्वादि चारनो अभाव थवा छतां योगनो सद्भाव रहे छे.

केवळज्ञानी गमनादि क्रियारहित थया होय तोपण तेमने घणो योग छे अने

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अ. ८ सूत्र १ ] [ प०१ बेइंद्रियादि जीवो गमनादि क्रिया करे छे तोपण तेमने अल्प योग होय छे ए उपरथी सिद्ध थाय छे के योग ते बंधनुं गौणकारण छे, ते तो प्रकृति अने प्रदेशबंधनुं कारण छे. बंधनुं मुख्य कारण तो मिथ्यात्व, अविरीत, प्रमाद अने कषाय छे अने ते चारमां पण सर्वोत्कृष्ट कारण तो मिथ्यात्व ज छे. मिथ्यात्व टाळ्‌या विना अविरति आदि बंधनां कारणो टळे ज नहि-ए अबाधित सिद्धांत छे.

१४. कया गुणस्थाने कया बंध होय?

मिथ्याद्रष्टि (गुणस्थान-१) ने पांचे बंध होय छे, सासादन सम्यग्द्रष्टि, सम्यग्मिथ्याद्रष्टि अने असंयत सम्यग्द्रष्टि (गुणस्थान र-३-४) ने मिथ्यात्व सिवायना अविरति आदि चारे बंध होय छे, देशसंयमी (गुणस्थान-प) ने अंशे अविरति तथा प्रमादादि त्रणे बंध होय छे, प्रमत्त संयमी (गुणस्थान-६) ने मिथ्यात्व अने अविरति सिवायना प्रमादादि त्रण बंध होय छे, अप्रमत्त संयमीने (गुणस्थान ७ थी १० सुधी) कषाय अने योग ए बे ज बंध होय छे. ११-१२ ने १३ मा गुणस्थाने एक मात्र योगनो सद्भाव छे अने चौदमा गुणस्थाने एके प्रकारनो बंध नथी; ते अबंध छे अने त्यां संपूर्ण संवर छे.

१प. महापाप

प्रश्नः– जीवने सौथी महान पाप कयुं? उत्तरः– मिथ्यात्व एक ज. मिथ्यात्व होय त्यां अन्य सर्वे पापोनो सद्भाव छे, मिथ्यात्व समान अन्य कोई पाप नथी.

१६. आ सूत्रनो सिद्धांत

आत्मस्वरूपनी ओळखाण वडे मिथ्यात्व टाळतां तेनी साथे अनंतानुबंधी कषायनो तेम ज एकतालीस प्रकृतिओना बंधनो अभाव थाय छे, तथा बाकीना कर्मोनी स्थिति अंतःकोडाकोडी सागरनी रही जाय छे, अने जीव थोडा ज काळमां मोक्षपदने पामे छे. संसारनुं मूळ मिथ्यात्व छे अने मिथ्यात्वनो अभाव कर्या सिवाय अन्य अनेक उपाय करवा छतां मोक्ष के मोक्षमार्ग थतो नथी. माटे सौथी पहेलां यथार्थ उपायो वडे सर्व प्रकारथी उधम करी ए मिथ्यात्वनो सर्वथा नाश करवो योग्य छे. ।। ।।

बंधनुं लक्षण
सकषायत्वाज्जीवः कर्मणो योग्यान्पुद्गलानादते सबंधः।। २।।
अर्थः– [जीवः सकषायत्वात्] जीव कषाय सहित होवाथी [कर्मणः योग्यान्]

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प०२ ] [ मोक्षशास्त्र कर्मने योग्य [पुद्गलान्] पुद्गल परमाणुओनुं [आदत्ते] ग्रहण करे छे [सबंधः] ते बंध छे.

टीका

१. आखा लोकमां कार्मणवर्गणारूप पुद्गलो भर्यां छे. ज्यारे जीव कषाय करे त्यारे ते कषायनुं निमित्त पामीने कार्मणवर्गणा पोते कर्मरूपे परिणमे छे अने जीवनी साथे संबंध पामे छे, तेने बंध कहेवामां आवे छे. अहीं जीव अने पुद्गलना एक क्षेत्रावगाहरूप संबंधने बंध कह्यो छे. बंध थवाथी जीव अने कर्म एक वस्तु थई जती नथी, तेम ज ते बे भेगां थईने कोई कार्य करतां नथी एटले जीव अने कर्म ए बन्ने भेगां थईने आत्मामां विकार करतां नथी, तेमज जीव अने कर्म भेगां थईने पुद्गल कर्ममां विकार करता नथी. कर्मोनो उदय जीवमां विकार करतो नथी, जीव कर्मोमां विकार करतो नथी, पण बन्ने स्वतंत्रपणे पोतपोताना पर्यायना कर्ता छे. ज्यारे जीव पोतानी विकारी अवस्था करे त्यारे जुना कर्मोना विपाकने ‘उदय’ कहेवामां आवे छे. अने जो जीव विकारी अवस्था न करे तो तेने मोहकर्मनी निर्जरा थई-एम कहेवामां आवे छे. परलक्ष वगर जीवमां विकार थाय नहि, जीव ज्यारे परलक्षे पोतानी अवस्थामां विकार भाव करे त्यारे ते भाव अनुसार नवां कर्मो बंधाय छे-आटलो जीव पुद्गलनो निमित्त-नैमित्तिकसंबंध छे. ते आ सूत्रमां बतावे छे.

२. जीव अने पुद्गलनो जे निमित्त-नैमित्तिकसंबंध छे ते त्रिकाळी द्रव्यमां नथी पण मात्र एक समयनी अवस्था पुरतो छे. जीवमां कदी बे समयनो विकार भेगो थतो नथी तेथी तेनो कर्म साथेनो संबंध पण बे समयनो नथी.

प्रश्नः– जो ते संबंध एक ज समय पुरतो छे तो जीव साथे लांबी स्थितिवाळां कर्मनो संबंध केम बताव्यो छे?

उत्तरः– त्यां पण संबंध तो वर्तमान एक समय पुरतो ज छे; परंतु जीव जो विभाव प्रत्येनो ज पुरुषार्थ चालु राखशे अने जो सम्यग्दर्शनादिरूप सत्य पुरुषार्थ नहि करे तो तेनो कर्म साथेनो संबंध क्यां सुधी रहेशे ते जणाव्युं छे.

३. आ सूत्रमां सकषायत्वात् शब्द छे ते जीव अने कर्म बन्नेने (अर्थात्

कषायरूप भाव अने कषायरूप कर्म ए बन्नेने) लागु पडी शके छे; अने ए प्रमाणे लागु पाडतां तेमांथी नीचेना नियमो नीकळे छे.

(१) अनादिथी जीव कदी पण शुद्ध थयो नथी पण कषायसहित ज छे अने तेथी जीव अने कर्मनो संबंध अनादिथी छे.


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अ. ८ सूत्र २ ] [ प०३

(२) कषायभाववाळो जीव कषाय-कर्मना निमित्ते नवो बंध करे छे. (३) कषाय-कर्मने मोहकर्म कहेवाय छे, आठ कर्मोमांथी ते एक ज कर्म बंधनुं निमित्त थाय छे.

(४) पहेला सूत्रमां बंधना जे पांच कारणो जणाव्यां छे तेमांथी पहेलां चारनो समावेश अहीं कहेला कषाय शब्दमां थई जाय छे.

(प) अहीं जीव साथे कर्मनो बंध थवानुं कह्युं छे; ते कर्म पुद्गलो छे एम बताववा माटे सूत्रमां पुद्गल शब्द कह्यो छे, तेथी ‘कर्म आत्मानो अद्रष्ट गुण छे’ एवी केटलाक जीवोनी जे मान्यता छे ते दूर थाय छे.

४. ‘सकषायत्वात्’ -अहीं पांचमी विभक्ति लगाडवानो हेतु एवो छे के

जेवो तीव्र, मध्यम के मंद कषाय जीव करे ते मुजब ज कर्मोमां स्थिति अने अनुभागबंध थाय छे.

प. कर्मना निमित्ते जीव सकषाय थाय छे एटले के जीवनी अवस्थामां विकारी थवायोग्य लायकात होय तेने कर्मनुं निमित्त हाजर होय छे अने जे जीवने कर्मनो संबंध न होय ते जीवनी पोतानी लायकात पण सकषायरूप थवानी होती नथी. ए ध्यान राखवुं के सामे कर्म उदय होय माटे जीवने कषाय करवो ज पडे एम नथी; कर्म हाजर होवा छतां जीव पोते जो स्वलक्षमां टकीने कषायरूपे न परिणमे तो ते कर्मोने बंधनुं निमित्त कहेवातुं नथी.

६. जीवने कर्म साथे जे संबंध छे ते प्रवाहे अनादिथी चाल्यो आवे छे, पण ते एक ज समय पुरतो छे. दरेक समये पोतानी योग्यताथी जीव नवो नवो विकार करे छे तेथी ते संबंध चालु रहे छे. पण जड कर्मो जीवने विकार करावतां नथी. जीव पोतानी योग्यताथी विकार करे तो थाय अने न करे तो न थाय. जेम घणां काळथी ऊनुं थयेलुं पाणी क्षणमां ठरी जाय छे तेम अनादिथी विकार चाल्यो आवतो होवा छतां, विकारनी योग्यता एक ज समय पुरती होवाथी स्वभावना लक्षे ते टळी शके छे. विकार टळतां कर्म साथेनो संबंध पण टळे छे.

७. प्रश्नः– आत्मा तो अमूर्तिक छे, हाथ-पग वगरनो छे अने कर्मो तो मूर्तिक छे, तो ते कर्मोने कई रीते ग्रहण करे?

उत्तरः– खरेखर एक द्रव्य बीजा द्रव्यने ग्रहण करी शकतुं नथी; तेथी अहीं जे ‘ग्रहण’ करवानुं कह्युं छे ते उपचारथी कह्युं छे एम समजवुं. जीवने अनादिथी कर्मपुद्गलो साथे संबंध छे अने जीवना विकारनुं निमित्त पामीने समये समये जूनां कर्मो साथे नवां कर्मो स्कंधरूप थाय छे-एटलो संबंध बताववा माटे आ उपचार कर्यो छे; खरेखर जीव साथे कर्मपुद्गलो बंधातां नथी पण जूनां कर्मपुद्गलो साथे नवां कर्मपुद्गलोनो बंध थाय


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प०४ ] [ मोक्षशास्त्र छे; परंतु जीवमां विकारी योग्यता छे अने ते विकारनुं निमित्त पामीने नवां कर्मपुद्गलो बंधाय छे माटे उपचारथी जीवने कर्मपुद्गलोनुं ग्रहण कह्युं छे.

८. जगतमां घणा प्रकारनां ‘बंध’ होय छे जेम के-गुणगुणी बंध वगेरे. ते बधा प्रकारना बंधथी आ बंध जुदो छे एम बताववा माटे आ सूत्रमां बंध पहेलां ‘सः’ शब्द वापर्यो छे.

जीव अने पुद्गलने गुणगुणीसंबंध के कर्ताकर्मसंबंध नथी एम ‘सः’ शब्दथी

बताव्युं छे, तेथी अहीं तेमनो एक क्षेत्रावगाहरूपसंबंध अथवा तो निमित्तनैमित्तिकसंबंध समजवो. कर्मनो बंध जीवना तमाम प्रदेशोए थाय छे अने बंधमां अनंतानंत परमाणुओ होय छे. (जुओ, अ. ८. सू र४.)

९. अहीं बंध शब्दनो अर्थ व्याकरण द्रष्टिए नीचे जणावेल चार प्रकारे समजवो-

(१) आत्मा बंधायो ते बंध, ए कर्मसाधन छे.
(२) आत्मा पोते ज बंधरूप परिणमे छे तेथी बंधने कर्ता कहेवाय, ए

कर्तृसाधन छे.

(३) पहेला बंधनी अपेक्षाए आत्मा बंध वडे नवीन बंध करे छे तेथी बंध

करणसाधन छे.

(४) बंधनरूप क्रिया ते ज भाव, एवी क्रियारूप पण बंध छे ते भाव
साधन छे.।। ।।
बंधना भेद
प्रकृतिस्थित्यनुभवप्रदेशास्तद्विधयः।। ३।।
अर्थः– [तत्] ते बंधना [प्रकृति स्थिति अनुभव प्रदेशाः] प्रकृतिबंध,

स्थितिबंध, अनुभागबंध अने प्रदेशबंध [विधयः] ए चार भेद छे.

टीका
१. प्रकृतिबंध–कर्मोना स्वभावने प्रकृतिबंध कहे छे.
स्थितिबंध– ज्ञानावरणादि कर्मो पोताना स्वभावरूपे जेटलो काळ रहे ते
स्थितिबंध छे.
अनुभागबंध–ज्ञानावरणादि कर्मोना रसविशेषने अनुभागबंध कहे छे.
प्रदेशबंध–ज्ञानावरणादि कर्मोरूपे थनार पुद्गलस्कंधोना परमाणुओनी संख्या
ते प्रदेशबंध छे. बंधना उपर्युक्त चार प्रकारमांथी प्रकृतिबंध अने

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अ. ८ सूत्र ४ ] [ प०प

प्रदेशबंध योगना निमित्ते थाय छे अने स्थितिबंध तथा
अनुभागबंध कषायना निमित्ते थाय छे.

२. अहीं जे बंधना प्रकार वर्णव्या छे ते पुद्गलकर्मबंधना छे; ते दरेक प्रकारना भेद-उपभेद हवे अनुक्रमे कहे छे. ।। ।।

प्रकृतिबंधना मूळ भेद
आद्यो ज्ञानदर्शनावरणवेदनीयमोहनीयायुर्नामगोत्रान्तरायाः।। ४।।
अर्थः– [आधो] पहेलो अर्थात्र प्रकृतिबंध [ज्ञानदर्शनावरण] ज्ञानावरण,

दर्शनावरण, [वेदनीय मोहनीय] वेदनीय, मोहनीय, [आयुःनाम गोत्र अन्तरायाः] आयु, नाम, गोत्र अने अंतराय- ए आठ प्रकारनो छे.

टीका
१. ज्ञानावरण– ज्यारे आत्मा पोते पोताना ज्ञानभावनो घात करे त्यारे
आत्माना ज्ञानगुणना घातमां जे कर्मनो उदय निमित्त थाय तेने
ज्ञानावरण कहे छे.
दर्शनावरण– ज्यारे आत्मा पोते पोताना दर्शनभावनो घात करे त्यारे
आत्माना दर्शनगुणना घातमां जे कर्मनो उदय निमित्त थाय तेने
दर्शनावरण कहे छे.
वेदनीय– ज्यारे आत्मा पोते मोहभाव वडे परलक्षे आकुळता करे त्यारे
सगवडता के अगवडतारूप संयोगो प्राप्त थवामां जे कर्मनो उदय
निमित्त थाय तेने वेदनीय कहे छे.
मोहनीय– जीव पोताना स्वरूपने भूलीने अन्यने पोताना समजे अथवा
स्वरूपाचरणमां असावधानी करे त्यारे जे कर्मनो उदय निमित्त
थाय तेने मोहनीय कहे छे.
आयु– ज्यारे जीव पोतानी योग्यताथी नारकी, तिर्यंच, मनुष्य के देवना
शरीरमां रोकाई रहे त्यारे जे कर्मनो उदय निमित्त थाय तेने
आयुकर्म कहे छे.
नाम– जीव जे शरीरमां होय ते शरीरादिनी रचनामां जे कर्मनो उदय निमित्त
थाय तेने नामकर्म कहे छे.
गोत्र– जीवने ऊंच के नीच आचरणवाळा कुळमां पेदा थवामां जे कर्मनो उदय
निमित्त थाय तेने गोत्रकर्म कहे छे.