Moksha Shastra-Gujarati (Devanagari transliteration). Sutra: 5-26 (Chapter 8); Upsanhar (Chapter 8); Nineth Chapter Pg 521 to 604.

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प०६ ] [ मोक्षशास्त्र

अंतराय–जीवने दान, लाभ, भोग, उपभोग अने वीर्यना विध्नमां जे कर्मनो
उदय निमित्त थाय तेने अंतरायकर्म कहे छे.

२. प्रकृतिबंधना आठ भेदोमांथी ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय अने अंतराय ए चार घातिकर्म कहेवाय छे, केम के तेओ जीवना अनुजीवी गुणोना पर्यायना घातमां निमित्त छे; अने बाकीना वेदनीय, आयु, नाम अने गोत्र ए चारने अघातिकर्म कहेवाय छे, केम के तेओ जीवना अनुजीवी गुणोना पर्यायना घातमां निमित्त नथी पण प्रतिजीवी गुणोनी पर्यायना घातमां निमित्त छे.

वस्तुमां भावस्वरूप गुण अनुजीवी गुण अने अभावस्वरूप गुण प्रतिजीवी गुण कहेवाय छे.

३. जेम एक ज वखते खाधेला आहार उदराग्निना संयोगे रस, लोही वगेरे जुदा जुदा प्रकारे थई जाय छे, तेम एक ज वखते ग्रहण थयेलां कर्मो जीवना परिणामो अनुसार ज्ञानावरण इत्यादि अनेक भेदरूप थई जाय छे. अहीं उदाहरणथी एटलो फेर छे के आहार तो रस, लोही वगेरे रूपे क्रमेक्रमे थाय छे परंतु कर्मो तो ज्ञानावरणादिरूपे एक साथे थई जाय छे. ।। ।।

प्रकृतिबंधना उत्तर भेद
पंचनवद्वयष्टार्विशतिचतुर्द्विचत्वारिंशद्द्विपंचभेदा यथाक्रमम्।। ५।।
अर्थः– [यथाक्रमम्] उपर कहेलां ज्ञानावरणादि आठ कर्मोना अनुक्रमे [पंच

नव द्वि अष्टाविंशति] पांच, नव, बे, अठ्ठावीस, [चतुः द्विचत्वारिंशत् द्वि पंचभेदा] चार, बेंतालीस, बे अने पांच भेदो छे.

नोंध– ते भेदोनां नाम हवे पछीना सूत्रोमां अनुक्रमे जणावे छे. ।। ।।
ज्ञानावरणकर्मना पांच भेद
मतिश्रुतावधिमनःपर्ययकेवलानाम्।। ६।।
अर्थः– [मति श्रुत अवधि] मतिज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण,

अवधिज्ञानावरण, [मनःपर्यय केवलानाम्] मनःपर्ययज्ञानावरण अने केवळज्ञानावरण-ए पांच भेदो ज्ञानावरणकर्मना छे.

प्रश्नः– अभव्य जीवने मनःपर्ययज्ञान तथा केवळज्ञाननी प्राप्ति करवानुं सामर्थ्य नथी, जो ते सामर्थ्य होय तो अभव्यपणुं कही शकाय नहि; माटे ते बे ज्ञानना सामर्थ्य वगर तेने ए बे ज्ञानना आवरण कहेवां ते शुं निरर्थक नथी?


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अ. ८ सूत्र ७-८ ] [ प०७

उत्तरः– द्रव्यार्थिकनये अभव्यजीवने पण ते बन्ने ज्ञाननी शक्ति विद्यमान छे माटे ते अपेक्षाए तेने पण मनःपर्यय अने केवळज्ञान बन्ने छे; अने पर्यायार्थिकनये अभव्यने ते बे ज्ञान नथी केमके तेने कोई काळे पण तेनी व्यक्ति नहि थाय; शक्तिमात्र छे पण प्रगटरूपे सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र अभव्यने थतां नथी. माटे शक्तिमांथी व्यक्ति नहि थवाना निमित्त तरीके आवरण होवुं ज जोईए; तेथी अभव्य जीवने पण ते बे आवरणो छे. ।। ।।

दर्शनावरणकर्मना नव भेद
चक्षुरचक्षुरवधिकेवलानां निद्रानिद्रानिद्राप्रचलाप्रचलाप्रचला–
स्त्यानगृद्धयश्च।। ७।।
अर्थः– [चक्षुः अचक्षुः अवधि केवलानां] चक्षुदर्शनावरण, अचक्षुदर्शनावरण,

अवधिदर्शनावरण, केवळदर्शनावरण, [निद्रा निद्रानिद्रा] निद्रा, निद्रानिद्रा, [प्रचला प्रचलाप्रचला] प्रचला, प्रचलाप्रचला, [स्त्यानगृद्धयः च] अने स्त्यानगृद्धि-ए नव भेद दर्शनावरणकर्मना छे.

टीका

१. छद्मस्थ जीवोने दर्शन अने ज्ञान क्रमथी होय छे अर्थात् पहेलां दर्शन अने पछी ज्ञान होय छे; परंतु केवळी भगवानने दर्शन अने ज्ञान बन्ने एक साथे होय छे केम के दर्शन अने ज्ञान बन्नेना बाधक कर्मोनो क्षय एक साथे थाय छे.

२. मनःपर्ययदर्शन होतुं नथी, केमके मनःपर्ययज्ञान मतिज्ञानपूर्वक ज थाय छे; तेथी मनःपर्ययदर्शनावरणकर्म नथी.

३. आ सूत्रमां आवेल शब्दोना अर्थ श्री जैनसिद्धांत प्रवेशिकामांथी जोई लेवा. ।। ।।

वेदनीयकर्मना बे भेद
सदसद्वेधे।। ८।।
अर्थः– [सत् असत्वेधे] सातावेदनीयः अने असातावेदनीय-ए बे भेद

वेदनीयकर्मना छे.

टीका
सातावेदनीय अने असातावेदनीय; ते बे ज वेदनीय कर्मनी प्रकृतिओ छे.

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प०८ ] [ मोक्षशास्त्र

साता ते नाम सुखनुं छे. ते सुखनुं जे वेदन अर्थात् भोगवटो करावे ते सातावेदनीय कर्म छे. असाता नाम दुःखनुं छे; तेनुं जे वेदन अर्थात् भोगवटो करावे ते असातावेदनीय कर्म छे.

शंका– जो सुख अने दुःख कर्मोथी थाय छे तो कर्मोनुं विनष्ट थई जवा पछी जीव सुख अने दुःखथी रहित थई जवो जोईए? केमके तेने सुख अने दुःखना कारणभूत कर्मोनो अभाव थई गयो छे. जो एम कहेवामां आवे के कर्मो नष्ट थई जतां जीव सुख अने दुःख रहित ज थई जाय छे, तो एम कही शकातुं नथी. कारण के जीव द्रव्यने, निःस्वभाव थई जवाथी, अभावनो प्रसंग प्राप्त थाय छे; अथवा जो दुःखने ज कर्मजनित मानवामां आवे तो सातावेदनीय कर्मनो अभाव प्राप्त थशे, केमके पछी तेनुं कोई फळ रहेतुं नथी?

समाधानः– दुःख नामनी जे कोई पण वस्तु छे ते असातावेदनीय कर्मना उदयथी थाय छे, कारण के ते जीवनुं स्वरूप नथी. जो जीवनुं स्वरूप मानवामां आवे तो क्षीणकर्मा अर्थात् कर्म रहित जीवोने पण दुःख होवुं जोईए, केम के ज्ञान अने दर्शननी समान, कर्मनो विनाश थवा छतां, दुःखनो विनाश नहि थाय. पण सुख कर्मथी उत्पन्न नथी थतुं, केमके ते जीवनो स्वभाव छे, अने तेथी ते कर्मनुं फळ नथी. सुखने जीवनो स्वभाव मानतां सातावेदनीय कर्मनो अभाव पण थतो नथी, केमके दुःख-उपशमनना कारणभूत *सुद्रव्योना संपादनमां सातावेदनीय कर्मनो व्यापार थाय छे. _________________________________________________________________

*धन, स्त्री, पुत्र वगेरे बाह्य पदार्थोना संयोग-वियोगमां पूर्वकर्मनो उदय (निमित्त) कारण छे. तेना आधारोः-

समयसार-गाथा ८४ नी टीका. प्रवचनसार-गाथा १४ नी टीका. पंचास्तिकाय-गाथा र७ नी टीका. परमात्मप्रकाशक-अ. र. गाथा प७, ६०. नियमसार-गाथा १प७ नी टीका. पंचाध्याय अ. १. गाथा १८१. पंचाध्यायी-अ. र. गाथा प०, ४४० ४४१. रयणसार-गाथा र९. स्वामी कार्तिकेयानुप्रेक्षा-गाथा १०, १९, प६, प७, ३१९, ३२०, ४२७. पद्मनंदी पंचविंशति-पृष्ठ १०१, १०३, १०४, १०६, १०९, ११०, ११९, १२८, १३१, १३८, १४०, १पप. मोक्षमार्गप्रकाशक-पृष्ठ ८, ४प, ६१, ६२, ६४, ६८, ७०, ७१, ७२, ७३. वगेरे अने स्थळे. गोम्मटसार-कर्मकांड-पृष्ठ ९०३, श्लोकवार्तिक-अ. ८-सूत्र ११ नी टीका; अ. ९. सूत्र-१६ राजवार्तिक-अ. ८-सूत्र ११ नी टीका; अ. ९ सूत्र १६.

श्रीमद् रायचंद्र (गुजराती बीजी आवृत्ति) पृष्ठ २३प, ४४३. तथा मोक्षमाळा-पाठ ३. सत्तास्वरूप -पृष्ठ २६. अणगार धर्मामृत-पृष्ठ ६०, ७६.


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अ. ८ सूत्र ९ ] [ प०९

आवी व्यवस्था मानतां सातावेदनीय प्रकृतिने पुद्गलविपाकीपणुं प्राप्त थशे! एवी आशंका न करवी; केमके दुःखना उपशमथी उत्पन्न थयेल, दुःखना अविनाभावी, उपचारथी ज सुख संज्ञाने प्राप्त अने जीवथी अपृथग्भूत एवा स्वास्थ्यना कणनो हेतु होवाथी सूत्रमां सातावेदनीय कर्मने जीव-विपाकीत्व अने सुख-हेतुत्वनो उपदेश देवामां आव्यो छे. जो एम कहेवामां आवे के उपयुर्कत व्यवस्थानुसार तो सातावेदनीय कर्मने जीव-विपाकीपणुं अने पुद्गल-विपाकीपणुं प्राप्त थाय छे; (तो) ते पण कोई दोष नथी, केम के जीवनुं अस्तित्व अन्यथा बनी शकतुं नथी, तेथी ते प्रकारना उपदेशना अस्तित्वनी सिद्धि थई जाय छे. सुख अने दुःखना कारणभूत द्रव्योनुं संपादन करवावाळुं बीजुं कोई कर्म नथी, केम के एवुं कोई कर्म मळतुं नथी. (धवला टीका पुस्तक ६ पृष्ठ ३प-३६) ।। ।।

मोहनीयकर्मनाअठ्ठावीसभेद
दर्शनचारित्रमोहनीयाकषायकषायवेदनीयाख्यास्त्रिद्विनवषोडशभेदाः
सम्यक्त्वमिथ्यात्वतदुभयान्यि कषायकषायौ हास्यरत्यरतिशोकभय–
जुगुप्सास्त्रीपुंनपुंसकवेदा अनंतानुबंध्यप्रत्याख्यानप्रत्याख्यान–
संज्वलनविकल्पाश्चेकशः क्रोधमानमायालोभाः।। ९।।
अर्थः– [दर्शन चारित्रमोहनीय अकषाय कषाय कषावेदनीय आख्याः]

दर्शनमोहनीय, चारित्रमोहनीय, अकषायवेदनीय अने कषायवेदनीय ए चार भेदरूप मोहनीयकर्म छे, अने तेना पण अनुक्रमे [त्रि द्वि नव षोडशभेदः] त्रण, बे, नव अने सोळ भेद छे. ते आ प्रमाणे [सम्यक्त्व मिथ्यात्व तदुभयानि] सम्यक्त्वमोहनीय, मिथ्यात्वमोहनीय अने सम्यग्मिथ्यात्वमोहनीय आ त्रण भेद दर्शनमोहनीयना छे; [अकषायकषायौ] अकषाय वेदनीय अने कषायवेदनीय-आ बे भेद चारित्र मोहनीयना छे; [हास्य रति अरति शोक भय जुगुप्सा स्त्री पुं नपुंसकवेदाः] हास्य, रति अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद अने नपुंसकवेद-आ नव भेद अकषायवेदनीयना छे; अने [अनंतानुबंधी अप्रत्याख्यान प्रत्याख्यान संज्वलन विकल्पाः च] अनंतानुबंधी, अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान तथा संज्वलनना भेदथी तथा [एकशः क्रोध मान माया लोभाः] ए दरेकना क्रोध, मान, माया तथा लोभ ए चार प्रकार-ए सोळ भेद कषाय वेदनीयना छे. आ रीते कुल अठ्ठावीस भेद मोहनीयकर्मना छे.

नोंधः– अकषायवेदनीय अने कषायवेदनीय ए बेनो समावेश चारित्रमोहमां थई जाय छे तेथी तेमने गणतरीमां जुदा लेवामां आव्या नथी.


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प१० ] [ मोक्षशास्त्र

टीका

१. मोहनीयकर्मना मुख्य बे भेद छे- दर्शनमोहनीय अने चारित्रमोहनीय, जीवनो मिथ्यात्वभाव ए ज संसारनुं मूळ छे तेमां निमित्त मिथ्यात्वमोहनीयकर्म छे; ते दर्शनमोहनीयनो एक भेद छे. दर्शनमोहनीयना त्रण भेद छे- मिथ्यात्वप्रकृति, सम्यक्त्वप्रकृति अने सम्यक् मिथ्यात्वप्रकृति. आ त्रणमांथी बंध एक मिथ्यात्वप्रकृतिनो ज थाय छे. जीवनो एवो कोई भाव नथी के जेनुं निमित्त पामीने सम्यक्त्वमोहनीयप्रकृति के सम्यक् मिथ्यात्वमोहनीयप्रकृति बंधाय; जीवने प्रथम सम्यग्दर्शन प्रगट थवाना काळमां (-उपशम काळमां) मिथ्यात्व प्रकृतिना त्रण टुकडा थई जाय छे, तेमांथी एक मिथ्यात्वरूपे रहे छे. एक सम्यक्त्वप्रकृतिरूपे थाय छे अने एक सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृतिरूपे थाय छे. चारित्रमोहनीयना पचीस भेद छे तेनां नाम सूत्रमां ज जणाव्यां छे. ए रीते बधां मळीने २८ भेद मोहनीयकर्मना छे.

२. आ सूत्रमां आवेल शब्दोना अर्थ जैनसिद्धांतप्रवेशिकामांथी जोई लेवा. ३. अहीं हास्यादिक नवने अकषायवेदनीय कहेल छे; तेने नोकषायवेदनीय पण कहेवाय छे.

४. अनंतानुबंधीनो अर्थ–अनंत मिथ्यात्व, संसार; अनुबंधी तेने अनुसरीने बंधाय ते. मिथ्यात्वने अनुसरीने जे कषाय बंधाय छे तेने अनंतानुबंधी कषाय कहेवामां आवे छे. अनंतानुबंधी क्रोध-मान-माया-लोभनी व्याख्या नीचे मुजब छे.

(१) आत्माना शुद्धस्वरूपनी अरुचि ते अनंतानुबंधी क्रोध छे.
(र) ‘हुं परनुं करी शकुं’ एवी मान्यता पूर्वक जे अहंकार ते अनंतानुबंधी

मान-अभिमान छे.

(३) पोतानुं स्वाधीनस्वरूप न समजाय एवी आड मारीने विकारीदशा वडे

आत्माने ठगवो ते अनंतानुबंधी माया छे.

(४) पुण्यादि विकारथी लाभ मानीने पोतानी विकारीदशाने वधार्या करवी ते

अनंतानुबंधी लोभ छे.

अनंतानुबंधी कषाय आत्माना स्वरूपाचरण चारित्रने रोके छे. शुद्धात्माना अनुभवने स्वरूपाचरण चारित्र कहेवाय छे. तेनी शरूआत चोथा गुणस्थानथी थाय छे अने चौदमा गुणस्थाने तेनी पूर्णता थईने सिद्धदशा प्रगटे छे. ।। ।।


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अ. ८ सूत्र १०-११ ] [ प११

आयुकर्मना चार भेद
नारकतैर्यग्योनमानुषदैवानि।। १०।।
अर्थः– [नारकतैर्यग्योन] नरकायु, तिर्यंचायु, [मानुष देवानि] मनुष्यायु

अने देवायु- ए चार भेद आयुकर्मना छे. ।। १०।।

नाम कर्मना बेंतालीस भेद

४ प प ३ २ प प ६ ६ ८ प गतिजातिशरीरांगोपांगनिर्माणबंधनसंघातसंस्थानसंहननस्पर्शरस– २ प ४ गंधवर्णानुपूर्व्यागुरुलधूपघातपरघातातपोधोतोच्छ्वास–

विहायोगतयः प्रत्येकशरीरत्रससुभगसुस्वरशुभसूक्ष्म– पर्याप्तिस्थिरादेययशः कीर्तिसेतराणि तीर्थकरत्वं च।। ११।।

अर्थः– [गति जाति शरीर अंगोपांग निर्माण] गति, जाति, शरीर,

अंगोपांग, निर्माण, [बंधन संघात संस्थान संहनन] बंधन, संघात, संस्थान, संहनन, [स्पर्श रस गंध वर्ण] स्पर्श, रस, गंध, वर्ण, [आनुपूर्व्य अगुरुलघु उपघात परघात] आनुपूर्व्य, अगुरुलघु, उपघात, परघात, [आतप उद्योत उच्छ्वास विहायोगतयः] आतप, उद्योत, उच्छ्वास अने विहायोगति-ए एकवीस, तथा [प्रत्येकशरीर त्रस सुभग सुस्वर शुभ सूक्ष्म पर्याप्ति स्थिर आदेय यशःकीर्ति] प्रत्येक शरीर, त्रस, सुभग, सुस्वर, शुभ, सूक्ष्म, पर्याप्ति, स्थिर, आदेय अने यशःकीर्ति ए दस तथा [स इतराणि] तेमनाथी उलटा दस अर्थात् साधारण शरीर, स्थावर दुर्भग, दुस्वर, अशुभ, बादर (-स्थुळ), अपर्याप्त, अस्थिर, अनादेय अने अयशःकीर्ति-ए दस, [तीर्थकरत्वं च] अने तीर्थंकरत्व-ए रीते कुल बेंतालीस भेद नामकर्मना छे.

टीका

सूत्रना जे शब्द उपर जे आंकडो लखेल छे ते, ते शब्दना तेटला पेटा भेद छे-एम सूचवे छे; उदा

गति शब्द उपर चारनो आंकडो छे ते एम सूचवे छे; के

गतिना चार पेटा भेद छे. गति वगेरेना पेटा भेद सहित गणवामां आवेतो नाम कर्मना कुल ९३ भेद थाय छे.

आ सूत्रमां आवेला शब्दोना अर्थ श्री जैनसिद्धांतप्रवेशिकामांथी जोई लेवा. ।। ११।।

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प१२ ] [ मोक्षशास्त्र

गोत्रकर्मना बे भेद
उच्चैर्नीचैश्च।। १२।।
अर्थः– [उच्चैः नीचः च] उंचगोत्र अने नीचगोत्र ए बे भेद गोत्रकर्मना

छे. ।। १२।।

अंतरायकर्मना पांच भेद
दानलाभभोगोपभोगवीर्याणाम्।। १३।।
अर्थः– [दान लाभ भोग उपभोग वीर्याणाम्] दानांतराय, लाभांतराय,

भोगांतराय, उपभोगांतराय अने वीर्यांतराय-ए पांच भेद अंतराय कर्मना छे.

प्रकृतिबंधना पेटा भेदोनुं वर्णन अहीं पूरुं थयुं. ।। १३।।
हवे स्थितिबंधना भेदोनुं वर्णन करे छे-
ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय अने अंतरायकर्मनी
उत्कृष्टस्थिति
आदितस्तिसृणामन्तरायस्य च त्रिंशत्सागररोपमकोटीकोटयः
परा स्थितिः।। १४।।
अर्थः– [आदितः तिसृणाम्] पहेलेथी त्रण (अर्थात्) ज्ञानावरण, दर्शनावरण

तथा वेदनीय) [अंतरायस्य च] अने अंतराय-ए चार कर्मोनी [परा स्थिति] उत्कृष्ट स्थिति [त्रिंशत् सागरोपमकोटीकोटयः] त्रीस क्रोडाक्रोडी सागरोपम छे.

नोंधः– (१) आ उत्कृष्ट स्थितिनो बंध मिथ्याद्रष्टि संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक जीवने ज थाय छे. (र) एक करोडने एक करोडथी गुणतां जे गुणाकार आवे ते क्रोडाक्रोडी छे. ।। १४।।

मोहनीयकर्मनी उत्कृष्टस्थिति
सप्ततिर्मोहनीयस्य।। १५।।
अर्थः– [मोहनीयस्य] मोहनीयकर्मनी उत्कृष्टस्थिति [सप्ततिः] सित्तेर क्रोडा

क्रोडी सागरोपम छे.

नोंधः– आ स्थिति पण मिथ्याद्रष्टि संज्ञी पंचेंद्रिय पर्याप्तक जीवने ज बंधाय छे. ।। १प।।


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अ. ८ सूत्र १६-१७-१८-१९-२०-२१ ] [ प१३

नाम अने गोत्रकर्मनी उत्कृष्टस्थिति
विंशतिर्नामगोत्रयोः।। १६।।
अर्थः– [नामगोत्रयोः] नाम अने गोत्रकर्मनी उत्कृष्टस्थिति [विंशतिः] वीस

क्रोडाक्रोडी सागरोपम छे. ।। १६।।

आयुकर्मनी उत्कृष्टस्थिति
त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाण्यायुषः।। १७।।
अर्थः– [आयुषः] आयुकर्मनी उत्कृष्टस्थिति [त्रयस्त्रिंशत् सागरोपमाणि]

तेत्रीस सागरोपम छे. ।। १७।।

वेदनीयकर्मनी जघन्यस्थिति
अपरा द्वादशमुहूर्ता वेदनीयस्य।। १८।।
अर्थः– [वेदनीयस्य अपरा] वेदनीयकर्मनी जघन्यस्थिति [द्वादशमुहूर्ता] बार

मुहूर्त छे. ।। १८।।

नाम अने गोत्रकर्मनी जघन्यस्थिति
नामगोत्रयोरष्टौ।। १९।।
अर्थः– [नामगोत्रयोः] नाम अने गोत्रकर्मनी जघन्यस्थिति [अष्ठौ] आठ

मुहूर्तनी छे. ।। १९।।

बाकीनां ज्ञानावरणादि पांच कर्मोनी जघन्यस्थिति
शेषाणामंतर्मुहूर्ता।। २०।।
अर्थः– [शेषाणाम्] बाकीनां एटले के ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय,

अंतराय अने आयु-ए पांच कर्मोनी जघन्यस्थिति [अंतर्मुहूर्ता] अंतर्मुहूर्त छे.

स्थितिबंधना पेटाभेदनुं वर्णन अहीं पुरुं थयुं. ।। २०।।
हवे अनुभागबंधनुं वर्णन करे छे (अनुभागबंधने अनुभवबंध पण कहेवाय छे) -
अनुभवबंधनुं लक्षण
विपाकोऽनुभवः।। २१।।
अर्थः– [विपाकः] विविध प्रकारनो पाक [अनुभवः] ते अनुभव छे.

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प१४ ] [ मोक्षशास्त्र

टीका

(१) मोहकर्मनो विपाक थतां जीव जे प्रकारनो विकार करे ते प्रकारे जीवे फळ भोगव्युं कहेवाय छे; तेनो अर्थ एटलो छे के जीवने विकार करवामां मोहकर्मनो विपाक निमित्त छे. कर्मनो विपाक कर्ममां थाय, जीवमां थाय नहि. जीवने पोताना विभावभावनो अनुभव थाय ते जीवनो विपाक-अनुभव छे.

(र) आ सूत्र पुद्गलकर्मना विपाक-अनुभवने सूचवनारुं छे. बंध थती वखते जीवनो जेवो विकारीभाव होय तेने अनुसरीने पुद्गलकर्म मां अनुभाग बंध थाय छे अने ते उदयमां आवे त्यारे कर्मनो विपाक, अनुभाग के अनुभव थयो- एम कहेवाय छे.।। २१।।

अनुभागबंध कर्मना नाम अनुसार थाय छे
स यथानाम।। २२।।
अर्थः– [सः] ते अनुभागबंध [यथानाम] कर्मोना नाम प्रमाणे ज थाय छे.
टीका

जे कर्मनुं जे नाम छे ते कर्ममां तेनो ज अनुभागबंध पडे छे. जेम के- ज्ञानावरणकर्ममां ‘ज्ञान ज्यारे रोकाय त्यारे निमित्त थाय’ एवो अनुभाग होय छे; दर्शनावरणकर्ममां ‘दर्शन ज्यारे रोकाय त्यारे निमित्त थाय’ एवो अनुभाग होय छे.।। २२।।

फळ आप्या पछी कर्मोनुं शुं थाय छे
ततश्च निर्जरा।। २३।।
अर्थः– [ततः च] तीव्र, मध्यम के मंदफळ (अनुभाग) आप्या पछी

[निर्जरा] ते कर्मोनी निर्जरा थई जाय छे अर्थात् उदयमां आव्या पछी कर्म आत्माथी जुदां थई जाय छे.

टीका

१. आठे कर्मो उदय थया पछी निर्जरी जाय छे; तेमां कर्मनी निर्जराना बे भेद छे-सविपाक निर्जरा अने अविपाक निर्जरा.

(१) सविपाक निर्जरा– आत्मा साथे एक क्षेत्रे रहेलां कर्म पोतानी स्थिति
पूरी थतां जुदां थई गयां ते सविपाक निर्जरा छे.

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अ. ८ सूत्र २४ ] [ प१प (र) अविपाक निर्जरा– उदयकाळ प्राप्त थया पहेलां जे कर्मो आत्माना

पुरुषार्थना कारणे आत्माथी जुदां थई गयां ते अविपाक निर्जरा
छे. तेने सकामनिर्जरा पण कहेवाय छे.

र. निर्जराना बे भेद बीजी रीते पण पडे छे तेनुं वर्णन- (१) अकामनिर्जरा– तेमां बाह्य निमित्त तो इच्छा रहित भूख-तृषा

सहन करवी ए छे अने त्यां जो मंद कषायरूप भाव होय तो
पापनी निर्जरा थाय अने देवादि पुण्यनो बंध थाय- तेने
अकामनिर्जरा कहे छे.

जे अकामनिर्जराथी जीवनी गति कंईक ऊंची थाय छे ते प्रतिकूळ संयोगो वखते जीव मंदकषाय करे छे तेथी थाय छे, पण कर्मो जीवने ऊंची गतिमां लई जतां नथी.

(र) सकामनिर्जरा–तेनी व्याख्या उपर आवी गई छे. ३. आ सूत्रमां शब्द छे ते नवमा अध्यायना त्रीजा सूत्र [तपसा निर्जरा च] साथे संबंध धरावे छे.

अनुभागबंधनुं वर्णन अहीं पुरुं थयुं. ।। २३।।
हवे प्रदेशबंधनुं वर्णन करे छे-
प्रदेशबंधनुं स्वरूप
नामप्रत्ययाः सर्वतो योगविशेषात्सूक्ष्मैकक्षेत्रावगाहस्थिताः
सर्वात्मप्रदेशेष्वनंतानंतप्रदेशाः।। २४।।
अर्थः– [नाम प्रत्ययाः] ज्ञानावरणादि कर्मप्रकृतिओनुं कारण, [सर्वतो] सर्व

तरफथी अर्थात् समस्त भवोमां, [योगविशेषात्] योग विशेषथी, [सूक्ष्म एकक्षेत्रावगाहस्थिताः] सूक्ष्म, एकक्षेत्रावगाहरूप स्थित [सर्वात्मप्रदेशेषु] अने सर्व आत्मप्रदेशोए [अनंतानंतप्रदेशाः] जे कर्मपुद्गलना अनंतानंत प्रदेशो (परमाणुओ) छे ते प्रदेशबंध छे.

नीचेनी छ बाबतो आ सूत्रमां जणावी छे- (१) सर्व कर्मना ज्ञानावरणादि मूळप्रकृतिरूप, उत्तरप्रकृतिरूप अने उत्तरोत्तरप्रकृतिरूप थवानुं कारण कार्मणवर्गणा छे.


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प१६ ] [ मोक्षशास्त्र

(२) त्रिकाळवर्ती समस्त भवोमां (-जन्मोमां) मन-वचन-कायाना योगना निमित्ते ते कर्मो आवे छे.

(३) ते कर्मो सूक्ष्म छे- इन्द्रियगोचर नथी. (४) आत्माना सर्व प्रदेशोनी साथे दूध-पाणीनी जेम एक क्षेत्रमां ते कर्मो व्याप्त छे.

(प) आत्माना सर्व प्रदेशोए अनंतानंत पुद्गलो स्थित थाय छे. (६) एक आत्माना असंख्यप्रदेश छे, ते दरेक प्रदेशे संसारी जीवने अनंतानंत पुद्गलस्कंधो विद्यमान छे.

प्रदेशबंधनुं वर्णन अहीं पुरुं थयुं.।। २४।।

आ रीते चारे प्रकारना बंधनुं वर्णन कर्युं. हवे कर्मप्रकृतिओमांथी पुण्यप्रकृति केटली छे तथा पापप्रकृति केटली छे ते जणावीने आ अध्याय पूरो करे छे.

पुण्य प्रकृतिओ
सद्वेधशुभायुर्नामगोत्राणि पुण्यम्।। २५।।
अर्थः– [सत् वेध शुभायुः नाम गोत्राणि] सातावेदनीय, शुभ आयु, शुभ

नाम अने शुभ गोत्र [पुण्यम्] ए पुण्यप्रकृतिओ छे.

टीका

१. घातिकर्मोनी ४७ प्रकृतिओ छे; ते बधी पापरूप छे; अघातिकर्मोनी १०१ प्रकृतिओ छे; तेमां पुण्य अने पाप बन्ने प्रकार छे; तेमांथी ६८ प्रकृतिओ पुण्यरूप छे, ते नीचे प्रमाणे-

१. सातावेदनीय, र. तिर्यंचायु, ३. मनुष्यायु, ४. देवायु, प. उच्च गोत्र, ६. मनुष्यगति, ७. मनुष्यगत्यानुपूर्वी, ८. देवगति, ९. देवगत्यानुपूर्वी, १०. पंचेन्द्रिय जाति, ११-१प. पांच प्रकारना शरीर, १६-२०. शरीरनां पांच प्रकारना बंधन, २१- २प. पांच प्रकारना संघात, २६-२८. त्रण प्रकार अंगोपांग, २९-४८. स्पर्श, वर्णादिकनी वीस प्रकृति, ४९. समचतुरस्रसंस्थान, प०. वज्रर्षभनाराचसंहनन, प१. अगुरुलधु, प२. परघात, प३. उच्छ्वास, प४. आतप, पप. उद्योत, प६. प्रशस्त विहायोगति, प७. त्रस, प८. बादर, प९. पर्याप्ति, ६०. प्रत्येक शरीर, ६१. स्थिर, ६२. शुभ, ६३. सुभग, ६४. सुस्वर, ६प. आदेय, ६६. यशःकीर्ति, ६७. निर्माण, अने


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अ. ८ सूत्र २६ ] [ प१७ ६८. तीर्थंकरत्व. भेद विवक्षाए आ ६८ पुण्यप्रकृति छे अने अभेद विवक्षाथी ४र. पुण्यप्रकृति छे, केमके वर्णादिकना १६. भेद, शरीरमां अंतर्गत प बंधन अने प संघात एम कुल र६ प्रकृतिओ घटाडवाथी ४र प्रकृति रहे छे.

र. पूर्वे ११ मा सूत्रमां नामकर्मनी ४र प्रकृति जणावी छे तेमां गति, जाति, शरीरादिना पेटाभेदो जणाव्या नथी; परंतु पुण्यप्रकृति अने पापप्रकृति एवा भेद पाडतां तेमना पेटा भेद आव्या वगर रहेता नथी. ।। २प।।

पापप्रकृतिओ
अतोऽन्यत्पापम्।। २६।।
अर्थः– [अतः अन्यत्] ते पुण्यप्रकृतिओथी अन्य अर्थात् असातावेदनीय,

अशुभआयु, अशुभ नाम अने अशुभ गोत्र [पापम्] ए पापप्रकृतिओ छे.

टीका

१. पापप्रकृतिओ नीचे प्रमाणे छे- १-४७ घातिकर्मोनी सर्व प्रकृतिओ, ४८. नीच गोत्र, ४९. असातावेदनीय, प०. नरकगति, प१. नरकगत्यानुपूर्वी, पर. तिर्यंचगति, प३. तिर्यंचगत्यानुपूर्वी, प४-प७. एकेन्द्रियथी चतुरिन्द्रिय ए चार जाति, प९-६३ पांच संस्थान, ६४-६८. पांच संहनन, ६९-८८. वर्णादिक वीस प्रकार, ८९. उपघात, ९०. अप्रशस्त विहायोगति, ९१. स्थावर, ९र. सूक्ष्म, ९३. अपर्याप्ति, ९४. साधारण, ९प. अस्थिर, ९६. अशुभ, ९७. दुर्भग, ९८. दुःस्वर ९९. अनादेय अने १००. अयशःकीर्ति. भेद विवक्षाए आ १०० पापप्रकृतिओ छे; अने अभेदविवक्षाए ८४ छे, केम के वर्णादिकना १६ पेटा भेद घटाडवाथी ८४ रहे छे. आमांथी पण सम्यक्मिथ्यात्वप्रकृति तथा सम्यक्त्वमोहनीयप्रकृति ए बे प्रकृतिओनो बंध थतो नहि होवाथी ते बे बाद करतां भेदविवक्षाओ ९८ अने अभेदविवक्षाओ ८र पाप प्रकृतिओनो बंध थाय छे; परंतु ते बे प्रकृतिओनी सत्ता तथा उदय होय छे तेथी सत्ता अने उदय तो भेदविवक्षाए १०० तथा अभेदविवक्षाए ८४ प्रकृतिओना थाय छे.

र. वर्णादिक चार अथवा तो तेना भेद गणवामां आवे तो वीस प्रकृतिओ छे तेओ पुण्यरूप पण छे अने पापरूप पण छे तेथी ते पुण्य अने पाप बन्नेमां गणाय छे.

३. आ सूत्रमां आवेला शब्दोना अर्थ श्री जैनसिद्धांतप्रवेशिकामांथी जोई लेवा. ।। २६।।


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प१८ ] [ मोक्षशास्त्र

उपसंहार

१. आ अध्यायमां बंधतत्त्वनुं वर्णन छे; पहेला सूत्रमां मिथ्यात्वादि पांच विकारी परिणामोने बंधना कारण तरीके जणाव्यां छे, तेमां पहेलुं मिथ्यादर्शन जणाव्युं छे केम के ते पांचे कारणोमां संसारनुं मूळ मिथ्यादर्शन छे. ते पांचे प्रकारना जीवना विकारी परिणामोनुं निमित्त पामीने आत्माना एकेक प्रदेशे अनंतानंत कार्मणवर्गणारूप पुद्गल परमाणुओ एकक्षेत्रावगाहरूपे बंधाय छे, ते द्रव्यबंध छे.

र. बंधना चार प्रकार वर्णव्या छे. कर्मबंध जीव साथे केटला वखत सुधी रहीने पछी तेनो वियोग थाय ए पण आमां जणाव्युं छे. प्रकृतिबंधमां मुख्य आठ भेद पडे छे, तेमांथी एक मोहनीयप्रकृति ज नवा कर्मबंधमां निमित्त थाय छे.

३. वर्तमानगोचर जे कोई दर्शनो छे तेमां कोई पण स्थळे आवी स्पष्ट अने वैज्ञानिक पद्धतिए जीवना विकारी भावोनुं तथा तेना निमित्ते थता पुद्गलबंधना प्रकारोनुं स्वरूप जैनदर्शन सिवायना बीजा कोई दर्शनमां कहेवामां आव्युं नथी. अने ते प्रकारनुं कथन सर्वज्ञ -वीतरागता वगर आवी शके ज नहि. माटे जैनदर्शननुं बीजा कोई पण दर्शननी साथे समानपणुं मानवुं ते विनयमिथ्यात्व छे.

४. मिथ्यात्व संबंधमां पहेला सूत्रमां जे विवेचन करवामां आव्युं छे ते बराबर समजवुं.

प. बंधत्त्व संबंधी खास ख्यालमां राखवा योग्य सिद्धांत ए छे के शुभ तेम ज अशुभ बन्ने भावो बंधनुं ज कारण छे तेथी तेमनामां तफावत नथी अर्थात् बन्ने बूरां छे. जे अशुभभाव वडे नरकादिरूप पापबंध थाय तेने तो जीव बूरां जाणे छे, पण जे शुभभावो वडे देवादिरूप पुण्यबंध थाय तेने ते भला जाणे छे; ए रीते दुःख सामग्रीमां (-पापबंधना फळमां) द्वेष अने सुखसामग्रीमां (-पुण्यबंधना फळमां) राग थयोः माटे जो पुण्य सारुं अने पाप खराब एम मानीए तो राग- द्वेष करवा योग्य छे एवी श्रद्धा थई; अने जेम आ पर्याय संबंधी राग-द्वेष करवानी श्रद्धा थई तेम भावी पर्याय संबंधी पण सुख-दुःख सामग्रीमां राग-द्वेष करवा योग्य छे एवी श्रद्धा थई. अशुद्ध (शुभ-अशुभ) भावो वडे जे कर्मबंध थाय तेमां अमुक भलो अने अमुक बूरो एवा भेद मानवा ते ज मिथ्याश्रद्धा छे; एवी श्रद्धाथी बंधतत्त्वनुं सत्य श्रद्धान थतुं नथी. शुभ के अशुभ बन्ने बंधभाव छे, ते बन्नेथी घातिकर्मोनो बंध तो निरंतर थाय छे; सर्वे घातिकर्मो पापरूप ज छे अने ते ज आत्मगुणना घातमां निमित्त छे. तो पछी शुभभावथी जे बंध थाय तेने सारो केम कहेवाय?

६. जीवना एक समयना विकारी भावमां सात कर्मना बंधमां अने कोई वखते


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अ. ८ उपसंहार ] [ प१९ आठे प्रकारना कर्मना बंधमां निमित्त थवानी लायकात केवी रीते छे ते अहीं बताववामां आवे छे-

(१) जीव पोताना स्वरूपनी असावधानी राखे छे, ते मोह कर्मना बंधनुं निमित्त थाय छे.

(र) स्वरूपनी असावधानी होवाथी जीव ते समये पोतानुं ज्ञान पोताना तरफ न वाळतां पर तरफ वाळे छे ते भाव ज्ञानावरणकर्मना बंधनुं निमित्त थाय छे.

(३) ते ज समये, स्वरूपनी असावधानीने लीधे पोतानुं दर्शन पोताना तरफ न वाळतां पर तरफ वाळे छे ते भाव दर्शनावरणकर्मना बंधनुं निमित्त थाय छे.

(४) ते ज समये, स्वरूपनी असावधानी होवाथी पोतानुं वीर्य पोताना तरफ न वाळतां पर तरफ वाळे छे ते भाव अंतरायकर्मना बंधनुं निमित्त थाय छे.

(प) पर तरफना लक्षे परनो संयोग थाय छे तेथी ते समयनो (-स्वरूपनी असावधानी समयनो) भाव शरीर वगेरे नामकर्मना बंधनुं निमित्त थाय छे.

(६) ज्यां शरीर होय त्यां ऊंच-नीच आचारवाळा कुळमां उत्पत्ति होय, तेथी ते ज समयनो विकारी भाव गोत्रकर्मना बंधनुं निमित्त थाय छे.

(७) ज्यां शरीर होय त्यां बहारनी सगवड, अगवड, साजुं, मांदु वगेरे होय; तेथी ते समयनो भाव वेदनीयकर्मना बंधनुं निमित्त थाय छे.

अज्ञानदशामां आ सात कर्मो तो समये समये बंधाया ज करे छे; सम्यग्दर्शन थया पछी क्रमे क्रमे जेम जेम चारित्रनी असावधानी दूर थाय तेम तेम जीवमां अविकारीदशा वधती जाय अने ते अविकारी भाव पुद्गलकर्मना बंधमां निमित्त थाय नहि तेथी तेटले अंशे बंधन टळे छे.

(८) शरीर ते संयोगी वस्तु छे, तेथी ज्यां ते संयोग होय त्यां वियोग पण थाय ज, एटले के शरीरनी स्थिति अमुक काळनी होय. चालु भवमां जे भवने लायक भाव जीवने थाय तेवा आयुनो बंध नवा शरीर माटे थाय छे.

७. कर्मबंधनां जे पांच कारणो छे तेमां मुख्य मिथ्यात्व छे अने ते कर्मबंधनो अभाव करवा माटे सौथी पहेलुं कारण सम्यग्दर्शन ज छे. सम्यग्दर्शन थतां ज मिथ्यादर्शननो अभाव थाय छे अने त्यार पछी ज क्रमे क्रमे अविरति वगेरेनो अभाव थाय छे.

ए प्रमाणे श्री उमास्वामी विरचित मोक्षशास्त्रना
आठमा अध्यायनी गुजराती टीका पूरी थई.

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मोक्षशास्त्र – गुजराती टीका
अध्याय नवमो

भुमिका

१. आ अध्यायमां संवर अने निर्जरातत्त्वनुंवर्णन छे. आ मोक्षशास्त्र होवाथी सौथी पहेलां मोक्षनो उपाय बताव्यो के सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रनी एकता ते मोक्षमार्ग छे. पछी सम्यग्दर्शननुं लक्षण तत्त्वार्थश्रद्धान कह्युं अने सात तत्त्वोना नाम दर्शाव्या; त्यारपछी अनुक्रमे ते तत्त्वोनुं वर्णन कर्युं छे; तेमांथी जीव, अजीव, आस्रव अने बंध ए चार तत्त्वोनुं वर्णन अत्यार सुधीमां कर्यु छे. हवे आ अध्यायमां संवर तथा निर्जरा ए बंने तत्त्वोनुं वर्णन कर्युं छे अने त्यारपछी छेल्ला अध्यायमां मोक्षतत्त्वनुं वर्णन करीने आ शास्त्र आचार्यंदेवे पुरुं कर्युंर् छे.

र. अनादि मिथ्याद्रष्टि जीवने साचां संवर अने निर्जरातत्त्व कदी प्रगटयां नथी; तेथी तेने आ संसाररूप विकारीभावो ऊभा रह्या छे अने समये समये अनंत दुःख पामे छे. तेनुं मूळकारण मिथ्यात्व ज छे. धर्मनी शरूआत संवरथी थाय छे अने सम्यग्दर्शन ते ज प्रथम संवर छे; तेथी धर्मनुं मुळ सम्यग्दर्शन छे. संवरनो अर्थ जीवना विकारीभावोने अटकाववा ते छे; सम्यग्दर्शन प्रगट करतां मिथ्यात्वभाव अटके छे तेथी सौथी पहेलां मिथ्यात्वभावनो संवर थाय छे.

३ संवरनुं स्वरूप

(१) ‘संवर’ शब्दनो अर्थ ‘रोकवुं’ थाय छे. छठ्ठा-सातमा अध्यायमां जणावेला आस्रवने रोकवो ते संवर छे. जीव ज्यारे आस्रव भावने रोके त्यारे जीवमां कोई भावनो उत्पाद तो थवो ज जोईए. जे भावनो उत्पाद थतां आस्रवभाव रोकाय ते संवरभाव छे. संवरनो अर्थ विचारतां तेमां नीचेना भावो आवे छेः-

१. आस्रव रोकातां आत्मामां जे पर्यायनो उत्पाद थाय छे ते शुद्धोपयोग छे; तेथी उत्पाद अपेक्षाए संवरनो अर्थ शुद्धोपयोग थाय छे. उपयोगस्वरूप शुद्धात्मामां उपयोगनुं रहेवुं-टकवुं ते संवर छे. (जुओ, श्री समयसार गाथा १८१)

२. उपयोगस्वरूप शुद्धात्मामां ज्यारे जीवनो उपयोग रहे छे त्यारे नवो विकारी


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प२२ ] [ मोक्षशास्त्र पर्याय (-आस्रव) अटके छे अर्थात् पुण्य-पापना भाव अटके छे. ते अपेक्षाए संवरनो अर्थ ‘जीवना नवा पुण्य-पापना भाव रोकवा’ एवो थाय छे.

३. उपर जणावेल भाव प्रगटतां नवां कर्मो आत्मा साथे. एकक्षेत्रावगाहरूपे आवतां अटके छे, तेथी कर्म अपेक्षाए संवरनो अर्थ ‘नवां कर्मनो आस्रव अटकवो’ एवो थाय छे.

(र) उपरना त्रणे अर्थो नय अपेक्षाए करवामां आव्या छे, ते आ प्रमाणे १-पहेलो अर्थ आत्मानो शुद्धपर्याय प्रगटयानुं जणावे छे, तेथी पर्याय अपेक्षाए ते कथन शुद्धनिश्चयनयनुं छे र- बीजो अर्थ आत्मामां क्यो पर्याय अटकयो ते जणावे छे; तेथी ते कथन व्यवहारनयनुं छे. अने ३-त्रीजो अर्थ जीवना ते पर्याय वखते पर वस्तुनी स्थिति केवी होय तेनुं ज्ञान करावे छे, तेथी ते कथन असद्भूत व्यवहारनयनुं छे. तेने असद्भूत कहेवानुं कारण ए छे के, आत्मा जड कर्मनुं कांई करी शकतो नथी पण आत्माना ते प्रकारना शुद्धभावने अने नवा कर्मना आस्रवना रोकाई जवाने मात्र निमित्त-नैमित्तिकसबंध छे.

(३) आ त्रणे व्याख्याओ नय अपेक्षाए होवाथी ते दरेक व्याख्यामां बाकीनी बे व्याख्याओ गर्भित रीते अंतर्भूत थाय छे, केम के नय-अपेक्षाना कथनमां एकनी मुख्यता अने बीजानी गौणता होय छे. जे कथन मुख्यताए कर्युं होय तेने आ शास्त्रना पांचमा अध्यायना ३र मां सुत्रमां अर्पित’ कहेवामां आवेल छे अने जे कथन गौण राखवामां आव्यु होय तेने ‘अनर्पित’ कहेवामां आवेल छे. अर्पित अने अनर्पित ए बंने कथनोने एकत्रित करतां जे अर्थ थाय ते पूर्ण (-प्रमाण) अर्थ छे, तेथी ते सर्वांग व्याख्या छे. अर्पित कथनमां अनर्पितनी जो गौणता राखवामां आवी होय तो ते नय कथन छे. र्स्वांग व्याख्यारूप कथन कोई पडखुं गौण नहि राखतां बधां पडखांने एकी साथे बतावे छे. शास्त्रमां नयद्रष्टिथी व्याख्या करी होय के अने कान्तद्रष्टिए व्याख्या करी होय, पण त्यां अनेकांत स्वरूप समजीने अनेकांतस्वरूपे जे व्याख्या होय ते प्रमाणे समजवुं.

(४) संवरनी सर्वांग व्याख्या श्री समयसारजी गाथा १८७ थी १८९ सुधीमां नीचे आपी छे-

“आत्माने आत्मा वडे बे पुण्य-पापरूप शुभाशुभयोगोथी रोकीने दर्शनज्ञानमां स्थित थयो थको अने अन्य वस्तुनी इच्छाथी विरम्यो थको जे आत्मा, सर्व संगथी रहित थयो थको पोताना आत्माने आत्मा वडे ध्यावे छे,-कर्म अने नोकर्मने ध्यावतो नथी, चेतयिता होवाथी एकत्वने ज चिंतवे छे-चेते छे- अनुभवे छे, ते आत्मा,


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अ. ९ भूमिका ] [ प२३ आत्माने ध्यावतो, दर्शनज्ञानमय अने अनन्यमय थयो थको अल्पकाळमां ज कर्मथी रहित आत्माने पामे छे.”

आ व्याख्यामां संपूर्ण कथन होवाथी आ कथन अनेकान्तद्रष्टिए छे; माटे कोई शास्त्रमां नयद्रष्टिए व्याख्या करी होय, के कोई शास्त्रमां अनेकांतद्रष्टिए सर्वांग व्याख्या करी होय तो त्यां विरोध न समजतां बन्नेमां समान प्रकारे व्याख्या करी छे-एम समजवुं.

(प) श्री समयसार कळश १रप मां संवरनुं स्वरूप नीचे प्रमाणे कह्युं छे- १. आस्रवनो तिरस्कार करवाथी जेणे सदा विजय मेळव्योछे एवा संवरने उत्पन्न करती जयोति.........

र. पररूपथी जुदी पोताना सम्यक् स्वरूपमां निश्चलपणे प्रकाशती, चिन्मय, उज्ज्वळ अने निजरसना भारवाळी ज्योतिनुं प्रगटवुं,

(आ वर्णनमां आत्मानी शुद्ध पर्याय अने आस्रवनो निरोध ए रीते आत्माना बन्ने पडखां आवी जाय छे.)

(६) श्री पुरुषार्थसिद्धि-उपाय, गाथा र०प मां बार अनुप्रेक्षाना नाम कह्यां छे तेमां एक संवर अनुप्रेक्षा छे; त्यां पंडित उग्रसेन कृत टीका पा.२१८ मां ‘संवर’ नो अर्थ नीचे प्रमाणे कर्यो छे -

‘जिन पुण्य पाप नहीं कीना, आतम अनुभव चित दीना;
तिन हि विधि
आवत रोके, संवर लहि सुख अवलोके.’

अर्थः– जे जीवोए पोताना भावने पुण्य-पापरूप कर्या नथी अने आत्मअनुभवमां पोताना ज्ञानने जोडयु छे तेओए कर्मोने आवतां रोक्यां छे अने संवरनी प्राप्तिरूप सुखने तेओ अवलोके छे.

(आ व्याख्यामां उपर कहेल त्रणे पडखां आवी जाय छे तेथी ते अनेकांत अपेक्षाए सर्वांग व्याख्या छे.)

(७) श्री जयसेनाचार्ये पंचास्तिकाय गाथा १४र नी टीकामां संवरनी व्याख्या नीचे प्रमाणे करी छे -

‘अत्र शुभाशुभसंवर
समर्थः शुद्धोपयोगो भावसंवरः,
भावसंवराधारेण नवतरकर्मनिरोधो द्रव्यसंवर ईति तात्पर्यार्थः।।
अर्थः– अहीं शुभाशुभभावने रोकवाने समर्थ जे शुद्धोपयोग ते भावसंवरः

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प२४ ] [ मोक्षशास्त्र छे; भावसंवरना आधारे नवा कर्मनो निरोध थवो ते द्रव्यसंवर छे. ए तात्पर्य अर्थ छे.’ (पंचास्तिकाय पा. र०७)

(संवरनी आ व्याख्या अनेकांतद्रष्टिए छे, तेमां पहेलां त्रणे अर्थो आवी जाय छे.)

(८) श्री अमृतचंद्राचार्ये पंचास्तिकाय, गाथा १४४ नी टीकामां संवरनी व्याख्या नीचे प्रमाणे करी छे-

शुभाशुभपरिणामनिरोधः संवरः शुद्धोपयोगः एटले के शुभाशुभ परिणामना

निरोधरूप संवर ते शुद्धोपयोग छे. (पा. र०८)

(संवरनी आ व्याख्या अनेकांतद्रष्टिए छे, तेमां पहेला बे अर्थो आवी जाय छे.)
(९) प्रश्नः– आ अध्यायना पहेला सुत्रमां संवरनी व्याख्या
‘आस्रव निरोधः

संवरः’ एटली करी छे, पण सर्वांग व्याख्या करी नथी, तेनुं शु कारण छे?

उत्तरः– आ शास्त्रमां वस्तु स्वरूपनुं वर्णन नय अपेक्षाए घणुं ज टुंकामां आपवामां आव्युं छे. वळी आ शास्त्रनुं वर्णन मुख्यपणे पर्यायार्थिकनयथी होवाथी ‘आस्रवनिरोधः संवरः’ ‘एवी व्याख्या पर्याय अपेक्षाए करी छे अने तेमां द्रव्यार्थिकनयनुं कथन गौण छे.

(१०) पांचमा अध्यायना ३र मा सुत्रनी टीकामां जैनशास्त्रोना अर्थ करवानी पद्धति जणावी छे. ते पद्धति प्रमाणे आ अध्यायना पहेला सुत्रनो अर्थ करतां श्री समयसार, श्री पंचास्तिकाय वगेरे शास्त्रोमां संवरनो जे अर्थ कर्यो छे ते ज अर्थ अहीं कह्यो छे एम समजवुं.

४ लक्षमां राखवायोग्य केटलीक बाबतो

(१) पहेला अध्यायना चोथा सुत्रमां जे सात तत्त्वो कह्यां छे तेमां संवर अने निर्जरा ए बे तत्त्वो मोक्षमार्गरूप छे. पहेला अध्यायना पहेला सुत्रमां मोक्षमार्गनी व्याख्या ‘सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः’ ए प्रमाणे करी छे; ते व्याख्या मोक्षमार्ग थतां आत्मानी शुद्ध पर्याय केवी होय ते जणावे छे, अने आ अध्यायना पहेला सुत्रमां ‘आस्रवनिरोधः संवरः’ एम कहीने मोक्षमार्गरूप शुद्धपर्याय थतां अशुद्धपर्याय तथा नवा कर्मो अटके छे ते जणाव्यु छे.

(२) ए रीते ए बंने सुत्रोमां (अ. १ सू. १ तथा अ. ९. सु. १ मां) जणावेली मोक्षमार्गनी व्याख्या साथे लेतां आ शास्त्रमां सर्वांग कथन आवी जाय छे. श्री समयसार, श्री पंचास्तिकाय वगेरे शास्त्रोमां द्रव्यार्थिकनये कथन छे, तेमां संवरनी जे व्याख्या आपी छे ते ज व्याख्या पर्यायार्थिकनये कथन करनार आ शास्त्रमां जुदा शब्दोथी आपी छे.


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अ. ९ भूमिका ] [ प२प

(३) शुद्धोपयोगनो अर्थ समयग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र थाय छे. (४) आ शास्त्रमां आचार्यदेवे निर्जरानी व्याख्या आपी नथी, पण संवर थतां जे अशुद्धि टळी अने शुद्धि वधी ते ज निर्जरा छे तेथी ‘शुद्धोपयोग’ के सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र’ कहेतां तेमां ज निर्जरा आवी जाय छे.

(प) संवर तथा निर्जरा ए बंने एक ज समये होय छे, केम के जे समये शुद्धपर्याय (-शुद्धोपयोग) प्रगटे ते ज समये नवो अशुद्धपर्याय (शुभाशुभोपयोग) अटके ते संवर छे अने ते ज समये जुनी अशुद्धि टळे अने शुद्धता वधे ते निर्जरा छे.

(६) आ अध्यायना पहेला सुत्रमां संवरनी व्याख्या कर्या पछी बीजा सुत्रमां तेना छ भेद कह्या छे. ते भेदोमां समिति, घर्म, अनुप्रेक्षा, परिषहजय अने चारित्र ए पांच भेदो भाववाचक (-अस्तिसुचक) छे, अने छठ्ठो भेद गुप्ति छे ते अभाववाचक (-नास्तिसूचक) छे. पहेला सुत्रमां संवरनी व्याख्या नय अपेक्षाए निरोधवाचक करी छे, तेथी ते व्याख्या ‘संवर थतां केवो भाव थयो’ ते गौणपणे सूचवे छे अने ‘केवो भाव अटक्यो ‘ते मुख्यपणे सूचवे छे.

(७) ‘आस्रवनिरोधः संवरः’ ए सुत्रमां ‘निरोध ‘शब्द जो के अभाववाचक

छे तोपण ते शुन्यवाचक नथी; अन्य प्रकारना स्वभावपणानुं तेमां सामर्थ्य होवाथी जो के आस्रवनो निरोध थाय छे तोपण, आत्मा संवृत स्वभावपणे थाय छे, ते एक प्रकारनो आत्मानो शुद्धपर्याय छे, संवरथी आस्रवनो निरोध थतो होवाथी अने बंधनुं कारण आस्रव होवाथी संवर थतां बंधनो पण निरोध थाय छे. (जुओ, श्लोकवार्तिकसंस्कृत टीका, आ सुत्र नीचेनी कारिका र. पा. ४८६)

(८) श्री समयसारजीनी १८६ मी गाथामां कह्युं छे के-‘शुद्ध आत्माने जाणतो- अनुभवतो जीव शुद्ध आत्माने ज पामे छे अने अशुद्ध आत्माने जाणतो- अनुभवतो जीव अशुद्ध आत्माने ज पामे छे.’

आमां शुद्ध आत्माने पामवो ते संवर छे अने अशुद्ध आत्माने पामवो ते आस्रव-बंध छे.

(९) समयसार नाटकनी उत्थानिकामां र३ मे पाने संवरनी व्याख्या नीचे मुजब करी छे -

जो उपयोग स्वरूप धरि, वरते जोग विरित्त,
रोके आवत करमकों, सो है संवर तत्त
।। ३१।।

अर्थः– आत्मानो जे भाव ज्ञानदर्शन उपयोगने पामीने योगोनी क्रियाथी विरक्तथाय छे अने नवा कर्मना आस्रवने रोके छे ते संवरतत्त्व छे.


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प२६ ] [ मोक्षशास्त्र

प. निर्जरानुं स्वरूप

उपर कहेला ९ बोलोमां निर्जरा संबंधी केटलीक हकीकत आवी गई छे. संवरपूर्वकनी निर्जरा ते मोक्षमार्ग छे; तेथी ते निर्जरानी व्याख्या जाणवानी जरूर छे.

(१) श्री पंचास्तिकायनी १४४ गाथामां निर्जरानी व्याख्या नीचे प्रमाणे छे-
संवरजोगेहिं जुदो तवेहिं जो चिट्ठदे बहुविहेहिं।
कम्माणं
णिज्जरणं बहुगाणं कुणदि सो णियदं।।

अर्थः– शुभाशुभास्रवना निरोधरूप संवर अने शुद्धोपयोगरूप योगोथी संयुक्त एवो जे भेदविज्ञानी जीव अनेक प्रकारना अंतरंग-बहिरंग तपो द्वारा उपाय करे छे ते निश्चयथी घणा प्रकारना कर्मोनी निर्जरा करे छे.’

आ व्याख्यामां ‘कर्मोनी निर्जरा थाय छे’ एम कह्युं छे; ते वखते आत्मानी शुद्धपर्याय केवी होय छे ते तेमां गर्भित राख्युं छे; आ गाथानी टीका करतां श्री अमृतचंद्राचार्ये कह्युं छे के-

.... स खलु बहूनां कर्मणां निर्जरणं करोति। तदत्र कर्मविर्यशातनसमर्थो

बहिरंगान्तरंग तपोभिर्ब्रृहितः शुद्धोपयोगो भावनिर्जरा।’

अर्थः– ते (जीव) खरेखर घणा कर्मोनी निर्जरा करे छे तेथी ए सिद्धांत थयो के, अनेक कर्मोनी शक्तिओने गाळवामां समर्थ बहिरंग-अंतरंग तपोथी वृद्धि पामेलो जे शुद्धोपयोग ते भाव निर्जरा छे. (जुओ, पंचास्तिकाय पा. २०९)

(२) श्री समयसार गाथा २०६ मां निर्जरानुं स्वरूप नीचे जणाव्युं छे-
‘एदह्मि रदो णिच्चं संतुट्ठो होहि णिच्चमेदह्मि।
एदेण होहि तित्तो होहदि
तुह उत्तमं सोक्खं।। २०६।।

अर्थः– हे भव्य प्राणी! तुं आमां (-ज्ञानमां) नित्य रत अर्थात् प्रीतिवाळो था, आमां नित्य संतुष्ट था अने आनाथी तृप्त था; आम करवाथी तने उत्तम सुख थशे.’

निर्जरा थतां आत्मानी शुद्धपर्याय केवी होय छे ते आमां जणाव्युं छे. (३) संवरनी साथे अविनाभावपणे निर्जरा होय छे. निर्जराना आठ आचार (-अंग, लक्षण) छे, तेमां उपबृंहण अने प्रभावना ए बे आचार शुद्धिनी वृद्धि बतावे छे, आ संबंधमां श्री समयसार गाथा र३३ नी टीका मां नीचे प्रमाणे जणाव्युं छे-