Moksha Shastra-Gujarati (Devanagari transliteration). Sutra: 1-8 (Chapter 9).

< Previous Page   Next Page >


Combined PDF/HTML Page 30 of 36

 

Page 526 of 655
PDF/HTML Page 581 of 710
single page version

अ. ९ भूमिका ] [ प२७

“कारण के सम्यग्द्रष्टि, टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभावमयपणाने लीधे समस्त आत्मशक्तिओनी वृद्धि करतो होवाथी, उपबृंहक अर्थात् आत्मशक्तिनो वधारनार छे, तेथी तेने जीवनी शक्तिनी दुर्बळताथी (अर्थात् मंदताथी) थतो बंध नथी परंतु निर्जरा ज छे.”

(४) वळी गाथा र३६ नी टीका तथा भावार्थ मां कह्युं छे केः- टीकाः- कारण के सम्यग्द्रष्टि, टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभावमयपणाने लीधे ज्ञाननी समस्त शक्तिने प्रगट करवा-विकसाववा फेलाववा वडे प्रभाव उत्पन्न करतो होवाथी, प्रभावना करनार छे, तेथी तेने ज्ञाननी प्रभावनाना अप्रकर्षथी (अर्थात् ज्ञाननी प्रभावना नहि वधवाथी) थतो बंध नथी परंतु निर्जरा ज छे.

भावार्थः– प्रभाव एटले प्रगट करवुं, उद्योत करवो वगेरे; माटे जे पोताना ज्ञानने निरंतर अभ्यासथी प्रगट करे छे-वधारे छे, तेने प्रभावना अंग होय छे. तेने अप्रभावनाकृत कर्मबंध नथी, कर्म रस दईने खरी जाय छे तेथी निर्जरा ज छे.

(प) आ प्रमाणे अनेकांत द्रष्टिमां स्पष्टपणे सर्वांग व्याख्या कहेवामां आवे छे. ज्यां व्यवहारनये व्याख्या करवामां आवे त्यां ‘जूना विकारनुं नथा जूनां कर्मनुं खरी जवुं’ एवो निर्जरानो अर्थ कहेवामां आवे छे. पण तेमांय ‘शुद्धिनी वृद्धि ते निर्जरा’ एवो अर्थ गर्भितपणे कह्यो छे एम समजवुं.

(६) अष्टपाहुडमां भावप्राभृतनी १४४ मी गाथाना भावार्थमां संवर, निर्जरा तथा मोक्षनी व्याख्या नीचे प्रमाणे करी छे-

‘पांचमुं संवरतत्त्व छे. राग-द्वेष-मोहरूप जीवना विभावनुं न होवुं अने दर्शनज्ञानरूप चेतनाभावनुं स्थिर थवुं ते संवर छेः ते जीवनो पोतानो भाव छे अने तेनाथी पुद्गलकर्म जनित भ्रमण मटे छे. ए रीते ए तत्त्वोनी भावनामां आत्मतत्त्वनी भावना प्रधान छे; तेनाथी कर्मनी निर्जरा थईने मोक्ष थाय छे. आत्माना भाव अनुक्रमे शुद्ध थवा ते निर्जरातत्त्व छे अने सर्व कर्मनो अभाव थवो ते मोक्षतत्त्व छे.’

(७) ए रीते संवरतत्त्वमां आत्मानी शुद्ध पर्यायनुं प्रगटवुं होय छे अने निर्जरातत्त्वमां आत्मानी शुद्ध पर्यायनी वृद्धि थाय छे. आ शुद्ध पर्यायने एक शब्दथी ‘शुद्धोपयोग’ कहेवाय छे, बे शब्दोथी कहेवुं होय तो ‘संवर, निर्जरा’ कहेवाय छे अने त्रण शब्दोथी कहेवुं होय तो ‘सम्यग्दर्शन -ज्ञान-चारित्र’ कहेवाय छे. संवरनिर्जरामां अंशे शुद्ध पर्याय होय छे एम समजवुं.

आ शास्त्रमां ज्यां ज्यां संवर-निर्जरानुं विवरण होय त्यां त्यां आत्मानी पर्याय

Page 527 of 655
PDF/HTML Page 582 of 710
single page version

प२८ ] [ मोक्षशास्त्र जे अंशे शुद्ध छे ते संवर-निर्जरा छे एम समजवुं. विकल्प राग के शुभभाव ते संवर-निर्जरा नथी. परंतु तेनो निरोध थवो अने जुनी अशुद्धिनुं खरी जवुं ते संवर-निर्जरा छे.

(८) मोक्षना बीजरूप संवर-निर्जराभाव अनादिथी अज्ञानी जीवे कदी प्रगट कर्या नथी अने तेनुं यथार्थ स्वरूप पण समज्यो नथी, संवर-निर्जरा पोते धर्म छे; तेनुं स्वरूप समज्या वगर धर्म केम थाय? माटे मुमुक्षु जीवोए तेनुं स्वरूप समजवानी खास जरूर छे; आचार्य देव आ अध्यायमां तेमनुं वर्णन टूंकमां करे छे. तेमां प्रथम संवरनुं स्वरूप वर्णवे छे.

संवरनुं लक्षण
आस्रवनिरोधः संवरः।। १।।
अर्थः– [आस्रवनिरोधः] आस्रवने रोकवा ते [संवरः] संवर छे अर्थात्

आत्मामां जे कारणोथी कर्मोनो आस्रव थाय छे ते कारणोने दूर करवाथी कर्मोनुं आववुं अटकी जाय छे तेने संवर कहे छे.

टीका

१. संवरना बे भेद छे-भावसंवर अने द्रव्यसंवर. ते बन्नेनी व्याख्या भूमिकाना त्रीजा पाराना (७) मा पेटाभेदमां आपी छे.

र. संवर ते धर्म छे; संवरनी शरूआत जीव ज्यारे सम्यग्दर्शन प्रगट करे त्यारे थाय छे; सम्यग्दर्शन वगर कदी पण साचो संवर होतो नथी. सम्यग्दर्शन प्रगट करवा माटे जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा अने मोक्ष ए साततत्त्वोनुं स्वरूप यथार्थपणे विपरीत अभिनिवेशरहित जाणवुं जोईए.

३. सम्यग्दर्शन प्रगट थया पछी जीवने अंशे वीतरागभाव अने अंशे सरागभाव होय छे; त्यां वीतरागभाव वडे संवर थाय छे अने सरागभाव वडे बंध थाय छे एम समजवुं.

४. अहिंसा वगेरे शुभास्रवने घणा जीवो संवर माने छे, पण ते भूल छे. शुभास्रवथी तो पुण्यबंध थाय छे. जे भाव वडे बंध थाय ते ज भाव वडे संवर थाय नहि.

प. आत्माने जेटले अंशे सम्यग्दर्शन छे तेटले अंशे संवर छे अने बंध नथी, पण जेटले अंशे राग छे तेटले अंशे बंध छे; जेटले अंशे सम्यग्ज्ञान छे तेटले अंशे


Page 528 of 655
PDF/HTML Page 583 of 710
single page version

अ. ९ सूत्र १] [प२९ संवर छे अने बंध नथी, पण जेटले अंशे राग छे तेटले अंशे बंध छे; तथा जेटले अंशे सम्यक्चारित्र छे तेटले अंशे संवर छे अने बंध नथी, पण जेटले अंशे राग छे तेटले अंशे बंध छे- (जुओ, पुरुषार्थसिद्धि-उपाय, गाथा २१२ थी र१४)

६. प्रश्नः– सम्यग्दर्शन ते संवर छे अने बंधनुं कारण नथी तो पछी अ. ६. सू. र१ मां सम्यकत्वने पण देवायुकर्मना आस्रवनुं कारण केम कह्युं? तेमज अ. ६. सू. र४ मां दर्शनविशुद्धथी तीर्थंकरनामकर्मनो आस्रव थाय छे एम केम क्ह्युं?

उत्तरः– तीर्थंकरनामकर्मनो बंध चोथा गुणस्थानथी आठमा गुणस्थानना छठ्ठा भाग सुधी थाय छे; अने त्रणे प्रकारना सम्यकत्वनी भूमिकामां ते बंध थाय छे. खरेखर (भूतार्थनयथी) सम्यग्दर्शन पोते कदी पण बंधनुं कारण नथी, पण ते भूमिकामां रहेला रागथी ज बंध थाय छे. तीर्थंकरनामकर्मना बंधनुं कारण पण सम्यग्दर्शन पोते नथी, परंतु सम्यग्दर्शननी भूमिकामां रहेलो राग ते बंधनुं कारण छे. ज्यां सम्यग्दर्शनने आस्रव के बंधनुं कारण कह्युं होय त्यां मात्र उपचारथी व्यवहारथी कथन छे एम समजवुं; तेने अभूतार्थनयनुं कथन पण कहेवाय छे. सम्यग्ज्ञान वडे नय विभागना स्वरूपने यथार्थ जाणनारा ज आ कथनना आशयने अविरुद्धपणे समजे छे.

प्रश्नमां जे सूत्रनो आधार आपवामां आव्यो छे ते सूत्रोनी टीकामां पण खुलासो कर्यो छे के सम्यग्दर्शन पोते बंधनुं कारण नथी.

७. सम्यग्द्रष्टि जीवो बे प्रकारना छे-सरागी अने वीतरागी. तेमांथी सरागसम्यग्द्रष्टि जीवो राग सहित होवाथी रागना कारणे तेमने कर्मप्रकृतिओनो आस्रव थाय छे; ते जीवोने सरागसम्यक्त्व छे एम पण कहेवाय छे; परंतु त्यां एम समजवुं के जे राग छे ते सम्यक्त्वनो दोष नथी पण चारित्रनो दोष छे. जे सम्यग्द्रष्टि जीवोने निर्दोष चारित्र छे तेमने वीतरागसम्यक्त्व कहेवाय छे. खरेखर ए बे जीवोना सम्यग्दर्शनमां भेद नथी पण चारित्रना भेदनी अपेक्षाए ए बे भेद छे. जे सम्यग्द्रष्टि जीव चारित्रना दोषसहित छे तेमने सरागसम्यक्त्व छे एम कहेवाय छे अने जे जीवने निर्दोष चारित्र छे तेमने वीतरागसम्यक्त्व छे एम कहेवाय छे; ए रीते चारित्रनी सदोषता के निर्दोषतानी अपेक्षाए ते भेद छे. सम्यग्दर्शन पोते संवर छे अने ते तो शुद्धभाव ज छे तेथी ते आस्रव के बंधनुं कारण नथी. (जुओ, पा.) ।। ।।


Page 529 of 655
PDF/HTML Page 584 of 710
single page version

प३० ] [ मोक्षशास्त्र

संवरना कारणो

स गुप्तिसमितिधर्मानुप्रेक्षापरीषहजयचारित्रैः।। २।।

अर्थः– [गुप्ति समिति] त्रण गुप्ति, पांच समिति, [धर्म अनुप्रेक्षा] दश धर्म,

बार अनुप्रेक्षा, [परीषहजय चारित्रैः] बावीस परिषहजय अने पांच चारित्र ए छ कारणोथी [सः] ते संवर थाय छे.

टीका

१. जे जीवने सम्यग्दर्शन होय तेने ज संवरना आ छ कारणो होय छे; मिथ्याद्रष्टिने आ छ कारणोमांथी एक पण साचुं होतुं नथी. सम्यग्द्रष्टि गृहस्थने तेमज साधुने आ छ ए कारणो यथासंभव होय छे (जुओ, पुरुषार्थसिद्धि-उपाय, गाथा २०३, टीका) संवरना आ छ कारणोनुं यथार्थ स्वरूप समज्या वगर संवरनुं स्वरूप समजवामां पण जीवनी भूल थया वगर रहे नहि. माटे आ छ कारणोनुं यथार्थस्वरूप समजवुं जोईए.

र. गुप्तिनुं स्वरूप

(१) मन-वचन-कायानी चेष्टा मटे, पापचिंतवन न करे, मौन धारे तथा गमनादि न करे तेने केटलाक जीवो गुप्ति माने छे; पण ते गुप्ति नथी; केम के जीवने मनमां भक्ति वगेरे प्रशस्तरागादिना घणा प्रकारना विकल्पो थाय छे अने वचन- कायानी चेष्टा रोकवानो भाव ते तो शुभप्रवृत्ति छे; प्रवृत्तिमां गुप्तिपणुं बने नहि. वीतरागभाव थतां ज्यां मन-वचन-कायानी चेष्टा थाय नहि त्यां साची गुप्ति छे. खरी रीते गुप्तिनो एक ज प्रकार छे अने ते वीतरागभावरूप छे. गुप्तिना त्रण प्रकार निमित्तनी अपेक्षाए कह्या छे. मन-वचन-काया ए तो परद्रव्य छे, तेनी कोई क्रिया बंधनुं के अबंधपणानुं कारण नथी. वीतरागभाव थतां जेटले अंशे मन- वचन-काया तरफ जीव जोडातो नथी तेटले अंशे निश्चयगुप्ति छे, अने ते ज संवरनुं कारण छे.

(र) नयोना रागने छोडी, जे जीवो पोताना स्वरूपमां गुप्त थाय छे ते जीवोने गुप्ति होय छे. तेमनुं चित्त विकल्पजाळथी रहित शांत थाय छे अने तेओ साक्षात् अमृतरस पीए छे. आ स्वरूपगुप्तिनी शुद्धक्रिया छे. जेटला अंशे वीतरागदशा थईने स्वरूपमां प्रवृत्ति थाय छे तेटला अंशे गुप्ति छे; ते दशामां क्षोभ मटे छे अने अतीन्द्रिय सुख अनुभवाय छे (जुओ, श्री समयसार कलश ६९, पा. १७प).

(३) सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञान पूर्वक लौकिक वांछारहित थईने योगोनो यथार्थ निग्रह करवो ते गुप्ति छे. योगोना निमित्तथी आवनारा कर्मोनुं आववुं


Page 530 of 655
PDF/HTML Page 585 of 710
single page version

अ. ९ सूत्र २] [ प३१ बंध पडी जवुं ते संवर छे (जुओ, तत्त्वार्थसार अ. ६, गाथा प, पा. ३४०).

(४) आ अध्यायना चोथा सूत्रमां गुप्तिनुं लक्षण कह्युं छे. तेमां जणाव्युं छे के ‘सम्यक् योगनिग्रह’ ते गुप्ति छे. आमां सम्यक् शब्द घणो उपयोगी छे; ते एम सूचवे छे के सम्यग्दर्शन वगर योगोनो यथार्थ निग्रह होतो नथी एटले के सम्यग्दर्शनपूर्वक ज योगोनो निग्रह होई शके छे.

(प) प्रश्नः– योग चौदमां गुणस्थाने अटके छे; तेरमा गुणस्थान सुधी तो ते होय छे; तो पछी नीचली भूमिकावाळाने ‘योगनो निग्रह’ (गुप्ति) क्यांथी थाय?

उत्तरः– मन-वचन-काया तरफ आत्मानो उपयोग जेटलो न जोडाय तेटलो योगनो निग्रह थयो कहेवाय छे. अहीं योग शब्दनो अर्थ ‘प्रदेशोनुं कंपन’ एम समजवानो नथी. प्रदेशोना कंपननो निग्रह थाय तेने गुप्ति कहेवामां आवती नथी पण तेने तो अकंपपणुं के अयोगपणुं कहेवामां आवे छे, ते चौदमा गुणस्थाने प्रगटे छे. अने गुप्ति तो केटलेक अंशे चोथे गुणस्थाने पण होय छे.

(६) खरेखर आत्मानुं स्वरूप (निजरूप) ज परम गुप्ति छे, तेथी आत्मा जेटले अंशे पोताना शुद्धस्वरूपमां स्थिर रहे तेटले अंशे गुप्ति छे. (जुओ श्री समयसार कळश १प८, पा. र९१) .

३. आत्मानो वीतरागभाव एकरूप छे अने निमित्त अपेक्षाए गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परिषहजय अने चारित्र एवा जुदा जुदा भेदो पाडीने समजाववामां आवे छे; ते भेदो द्वारा पण अभेदता बतावी छे. स्वरूपनी अभेदता ते संवर-निर्जरानुं कारण छे.

४. गुप्ति, समिति वगेरेना स्वरूपनुं वर्णन चोथा सूत्रथी शरु करीने क्रमे क्रमे कहेवामां आवशे. ।। ।।

निर्जरा अने संवरनुं कारण
तपसा निर्जरा च।। ३।।
अर्थः– [तपसा] तपथी [निर्जरा च] संवर अने निर्जरा पण थाय छे.
टीका

१. दश प्रकारना धर्ममां तपनो समावेश थई जाय छे, तोपण तेने अहीं जुदुं कहेवानुं कारण ए छे के, ते संवर अने निर्जरा बन्नेनुं कारण छे; अने तेमां संवरनुं ते प्रधान कारण छे.


Page 531 of 655
PDF/HTML Page 586 of 710
single page version

प३२ ] [ मोक्षशास्त्र

२. अहीं जे तप कह्युं छे ते सम्यक्तप छे, केम के ते तप ज संवर निर्जरानुं कारण छे. सम्यग्द्रष्टि जीवने ज सम्यक्तप होय छे. मिथ्याद्रष्टिना तपने बाळतप कहेवामां आवे छे अने ते आस्रव छे, एम अ. ६ सू. १र नी टीकामां कह्युं छे. ते सूत्रमां आपेला ‘आदि’ शब्दमां बाळतपनो समावेश थाय छे. जेओ सम्यग्दर्शन अने आत्मज्ञानथी रहित छे एवा जीवो गमे तेटलुं तप करे तोपण तेना बधा तपने बाळतप (अर्थात् अज्ञानतप, मूर्खतावाळो तप) कहेवाय छे (जुओ, समयसार, गाथा १प२, पा. १९८). सम्यग्दर्शन पूर्वकना तपने उत्तम तप तरीके आ अध्यायना छठ्ठा सूत्रमां वर्णव्यो छे.

३. तपनो अर्थ

श्री प्रवचनसार, गाथा १४ मां तपनो अर्थ आ प्रमाणे आप्यो छे- ‘स्वरूपविश्रांतनिस्तरंगचैतन्यप्रतपनाच्च तपः अर्थात् स्वरूपमां विश्रांत, तरंग विनाना चैतन्यनुं प्रतपन ते तप छे.

तपनुं स्वरूप अने ते संबंधी थती भूल

(१) घणा जीवो अनशनादिने तप माने छे अने ते तपथी निर्जरा माने छे, पण बाह्य तपथी निर्जरा थाय नहि. निर्जरानुं कारण तो शुद्धोपयोग छे. शुद्धोपयोगमां जीवनी रमणता थतां अनशन वगेरे ‘शुभ-अशुभ इच्छानो निरोध थाय छे’ ते संवर छे. जो बाह्य दुःख सहन करवुं ते निर्जरा होय तो तिर्यंचादिक पण भूख-तरसादिक दुःख सहन करे छे तेथी तेने पण निर्जरा थाय.

(र) प्रश्नः– तिर्यंचादिक तो पराधीनपणे भूख-तरसादि सहन करे छे, पण जे स्वाधीनपणे धर्मबुद्धिथी उपवासादिरूप तप करे तेने तो निर्जरा थाय ने?

उत्तरः– धर्मबुद्धिथी बाह्य उपवासादिक तो करे पण त्यां उपयोग अशुभ, शुभ के शुद्धरूप जेम परिणमे ते अनुसार ज बंध के निर्जरा थाय छे. जो अशुभ के शुभरूप उपयोग होय तो बंध थाय छे अने सम्यग्दर्शनपूर्वक शुद्धोपयोग होय तो धर्म थाय छे. जो बाह्य उपवासथी निर्जरा थती होय तो घणा उपवासादि करतां घणी निर्जरा थाय अने थोडा करतां थोडी थाय-एवो नियम ठरे, तथा निर्जरानुं मुख्य कारण उपवासादि ज ठरे. पण एम तो बने नहि; केमके बाह्य उपवासादि करवा छतां जो द्रुष्टपरिणाम करे तो तेने निर्जरा केम थाय? आथी एम सिद्ध थाय छे के अशुभ, शुभ के शुद्धरूपे जेवो उपयोग परिणमे ते अनुसार बंध के निर्जरा थाय छे; तेथी उपवासादि तप निर्जरानुं मुख्य कारण नथी, पण अशुभ तथा शुभ परिणाम ए बन्ने बंधनां कारण छे अने शुद्ध परिणाम निर्जरानुं कारण छे.


Page 532 of 655
PDF/HTML Page 587 of 710
single page version

अ. ९ सूत्र ४] [ प३३

(३) प्रश्नः– जो एम छे तो आ सूत्रमां ‘तपथी निर्जरा पण थाय छे’ एम कह्युं?

उत्तरः– बाह्य उपवासादि ते तप नथी पण तपनी व्याख्या एम छे के ‘इच्छानिरोधस्तपः’ अर्थात् इच्छाने रोकवी ते तप छे. शुभ-अशुभ इच्छा ते तप नथी पण शुभ-अशुभ इच्छा मटतां उपयोग शुद्ध थाय छे ते सम्यक्तप छे अने ते तपथी ज निर्जरा थाय छे.

प्रश्नः– आहारादि लेवारूप अशुभभावनी इच्छा दूर थतां तप थाय पण उपवासादि के प्रायश्चित्तादि शुभकार्य छे तेनी इच्छा तो रहे ज ने?

उत्तरः– ज्ञानी पुरुषोने उपवासादिनी इच्छा नथी पण एक शुद्धोपयोगनी ज भावना छे. ज्ञानी पुरुषो, उपवासादि करतां शुद्धोपयोग वधारे छे; पण ज्यां उपवासादिथी शरीरनी के परिणामोनी शिथिलता वडे शुद्धोपयोग शिथिल थतो जाणे त्यां आहारादिक ग्रहण करे छे. जो उपवासादिथी ज सिद्धि थती होय तो श्री अजितनाथादि त्रेवीस तीर्थंकरो दीक्षा लईने बे उपवास ज केम धारण करे? साधन वडे एक वीतराग शुद्धोपयोगनो अभ्यास कर्यो.

(प) प्रश्नः– जो एम छे तो अनशनादिने तपसंज्ञा केम कही छे? उत्तरः– अनशनादिने बाह्यतप कह्यां छे. बाह्य एटले बहारमां बीजाओने देखाय के आ तपस्वी छे. छतां त्यां पण पोते जेवा अंतरंग परिणाम करशे तेवुं ज फळ पामशे. शरीरनी क्रिया जीवने कांई फळदाता नथी. सम्यग्द्रष्टि जीवने वीतरागता वधे छे ते खरुं तप छे, अनशनादिने निमित्तअपेक्षाए ‘तप’ संज्ञा आपवामां आवी छे.

तपना फळ संबंधी खुलासो

सम्यग्द्रष्टिने तप करतां निर्जरा थाय छे अने साथे पुण्यकर्मनो बंध पण थाय छे; पण ज्ञानीओने तपनुं प्रधानफळ निर्जरा छे तेथी आ सूत्रमां साचा तपथी निर्जरा थाय- एम कह्युं. जेटली तपमां (अर्थात् शुद्धोपयोगमां) न्यूनता होय छे तेटलो पुण्यकर्मनो बंध थई जाय छे; आ अपेक्षाए पुण्यनो बंध थवो ते तपनुं गौण फळ कहेवाय छे. जेम खेती करवानुं प्रधान फळ तो धान्य उत्पन्न करवुं ते छे, पण राडां वगेरे उत्पन्न थवुं ते तेनुं गौण फळ छे; तेम अहीं एटलुं समजवुं के सम्यग्द्रष्टिने तपनो जे विकल्प आवे छे ते राग होवाथी तेना फळमां पुण्य बंधाई जाय छे अने जेटलो राग तूटीने वीतरागभाव- शुद्धोपयोग वधे छे ते निर्जरानुं कारण छे. आहार पेटमां जवो के न जवो ते बंध के निर्जरानुं कारण नथी केम के ते परद्रव्य छे अने


Page 533 of 655
PDF/HTML Page 588 of 710
single page version

प३४ ] [ मोक्षशास्त्र परद्रव्यनुं परिणमन आत्माने आधीन नथी तेथी तेना परिणमनथी आत्माने लाभ के नुकशान नथी. जीवने पोताना परिणामथी ज लाभ के नुकशान थाय छे.

६. अ. ८. सू. २३ मां पण निर्जरा संबंधी वर्णन होवाथी ते सूत्रनी टीका अहीं पण वांचवी. तपना बार भेद कह्या छे ते संबंधी विशेष खुलासो आ अध्यायना सूत्र. १९-२० मां करवामां आव्यो छे माटे त्यांथी जोई लेवो.।। ।।

गुप्तिनुं लक्षण अने भेद
सम्यग्योगनिग्रहोगुप्तिः।। ४।।
अर्थः– [सम्यक् योगनिग्रहो] सम्यक् प्रकारे योगनो निग्रह ते [गुप्तिः] गुप्ति छे.
टीका

१. आ सूत्रमां सम्यक् शब्द घणो उपयोगी छे; ते एम सूचवे छे के सम्यग्दर्शनपूर्वक ज गुप्ति होय छे; अज्ञानीने गुप्ति होती नथी. तथा जेने गुप्ति होय ते जीवने विषयसुखनी अभिलाषा होती नथी एम पण ‘सम्यक्’ शब्द बतावे छे. जो जीवने संकलेशता (आकुळता) थाय तो तेने गुप्ति होती नथी. बीजा सूत्रनी टीकामां गुप्तिनुं स्वरूप जणाव्युं छे ते अहीं पण लागु पडे छे.

र. गुप्तिनी व्याख्या

(१) जीवना उपयोगनुं मन साथे जोडाण ते मनोयोग छे. वचन साथे जोडाण ते वचनयोग छे अने काय साथे जोडाण ते काययोग छे, तथा तेनो अभाव ते अनुक्रमे मनगुप्ति, वचनगुप्ति अने कायगुप्ति छे. आ रीते निमित्तना अभावनी अपेक्षाए गुप्तिना त्रण भेद छे.

पर्याय शुद्धोपयोगनी हीनाधिकता होवा छतां तेमां शुद्धता तो एक ज प्रकारनी छे; निमित्त अपेक्षाए तेना अनेक प्रकार कहेवामां आवे छे.

जीव ज्यारे वीतरागभाव वडे पोतानी स्वरूपगुप्तिमां रहे त्यारे मन, वचन ने काया तरफनुं लक्ष छूटी जाय छे; तेथी तेनी नास्ति अपेक्षाए त्रण भेद पडे छे; ए बधा भेद निमित्तना छे एम जाणवुं.

(र) सर्व मोह-राग-द्वेषने दुर करीने खंडरहित अद्वैत परम चैतन्यमां सारी रीते स्थित थवुं ते निश्चयमनोगुप्ति छे; संपूर्ण असत्य भाषाने एवी रीते त्यागवी के (अथवा एवी रीते मौनव्रत राखवुं के) मूर्तिक द्रव्यमां, अमूर्तिक द्रव्यमां के बन्नेमां


Page 534 of 655
PDF/HTML Page 589 of 710
single page version

अ. ९ सूत्र प] [ प३प वचननी प्रवृत्ति अटके अने जीव परम चैतन्यमां स्थिर थाय, ते निश्चयवचनगुप्ति छे. संयमधारी मुनि ज्यारे पोताना आत्मस्वरूप चैतन्यमय शरीरथी जड शरीरनुं भेदज्ञान करे छे (अर्थात् शुद्धात्माना अनुभवमां लीन थाय छे) त्यारे अंतरंगमां पोताना आत्मानी उत्कृष्ट मूर्तिनुं निश्चलपणुं थवुं ते कायगुप्ति छे.

(जुओ, श्री नियमसार गाथा ६९-७० तथा तेनी टीका पानुं ८४-८प)

(३) अनादि अज्ञानी जीवोए कदी सम्यग्गुप्ति धारण करी नथी. अनेकवार द्रव्यलिंगी मुनि थइने जीवे शुभोपयोगरूप गुप्ति- समिति वगेरे निरतिचार पाळी, पण ते सम्यक् न हती. सम्यग्दर्शन प्राप्ति कर्या वगर कोइ जीवने सम्यग्गुप्ति थइ शके नहि अने तेनुं भवभ्रमण टळे नहि. माटे प्रथम सम्यग्दर्शन प्रगट करीने क्रमे क्रमे आगळ वधीने सम्यग्गुप्ति प्रगट करवी जोइए.

(जुओ, पंचास्तिकाय, गाथा १७२, टीका; मोक्षमार्ग-प्रकाशक पा. २४७).

(४) छठ्ठा गुणस्थानवर्ती साधुने शुभभावरूप गुप्ति पण होय छे, पण ते आत्मानुं स्वरूप नथी; ते शुभ विकल्प छे तेथी ते ज्ञानीने हेयबुद्धिए होय छे, केम के तेनाथी बंध थाय छे. तेने व्यवहारगुप्ति कहेवाय छे. ते टाळीने साधु निर्विकल्पदशामां स्थिर थाय छे; ते स्थिरताने निश्चयगुप्ति कहेवाय छे, ते निश्चयगुप्ति संवरनुं कारण छे. (जुओ, श्री प्रवचनसार अ.३ गाथा २) ।। ।।

बीजा सूत्रमां संवरना छ कारणो बताव्या छे; तेमांथी गुप्तिनुं वर्णन पूरुं थयुं. हवे समितिनुं वर्णन करे छे.

समितिना पांच भेद

ईर्याभाषैषणादाननिक्षेपोत्सर्गाः समितयः ।। ५।।

अर्थः–[ईर्या भाषा एषणा आदाननिक्षेप उत्सर्गाः] सम्यक् इर्या, सम्यक् भाषा,

सम्यक् एषणा, सम्यक् आदाननिक्षेप अने सम्यक् उत्सर्ग-ए पांच [समितयः] समिति छे. (चोथा सूत्रनो ‘सम्यक्’ शब्द आ सूत्रमां पण लागु पडे छे.)

टीका
१. समितिनुं स्वरूप अने ते संबंधी थती भूल

(१) परजीवोनी रक्षार्थे यत्नाचार प्रवृत्तिने घणा जीवो समिति माने छे, पण ते यथार्थ नथी. केम के हिंसाना परिणामोथी तो पाप थाय छे, अने जो रक्षाना परिणामोथी संवर थाय छे एम मानवामां आवे तो पुण्यबंधनुं कारण कोण ठरशे?


Page 535 of 655
PDF/HTML Page 590 of 710
single page version

प३६ ] [ मोक्षशास्त्र वळी एषणासमितिमां पण ते अर्थ घटतो नथी, केम के त्यां दोष टळे छे, पण कांई पर जीवनी रक्षानुं प्रयोजन नथी.

(र) प्रश्नः– तो पछी समितिनुं खरुं स्वरूप शुं? उत्तरः– मुनिने किंचित् राग थतां गमनादि क्रिया थाय छे; त्यां ते क्रियामां अति आसक्तिना अभावथी तेमने प्रमादरूप प्रवृत्ति थती नथी, तथा बीजा जीवोने दुःखी करीने पोतानुं गमनादि प्रयोजन साधता नथी तेथी तेमनाथी स्वयं दया पळाय छे; ए प्रमाणे साची समिति छे. (जुओ, मोक्षमार्ग-प्रकाशक पा. २३२).

. अभेद, उपचाररहित जे रत्नत्रयनो मार्ग ते मार्गरूप परमधर्मद्वारा

पोताना आत्मस्वरूपमां ‘सम’ अर्थात् सम्यक् प्रकारे ‘इता’ अर्थात् गमन तथा परिणमन ते समिति छे. अथवा . पोताना आत्माना परमतत्त्वमां लीन स्वाभाविक परमज्ञानादि परमधर्मोनी एकता ते समिति छे. आ समिति संवर- निर्जरारूप छे (जुओ, श्री नियमसार गाथा ६१).

(३) सम्यग्द्रष्टि जीवो जाणे छे के आत्मा पर जीवोने हणी शके नहि, परद्रव्योनुं कांई करी शके नहि, भाषा बोली शके नहि, शरीरनुं हलन-चलनादि करी शके नहि; शरीर चालवा लायक होय त्यारे स्वयं चाले, परमाणुओ भाषारूपे परिणमवाना होय त्यारे स्वयं परिणमे; पर जीव तेना आयुष्यनी योग्यता प्रमाणे जीवे के मरे; पण ते कार्यो वखते पोतानी योग्यतानुसार जीवने राग होय छे एटलो निमित्त-नैमित्तिकसंबंध छे; तेथी निमित्त अपेक्षाए समितिना पांच प्रकार पडे छे. उपादानमां तो भेद पडता नथी.

(४) गुप्ति निवृत्तिस्वरूप छे अने समिति प्रवृत्तिस्वरूप छे. सम्यग्द्रष्टिने समितिमां जेटले अंशे वीतरागभाव छे तेटले अंशे संवर छे अने जेटले अंशे राग छे तेटले अंशे बंध छे.

(प) मिथ्याद्रष्टि जीव तो एम माने छे के हुं पर जीवोने बचावी शकुं तथा हुं परद्रव्योनुं करी शकुं, तेथी तेने समिति होती ज नथी. द्रव्यलिंगी मुनिने शुभोपयोगरूप समिति होय छे पण ते सम्यक्समिति नथी अने संवरनुं कारण नथी; वळी ते तो शुभोपयोगने धर्म माने छे, तेथी ते मिथ्यात्वी छे (जुओ, श्री पंचास्तिकाय, गाथा. १७२ टीका).

र. पूर्वे समितिने आस्रवरूप कही हती अने अहीं
संवररूप कही, तेनुं कारण
अ. ६. सू. प. मां पचीस प्रकारनी क्रियाओने आस्रवनुं कारण कह्युं छे; त्यां

Page 536 of 655
PDF/HTML Page 591 of 710
single page version

अ. ९ सूत्र ६ ] [ प३७ गमन वगेरेमां थती क्रिया ते इर्यापथ क्रिया छे अने ते पांच समितिरूप छे एम जणाव्युं छे अने तेने बंधना कारणोमां गणी छे. परंतु अहीं समितिने संवरना कारणमां गणी छे तेनुं कारण ए छे के, जेम सम्यग्द्रष्टिने पांच समिति संवरनुं कारण थाय छे तेम तेने जेटले अंशे राग छे तेटले अंशे ते आस्रवनुं पण कारण थाय छे. अहीं संवर अधिकारमां संवरनी मुख्यता होवाथी समितिने संवरना कारणरूपे वर्णवी छे अने छठ्ठा अध्यायमां आस्रवनी मुख्यता होवाथी त्यां समितिमां जे राग छे तेने आस्रवना कारणरूप वर्णवेल छे.

३. उपर प्रमाणे समिति ते मिश्रभावरूप छे; एवा भाव सम्यग्द्रष्टिने होय छे; तेमां अंशे वीतरागता छे अने अंशे राग छे. जे अंशे वीतरागता छे ते अंश वडे तो संवर ज छे तथा जे अंशे सरागता छे ते अंश वडे बंध थाय छे. सम्यग्द्रष्टिने आवा मिश्ररूप भावथी तो संवर अने बंध ए बन्ने कार्य बने, पण एकला राग वडे ए बे कार्य बने नहि; तेथी ‘एकला प्रशस्त राग’ थी पुण्यास्रव पण मानवो अने संवर-निर्जरा पण मानवा ते भ्रम छे. मिश्ररूप भावमां पण, आ सरागता छे अने आ वीतरागता छे एवी यथार्थ ओळखाण सम्यग्द्रष्टिने ज होय छे; तेथी तेओ बाकी रहेला सरागभावने हेयरूप श्रद्धे छे. मिथ्याद्रष्टिने सरागभाव अने वीतरागभावनी यथार्थ ओळखाण नथी, तेथी ते सरागभावने संवररूप माने छे अने प्रशस्तरागरूप कार्योने उपादेयरूप श्रद्धे छे, ते भ्रम छे-अज्ञान छे.

४. समितिना पांच भेदो

साधु ज्यारे गुप्तिरूप प्रवर्तनमां स्थिर रही शकता नथी त्यारे इर्या, भाषा, एषणा, आदाननिक्षेप अने उत्सर्ग ए पांच समितिमां तेओ प्रवर्ते छे; त्यारे असंयमना निमित्ते बंधाता कर्म बंधाता नथी तेटलो संवर थाय छे.

आ समिति मुनि अने श्रावको बन्ने यथायोग्य पाळे छे.
(जुओ, पुरुषार्थसिद्धि-उपाय गाथा २०३. भावार्थ)
पांच समितिनी व्याख्या नीचे मुजब छे-
इर्यासमिति– चार हाथ आगळ भूमि जोईने शुद्धमार्गमां चालवुं ते
इर्यासमिति छे.
भाषासमिति– हित, मित अने प्रिय वचन बोलवां ते भाषासमिति छे.
एषणासमिति– दिवसमां एक ज वार निर्दोष आहार लेवो ते एषणासमिति छे.

Page 537 of 655
PDF/HTML Page 592 of 710
single page version

प३८ ] [ मोक्षशास्त्र

आदाननिक्षेपसमिति– सावधानीपूर्वक जोईने वस्तु राखवी, मूकवी, तथा
उपाडवी ते आदाननिक्षेपसमिति छे.
उत्सर्गसमिति– जीवरहित स्थळमां मळ-मूत्रादिनुं क्षेपण करवुं ते
उत्सर्गसमिति छे.

आ व्यवहार-व्याख्या छे; ते मात्र निमित्तनैमित्तिक संबंध बतावे छे, परंतु जीव परद्रव्यनो कर्ता छे अने परद्रव्यनी अवस्था जीवनुं कर्म छे- एम समजवुं नहि.।। ।।

बीजा सूत्रमां संवरनां छ कारणो जणाव्यां छे. तेमांथी समिति अने गुप्तिनुं वर्णन पूरुं थयुं. हवे दश धर्मनुं वर्णन करे छे.

दश धर्म
उत्तमक्षमामार्दवार्जवशौचसत्यसंयमतपस्त्यागाकिंचन्य–
ब्रह्मचर्याणि धर्मः।। ६।।
अर्थः– [उत्तम क्षमा मार्दव आर्जव शौच सत्य] उत्तम क्षमा, उत्तम मार्दव,

उत्तम आर्जव, उत्तम शौच, उत्तम सत्य, [संयम तपः त्याग आकिंचन्य ब्रह्मचर्याणि] उत्तम संयम, उत्तम तप, उत्तम त्याग, उत्तम आकिंचन्य अने उत्तम ब्रह्मचर्य [धर्मः] ए दश धर्मो छे.

टीका

१. प्रश्नः– आ दश प्रकारनो धर्म शा माटे कह्यो? उत्तरः– प्रवृत्तिने रोकवा माटे प्रथम गुप्ति जणावी; ते गुप्तिमां प्रवर्तवा जीव ज्यारे असमर्थ होय त्यारे प्रवृत्तिनो उपाय करवा माटे समिति कही. ए समितिमां प्रवर्तनारा मुनिने प्रमाद दूर करवा माटे आ दश प्रकारनो धर्म जणाव्यो छे.

२. उत्तमः– आ सूत्रमां जणावेलो ‘उत्तम’ शब्द क्षमा वगेरे दशे बोलोने लागु पडे छे; ते शब्द गुणवाचक छे. उत्तम क्षमादि कहेवाथी अहीं रागरूप क्षमा न लेवी पण स्वरूपना भानसहित क्रोधादि कषाय अभावरूप क्षमा समजवी. उत्तमक्षमादि गुणो प्रगटतां क्रोधादि कषायनो अभाव थाय छे; तेथी आस्रवनी निवृत्ति थाय छे, एटले के संवर थाय छे.


Page 538 of 655
PDF/HTML Page 593 of 710
single page version

अ. ९ सूत्र ६ ] [ प३९

३. धर्मनुं स्वरूप अने ते संबंधी थती भूल

राग-द्वेष नहि, पुण्य नहि, कषाय नहि, ओछुं-अधुरुं के विकारीपणुं नहि; एवा पूर्ण वीतराग ज्ञायकमात्र एकरूप स्वभावनी प्रतीति, लक्ष अने तेमां टकवुं ते धर्म छे, ते वीतरागनी आज्ञा छे. (आत्मसिद्धि-प्रवचनो पा. ४८७)

घणा जीवो एम माने छे के, बंधादिकना भयथी अथवा तो स्वर्ग-मोक्षनी इच्छाथी क्रोधादि न करवा ते धर्म छे. परंतु तेमनी ए मान्यता खोटी छे; केम के तेनो क्रोधादिक करवानो अभिप्राय तो टळ्‌यो नथी. जेम कोई मनुष्य राजादिकना भयथी के महंतपणाना लोभथी परस्त्री सेवतो नथी, तो तेथी तेने त्यागी कही शकाय नहि; ते ज प्रमाणे उपर्युक्त मान्यतावाळा जीवो पण क्रोधादिकना त्यागी नथी; तेमने धर्म थतो नथी.

प्रश्नः– तो क्रोधादिकनो त्याग केवी रीते थाय? उत्तरः– पदार्थो इष्ट-अनिष्ट भासतां क्रोधादि थाय छे. तत्त्वज्ञानना अभ्यासथी ज्यारे कोई पदार्थ इष्ट-अनिष्ट न भासे त्यारे स्वयं क्रोधादि उपजता नथी अने त्यारे ज साचो धर्म थाय छे.

४. क्षमादिनी व्याख्या नीचे प्रमाणे छे–

क्षमा-निंदा, गाळ, हास्य, अनादर, मार, शरीरनो घात वगेरे थतां अथवा तो ते प्रसंग नजीक आवतां देखीने भावोमां मलिनता न थवी ते क्षमा छे.

(र) मार्दव– जाति वगेरे आठ प्रकारना मदना आवेशथी थता अभिमाननो अभाव ते मार्दव छे, अथवा तो परद्रव्यनुं हुं करी शकुं एवी मान्यतारूप अहंकारभावने जड मूळ्‌ाथी उखेडी नाखवो ते मार्दव छे.

(३) आर्जव –माया-कपटथी रहितपणुं, सरळता, सीधापणुं ते आर्जव छे. (४) शौच– लोभथी उत्कृष्टपणे उपराम पामवुं-निवृत्त थवुं ते शौच- पवित्रता छे.

(प) सत्य– सत् जीवोमां-प्रशंसनीय जीवोमां साधुवचन (सरळ वचन) बोलवानो भाव ते सत्य छे.

[प्रश्नः– उत्तम सत्य अने भाषा समितिमां शुं तफावत छे?

उत्तरः– समितिरूपे प्रवर्तनार मुनिने साधु अने असाधु पुरुषो प्रत्ये वचन व्यवहार होय छे अने ते हित, परिमित वचन छे. ते मुनिने शिष्यो तथा तेमना भक्तो (-श्रावको) मां उत्तमसत्य, ज्ञान, चारित्रनां लक्षणादिक शीखवा-शीखववामां घणो भाषा व्यवहार करवो पडे छे तेने उत्तमसत्यधर्म कहेवाय छे.]


Page 539 of 655
PDF/HTML Page 594 of 710
single page version

प४० ] [ मोक्षशास्त्र

(६) संयम–समितिमां प्रवर्तनारा मुनिने प्राणीओने पीडा करवानो त्याग छे ते संयम छे.

(७) तप– भावकर्मना नाश माटे पोतानी शुद्धतानुं प्रतपन ते तप छे. (८) त्याग– संयमी जीवोने योग्य ज्ञानादिक देवां ते त्याग छे. (९) आकिंचन्य– विद्यमान शरीरादिमां पण संस्कारना त्याग माटे, ‘आ मारुं छे’ एवा अनुरागनी निवृत्ति ते आकिंचन्य छे. आत्मस्वरूपथी भिन्न एवा शरीरादिकमां के रागादिकमां ममत्वरूप परिणामोनो अभाव ते आकिंचन्य छे.

(१०) ब्रह्मचर्य– स्त्री मात्रनो त्याग करी. पोताना आत्मस्वरूपमां लीन रहेवुं ते ब्रह्मचर्य छे. पूर्वे भोगवेली स्त्रीओना भोगनुं स्मरण तथा तेनी कथा सांभळवाना त्यागथी तथा स्त्रीओ पासे बेसवानुं छोडवाथी अने स्वछंद प्रवर्तन रोकवा माटे गुरुकुळमां रहेवाथी ब्रह्मचर्य परिपूर्ण पळाय छे.

आ दशे बोलमां ‘उत्तम’ शब्द लगाडतां ‘उत्तमक्षमा’ वगेरे दश धर्म थाय छे. उत्तमक्षमा वगेरे कहेतां ते शुभरागरूप न समजवा पण कषायरहित शुद्धभावरूप समजवा.

प. दश प्रकारना धर्मोनुं वर्णन

क्षमाना नीचे मुजब पांच प्रकार छे- (१) जेम निर्बळ पोते सबळनो विरोध न करे तेम, ‘हुं क्षमा करुं तो मने कोई हेरान न करे’ एवा भावथी क्षमा राखवी ते. आ क्षमामां ‘हुं क्रोधरहित त्रिकाळ स्वभावे शुद्ध छुं’ एवुं भान न आव्युं पण रागभाव आव्यो तेथी ते खरी क्षमा नथी, ते धर्म नथी.

(र) क्षमा करुं तो बीजा तरफथी मने नुकशान न थाय पण लाभ थाय- एवा भावथी शेठ वगेरेनो ठपको सहन करे, सामो क्रोध न करे, पण ते खरी क्षमा नथी; ते धर्म नथी.

(३) हुं क्षमा करुं तो कर्मबंधन अटके, क्रोध करवाथी नरकादि हलकी गतिमां जवुं पडशे माटे क्रोध न करुं-एवा भावे क्षमा करे पण ते साची क्षमा नथी; ते धर्म नथी; केम के तेमां भय छे, निर्भयता-निसंदेहता नथी.

(४) क्रोधादि न करवा एवी वीतरागनी आज्ञा छे तेम शास्त्रमां कह्युं छे, माटे मारे क्षमा राखवी जोईए, जेथी मने पाप नहि थाय अने लाभ थशे एवा भावे


Page 540 of 655
PDF/HTML Page 595 of 710
single page version

अ. ९ सूत्र ६ ] [ प४१ शुभपरिणाम राखे अने तेने वीतरागनी आज्ञा माने ते पण साची क्षमा नथी; कारण के ते पराधीन क्षमा छे, ते धर्म नथी.

(प) ‘साची क्षमा’ अर्थात् ‘उत्तम क्षमा’ नुं स्वरूप ए छे के, आत्मा अविनाशी, अबंध, निर्मळ ज्ञायक ज छे, मारी वर्तमान दशामां भूलने कारणे शुभाशुभ भाव थाय छे तेनुं कर्तापणुं छोडी शुद्धनयद्वारा पोते जेवो छे तेवो पोताने जाणीने, मानीने तेमां ठरवुं ते वीतरागनी आज्ञा छे अने ते धर्म छे. आ पांचमी क्षमा ते क्रोधमां नहि नमवुं, क्रोधनो पण ज्ञाता एवो सहज अकषाय क्षमास्वरूप छे. निजस्वभावमां, शुद्धस्वरूपमां रहेवुं ते उत्तम क्षमा छे. ‘क्षमा ए ज मोक्षनो भव्य दरवाजो छे’ एम कहेवाय छे त्यां आ ज क्षमा समजवी. पदार्थ इष्टानिष्ट भासतां कोधादि थाय छे ज्यारे तत्त्वज्ञानना अभ्यासथी कोई इष्ट-अनिष्ट न भासे त्यारे ज्ञातास्वभावमां धैर्य-सावधान रहेवाथी स्वयं क्रोधादि ऊपजता नथी अने त्यारे ज साचो धर्म थाय छे.

नोंधः– अहीं जेम क्षमाना पांच प्रकार जणाव्या तथा तेमां पांचमा प्रकारने उत्तमक्षमाधर्म जणाव्यो, ते ज प्रमाणे मार्दव, आर्जवादि सर्व बोलोमां ए पांच प्रकार समजवा अने ते दरेकमां पांचमो प्रकार धर्म छे एम समजवुं.

६. क्षमाना शुभ विकल्पनो हुं कर्ता नथी एम समजीने राग-द्वेषथी छूटी स्वरूपनी सावधानी करवी ते स्वनी क्षमा छे. ‘क्षमा करवी, सरळता राखवी’ एम निमित्तनी भाषामां बोलाय तथा लखाय, पण तेनो अर्थ एम समजवो के-शुभ के शुद्धपरिणाम करवाना विकल्प करवा ते पण नित्य सहज स्वभावनो क्षमागुण नथी. ‘हुं सरळता राखुं, क्षमा करुं’ -एम भंगरूप विकल्प ते राग छे, ते नित्य ज्ञायकतत्त्वने गुण करतो नथी; केम के ते पुण्य परिणाम पण बंधभाव छे; तेनाथी अबंध अरागी तत्त्वने गुण थाय नहि. ।। ।।

बीजा सूत्रमां कहेला संवरना छ कारणोमांथी पहेला त्रण कारणोनुं वर्णन पूरुं थयुं. हवे चोथुं कारण बार अनुप्रेक्षा छे. तेनुं वर्णन करे छे.

बार अनुप्रेक्षा
अनित्याशरणसंसारैकत्वान्यत्वाशुच्यास्त्रवसंवरनिर्जरालोकबोधि–

दुर्लभधर्मस्वाख्यातत्त्वानुचिंतनमनुप्रेक्षाः।। ७।।

अर्थः– [अनित्य अशरण संसार एकत्व अन्यत्व] अनित्य, अशरण, संसार,

Page 541 of 655
PDF/HTML Page 596 of 710
single page version

प४२ ] [ मोक्षशास्त्र एकत्व, अन्यत्व, [अशुचि आस्रव संवर निर्जरा] अशुचि, आस्रव, संवर, निर्जरा, [लोक बोधिदुर्लभ धर्म] लोक, बोधिदुर्लभ अने धर्म [स्वाख्यातत्त्वानुचितनं अनुप्रेक्षाः] - ए बारना स्वरूपनुं वारंवार चिंतवन करवुं ते अनुप्रेक्षा छे.

टीका

१. अनित्यादि चिंतवनथी शरीरादिने बूरां जाणी-हितकारी न जाणी तेनाथी उदास थवुं तेनुं नाम अनुप्रेक्षा छे एम केटलाक माने छे, पण ते यथार्थ नथी; ए तो, जेम पहेलां कोई मित्र होत त्यारे तेनो प्रत्ये राग हतो अने पाछळथी तेना अवगुण जोई उदासीन थयो तेम पहेलां शरीरादिकथी राग हतो पण पाछळथी तेना अनित्यपणुं वगेरे अवगुण देखीने उदासीन थयो, तेनी ए उदासीनता द्वेषरूप छे, ते साची अनुप्रेक्षा नथी.

प्रश्नः– तो साची अनुप्रेक्षानुं स्वरूप शुं छे? उत्तरः– जेवो पोतानो अने शरीरादिकनो स्वभाव छे तेवो ओळखीने भ्रम छोडवो अने ते शरीरादिकने भलां जाणी राग न करवो तथा बूरां जाणी द्वेष न करवो; आवी साची उदासीनता अर्थे अनित्यत्व वगेरेनुं यथार्थ चिंतवन करवुं ते ज साची अनुप्रेक्षा छे. तेमां जेटली वीतरागता वधे छे तेटलो संवर छे अने जे राग रहे छे ते बंधनुं कारण छे. आ अनुप्रेक्षा सम्यग्द्रष्टिने ज होय छे केम के अहीं सम्यक्अनुप्रेक्षा जणावी छे. अनुप्रेक्षानो अर्थ (अनु+प्रेक्षा) आत्माने अनुसरीने तेने जोवो-एम थाय छे.

२. जेम अग्निथी तपाववामां आवतां लोढानो पिंड तन्मय (-अग्निमय) थई जाय छे, तेम ज्यारे आत्मा क्षमादिकमां तन्मय थई जाय छे त्यारे क्रोधादिक उत्पन्न थता नथी. ते स्वरूप प्राप्त करवा माटे अनित्य वगेरे बार भावनाओनुं वारंवार चिंतवन करवानी जरूरीयात छे. ते बार भावनाओ आचार्यदेवे आ सूत्रमां जणावी छे.

३. बारभावनानुं स्वरूप

(१) अनित्य अनुप्रेक्षा– संवरना द्रश्यमान, संयोगी एवा शरीरादि समस्त पदार्थो इन्द्र-धनुष, वीजळी अथवा परपोटा समान शीघ्र नाश थई जाय तेवा छे; एवो विचार करवो ते अनित्य अनुप्रेक्षा छे.

शुद्ध निश्चयनयथी आत्मानुं स्वरूप देव, असुर, अने मनुष्यना वैभवादिथी

Page 542 of 655
PDF/HTML Page 597 of 710
single page version

अ. ९ सूत्र ७ ] [ प४३ व्यतिरिक्त छे, आत्मा ज्ञानस्वरूपी सदा शाश्वत छे अने संयोगी भावो अनित्य छे- एम चिंतववुं ते अनित्यभावना छे.

(२) अशरण अनुप्रेक्षा– जेम निर्जन वनमां भूख्या सिंहे पकडेला हरणना बच्चाने कोई शरण नथी, तेम संसारमां जीवने कोई शरणभूत नथी. जो जीव पोते पोताना स्वभावने ओळखीने शुद्धभावथी धर्मनुं सेवन करे तो ते दुःखथी बची शके छे, नहि तो ते समये समये भावमरणथी दुःखी छे-एम चिंतववुं ते अशरण अनुप्रेक्षा छे.

आत्मामां ज सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र अने सम्यक्तप रहे छे; तेथी आत्मा ज शरणभूत छे अने तेनाथी पर बधुं अशरण छे-एम चिंतववुं ते अशरणभावना छे.

(३) संसार अनुपे्रक्षा–आ चतुर्गतिरूप संसार विषे भ्रमण करतां जीव जेनो पिता हतो तेनो ज पुत्र, जेनो पुत्र हतो तेनो ज पिता, जेनो स्वामी हतो तेनो ज दास, जेनो दास हतो तेनो ज स्वामी थई जाय छे अथवा तो पोते पोतानो ज पुत्र थई जाय छे; इत्यादि प्रकारे संसारना स्वरूपनो अने तेना कारणरूप विकारीभावोना स्वरूपनो विचार करवो ते संसार अनुप्रेक्षा छे.

जो के आत्मा कर्मना निमित्ते थता राग-द्वेष-अज्ञानरूप भावोथी संसाररूप धोर वनमां भटकया करे छे-तोपण निश्चयनये आत्मा विकारीभावोथी अने कर्मोथी रहित छे-एम चिंतववुं ते संसार भावना छे.

(४) एकत्व अनुप्रेक्षा– जीव पोते एकलो ज छे, पोते पोताथी ज विकार करे छे, पोते पोताथी ज धर्म करे छे, पोते पोताथी ज सुखी-दुःखी थाय छे. जीवमां परद्रव्योनो अभाव छे माटे कर्म के परद्रव्यो जीवने कांई लाभ-नुकशान करे नहि- एवुं चिंतवन करवुं ते एकत्व अनुप्रेक्षा छे.

हुं एक छुं, ममतारहित छुं, शुद्ध छुं, ज्ञानदर्शनलक्षण छुं, कांई अन्य परमाणुमात्र पण मारुं नथी, शुद्ध एकत्व ज उपादेय छे-एम चिंतववुं ते एकत्व भावना छे.

(प) अन्यत्व अनुप्रेक्षा– आत्मा अने सर्व पदार्थो भिन्न छे; तेओ दरेक पोतपोतानुं कार्य करे छे. जीव परपदार्थोने कांई करी शकतो नथी अने पर पदार्थो जीवने कांई करी शकता नथी. जीवना विकारी भावो पण जीवना स्वभावथी अन्य छे केम के तेओ जीवथी छूटा पडी जाय छे. विकारी भाव तीव्र होय के मंद होय तोपण तेनाथी आत्माने लाभ थाय नहि. परद्रव्योथी अने विकारथी आत्माने अन्यत्वपणुं छे


Page 543 of 655
PDF/HTML Page 598 of 710
single page version

प४४ ] [ मोक्षशास्त्र एवा तत्त्वज्ञाननी भावनापूर्वक वेराग्यनी वृद्धि थवाथी छेवटे मोक्ष थाय छे- आ प्रमाणे चिंतवन करवुं ते अन्यत्व अनुप्रेक्षा छे.

आत्मा ज्ञानदर्शनस्वरूप छे अने शरीरादि जे बाह्य द्रव्य ते सर्वे आत्माथी भिन्न छे. पर द्रव्य छेदाय के भेदाय, कोई लई जाय के नष्ट थई जाय अथवा तो गमे तेम थाव पण परद्रव्यनो परिग्रह मारो नथी- एम चिंतववुं ते अन्यत्व भावना छे.

(६) अशुचित्व अनुप्रेक्षा– शरीर स्वभावथी ज अशुचिमय छे अने जीव स्वभावथी शुचिमय (शुद्धस्वरूपी) छे; शरीर लोही, मांस वगेरेथी भरेलुं छे, ते कदी पवित्र थई शकतुं नथी; इत्यादि प्रकारे आत्मानी शुद्धतानुं अने शरीरनी अशुचिनुं ज्ञान करीने शरीर उपरनुं ममत्व तथा राग छोडवां अने आत्मानुं लक्ष वधारवुं. शरीर प्रत्ये द्वेष करवो ते अनुप्रेक्षा नथी पण शरीर प्रत्येना राग-द्वेष मटाडवा अने आत्माना पवित्र स्वभाव तरफ लक्ष करवुं तथा सम्यग्दर्शनादिकनी भावना वडे आत्मा अत्यंत पवित्र थाय छे- एवुं वारंवार चिंतवन करवुं ते अशुचित्व अनुप्रेक्षा छे.

आत्मा देहथी जुदो, कर्मरहित, अनंत सुखनुं पवित्र धाम छे एनी नित्य भावना करवी अने विकारी भावो अनित्य दुःखरूप अशुचिमय छे एम जाणीने तेनाथी पाछा फरवानी भावना करवी ते अशुचि भावना छे.

(७) आस्रव अनुप्रेक्षा– मिथ्यात्व अने रागद्वेषरूप भावोथी समये समये नवा विकारी भावो उत्पन्न थाय छे. मिथ्यात्व ते मुख्य आस्रव छे केमके ते संसारनी जड छे; माटे तेनुं स्वरूप जाणीने तेने छोडवानुं चिंतवन करवुं ते आस्रव अनुप्रेक्षा छे.

मिथ्यात्व, अविरति आदि आस्रवना भेद कह्यां छे ते आस्रवो निश्चयनये जीवने नथी. द्रव्य अने भाव बन्ने प्रकारना आस्रवरहित शुद्ध आत्मानुं चिंतवन करवुं ते आस्रव भावना छे.

(८) संवर अनुप्रेक्षा– मिथ्यात्व अने रागद्वेषरूप भावो अटकवा ते भाव संवर छे; तेनाथी नवा कर्मनुं आववुं अटकी जाय ते द्रव्यसंवर छे. प्रथम तो आत्माना शुद्धस्वरूपना लक्षे मिथ्यात्व अने तेना सहगामी अनंतानुबंधी कषायनो संवर थाय छे. सम्यग्दर्शनादि शुद्धभाव ते संवर छे अने तेनाथी आत्मानुं कल्याण थाय छे- एवुं चिंतवन करवुं ते संवर अनुप्रेक्षा छे.

परमार्थनये शुद्धभावे आत्मामां संवर ज नथी; तेथी संवरभाव रहित शुद्ध आत्माने नित्य चिंतववो ते संवरभावना छे.


Page 544 of 655
PDF/HTML Page 599 of 710
single page version

अ. ९ सूत्र ७ ] [ प४प

(९) निर्जरा अनुप्रेक्षा– अज्ञानीने सविपाक निर्जराथी आत्मानुं कांइ पण भलुं थतुं नथी; पण आत्मानुं स्वरूप जाणीने तेना त्रिकाळी स्वभावना लक्षे शुद्धता प्रगट करवाथी जे निर्जरा थाय छे तेनाथी आत्मानुं कल्याण थाय छे-ए वगेरे प्रकारे निर्जराना स्वरूपनुं चिंतवन करवुं ते निर्जरा अनुप्रेक्षा छे.

स्वकाळ पकव निर्जरा (सविपाक निर्जरा) चारे गतिवाळाने होय छे पण तपकृत निर्जरा (अविपाक निर्जरा) सम्यग्दर्शन पूर्वक व्रतधारीओने ज होय छे एम चिंतववुं ते निर्जरा भावना छे.

(१०) लोक अनुप्रेक्षा– अनंत लोकालोकोनी मध्यमां चौद राजु प्रमाण लोक छे. तेनो आकार तथा तेनी साथे जीवनो निमित्त-नैमित्तिकसंबंध विचारवो. अने परमार्थद्रष्टिए आत्मा पोते ज पोतानो लोक छे माटे पोते पोतामां ज जोवुं ते लाभदायक छे; आत्मानी अपेक्षाए पर वस्तु तेनो अलोक छे, माटे आत्माने तेना तरफ लक्ष करवानी जरूर नथी. पोताना आत्मस्वरूप लोक (देखवा जाणवारूप स्वभावमां) मां स्थिर थतां पर वस्तुओ ज्ञानमां सहेजे जणाय छे-आवुं चिंतवन करवुं ते लोक अनुप्रेक्षा छे; तेनाथी तत्त्वज्ञाननी शुद्धि थाय छे.

आत्मा पोताना अशुभभावथी नरक तथा तिर्यंचगति पामे छे, शुभ भावथी देव तथा मनुष्यगति पामे छे. अने शुद्ध भावथी मोक्ष पामे छे. -एम चिंतववुं ते लोक भावना छे.

(११) बोधिदुर्लभ अनुप्रेक्षा– रत्नत्रयरूप बोधि प्राप्त करवामां घणा पुरुषार्थनी जरूर छे, माटे ते माटेनो पुरुषार्थ वधारवो अने तेनुं चिंतवन करवुं ते बोधिदुर्लभ अनुप्रेक्षा छे.

निश्चयनये ज्ञानमां हेय उपादेयपणानो विकल्प नथी माटे मुनिओए संसारथी विरक्त थवानुं चिंतवन करवुं ते बोधिदुर्लभ भावना छे.

(१र) धर्म अनुप्रेक्षाः– सम्यग्धर्मना यथार्थ तत्त्वोनुं वारंवार चिंतवन करवुं; धर्म ते वस्तुनो स्वभाव छे; आत्मानो शुद्धस्वभाव ते पोतानो धर्म छे तथा आत्माना सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप धर्म अथवा दशलक्षणरूप धर्म अथवा स्वरूपनी हिंसा नहि करवारूप अहिंसाधर्म आत्माने इष्टस्थाने (संपूर्ण पवित्रदशाए) पहोंचाडे छे; धर्म ज परम रसायन छे. धर्म ज चिंतामणीरत्न छे, धर्म ज कल्पवृक्ष छे, धर्म ज कामधेनुं गाय छे, धर्म ज मित्र छे, धर्म ज स्वामी छे, धर्म ज बंधु, हितु, रक्षक अने साथे रहेनारो छे. धर्म ज शरण छे, धर्म ज धन छे, धर्म ज अविनाशी छे,


Page 545 of 655
PDF/HTML Page 600 of 710
single page version

प४६ ] [ मोक्षशास्त्र धर्म ज सहायक छे, जिनेश्वरभगवाने उपदेशेलो धर्म ते ज धर्म छे-ए प्रकारे चिंतवन करवुं ते धर्म अनुप्रेक्षा छे.

निश्चयनये आत्मा श्रावकधर्म के मुनिधर्मथी भिन्न छे, माटे माध्यस्थभाव अर्थात् रागद्वेषरहित शुद्धात्मानुं चिंतवन करवुं ते धर्म भावना छे.

आ बारे भेदो निमित्त अपेक्षाए छे. धर्म तो वीतरागभावरूप एक ज छे; तेमां भेद पडता नथी. ज्यां राग होय त्यां भेद पडे छे.

४. आ बार भावना ज प्रत्याख्यान, प्रतिक्रमण, आलोचना अने समाधि छे, माटे निरंतर अनुप्रेक्षानुं चिंतवन करवुं जोईए. (भावना अने अनुप्रेक्षा ए बन्ने एकार्थ वाचक छे.)

प. आ अनुप्रेक्षाओनुं चिंतवन करवावाळा जीवो उत्तमक्षमादि धर्मो पाळे छे अने परिषहोने जीते छे तेथी तेनुं कथन बन्नेनी वच्चे करवामां आव्युं ।। ।।

बीजा सूत्रमां कहेला संवरना छ कारणोमांथी पहेला चार कारणोनुं वर्णन पुरुं थयुं. हवे पांचमुं कारण परिषहजय छे तेनुं वर्णन करे छे.

परिषह सहन करवानो उपदेश

मार्गाच्यवननिर्जरार्थं परिसोढव्याः परिषहाः।। ८।।

अर्थः– [मार्ग अच्यवन निर्जरार्थ] संवरना मार्गथी च्युत न थवा माटे अने

कर्मोनी निर्जराने माटे [परिसोढव्याः परिषहाः] बावीस परिषहो सहन करवा योग्य छे. (आ संवरनुं वर्णन चालतुं होवाथी. आ सूत्रमां कहेला ‘मागं’ शब्दनो अर्थ ‘संवरनो मार्ग’ एम समजवो.)

टीका

१. अहींथी शरू करीने सत्तरमा सूत्र सुधी परिषहनुं वर्णन छे. आ विषयमां जीवोनी घणी भूलो थाय छे, माटे ते भूलो टाळवा परिषहजयनुं यथार्थ स्वरूप अहीं जणाव्युं छे. आ सूत्रमां पहेलो शब्द ‘मार्ग अच्यवन’ वापर्यो छे तेनो अर्थ मार्गथी च्युत न थवा माटे’ एवो थाय छे. जे जीव मार्गथी (सम्यग्दर्शनादिथी) च्युत थई जाय तेने संवर न थाय पण बंध थाय, केम के तेणे परिषहजय न कर्यो परंतु पोते विकारथी हणाई गयो. हवे पछीना सूत्र ९-१०-११ नी साथे आ सूत्रने मेळववानी खास जरूर छे.