Page 546 of 655
PDF/HTML Page 601 of 710
single page version
अ. ९ सूत्र ८ ] [ प४७
र. दसमा सूत्रमां कह्युं छे के, दस-अगीआर अने बारमा गुणस्थाने बावीस परिषहोमांथी आठ तो होता ज नथी एटले तेने जीतवापणुं नथी, अने बाकीना चौद परिषह होय छे तेने ते जीती ले छे एटले के क्षुधा, तृषा वगेरे परिषहोथी ते गुणस्थानवर्ती जीवो हणाता नथी पण तेना उपर जय मेळवे छे अर्थात् ते गुणस्थानोए क्षुधा, तृषा वगेरे उत्पन्न थवाना निमित्तकारणरूप कर्मनो उदय होवा छतां ते निर्मोही जीवो तेमां जोडाता नथी, तेथी तेमने क्षुधा, तृषा वगेरे संबंधी विकल्प पण ऊठतो नथी; ए रीते ते परिषहो उपर ते जीवो संपूर्ण विजय प्राप्त करे छे. आथी ते गुणस्थाने वर्तता जीवोने रोटला वगेरेनो आहार, पाणी वगेरे लेवानुं होतुं ज नथी एवो नियम छे.
३. परिषह संबंधे ए खास ध्यानमां राखवुं जोईए के, संकलेश रहित भावोथी परिषहोने जीती लेवाथी ज संवर थाय छे. जो दस-अगीआर तथा बारमा गुणस्थाने खावापीवा वगेरेनो विकल्प आवे तो संवर केम थाय? अने परिषहजय थयो केम कहेवाय? चौदे परिषहो उपर जय मेळववाथी संवर थाय छे एम दसमा सूत्रमां कह्युं छे. सातमा गुणस्थाने ज जीवने खावापीवानो विकल्प ऊठतो नथी केम के त्यां निर्विकल्प दशा छे; त्यां अबुद्धिपूर्वक विकल्पो होय छे पण खावापीवाना विकल्पो त्यां होता नथी, तेम ज ते विकल्पो साथे निमित्त-नैमित्तिक संबंध राखनारी आहार-पाननी क्रिया पण होती नथी. तो पछी दसमा गुणस्थाने तो कषाय तद्दन सूक्ष्म थई गयो छे अने अगीआरमा तथा बारमा गुणस्थाने तो कषायनो अभाव थवाथी निर्विकल्पदशा जामी जाय छे; त्यां खावापीवानो विकल्प होय ज क्यांथी? खावापीवानो विकल्प अने तेनी साथे निमित्तपणे संबंध राखनार खावापीवानी क्रिया तो बुद्धिपूर्वक विकल्पदशामां ज होय छे; तेथी ते विकल्प अने क्रिया तो छठ्ठा गुणस्थान सुधी ज होई शके, पण तेनाथी उपर ते होता नथी. आथी दस-अगीआर तथा बारमा गुणस्थाने तो ते प्रकारनो विकल्प तथा बाह्यक्रिया अशक्य छे.
४. दस-अगीआर अने बारमा गुणस्थाने अज्ञान परिषहनो जय होय छे एम दसमा सूत्रमां कह्युं छे तेनुं तात्पर्य हवे विचारीए.
अज्ञान परिषहनो जय एम सूचवे छे के त्यां हजी केवळज्ञान उत्पन्न थयुं नथी, पण अपूर्णज्ञान छे अने तेना निमित्तरूप ज्ञानावरणीयनो उदय छे. उपर कहेला गुणस्थानोए ज्ञानावरणीयनो उदय होवा छतां जीवने ते संबंधी लेशमात्र आकुळता नथी. दसमा गुणस्थाने सूक्ष्म कषाय छे पण त्यां ‘मारुं ज्ञान ओछुं छे’ एवो विकल्प ऊठतो नथी, अने अगीआर तथा बारमा गुणस्थाने तो अकषायभाव वर्ते छे तेथी
Page 547 of 655
PDF/HTML Page 602 of 710
single page version
प४८ ] [ मोक्षशास्त्र त्यां पण ज्ञाननी अपूर्णतानो विकल्प होई शके नहि. आ रीते तेमने अज्ञान (ज्ञाननी अपूर्णता) होवा छतां तेनो परिषहजय वर्ते छे. ए ज प्रमाणे ते गुणस्थानोए अशन-पानना परिषहजय संबंधी सिद्धांत पण समजवो.
प. आ अध्यायना १६ मा सूत्रमां वेदनीयना उदयथी ११ परिषह कह्या छे. तेनां नाम-१. क्षुधा, र. तृषा, ३. शीत, ४. उष्ण, प. दंशमशक, ६. चर्या, ७. शय्या, ८. वध, ९. रोग, १०. तृणस्पर्श अने ११. मळ.
दस-अगीयार अने बारमा गुणस्थाने जीवने पोताना स्वभावथी ज आ अगीआर परिषहोनो जय वर्ते छे.
६. कर्मनो उदय बे प्रकारे होय छेः प्रदेशउदय अने विपाकउदय, ज्यारे जीव विकार करे त्यारे ते उदयने विपाकउदय कहेवाय छे अने जीव विकार न करे तो तेने प्रदेशउदय कहेवाय छे. आ अध्यायमां संवर-निर्जरानुं वर्णन छे. जीव जो विकार करे तो तेने परिषह जय थाय नहि अने संवर-निर्जरा थाय नहि. परिषहजयथी संवरनिर्जरा थाय छे. दस-अगीआर अने बारमा गुणस्थानोए अशन-पाननो परिषहजय कह्यो छे, तेथी त्यां ते संबंधी विकल्प के बाह्य क्रिया होता नथी.
७. परिषहजयनुं आ स्वरूप तेरमा गुणस्थाने बिराजतां तीर्थंकर भगवान अने सामान्य केवळीओने पण लागु पडे छे. तेथी तेमने पण क्षुधा, तृषा वगेरेना भाव उत्पन्न थाय ज नहि अने अशन-पाननी बाह्यक्रिया पण होय नहि. जो ते होय तो परिषहजय कहेवाय नहि; परिषहजय तो संवर-निर्जरानुं कारण छे. जो क्षुधा तृषा वगेरेना विकल्प होवा छतां क्षुधापरिषहजय तृषापरिषहजय वगेरे मानवामां आवे तो परिषहजय संवर-निर्जरानुं कारण ठरशे नहि.
८. श्री नियमसारनी छठ्ठी गाथामां भगवान श्री कुंदकुंदाचार्ये कह्युं छे के-१. क्षुधा, र. तृषा, ३. भय, ४. रोष, प. राग, ६. मोह, ७. चिंता, ८. जरा, ९. रोग, १०. मरण, ११. स्वेद, १र. खेद, १३. मद, १४. रति, १प. विस्मय, १६. निद्रा, १७. जन्म अने १८. उद्वेग-ए अढार महादोष आप्त अर्हंत वीतराग भगवानने होता नथी.
९. भगवाने उपदेशेला मार्गथी नहि डगतां ते मार्गमां लगातार प्रवर्तन करवाथी कर्मना द्वार बंध थाय छे अने तेथी संवर थाय छे, तथा पुरुषार्थना कारणे निर्जरा थवाथी मोक्ष प्राप्त थाय छे; माटे परिषह सहवा योग्य छे.
परिषहजयनुं स्वरूप उपर कहेवाई गयुं छे के क्षुधादि लागतां ते संबंधी विकल्प पण न
Page 548 of 655
PDF/HTML Page 603 of 710
single page version
अ. ९ सूत्र ९ ] [ प४९ उठवो तेनुं नाम परिषहजय छे. क्षुधादि लागतां तेना नाशनो उपाय न करवो तेने केटलाक जीवो परिषहसहनता माने छे, पण ते मिथ्या छे. क्षुधादि दूर करवानो उपाय न कर्यो परंतु अंतरंगमां तो क्षुधादि अनिष्ट सामग्री मळतां दुःखी थयो तथा रति आदिनुं कारण (-इष्ट सामग्री) मळतां सुखी थयो एवा दुःख-सुखरूप परिणाम छे ते ज आर्त्त-रौद्रध्यान छे; ए भावोथी संवर केवी रीते थाय? अने तेने परिषहजय केम कहेवाय? जो दुःखना कारणो मळतां दुःखी न थाय तथा सुखना कारणो मळतां सुखी न थाय, पण ज्ञेयरूपथी तेनो जाणनार ज रहे तो ज ते परिषहजय छे. ।। ८।।
क्षुत्पिपासाशीतोष्णदंशमशकनाग्न्यारतिस्त्रीचर्यानिषद्याशय्याक्रोशवध– याचनाऽलाभरोगतृणस्पर्शमलसत्कारपुरस्कारप्रज्ञाऽज्ञानाऽदर्शनानि।। ९।।
दंशमशक, [नाग्न्य अरति स्त्री चर्या निषद्या शय्या] नाग्न्य, अरति, स्त्री, चर्या, निषद्या, शय्या, [आक्रोश वध याचना अलाभ रोग तृणस्पर्श] आक्रोश, वध, याचना अलाभ, रोग, तृणस्पर्श, [मल सत्कारपुरस्कार प्रज्ञा अज्ञान अदर्शनानि] मल, सत्कारपुरस्कार, प्रज्ञा, अज्ञान अने अदर्शन-ए बावीश प्रकारना परिषह छे.
समजवुं; तेथी दरेक बोलनी साथे ‘परिसोढव्याः’ शब्द लागु पाडीने अर्थ करवो एटले के आ सूत्रमां कहेला बावीश परिषहो सहन करवा योग्य छे. ज्यां सम्यग्दर्शन-ज्ञानपूर्वक चारित्रदशा होय त्यां परिषहनुं सहन होय छे. मुख्यपणे मुनिदशामां परिषहजय होय छे. अज्ञानीने परिषहजय होय ज नहि, केम के परिषहजय ते तो सम्यग्दर्शनपूर्वकनो वीतरागभाव छे.
र. अज्ञानीओ एम माने छे के परिषह सहन करवा ते दुःख छे पण तेम नथी; ‘परिषह सहन करवा’ तेनो अर्थ दुःख भोगववुं एम थतो नथी. केम के जे भावथी जीवने दुःख थाय ते तो आर्त्तध्यान छे अने ते पाप छे, तेनाथी अशुभबंधन छे अने अहीं तो संवरना कारणोनुं वर्णन चाले छे. लोकोनी द्रष्टिए बाह्य संयोग गमे तेवा प्रतिकूळ होय के अनुकूळ होय तोपण द्वेष के राग थवा न देवो एटले के वीतरागभाव प्रगट करवो तेनुं ज नाम परिषहजय छे-अर्थात् तेने ज परिषहजय सहन कर्या कहेवाय
Page 549 of 655
PDF/HTML Page 604 of 710
single page version
पप० ] [ मोक्षशास्त्र छे. जो ठीक-अठीकनो विकल्प ऊठे तो परिषह सहन कर्या कहेवाय नहि, पण राग - द्वेष कर्यो कहेवाय; रागद्वेषथी कदी संवर थाय ज नहि पण बंध ज थाय. माटे जेटले अंशे वीतरागता छे तेटले अंशे परिषहजय छे एम समजवुं अने आ परिषहजय सुखशांति रूप छे. लोको परिषहजयने दुःख कहे छे ते मिथ्या छे. वळी पार्श्वनाथ भगवाने अने महावीर भगवाने परिषहना घणा दुःख भोगव्यां-एम अज्ञानीओ माने छे; परंतु भगवान तो पोताना शुद्धोपयोग वडे आत्मानुभवमां स्थिर हता अने पोताना आत्मानुभवना शांतरसमां झूलता हता-लीन हता, तेनुं ज नाम परिषहजय छे. जो ते प्रसंगे भगवानने दुःख थयुं होत तो ते द्वेष छे अने द्वेषथी बंध थात, पण संवर-निर्जरा थात नहि. लोको जेने प्रतिकूळ गणे छे एवा संयोगोमां पण भगवान पोताना स्वरूपमांथी च्युत थया न हता तेथी तेमने दुःख न हतुं पण सुख हतुं अने तेनाथी तेमने संवर-निर्जरा थया हता. ए ध्यान राखवुं के खरेखर कोई पण संयोगो अनुकूळ के प्रतिकूळरूप नथी, पण जीव पोते जे प्रकारना भाव करे छे तेवो तेमां आरोप करवामां आवे छे अने तेथी लोको तेने अनुकूळ संयोग के प्रतिकूळसंयोग कहे छे.
(१) क्षुधा– क्षुधापरिषह सहन करवा योग्य छे; साधुनुं भोजन तो गृहस्थो उपर ज निर्भर छे, भोजन माटे कोई वस्तु तेमनी पासे होती नथी, तेओ कोई पात्रमां भोजन करता नथी पण पोताना हाथमां ज भोजन करे छे; तेमने शरीर उपर वस्त्रादिक पण होतां नथी, एक शरीर मात्र उपकरण छे. वळी अनशन, अवमौदर्य, वृत्तिपरिसंख्यान वगेरे तप करतां बे दिवस, चार दिवस, आठ दिवस, पक्ष, मास वगेरे व्यतीत थई जाय छे; अने शुद्ध निर्दोष आहार अंतराय रहित, योग्य काळमां, योग्य क्षेत्रमां न मळे तो तेओ भिक्षा ग्रहण करता नथी अने चित्तमां कांई पण विषाद के खेद करता नथी पण धैर्य धारण करे छे. आ रीते क्षुधारूपी अग्नि प्रज्वलित थवा छतां पण धैर्यरूपी जळथी तेने शांत करी दे छे अने राग-द्वेष करता नथी एवा मुनिओने क्षुधापरिषहनुं सहन करवुं होय छे.
असातावेदनीयकर्मनी उदीरणा होय त्यारे ज क्षुधा उपजे छे अने ते वेदनीयकर्मनी उदीरणा छठ्ठा गुणस्थान सुधी ज होय छे, तेना उपरना गुणस्थानोए होती नथी. छठ्ठा गुणस्थानमां वर्तता मुनिने क्षुधा उपजवा छतां तेओ आकुळता करता नथी अने आहार लेता नथी पण धैर्यरूपी जळथी ते क्षुधाने शांत करे छे त्यारे तेमणे परिषहजय कर्यो कहेवाय छे. छठ्ठा गुणस्थाने वर्तता मुनिने पण एटलो पुरुषार्थ होय छे के जो
Page 550 of 655
PDF/HTML Page 605 of 710
single page version
अ. ९ सूत्र ९ ] [ पप१ योग्य वखते निर्दोष भोजननो योग न बने तो आहारनो विकल्प तोडीने निर्विकल्प दशामां लीन थाय छे, त्यारे तेमने परिषहजय कहेवाय छे. (र) तृषाः– पिपासा (तृषा) ने धैर्यरूपी जळथी शांत करवी ते तृषापरिषहजय छे. (३) शीतः– शीत (ठंडी) ने शांतभावे अर्थात् वीतरागभावे सहन करवी ते शीत
नाग्न्यपरिषह नथी पण ए तो मार्गथी ज च्युतपणुं छे, अने परिषह
तो मार्गथी च्युत न थवुं ते छे.
(१०) निषद्याः– ध्यानने माटे नियमित काळ सुधी आसनथी च्युत न थवुं ते
शय्यापरिषहजय छे.
Page 551 of 655
PDF/HTML Page 606 of 710
single page version
पप२ ] [ मोक्षशास्त्र
नोंधः– याचना करवी तेनुं नाम याचना परिषहजय नथी पण याचना न करवी तेनुं नाम याचनापरिषहजय छे. जेम अरति करवानुं नाम अरतिपरिषह नथी, पण अरति न करवी ते अरतिपरिषहजय छे, तेम याचनामां पण समजवुं. जो याचना करवी ते परिषहजय होय तो, रंक वगेरे घणी याचना करे छे तेथी तेमने घणो धर्म थाय माटे तेम नथी. कोई कहे छे के ‘याचना करी तेमां मान घटाडवाथी परिषहजय कहीए छीए.’ ते पण यथार्थ नथी, केम के कोई प्रकारना तीव्र कषायी कार्यने अर्थे कोई प्रकारनो कषाय छोडे तोपण ते पापी ज छे; जेम कोई लोभ अर्थे पोताना अपमानने न गणे तो तेने लोभनी अति तीव्रता ज छे, तेथी ए अपमान कराववाथी पण महापाप थाय छे; तथा पोताने कांई पण इच्छा नथी अने कोई स्वयं अपमान करे तो ते सहन करनारने महा धर्म थाय छे. भोजनना लोभथी याचना करीने अपमान कराववुं ते तो पाप ज छे, धर्म नथी. वळी वस्त्रादि माटे याचना करवी ते पाप छे, धर्म नथी, (मुनिने तो वस्त्र होतां ज नथी) केम के वस्त्रादि कांइ धर्मनुं अंग नथी, ते तो शरीरसुखनुं कारण छे, तेथी तेनी याचना करवी ते याचनापरिषहजय नथी पण याचनादोष छे. माटे याचनानो निषेध छे एम जाणवुं.
याचना तो धर्मरूप उच्च पदने नीचुं करे छे अने याचना करवाथी धर्मनी हीनता थाय छे.
(१९) सत्कारपुरस्कारः– पोतामां गुणोनी अधिकता होवा छतां पण जो
सत्कारपुरस्कार परिषहजय छे.) प्रशंसा ते सत्कार छे अने कोई
सारा कार्यमां मुखी बनाववा ते पुरस्कार छे.)
Page 552 of 655
PDF/HTML Page 607 of 710
single page version
अ. ९ सूत्र ९ ] [ पप३
ज्ञाननी हीनतानो खेद न करवो ते अज्ञानपरिषहजय छे.
वगेरे धारण करवां व्यर्थ छे-एवो अश्रद्धानो भाव न थवा देवो ते
अदर्शन परिषहजय छे.
परद्रव्य अर्थात् जड कर्मनो उदय के शरीरादि नोकर्मनो संयोग-वियोग जीवने कांइ विक्रिया (विकार) करी शकता नथी, ए सिद्धांत आ सूत्रमां प्रतिपादन कर्यो छे. ते कई रीते प्रतिपादन थाय छे ते कहेवामां आवे छे-
(१) क्षुधा अने तृषा ए नोकर्मरूप शरीरनी अवस्था छे; ते अवस्था गमे तेवी थाय तोपण जीवने कांई करी शके नहि. जीव जो शरीरनी ते अवस्थाने ज्ञेय तरीके जाणे-तेमां रागादि न करे तो तेने शुद्धता प्रगटे छे अने जो ते वखते राग- द्वेष करे तो अशुद्धता प्रगटे छे. जो जीव शुद्ध अवस्था प्रगट करे तो परिषहजय कहेवाय तथा संवर निर्जरा थाय अने जो ते अशुद्ध अवस्था प्रगट करे तो बंध थाय. शुद्ध अवस्था सम्यग्द्रष्टि जीवो ज प्रगट करी शके, मिथ्याद्रष्टिने शुद्ध अवस्था होय नहि, तेथी तेने परिषहजय पण होय नहि.
(र) सम्यग्द्रष्टिओने नीचली अवस्थामां चारित्र मिश्रभावे होय छे अर्थात् अंशे शुद्धता अने अंशे अशुद्धता होय छे. जेटले अंशे शुद्धता थाय छे तेटले अंशे संवर-निर्जरा छे अने ते खरुं चारित्र छे. अने जेटले अंशे अशुद्धता छे तेटले अंशे बंध छे. असातावेदनीयनो उदय जीवने कांइ विक्रिया उत्पन्न करतो नथी. कर्मनो उदय के नोकर्मनो प्रतिकूळ संयोग जीवने विक्रिया करावता नथी.
(३) शीत अने उष्ण ए बन्ने शरीर साथे संबंध राखनार बाह्य जड द्रव्योनी अवस्था छे अने दंशमशक ते शरीरनी साथे संबंध राखनार जीव-पुद्गलना पिंडरूप तिर्यंचादि जीवोना निमित्ते थती शरीरनी अवस्था छे; ते संयोग के शरीरनी अवस्था जीवने दोषनुं कारण नथी पण शरीर प्रत्ये पोतानो ममत्व भाव ते ज दोषनुं कारण
Page 553 of 655
PDF/HTML Page 608 of 710
single page version
पप४ ] [ मोक्षशास्त्र
छे. शरीर वगेरे तो परद्रव्यो छे अने तेओ जीवने विक्रिया उपजावी शकतां नथी एटले के ते परद्रव्यो जीवने लाभ के नुकशान [-गुण के दोष] उपजावी शकतां नथी. जो ते परद्रव्यो जीवने कांई करतां होय तो जीव कदी मुक्त थई शके ज नहि.
(४) नाग्न्य एटले नग्नपणुं, ते शरीरनी अवस्था छे. शरीर ते अनंत जड परद्रव्यनो स्कंध छे. एक रजकण बीजा रजकणने कांई करी शके नहि, तेम ज रजकणो जीवने कांई करी शके नहि, छतां जीव विकार करे तो ते तेनी पोतानी असावधानी छे. ते असावधानी न थवा देवी ते परिषहजय छे. चारित्रमोहनो उदय जीवने विक्रिया करावी शके नहि, केम के ते पण परद्रव्य छे.
(प) अरति एटले द्वेष; अरतिना निमित्तरूप गणातां कार्यो उपस्थित होय तो ते जीवने अरति उपजावी शकतां नथी, केम के ते तो नोकर्मरूप परद्रव्य छे. जीव पोते विकारी लागणी करे त्यारे चारित्रमोहनीयकर्मनो जे उदय होय छे, ते पण जडद्रव्योनो स्कंध छे, ते जीवने कांई विक्रिया करावतो नथी.
(६) आ ज नियम स्त्री, निषद्या, आक्रोश, याचना अने सत्कार-पुरस्कार ए पांच परिषहोमां पण लागु पडे छे.
(७) प्रज्ञापरिषह कह्यो छे, त्यां एम समजवुं के प्रज्ञा तो ज्ञाननी दशा छे; ते कांई दोषनुं कारण नथी पण जीवने ज्ञाननो अपूर्ण उघाड होय त्यारे ज्ञानावरणीयनो उदय पण होय छे अने ते वखते जीव जो मोहमां जोडाय तो जीवमां पोताना कारणे विकार थाय छे; माटे अहीं ‘प्रज्ञा’ नो अर्थ मात्र ‘ज्ञान’ नहि करतां ‘ज्ञानमां थतो मद’ एम करवो. प्रज्ञा शब्द तो अहीं उपचारथी वापर्यो छे पण तेना निश्चय अर्थमां ते वापर्यो नथी एम समजवुं. बीजा परिषहो संबंधमां कहेली बधी बाबतो पण अहीं लागु पडे छे.
(८) अज्ञान ते ज्ञाननी गेरहाजरी छे, ते ज्ञाननी गेरहाजरी कांई बंधनुं कारण नथी, पण ते गेरहाजरीने निमित्त बनावीने जीव मोह करे तो जीवमां विकार थाय छे. अज्ञान तो ज्ञानावरणीय कर्मना उदयनी हाजरी बतावे छे. परद्रव्य बंधनुं कारण नथी पण पोतानो दोष बंधनुं कारण छे. जीव जेटलो मोह-राग-द्वेष करे तेटलो बंध थाय छे. सम्यगद्रष्टिने मिथ्यात्वमोह होतो नथी पण चारित्रनी अस्थिरताथी राग-द्वेष होय छे. जेटले अंशे ते राग-द्वेषने तोडे तेटला अंशे परिषहजय कहेवाय छे.
(९) अलाभ अने अदर्शन ए बे परिषहोमां पण उपर प्रमाणे समजवुं. फेर मात्र एटलो छे के अदर्शन ते दर्शनमोहना उदयनी हाजरी बतावे छे अने अलाभ
Page 554 of 655
PDF/HTML Page 609 of 710
single page version
अ. ९ सूत्र १० ] [ पपप ते अंतरायकर्मना उदयनी हाजरी बतावे छे. कर्मनो उदय, अदर्शन के अलाभ ते कोई बंधना कारणो नथी, अलाभ ए ते परद्रव्यनो वियोग (अभाव) सूचवे छे, ते कांई जीवने विक्रिया करी शके नहि, माटे ते बंधनुं कारण नथी.
(१०) चर्या, शय्या, वध, रोग, तृणस्पर्श अने मल-ए छए शरीर अने तेनी साथे संबंध राखनारा परद्रव्योनी अवस्था छे. ते मात्र वेदनीयनो उदय सूचवे छे, पण ते कोई पण जीवने विक्रिया उत्पन्न करी शकतां नथी. ।। ९।।
बावीस परिषहोनुं वर्णन कर्युं तेमांथी कया गुणस्थाने केटला परिषहो होय छे तेनुं वर्णन हवे करे छे.
सूक्ष्मसांपरायछद्मस्थवीतरागयोश्चतृर्दश।। १०।।
[छद्मस्थवीतरागयोः चतुर्दश] छद्मस्थ वीतरागोने चौद परिषह होय छे.
मोह अने योगना निमित्ते थता आत्मपरिणामोनी तारतम्यताने गुणस्थान कहे छे; ते चौद छे, सूक्ष्मसांपराय ते दसमुं गुणस्थान छे अने छद्मस्थ वीतरागपणुं अगीआर तथा बारमा गुणस्थाने होय छे; आ त्रण गुणस्थाने चौद परिषह होय छे. ते आ प्रमाणे-१. क्षुधा; २. तृषा; ३. शीत; ४. उष्ण; प. दंशमशक; ६. चर्या; ७. शय्या; ८. वध; ९. अलाभ; १०. रोग; ११. तृणस्पर्श; १२. मल; १३. प्रज्ञा अने १४. अज्ञान. आ सिवायना १. नग्नता; र. संयममां अप्रीति (-अरति); ३. स्त्री- अवलोकन-स्पर्श; ४. आसन (निषद्या); प. दुर्वचन (-आक्रोश); ६. याचना; ७. सत्कारपुरस्कार अने ८. अदर्शन ए आठ मोहकर्मजनित परिषहो त्यां होता नथी.
र. प्रश्नः– दशमा सूक्ष्मसांपराय गुणस्थाने तो लोभकषायनो उदय छे तो पछी त्यां आ आठ परिषहो केम नथी?
उत्तरः– सूक्ष्मसांपराय गुणस्थाने मोहनो उदय अत्यंत अल्प छे अर्थात् नाममात्र छे तेथी त्यां उपर कहेला चौद परिषहनो सद्भाव अने बाकीना आठ परिषहनो अभाव कह्यो ते युक्त छे; केम के ते गुणस्थाने एकला संज्वलन लोभ कषायनो उदय छे अने ते पण घणो अल्प छे-कहेवा मात्र छे; तेथी सूक्ष्मसांपराय अने वीतराग छद्मस्थनी तुल्यता गणीने चौद परिषह कह्या छे; ते नियम बराबर छे.
Page 555 of 655
PDF/HTML Page 610 of 710
single page version
पप६] [ मोक्षशास्त्र
३. प्रश्नः– अगीआरमा अने बारमा गुणस्थाने मोहकर्मना उदयनो अभाव छे तथा दसमा गुणस्थाने ते अति सूक्ष्म छे तेथी ते जीवोने क्षुधा, तृषादि चौदे प्रकारनी वेदना होती नथी, तो पछी ए गुणस्थानोमां परिषह विद्यमान छे एम केम कह्युं?
उत्तरः– त्यां वेदना नथी ए तो खरुं छे, पण सामर्थ्य (शक्ति) अपेक्षाए त्यां चौद परिषहोनुं विद्यमानपणुं कहेवुं ते युक्त छे. जेम सर्वार्थसिद्धि विमानना देवोने सातमी नरकमां जवानुं सामर्थ्य छे, पण ते देवोने त्यां जवानुं पंयोजन नथी तेम ज तेवो रागभाव नथी तेथी गमन नथी; तेम दस, अगियार अने बारमा गुणस्थानोमां चौदे परिषहनुं कथन उपचारथी कह्युं छे.
प्रश्नः– आ सूत्रमां नय विभाग कई रीते लागु पडे छे? उत्तरः– निश्चयनये कोई पण परिषह दस, अगीयार के बारमा गुणस्थाने नथी, पण व्यवहारनये त्यां चौद परिषह छे; व्यवहारनये छे एटले के खरेखर तेम नथी पण निमित्तादिनी अपेक्षाए ते उपचार कर्यो छे- एम समजवुं. ए प्रमाणे जाणवाथी ज बन्ने नयोनुं ग्रहण थाय छे पण बन्ने नयोना ज्ञानने समान सत्यार्थ जाणी ‘आ प्रमाणे पण छे अने आ प्रमाणे पण छे’ अर्थात् त्यां परिषहो छे ए पण खरुं अने नथी ए पण खरुं एवा भ्रमरूप प्रवर्तवाथी तो बन्ने नयोनुं ग्रहण थतुं नथी (जुओ, मोक्षमार्ग-प्रकाशक पा. रप६). सारांश ए छे के, ते गुणस्थानोए खरेखर कोई पण परिषह होता नथी, मात्र ते चौद प्रकारना वेदनीय कर्मना मंद उदय छे एटलुं बताववा माटे उपचारथी त्यां परिषह कह्या छे. पण जीव त्यां ते उदयथी जोडाई दुःखी थाय छे अथवा तेने वेदना थाय छे एम मानवुं ते असत्य छे. ।। १०।।
अलाभ, प्रज्ञा अने अज्ञान ए त्रण छोडीने बाकीना अगीयार परिषहो होय छे.
जो के मोहनीयकर्मनो उदय नहि होवाथी भगवानने क्षुधादिकनी वेदना होती नथी, तेथी तेमने परिषहो पण होता नथी; तोपण ते परिषहोना निमित्तकारणरूप वेदनीयकर्मनो उदय वर्ततो होवाथी त्यां पण उपचारथी अगीआर परिषहो कह्या छे. खरेखर तेमने एक पण परिषह नथी.
Page 556 of 655
PDF/HTML Page 611 of 710
single page version
अ. ९ सूत्र ११ ] [ पप७
२. प्रश्नः– मोहकर्मना उदयनी सहायताना अभावे भगवानने क्षुधा वगेरेनी वेदना नथी, छतां अहीं ते परिषह केम कह्या छे?
उत्तरः– भगवानने क्षुधादि वेदना नथी ए तो खरुं छे, पण मोहकर्मजनित वेदना न होवा छतां द्रव्यकर्मनुं विद्यमानपणुं बताववा माटे त्यां उपचारथी परिषह कहेवामां आव्या छे. जेम समस्त ज्ञानावरण नष्ट थवाथी युगपत् समस्त वस्तुओने जाणवावाळा केवळज्ञानना प्रभावथी तेमने चिंता निरोधरूप ध्याननो असंभव होवा छतां, ध्याननुं फळ जे शेष कर्मोनी निर्जरा तेनुं विद्यमानपणुं बताववा माटे त्यां उपचारथी ध्यान जणाव्युं छे, तेम त्यां आ परिषहो पण उपचारथी जणाव्या छे.
२. प्रश्नः– आ सूत्रमां नयविभाग कई रीते लागु पडे छे? उत्तरः– तेरमा गुणस्थाने अगीयार परिषह कहेवा ते व्यवहारनय छे. व्यवहारनयनो अर्थ करवानी रीत ए छे के-‘खरेखर तेम नथी पण निमित्तादिनी अपेक्षाए ते उपचार कर्यो छे.’ निश्चय नये केवळी भगवानने तेरमा गुणस्थाने परिषह होता नथी.
प्रश्नः– व्यवहारनयनुं द्रष्टांत शुं छे अने ते अहीं कई रीते लागु पडे छे? उत्तरः– ‘घीनो घडो’ ए व्यवहारनयनुं कथन छे, तेनो अर्थ एवो छे के घडो छे ते माटीमय छे, घीमय नथी’ (जुओ, श्री समयसार, गाथा ६७ तथा कळश ४०. पा. ९६-९७); तेम ‘जिनने अगीयार परिषहो छे’ ए व्यवहारनयनुं कथन छे, तेनो अर्थ एवो छे के ‘जिन अनंत पुरुषार्थमय छे, परिषहना दुःखमय नथी;’ निमित्तरूप परद्रव्यनी हाजरीनुं ज्ञान कराववा माटे ‘परिषह छे’ एम कथन कर्युं छे परंतु वीतरागने दुःख के वेदना छे एम ते कथनथी समजवुं नहि. जो वीतरागने दुःख के वेदना छे एवो ते कथननो अर्थ मानवामां आवे तो, व्यवहारनयना कथननो अर्थ निश्चयनयना कथन मुजब ज कर्यो, अने तेवो अर्थ करवो ते महान भ्रमणा छे- अज्ञान छे. (जुओ, श्री समयसार गाथा ३२४ थी ३२७ पा. ३९२ थी ३९प)
प्रश्नः– आ शास्त्रमां, आ सूत्रमां ‘जिनने अगीआर परिषह छे’ एवुं कथन कर्युं ते व्यवहारनयनुं कथन निमित्त बताववा माटे छे-एम कह्युं, तो आ संबंधी निश्चयनयनुं कथन कया शास्त्रमां छे?
उत्तरः– श्री नियमसार गाथा ६. पा. ९ मां कह्युं छे के वीतराग भगवान तेरमा गुणस्थाने होय त्यारे तेमने अढार महादोषो होता नथी. ते दोषो आ प्रमाणे छे- १. क्षुधा, २. तृषा, ३. भय, ४. क्रोध, प. राग, ६. मोह, ७. चिंता, ८. जरा, ९. रोग,
Page 557 of 655
PDF/HTML Page 612 of 710
single page version
पप८] [ मोक्षशास्त्र १०. मृत्यु, ११. परसेवो, १२. खेद, १३. मद, १४. रति, १प. आश्चर्य, १६. निद्रा, १७. जन्म, १८. आकुळता.
(१) आ सूत्रमां कहेला परिषहोनी वेदना भगवानने खरेखर थाय छे एम मानवामां आवे तो घणा दोषो आवे छे. जो क्षुधादिक दोष होय तो आकुळता थाय, अने आकुळता होय तो पछी भगवानने अनंत सुख केम बने? अहीं जो कोई एम कहे के, शरीरमां भूख लागे छे, तेथी आहार ले छे पण आत्मा तद्रूप थतो नथी. तो तेनो खुलासो एम छे के, जो आत्मा तद्रूप थतो नथी तो क्षुधादिक मटवाना उपायरूप आहारादिनुं ग्रहण कर्युं एम शा माटे कहो छो? जो क्षुधाकि वडे पीडित थाय तो ज आहार ग्रहण करे. वळी जो एम मानवामां आवे के-जेम कर्मोदयथी विहार थाय छे तेम आहार ग्रहण पण थाय छे, तो ते पण बराबर नथी, केम के विहार तो विहायोगति नामना नामकर्मना उदयथी थाय छे, तथा ते पीडानुं कारण नथी अने इच्छा विना पण कोई जीवने थतो जोवामां आवे छे; परंतु आहार ग्रहण तो प्रकृतिना उदयथी नथी पण क्षुधा वडे पीडित थाय त्यारे ज जीव ते ग्रहण करे छे. वळी आत्मा पवनादिकने पे्ररवानो भाव करे त्यारे ज आहारनुं गळी जवुं थाय छे, माटे विहारवत आहार संभवतो नथी. अर्थात् केवळी भगवानने विहार तो संभवे छे पण आहार संभवतो नथी.
(र) जो एम कहेवामां आवे के-केवळी भगवानने सातावेदनीय कर्मना उदयथी आहारनुं ग्रहण थाय छे तो एम पण बनतुं नथी, कारण के जीव क्षुधादि वडे पीडित होय अने आहारादिक ग्रहणथी सुख माने तेने आहारादि साताना उदयथी थया कही शकाय, सातावेदनीयना उदयथी आहारादिनुं ग्रहण स्वयं तो थतुं नथी, केम के जो तेम होय तो देवोने तो सातावेदनीयनो मुख्य उदय वर्ते छे छतां तेओ निरंतर आहार केम करता नथी? वळी महामुनि उपवासादि करे छे, तेमने सातानो उदय पण होय छे छतां आहारनुं ग्रहण नथी अने निरंतर भोजन करवावाळाने पण असातानो उदय संभवे छे. माटे केवळी भगवानने इच्छा वगर पण जेम विहायोगतिना उदयथी विहार संभवे छे तेम इच्छा वगर केवळ सातावेदनीयकर्मना उदयथी ज आहारग्रहण संभवतुं नथी.
Page 558 of 655
PDF/HTML Page 613 of 710
single page version
अ. ९ सूत्र ११ ] [ पप९ छे तेथी तेमने क्षुधानो सद्भाव संभवे छे, अने आहार विना ते क्षुधा उपशांत केवी रीते थाय? माटे तेमने आहारादिक पण मानवा जोईए. तेनुं समाधान- कर्मप्रकृतिओनो उदय मंद-तीव्र भेदसहित होय छे. ते अति मंद थतां तेना उदयजनित कार्यनी व्यक्तता भासती नथी; तेथी मुख्यपणे तेनो अभाव कहेवामां आवे छे, पण तारतम्यपणे तेनो सद्भाव कहेवामां आवे छे. जेम नवमा गुणस्थानमां वेदादिकनो मंद उदय छे; त्यां मैथुनादिक क्रिया व्यक्त नथी, तेथी त्यां ब्रद्मचर्य ज कह्युं छे छतां पण तारतम्यताथी त्यां मैथुनादिकनो सद्भाव कहेवाय छे. तेम केवळीभगवाने असातानो उदय अति मंद छे, तेना उदयमां एवी क्षुधा नथी के जे शरीरने क्षीण करे; वळी मोहना अभावथी क्षुधाजनित दुःख पण नथी अने तेथी आहार लेवापणुं नथी. माटे केवळीभगवानने क्षुधादिकनो अभाव छे पण उदय अपेक्षाए तारतम्यताथी तेनो सद्भाव कहेवामां आवे छे.
(४) ‘आहारादिक विना क्षुधानी उपशांतता केवळी भगवानने केवी रीते थाय?’ ए शंकानुं समाधान एम छे के-केवळीने असातानो उदय अत्यंत मंद छे; जो आहारादिक वडे ज उपशांत थाय एवी क्षुधा लागे तो मंद उदय क्यां रह्यो? देवो, भोगभूमिया वगेरेने असातानो किचिंत् मंद उदय थतां पण तेमने घणा काळ पछी किंचित् ज आहार ग्रहण होय छे, तो पछी केवळीने तो असातानो उदय घणो ज मंद छे तेथी तेमने आहारनो अभाव ज छे. असातानो तीव्र उदय होय अने मोह वडे तेमां जोडाण होय तो ज आहार होई शके.
(प) शंकाः– देवो तथा भोगभूमियानुं तो शरीर ज एवुं छे के तेने घणाकाळ पछी थोडी भूख लागे, पण केवळी भगवाननुं शरीर तो कर्मभूमिनुं औदारिक छे, तेथी तेमनुं शरीर आहार विना उत्कृष्टपणे देशेन्यून क्रोडपूर्व सुधी केवी रीते रही शके?
समाधानः– देवादिकनुं शरीर पण कर्मना ज निमित्तथी छे. अहीं केवळीभगवानने शरीरमां पहेला केश-नख वधता हता, छाया थती हती अने निगोद जीवो थता हता, पण केवळज्ञान थतां हवे केश-नख वधता नथी, छाया थती नथी अने निगोद जीवो थता नथी. आ रीते घणा प्रकारथी शरीरनी अवस्था अन्यथा थई, तेम आहार वगर पण शरीर जेवुं ने तेवुं टकी रहे-एवी अवस्था पण थई.
प्रत्यक्ष जुओ! अन्य जीवोने घडपण व्यापतां शरीर शिथिल थई जाय छे परंतु केवळीभगवानने तो आयुना अंत सुधी पण शरीर शिथिल थतुं नथी. तेथी अन्य मनुष्योना शरीरने केवळी भगवानना शरीरने समानता संभवती नथी.
Page 559 of 655
PDF/HTML Page 614 of 710
single page version
प६०] [ मोक्षशास्त्र
(६) शंकाः– देव वगेरेने तो आहार ज एवो छे के घणा काळनी भूख मटी जाय, पण केवळी भगवानने आहार विना शरीर केवी रीते पुष्ट रहे?
समाधानः– भगवानने असातानो उदय मंद होय छे तथा समये समये परम औदारिक शरीरवर्गणाओनुं ग्रहण थाय छे. तेथी एवी नोकर्मवर्गणाओनुं ग्रहण थाय छे के जेथी तेमने क्षुधादिक व्यापता ज नथी, शरीर शिथिल थतुं ज नथी.
(७) वळी अन्न वगेरेनो आहार ज शरीरनी पुष्टतानुं मुख्य कारण नथी. प्रत्यक्ष जुओ के, कोई थोडो आहार करे छे छतां शरीर घणुं पुष्ट होय छे अने कोई घणो आहार करे छे छतां शरीर क्षीण रहे छे.
पवनादिक साधवावाळा घणा काळ सुधी आहार लेता नथी छतां तेमनुं शरीर पुष्ट रहे छे अने ऋद्धिधारी मुनिओ घणा उपवास करे छतां तेमनुं शरीर पुष्ट रहे छे. तो पछी केवळी भगवानने तो सर्वोत्कृष्टपणुं छे एटले तेमने अन्नादिक विना पण शरीर पुष्ट बन्युं रहे तेमां शुं आश्चर्य छे?
(८) वळी केवळीभगवान केवी रीते आहार माटे जाय तथा केवी रीते याचना करे? तेओ आहार अर्थे जाय त्यारे समवसरण खाली केम रहे? अथवा तो कोई अन्य तेमने आहार लावी आपे एम मानीए तो तेमना मननी वात कोण जाणे? अने पूर्वे उपवासादिकनी प्रतिज्ञा करी हती तेनो निर्वाह केवी रीते थाय? वळी जीव-अंतराय सर्वत्र भासे त्यां केवी रीते आहार करे? माटे केवळीने आहार मानवो ते विरुद्धता छे.
(९) वळी कोई एम कहे के ‘तेओ आहार ग्रहे छे, परंतु कोईने देखातो नथी एवो अतिशय छे. ‘तो ते पण मिथ्या छे; केम के आहार ग्रहण नो निंद्य ठर्युं; तेने न देखे एवो अतिशय गणीए तोपण ते आहारग्रहणनुं निंद्यपणुं रहे. वळी भगवानना पुण्यना कारणे बीजाना ज्ञाननो क्षयोपशम शी रीते अवराई जाय? माटे भगवानने आहार मानवो अने बीजा ते न देखे एवो अतिशय मानवो ए बन्ने न्यायविरुद्ध छे.
प. कर्मसिद्धांत प्रमाणे केवळीने अन्नाहार होय ज नहि.
(१) असातावेदनीयनी उदीरणा होय त्यारे क्षुधा उपजे छे, ते वेदनीयनी उदीरणा छठ्ठा गुणस्थान पर्यंत ज छे, तेथी उपर नथी. तेथी वेदनीयनी उदीरणा वगर केवळीने क्षुधादि बाधा क्यांथी होय?
(२) जेम निद्रा, प्रचला ए बे दर्शनावरण प्रकृतिनो उदय बारमा गुणस्थान पर्यंत छे परंतु उदीरणा वगर निद्रा व्यापे नहि. वळी जो निद्राकर्मना उदयथी ज
Page 560 of 655
PDF/HTML Page 615 of 710
single page version
अ. ९ सूत्र ११ ] [ प६१ उपरना गुणस्थानोमां निद्रा आवी जाय तो त्यां प्रमाद थाय अने ध्याननो अभाव थई जाय. निद्रा, प्रचलानो उदय बारमा गुणस्थान सुधी होवा छतां अप्रमत्तदशामां मंद उदय होवाथी निद्रा व्यापती नथी. वळी संज्वलननो मंद उदय होवाथी अप्रमत्त गुणस्थानोमां प्रमादनो अभाव छे, केम के प्रमाद तो संज्वलनना तीव्र उदयमां ज होय छे. वेदना तीव्र उदयथी संसारी जीवने मैथुन संज्ञा थाय छे अने वेदनो उदय नवमा गुणस्थान सुधी छे; परंतु श्रेणीना चडेला संयमी मुनिने वेदना मंद उदयथी मेथुनसंज्ञानो अभाव छे; मंद उदयथी तेमने मेथुननी वांछा उपजती नथी.
(३) केवळी भगवानने वेदनीयनो अति मंद उदय छे; तेनाथी क्षुधादिक उपजता नथी; शक्तिरहित असातावेदनीय केळवीने क्षुधादिक उपजाववा समर्थ नथी. जेम स्वयंभूरमणसमुद्रना समस्त जळमां अनंतमा भागे झेरनी कटकी ते पाणीने विषरूप करवा समर्थ नथी, तेम अनंतगुण अनुभागवाळा सातावेदनीयना उदय सहित केवळी भगवानने अनंतमा भागे असंख्यात वार जेनो खंड थई गयो छे एवुं असातावेदनीयकर्म क्षुधादिक वेदना. उपजावी शक्तुं नथी.
(४) अधःप्रवृत्तकरणमां अशुभकर्मप्रकृतिओनी विष, हळाहळरूप जे शक्ति छे तेनो अभाव थाय छे अने निम्ब (लींबडा), कांजीरूप रस रही जाय छे. अपूर्वकरण गुणस्थानमां गुणश्रेणीनिर्जरा, गुणसंक्रमण, स्थितिकांडोत्कीर्ण अने अनुभागकांडोत्कीर्ण ए चार आवश्यक थाय छे; तेथी केवळीभगवानने असातावेदनीयादि अप्रशस्त प्रकृतिओनो रस असंख्यात वार घटीने अनंतानंतमो भाग रही गयो छे, तेथी असातामां सामर्थ्य क्यां रह्युं छे के जेथी केवळी भगवानने क्षुधादिक उपजाववामां ते निमित्त थाय? (अर्थप्रकाशिका पा. ४४६ आवृत्ति बीजी)
६. सूत्र १०–११ नो सिद्धांत अने सूत्र ८ साथेनो संबंध
वेदनीयकर्मनो उदय होय पण जो मोहनीयकर्मनो उदय न होय तो जीवने विकार थाय नहि (सू. ११); केम के जीवने अनंतवीर्य प्रगटयुं छे.
वेदनीयकर्मनो उदय होय अने जो मोहनीयकर्मनो मंद उदय होय तो ते पण विकारनुं निमित्त थाय नहि (सू. १०) केम के जीवने त्यां घणो पुरुषार्थ प्रगटयो छे.
दसथी तेरमा गुणस्थान सुधीना जीवोने संपूर्ण परिषहजय वर्ते छे अने तेथी तेमने विकार थतो नथी. जो उत्तम गुणस्थानकवाळा जीवो परिषहजय न करी शके तो पछी, ‘संवरना मार्गथी च्यूत न थवा माटे अने निर्जराने अर्थे परिषह सहन करवा
Page 561 of 655
PDF/HTML Page 616 of 710
single page version
प६२] [ मोक्षशास्त्र योग्य छे’ एवो आठमा सूत्रनो उपदेश व्यर्थ जाय. दशमा तथा अगीआरमा सूत्रमां उत्तम गुणस्थानोए जे परिषह कह्या छे ते उपचारथी छे, पण निश्चयथी नथी एम समजवुं.।। ११।।
[सर्वे] सर्वे परिषहो होय छे.
१. छठ्ठाथी नवमा गुणस्थानने बादरसांपराय कहेवाय छे. आ गुणस्थानोमां परिषहना कारणभूत बधा कर्मोनो उदय छे, पण जीव जेटले अंशे तेमां जोडातो नथी तेटले अंशे (आठमा सूत्रनी माफक परिषहजय करे छे.)
२. सामायिक, छेदोपस्थान अने परिहारविशुद्धि, ए त्रण संयमोमांथी कोई एकमां बधा परिषहोनो संभव छे. ।। १२।।
आ रीते कया गुणस्थाने केटला परिषहजय होय छे तेनुं वर्णन कर्यु. हवे कया कर्मना. उदयथी कया कया परिषहो होय छे ते जणावे छे.
अज्ञान ए बे परिषहो होय छे.
प्रज्ञा आत्मानो गुण छे, ते परिषहनुं कारण थाय नहि; पण ज्ञाननो उघाड होय अने तेना मदजनित परिषह होय तो ते वखते ज्ञानावरणकर्मनो उदय होय छे. ज्ञानी जीव जो मोहनीयकर्मना उदयमां जोडाय तो तेमने अनित्य मद आवी जाय छे. पण पुरुषार्थ पूर्वक ज्ञानी जीव जेटले अंशे तेमां न जोडाय तेटले अंशे तेमने परिषहजय छे. (जुओ, सूत्र ८.) ।। १३।।
Page 562 of 655
PDF/HTML Page 617 of 710
single page version
अ. ९ सूत्र १प-१६-१७ ] [ प६३
अने [अंतराययोः अलाभौ] अंतरायकर्मना उदयथी अलाभपरिषह होय छे.
नाग्न्य, अरति, स्त्री, [निषद्या आक्रोश याचना सत्कार–पुरस्कारः] निषद्या, आक्रोश, याचना, अने सत्कारपुरस्कार ए सात परिषहो होय छे.
क्षुधा, तृषा, शीत, उष्ण, दंशमशक, चर्या, शय्या, वध, रोग, तृणस्पर्श अने मळ, ए परिषहो होय छे.
एक जीवने एक साथे थता परिषहोनी संख्या एकादयो भाज्या युगपदेकस्मिन्नैकोनविंशतेः।। १७।।
एकोनविंशतेः] एकथी शरू करीने ओगणीस परिषहो सुधी [भाज्याः] जाणवा जोईए.
१. एक जीवने एक वखते वधारेमां वधारे ओगणीस परिषह होई शके छे, केमके शीत अने उष्ण ए बेमांथी एक वखते एक ज होय छे अने शय्या, चर्या तथा निषद्या (-सूवुं, चालवुं तथा आसनमां रहेवुं) ए त्रणमांथी एक काळे एक ज होय छे; आ रीते ए त्रण परिषहो बाद करवाथी बाकीना ओगणीस परिषहो होई शके छे.
२. प्रश्नः– प्रज्ञा अने अज्ञान ए बन्ने पण एकी साथे होई शके नहि माटे एक परिषह वधारे बाद करवो जोईए.
Page 563 of 655
PDF/HTML Page 618 of 710
single page version
प६४] [ मोक्षशास्त्र
उत्तरः– प्रज्ञा अने अज्ञान ए बन्नेने साथे रहेवामां कांई बाध नथी. एक ज काळमां एक जीवने श्रुतज्ञानादिनी अपेक्षाए प्रज्ञा अने अवधिज्ञानादिनी अपेक्षाए अज्ञान ए बन्ने साथे रही शके छे.
३. प्रश्नः– औदारिक शरीरनी स्थिति कवळाहार (अन्नपाणी) विना देशोनक्रोडपुर्व (करोड पूर्वमां थोडुं ओछुं) केम रहे?
उत्तरः– आहारना छ भेद छे-१. नोकर्म आहार, २. कर्माहार, ३. कवळाहार, ४. लेपाहार, प. ओजाहार अने ६. मनसाहार. ए छ प्रकार यथासंभव देहनी स्थितिनुं कारण छे. जेम के - (१) केवळीने नोकर्म आहार बताव्यो छे. तेमने लाभांतरायकर्मना क्षयथी अनंत लाभ प्रगट थयो होवाथी तेमना शरीर साथे अपूर्व असाधारण पुद्गलोनो प्रतिसमय संबंध थाय छे, ते नोकर्म केवळीने देहनी स्थितिनुं कारण छे, बीजुं नथी; ए हेतुथी केवळीने नोकर्मनो आहार कह्यो छे. (२) नारकीओने नरकायुनामकर्मनो उदय छे ते तेने देहनी स्थितिनुं कारण छे तेथी तेने कर्मआहार कहेवाय छे. (३) मनुष्यो अने तिर्यंचने कवळाहार प्रसिद्ध छे. (४) वृक्ष जातिने लेपाहार छे. (प) पंखीना इंडाने ओजाहार छे. शुक्र नामनी धातुनी उपधातु ओज छे. इंडाने पंखी सेवे सवे तेने ओज आहार न समजवो. (६) देवो मनथी तृप्त थाय छे, तेमने मनसाहार कहेवाय छे.
आ छ प्रकारना आहार देहनी स्थितिनुं कारण छे तेनी गाथा नीचे मुजब छे-
उज्ज मणो विय कमसो आहारो छव्विहो भणिओ।।
णोकमतित्थयरे कम्मं च णयरे मानसो अमरे।
णरपसु कवलाहारो पंखी उज्जो इगि लेऊ।।
अर्थः– १. नोकर्म आहार, २. कर्माहार, ३. कवळाहार, ४. लेपाहार, प. ओजाहार अने ६. मनोआहार एम क्रमथी छ प्रकारना आहार छे; तेमां नोकर्म आहार तीर्थंकरने, कर्माहार नारकीने, मनोआहार देवने, कवळाहार मनुष्यो तथा पशुने, ओजाहार पक्षीना इंडाने अने लेपाहार वृक्षने होय छे.
आथी सिद्ध थाय छे के केवळीभगवानने कवळाहार होतो नथी. ४. प्रश्नः– मुनि अपेक्षाए छठ्ठा गुणस्थानथी शरू करीने तेरमा गुणस्थान सुधीना परिषहोनुं कथन आ अध्यायना १३ थी १६ सुधीना सूत्रोमां कर्युं छे ते व्यवहारनय अपेक्षाए छे के निश्चयनय अपेक्षाए?
Page 564 of 655
PDF/HTML Page 619 of 710
single page version
अ. ९ सूत्र १७-१८ ] [ प६प
उत्तरः– ते कथन व्यवहारनय अपेक्षाए छे, केमके ते जीवनो परवस्तु साथेनो संबंध बतावे छे; ते कथन निश्चय अपेक्षाए नथी.
प्रश्नः– व्यवहारनयनी मुख्यता सहित व्याख्यान होय तेने ‘एम नथी पण निमित्तादिनी अपेक्षाए आ उपचार कर्यो छे’ ए प्रमाणे जाणवानुं मोक्षमार्ग-प्रकाशक पा. २प६ मां कह्युं छे, तो उपर्युक्त सूत्र १३ थी १६ना कथनमां ते कई रीते लागु पडे छे?
उत्तरः– ते सूत्रोमां जीवने जे परिषहोनुं वर्णन कर्युं छे ते व्यवहारथी छे, तेनो खरो अर्थ एवो छे के-जीव जीवमय छे, परिषहमय नथी. जेटले दरज्जे जीवमां परिषहवेदन थाय तेटले दरज्जे सूत्र १३ थी १६ मां कहेल कर्मनो उदय निमित्तरूप कहेवाय, पण निमित्ते जीवने कांई कर्युं नथी.
प. प्रश्नः– सूत्र १३ थी १६ सुधीमां परिषहो संबंधमां जे कर्मनो उदय कह्यो छे तेने अने सूत्र १७मां परिषहोनी एकी साथे जे संख्या कही तेने आ अध्यायना ८मा सूत्रमां कहेलो निर्जरानो व्यवहार क्यारे लागु पडे?
उत्तरः– जीव पोताना पुरुषार्थ वडे जेटले अंशे परिषहवेदन न करे तेटले अंशे तेणे परिषहज्य कर्यो अने तेथी तेटले अंशे सूत्र १३ थी १६ मां कहेला कर्मोनी निर्जरा करी एम आठमा सूत्र अनुसार कही शकाय; तेने व्यवहारकथन कहेवामां आवे छे केम के परवस्तु (-कर्म) साथेना संबंधनो केटलो अभाव थयो, ते तेमां बताववामां आव्युं छे.
बीजा सूत्रमां कहेला संवरना छ कारणोमां पांच कारणोनुं वर्णन अहीं पूरुं थयुं; हवे छेल्लुं कारण चारित्र छे तेनुं वर्णन करे छे.
परिहारविशुद्ध, [सूक्ष्मसांपराय यथाखयातम्] सूक्ष्मसांपराय अने यथाख्यात [इतिचारित्रम्] -ए पांच भेदो चारित्रना छे.
Page 565 of 655
PDF/HTML Page 620 of 710
single page version
प६६] [ मोक्षशास्त्र
चारित्र छठ्ठाथी नवमां गुणस्थान सुधी होय छे.
व्यापारथी उपजेला दोषोने छेदीने आत्माने संयममां स्थिर करे ते
छेदोपस्थापना चारित्र छे. व्रत, समिति, गुप्ति आदि भेदरूप
चारित्र ते पण छेदोपस्थापना चारित्र छे. आ चारित्र छठ्ठाथी
नवमा गुणस्थान सुधी होय छे.
सुधी प्रत्याख्यान नामना नवमा पूर्वनुं अध्ययन करे, तेने आ संयम
होय छे. जीवोनी उत्पत्ति-मरणनां स्थान, काळनी मर्यादा, जन्म
योनिना भेद द्रव्य-क्षेत्रना स्वभाव, विधान तथा विधि-ए बधानां
जाणनारो होय अने प्रमादरहित महावीर्यवान होय, तेमने शुद्धताना
बळथी कर्मनी प्रचूर निर्जरा थाय छे. अति कठिन आचरण
करवावाळा मुनिओने आ संयम होय छे. जेमने आ संयम होय छे
तेमना शरीरथी जीवोनी विराधना थती नथी. आ चारित्र उपर
कह्या तेवा साघुने छठ्ठा अने सातमा गुणस्थाने होय छे.
होय छे.
थी १४ मा गुणस्थान सुधी होय छे.
२. संवर शुद्धभावथी थाय पण शुभभावथी न थाय, माटे आ पांचे प्रकारमां जेटलो शुद्धभाव छे तेटलुं चारित्र छे एम समजवुं.