Moksha Shastra-Gujarati (Devanagari transliteration). Sutra: 19-40 (Chapter 9).

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अ. ९ सूत्र १८ ] [ प६७

३. छठ्ठा गुणस्थाननी दशा

सातमा गुणस्थानथी तो निर्विकल्पदशा होय छे. छठ्ठा गुणस्थाने मुनिने आहार विहारादिनो विकल्प होय छे त्यारे पण तेमने त्रण कषाय नहि होवाथी संवर-निर्जरा थाय छे अने शुभभावनो अल्प बंध थाय छे; जे विकल्प उठे छे ते विकल्पना स्वामीत्वनो तेमने नकार वर्ते छे अने अकषायद्रष्टिए जेटले दरज्जे राग टळे छे तेटले दरज्जे संवरनिर्जरा छे, तथा जेटलो शुभभाव थाय छे तेटलुं बंधन छे. (जुओ, मोक्षमार्ग-प्रकाशक पा. र३प)

४. चारित्रनुं स्वरूप

केटलाक जीवो मात्र हिंसादिक पापना त्यागने चारित्र माने छे अने महाव्रतादिरूप शुभोपयोगने उपादेयपणाथी ग्रहण करे छे. पण ते यथार्थ नथी. आ शास्त्रना सातमा अध्यायमां आस्रव पदार्थनुं निरूपण करवामां आव्युं छे, त्यां महाव्रत अने अणुव्रतने आस्रवरूप मान्यां छे, तो ते उपादेय केवी रीते होय? आस्रव तो बंधनुं कारण छे अने चारित्र तो मोक्षनुं कारण छे, माटे ते महाव्रतादिरूप आस्रवभावोने चारित्रपणुं संभवतुं नथी; पण जे सर्व कषायरहित उदासीन भाव छे तेनुं ज नाम चारित्र छे. सम्यग्दर्शन थया पछी जीवना कंईक भाव वीतराग थया होय छे अने कंईक भाव सराग होय छे; तेमां जे अंश वीतरागरूप छे ते ज चारित्र छे अने ते संवरनुं कारण छे.

(जुओ, मोक्षमार्ग - प्रकाशक पा. २३१-२३३)
प. चारित्रमां भेदो शा माटे बताव्या?

प्रश्नः– वीतरागभाव ते चारित्र छे अने वीतरागभाव तो एक ज प्रकारनो छे, तो पछी चारित्रना भेदो शा माटे कह्या?

उत्तरः– वीतरागभाव एक प्रकारनो छे परंतु ते एक साथे आखो प्रगटतो नथी पण क्रमे क्रमे प्रगटे छे तेथी तेमां भेद पडे छे. जेटले अंशे वीतरागभाव प्रगटे छे तेटले अंशे चारित्र प्रगटे छे, माटे चारित्रना भेदो कह्या छे.

प्रश्नः– जो एम छे तो छठ्ठा गुणस्थाने जे शुभभाव छे तेने पण चारित्र केम कहो छो?

उत्तरः– त्यां शुभभावने खरुं चारित्र कहेवामां आवतुं नथी पण ते शुभभाव वखते जे अंशे वीतरागभाव छे, तेने खरुं चारित्र कहेवामां आवे छे.

प्रश्नः– शुभभावरूप समिति, गुप्ति, महाव्रतादिने पण केटलेक ठेकाणे चारित्र कहे छे, तेनुं शुं कारण?


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प६८ ] [ मोक्षशास्त्र

उत्तरः– त्यां तेने व्यवहार चारित्र कह्युं छे. व्यवहार एटले उपचार; छठ्ठा गुणस्थाने जे वीतरागचारित्र होय छे तेनी साथे महाव्रतादि होय छे, एवो संबंध जाणीने ए उपचार कर्यो छे. एटले के ते निमित्त अपेक्षाए अर्थात् विकल्पना भेदो बताववा माटे कह्युं छे, पण खरी रीते तो निष्कषायभाव ते ज चारित्र छे, शुभराग ते चारित्र नथी.

प्रश्नः– निश्चयमोक्षमार्ग तो निर्विकल्प छे, ते वखते सविकल्प (-सराग, व्यवहार) मोक्षमार्ग नथी होतो, तो पछी ते सविकल्प मोक्षमार्गने साधक केम कही शकाय?

उत्तरः– भुतनैगमनयनी अपेक्षाए ते सविकल्पपणाने मोक्षमार्ग कह्यो छे, एटले के भूतकाळमां ते विकल्पो (रागमिश्रित विचारो) थया हता, ते वर्तमानमां नथी, छतां पण ‘ते वर्तमान छे’ एम भुतनैगमनयनी अपेक्षाए गणी शकाय छे, तेथी ते नयनी अपेक्षाए सविकल्प मोक्षमार्गने साधक कह्यो छे एम समजवुं. (जुओ, परमात्मप्रकाश पा. १४२ अ. २ गाथा-१४ संस्कृत टीका तथा आ ग्रंथमां छेल्ले परिशिष्ट १ मां आपेल ‘मोक्षमार्गनुं बे प्रकारे कथन’ -ए विषय.)

६. सामायिकनुं स्वरूप

प्रश्नः– मोक्षना कारणभूत सामायिकनुं स्वरूप शुं छे? उत्तरः– जे सामायिक सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रस्वभाववाळा परमार्थ ज्ञानना भवनमात्र (परिणमनमात्र) छे, एकाग्रता लक्षणवाळी छे ते सामायिक मोक्षना कारणभूत छे. (जुओ, समयसार गाथा १प४ पा. २००)

श्री नियमसार गाथा १२प थी १३३ मां खरी सामायिकनुं स्वरूप आप्युं छे ते आ प्रमाणे छे-

जे कोई मुनि एकेन्द्रियादि प्राणीओना समूहने दुःख देवाना कारणरूप जे संपूर्ण पापभाव सहित वेपार, तेनाथी अलग थई मन, वचन अने कायाना शुभ अशुभ सर्व व्यापारोने त्यागीने त्रण गुप्तिरूप रहे तथा जितेन्द्रिय रहे छे तेवा संयमीने खरुं सामायिक व्रत होय छे. (गाथा-१२प)

जे सर्व त्रस अने स्थावर प्राणीओमां समताभाव राखे छे, मध्यस्थ भावमां आरूढ छे, तेने ज खरी सामायिक होय छे (गाथा-१र६).

संयम पाळतां, नियम करतां तथा तप धरतां जेने एक आत्मा ज निकट वर्ती रह्यो छे, तेने खरी सामायिक होय छे. (गा. १२७).

जेने राग-द्वेष विकार प्रगट नथी थतां तेने खरी सामायिक होय छे (गाथा १र८).


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अ. ९ सूत्र १८ भूमिका ] [ प६९

जे आर्त्त अने रौद्रध्यानने टाळे छे, तेने खरुं सामायिक व्रत थाय छे. (गाथा. १२९).

जे पुण्य अने पाप ए बन्ने भावोने नित्य छोडे छे तेने खरी सामायिक होय छे. (गाथा. १३०).

जे जीव नित्यधर्मध्यान तथा शुक्लध्यानने ध्यावे छे तेने खरी सामायिक होय छे (गाथा १३३).

सामायिक चारित्रने. परम समाधि पण कहेवामां आवे छे. ७. प्रश्नः– आ अध्यायना छठ्ठा सूत्रमां संवरना कारण तरीके जे दस प्रकारना धर्म कह्या छे तेमां संयम आवी जाय छे अने संयम ते ज चारित्र छे, छतां अहीं फरीथी चारित्रने संवरना कारण तरीके केम कह्युं?

उत्तरः– जो के संयमधर्ममां चारित्र आवी जाय छे तोपण आ सूत्रमां चारित्रनुं कथन निरर्थक नथी. चारित्र ते मोक्षप्राप्तिनुं साक्षात् कारण छे एम जणाववा माटे अहीं अंतमां चारित्रनुं कथन कर्युं छे. चौदमा गुणस्थानने अंते चारित्रनी पूर्णता थतां ज मोक्ष थाय छे तेथी मोक्षप्राप्ति माटे चारित्र साक्षात् हेतु छे-एवुं ज्ञान कराववा माटे आ सूत्रमां ते जुदुं जणाव्युं छे.

८. व्रत अने चारित्र वच्चे तफावत.

शुभ-अशुभनी निवृत्ति ते संवर छे, अने आस्रव अधिकारमां (अ. ७. सू. १ मां) हिंसा, अनृत, अदत्तादान वगेरेना त्यागथी अहिंसा, सत्य, दत्तादान वगेरे क्रियामां शुभ प्रवृत्ति छे तेथी (त्यां अव्रतोनी जेम व्रतोमां) पण कर्मोनो प्रवाह चाले छे, पण ते व्रतोथी कर्मोनी निवृत्ति थती नथी. ए अपेक्षा लक्षमां राखीने गुप्ति वगेरे संवरनो परिवार कह्यो छे. जेटली आत्माना स्वरूपमां अभेदता थाय छे तेटलो संवर छे. शुभाशुभभावनो त्याग ते निश्चय व्रत अथवा वीतराग चारित्र छे. जे शुभभावरूप व्रत छे ते व्यवहारचारित्ररूप राग छे अने ते संवरनुं कारण नथी. (जुओ, श्री सर्वार्थसिद्धि, अध्याय ७, पा. प थी ७)।। १८।।

बीजा सूत्रमां कहेलां संवरनां छ कारणोनुं वर्णन अहीं पूरुं थयुं. ए रीते संवरतत्त्वनुं वर्णन पूरुं थयुं. हवे निर्जरा तत्त्वनुं वर्णन करे छे.

निर्जरातत्त्वनुं वर्णन
भूमिका
१. पहेलां अढार सूत्रोमां संवरतत्त्वनुं वर्णन कर्युं; हवे ओगणीसमा सूत्रथी

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प७० ] [ मोक्षशास्त्र निर्जरातत्त्वनुं वर्णन शरू थाय छे. जेने संवर थाय तेने निर्जरा थाय. प्रथम संवर तो सम्यग्दर्शन छे, तेथी जे जीव सम्यग्दर्शन प्रगट करे तेने ज संवर-निर्जरा थई शके. मिथ्याद्रष्टिने संवर-निर्जरा होय नहि.

२. अहीं निर्जरातत्त्वनुं वर्णन करवुं छे अने निर्जरानुं कारण तप छे (जुओ, अध्याय ९. सूत्र ३) तेथी तपनुं अने तेना भेदोनुं वर्णन कर्युं छे. तपनी व्याख्या १९ मा सूत्रनी टीकामां आपी छे अने ध्याननी व्याख्या र७मा सूत्रमां आपी छे.

३. निर्जराना कारणो संबंधी थती भूलो अने तेनुं निराकरण

(१) केटलाक जीवो अनशनादि तपथी निर्जरा माने छे पण तेतो बाह्यतप छे. हवे पछीनां सूत्र १९-२०मां बार प्रकारनां तप कह्यां छे ते बधां बाह्यतप छे, पण तेओ एक बीजानी अपेक्षाए बाह्य अभ्यंतर छे; तेथी तेनां बाह्य अने अभ्यंतर एवा बे भेद कह्यां छे. केवळ बाह्य तप करवाथी निर्जरा थाय नहि. जो घणा उपवासादि करवाथी घणी निर्जरा थाय अने थोडा करवाथी थोडी थाय एम होय तो निर्जरानुं कारण उपवासादिक ज ठरे, पण तेवो नियम नथी. इच्छानो निरोध ते तप छे; तेथी स्वानुभवनी एकाग्रता वधतां शुभाशुभ इच्छा टळे छे, तेने तप कहेवाय छे.

(२) अहीं अनशनादिकने तथा प्रायश्चित्तादिकने तप कह्यां छे तेनुं कारण ए छे के-जो जीव अनशनादि तथा प्रायश्चित्तादिरूप प्रवर्ते अने रागने टाळे तो वीतरागभावरूप सत्य तप पोषी शकाय छे, तेथी ते अनशनादि तथा प्रायश्चित्तादिने उपचारथी तप कह्यां छे. जो कोई जीव वीतरागभावरूप सत्य तपने तो न जाणे अने ते अनशनादिने ज तप जाणी संग्रह करे तो ते संसारमां ज भ्रमण करे.

(३) आटलुं खास समजी लेवुं के-निश्चय धर्म तो वीतरागभाव छे, अन्य अनेक प्रकारना जे भेदो कहेवाय छे ते भेदो बाह्य निमित्त अपेक्षाए उपचारथी कह्यां छे, तेने व्यवहारमात्र धर्म संज्ञा जाणवी. आ रहस्यने जे जीव जाणतो नथी तेने निर्जरातत्त्वनी साची श्रद्धा नथी.

तप ते निर्जरानुं कारण छे, तेथी तेनुं वर्णन करे छे. तेमां प्रथम तपना प्रकारो कहे छे-

बाह्य तपना छ प्रकारो
अनशनावमौदर्यवृत्तिपरिसंखानरसपरित्यागविविक्त–
शय्यासनकायक्लेशा बाह्यं तपः।। १९।।
अर्थः– [अनशन अवमौदर्य वृत्तिपरिसंखयान] सम्यक् प्रकारे अनशन, सम्यक्

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अ. ९ सूत्र १९ ] [ प७१ अवमौदर्य, सम्यक् वृत्तिपरिसंख्यान, [रसपरित्याग विविक्तशय्यासन कायकलेशाः] सम्यक् रसपरित्याग, सम्यक् विविक्त शय्यासन अने सम्यक् कायकलेश [बाह्यं तपः] ए छ प्रकारना बाह्य तप छे.

नोंधः– आ सूत्रमां ‘सम्यक्’ शब्दनुं अनुसंधान आ अध्यायना चोथा सूत्रथी आवे छे. अनशनादि छए प्रकारमां ‘सम्यक्’ शब्द लागु पडे छे.

टीका
१. सूत्रमां कहेला शब्दोनी व्याख्या
(१) सम्यक् अनशन– सम्यग्द्रष्टि जीवने आहार त्यागनो भाव थतां विषय
कषायनो भाव टळी, अंतरंग परिणामोनी जे शुद्धता थाय छे ते.
(२) सम्यक् अवमौदर्य– सम्यग्द्रष्टि जीवने राग भाव दूर करवा माटे भूख
होय ते करतां ओछुं भोजन करवानो भाव थतां, अंतरंग
परिणामोनी जे शुद्धता थाय छे ते.
(३) सम्यक् वृत्तिपरिसंख्यान– सम्यग्द्रष्टि जीवने संयमना हेतुए निर्दोष
आहारनी भिक्षा माटे जती वखते, भोजननी वृत्ति तोडनारो
नियम करतां, अंतरंग परिणामोनी जे शुद्धता थाय छे ते.
(४) सम्यक् रस परित्याग– सम्यग्द्रष्टि जीवने इन्द्रियो उपरना रागनुं दमन
करवा माटे घी, दूघ, दहीं, तेल, मीठाई, लवण वगेरे रसोनो
यथाशक्ति त्याग करवानो भाव थतां, अंतरंग परिणामोनी जे
शुद्धता थाय छे ते.
(प) सम्यक् विविक्त शय्याशन– सम्यग्द्रष्टि जीवने स्वाध्याय, ध्यान
वगेरेनी प्राप्ति माटे कोई एकांत निर्दोष स्थानमां प्रमादरहित सूवा-
बेसवानी वृत्ति थतां अंतरंग परिणामोनी जे शुद्धता थाय छे ते.
(६) सम्यक् कायकलेश–सम्यग्द्रष्टि जीवने शरीर उपरनी आसक्ति घटाडवा
आतपन वगेरे योग धारण करती वखते अंतरंग परिणामोनी जे
शुद्धता थाय छे ते.

२. ‘सम्यक्’ शब्द एम सूचवे छे के सम्यग्द्रष्टिने ज आ तप होय छे, मिथ्याद्रष्टिने तप होतुं नथी.

३. सम्यग्द्रष्टि जीव अनशननी प्रतिज्ञा करे छे ते वखते नीचे प्रमाणे जाणे छे-

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प७२] [ मोक्षशास्त्र

(१) आहार न लेवानो जे राग मिश्रित विचार आवे छे ते शुभभाव छे अने तेनुं फळ पण्य-बंधन छे; हुं तेनो स्वामी नथी.

(२) अन्न, पाणी वगेरे पर वस्तुओ छे; आत्मा तेने कोई प्रकारे ग्रही के छोडी शके नहि. पण ज्यारे सम्यग्द्रष्टि जीव परवस्तु उपरनो ते प्रकारनो राग छोडे छे त्यारे पुद्गल परावर्तनना नियम प्रमाणे एवो निमित्त-नैमित्तिकसंबंध होय छे के तेटलो वखत तेने अन्न. पाणी वगेरेनो संबंध होतो नथी.

(३) अन्न, पाणी वगेरेनो संयोग न थयो ते पर द्रव्यनी क्रिया छे, तेनाथी आत्माने धर्म के अधर्म थतो नथी.

(४) सम्यग्द्रष्टिने रागनुं स्वामीत्व नहि होवाथी जे सम्यक् मान्यता छे ते द्रढ थाय छे, अने तेथी साचा अभिप्रायपूर्वक जे अन्न, पाणी वगेरे लेवानो राग टळ्‌यो ते सम्यक् अनशन तप छे, ते वीतरागतानो अंश छे तेथी ते धर्मनो अंश छे. तेमां जेटले अंशे अंतरंग परिणामोनी शुद्धता थई अने शुभाशुभ इच्छानो निरोध थयो तेटले अंशे सम्यक्तप छे, अने ते ज निर्जरानुं कारण छे.

छ प्रकारना बाह्य अने छ प्रकारना अंतरंग ए बारे प्रकारना तप संबंधमां उपर प्रमाणे समजी लेवुं.

सम्यक् तपनी व्याख्या
(१) स्वरुपविश्रांतनिस्तरंगचैतन्यप्रतपनात् तपः एटले के स्वरूपनी

स्थिरतारूप तरंग वगरनुं (-निर्विकल्प) चैतन्यनुं प्रतपन (देदीप्यमान थवुं) ते तप छे. (जुओ, श्री प्रवचनसार अ. १. गा. १४ नी टीका.)

(२) सहजनिश्चयनयात्मकपरस्वभावात्मपरमात्मनि प्रतपनं तपः एटले के

सहज-निश्चयनयरूपपरमस्वभावमय परमात्मानुं प्रतपन (अर्थात् द्रढता थी तन्मय थवुं) ते तप छे. (नियमसार. पप टीका)

(३) प्रसिद्धशुद्धकारणपरमात्मतत्त्वे सदान्तर्मुखतया प्रतपन यत्तत्तपः एटले

के प्रसिद्ध-शुद्धकारणपरमात्मतत्त्वमां सदा अंतरमुखपणे जे प्रतपन (अर्थात् लीनता) ते तप छे. (नियमसार टीका, गाथा. १८८ नुं मथाळुं)

(४) आत्मानमात्मना संधत्त इत्यध्यात्मं तपनं एटले के आत्माने आत्मद्वारा

धरवो ते अध्यात्म तप छे. (नियमसार गा. १२३ टीका)

(प) इच्छानिरोधः तपः एटले के शुभाशुभ इच्छानो निरोध ते तप छे.

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अ. ९ सूत्र १९] [ प७३

प. तपना भेदो शा माटे?

प्रश्नः– जो तपनी व्याख्या उपर प्रमाणे छे तो ते तपना भेद पडी शके नहि, छतां अहीं तपना बार भेद केम कह्या छे?

उत्तरः– शास्त्रोनुं कथन कोई वार उपादान (-निश्चय) नी अपेक्षाए अने कोईवार निमित्त (-व्यवहार) नी अपेक्षाए होय छे. निमित्त जुदा जुदा होवाथी तेमां भेद पडे, पण उपादान तो आत्मानो शुद्ध स्वभाव होवाथी तेमां भेद पडे नहि. अहीं तपना जे बार भेद जणाव्या छे ते भेदो निमित्त अपेक्षाए छे. आ शास्त्र मुख्यपणे पर्यायार्थिकनयथी कथन करतुं होवाथी ते भेदो जणाव्या छे.

६. जे जीवने सम्यग्दर्शन न होय ते जीव वनमां रहे, चोमासामां झाड नीचे रहे. गरमीमां अत्यंत तीव्र किरणोथी संतप्त पर्वतना शिखर उपर आसन लगावे, शियाळामां खुल्ला मेदानमां ध्यान करे, बीजा अनेक प्रकारना कायकलेश करे, घणा उपवासो करे, शास्त्रो भणवामां घणो चतुर होय, मौनव्रत धारे इत्यादि बधुं करे पण तेनुं ते बधुं वृथा छे- संसारनुं कारण छे, तेनाथी धर्मनो अंश पण थतो नथी. जे जीव सम्यग्दर्शनथी रहित होय ते जीव अनशनादि बार तपो करे तोपण तेना कार्यनी सिद्धि थती नथी. माटे हे जीव! आकुळतारहित समतादेवीनुं कुळमंदिर जे पोतानुं आत्मिकतत्त्व तेनुं ज तुं भजन कर (जुओ, श्री नियमसार, गाथा १२४). ।। १९।।

अभ्यंतर तपना छ प्रकारो
प्रायश्रित्तविनयवैयावृत्यस्वाध्यायव्युत्सर्गध्यानान्युत्तरम्।। २०।।
अर्थः– [प्रायश्चित्त विनय वैयावृत्य] सम्यक् प्रकारे प्रायश्चित्त, सम्यक् विनय,

सम्यक् वैयावृत्य, [स्वाध्याय व्युत्सर्ग ध्यानानि] सम्यक् स्वाध्याय, सम्यक् व्युत्सर्ग अने सम्यक् ध्यान [उत्तरम्] ए छ प्रकार आभ्यंतर तपना छे.

नोंधः– आ सूत्रमां ‘सम्यक्’ शब्दनुं अनुसंधान आ अध्यायना चोथा सूत्रथी आवे छे; प्रायश्चित्तादि छ ए प्रकारमां ते लागु पडे छे. जो ‘सम्यक्’ शब्दनुं अनुसंधान न लेवामां आवे तो नाटक वगेरे संबंधी अभ्यास करवो ते पण स्वाध्याय तप ठरशे. परंतु ‘सम्यक्’ शब्द वडे तेनो निषेध थाय छे.

टीका
१. उपरना सूत्रनी जे टीका छे ते अहीं पण लागु पडे छे.

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प७४] [ मोक्षशास्त्र

२. सूत्रोमां कहेला शब्दोनी व्याख्या
(१) सम्यक् प्रायश्चित्त– प्रमाद अथवा अज्ञानथी लागेला दोषोनी शुद्धि
करतां वीतराग स्वरूपना लक्ष वडे अंतरंग परिणामोनी जे शुद्धता
थाय छे ते.
(२) सम्यक्विनय– पूज्य पुरुषोनो आदर करतां वीतराग स्वरूपना लक्ष
वडे अंतरंग परिणामोनी जे शुद्धता थाय छे ते.
(३) सम्यक् वैयावृत्य–शरीर तथा अन्य वस्तुओथी मुनिओनी सेवा करतां
वीतराग स्वरूप लक्ष वडे अंतरंग परिणामोनी जे शुद्धता थाय ते.
(४) सम्यक् स्वाध्याय–ज्ञाननी भावनामां आळस न करवी-तेमां वीतराग
स्वरूपना लक्ष वडे अंतरंग परिणामोनी जे शुद्धता थाय छे ते.
(प) सम्यक् व्युत्सर्ग– बाह्य अने आभ्यंतर परिग्रहना त्यागनी भावनाथी
वीतराग स्वरूपना लक्ष वडे अंतरंग परिणामोनी जे शुद्धता थाय छे ते.
(६) सम्यक् ध्यान–चित्तनी चंचळताने रोकीने तत्त्वना चिंतवनमां लागवुं,
तेमां वीतराग स्वरूपना लक्ष वडे अंतरंग परिणामोनी जे शुद्धता
थाय छे ते.

३. आ छए प्रकारनां तप सम्यग्द्रष्टिने ज होय छे. आ छए प्रकारमां सम्यग्द्रष्टिने पोताना स्वरूपना लक्षे जेटली अंतरंग परिणामोनी शुद्धता थाय तेटलुं ज तप छे. शुभ विकल्प छे तेने उपचारथी तप कहेवाय छे, पण खरेखर तो ते राग छे, तप नथी. ।। २०।।

आभ्यंतर तपना पेटा भेदो

नवचतुर्दशपंचद्विभेदा यथाक्रमं प्राग्ध्यानात्।। २१।।

अर्थः– [प्राक् ध्यानात्] ध्यान पहेलांना पांच तपना [यथाक्रमं नव चतुः

दश पंच द्विभेदा] अनुक्रमे नव, चार, दस, पांच अने बे भेदो छे, अर्थात् सम्यक् प्रायश्चित्तना नव, सम्यक् विनयना चार, सम्यक् वैयावृत्यना दस, सम्यक् स्वाध्यायना पांच अने सम्यक् व्युत्सर्गना बे भेद छे.

नोंधः– आभ्यंतर तपनो छठ्ठो प्रकार ध्यान छे तेना भेदोनुं वर्णन र८मा सूत्रमां आवशे. ।। २१।।


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अ. ९ सूत्र २२] [ प७प

सम्यक् प्रायश्चित्ततपना नव भेदो
आलोचनप्रतिक्रमणतदुभयविवेकव्युत्सर्गतपश्छेद–
परिहारोपस्थापनाः।। २२।।
अर्थः– [आलोचना प्रतिक्रमण तदुभय] आलोचना, प्रतिक्रमण, तदुभय

[विवेक व्युत्सर्ग तपः] विवेक व्युत्सर्ग, तप, [छेदपरिहार उपस्थापनाः] छेद, परिहार अने उपस्थापन- आ नव भेदो प्रायश्चित्ततपना छे.

टीका
१. सूत्रोमां आवेला शब्दोनी व्याख्या
प्रायश्चित्त– प्रायः= अपराध, चित्त = शुद्धि; अपराधनी शुद्धि करवी ते प्रायश्चित्त छे.
(१) आलोचना–प्रमादथी थयेला दोषोने गुरु पासे जईने निष्कपट रीते

कहेवा ते.

(२) प्रतिक्रमण– पोते करेला अपराध मिथ्या थाओ-एवी भावना.
(३) तदुभय–ते बन्ने अर्थात् आलोचना अने प्रतिक्रमण बन्ने करवां ते.
(४) विवेक– आहार-पाणीनो नियमित समय सुधी त्याग करवो ते.
(प) व्युत्सर्ग–कायोत्सर्ग करवो.
(६) तप–उपवासादि करवा ते.
(७) छेद– एक दिवस, पखवाडियुं, महिनो वगेरे वखत सुधी दीक्षानो छेद करवो ते.
(८) परिहार– एक दिवस, पखवाडियुं, महिनो वगेरे नियमित समय सुधी
संघथी पृथक् करवो ते.

(९) उपस्थापन– दीक्षानो संपूर्ण छेद करीने फरीथी नवी दीक्षा देवी ते. २. आ बधा भेदो व्यवहारप्रायश्चित्तना छे. जे जीवने निश्चयप्रायश्चित्त प्रगटयुं होय ते जीवना आ नव प्रकारना प्रायश्चित्तने व्यवहारप्रायश्चित्त कहेवाय; पण जो निश्चयप्रायश्चित्त न प्रगटयुं होय तो ते व्यवहाराभास छे.

३. निश्चयप्रायश्चित्तनुं स्वरूप

पोताना ज आत्माना जे उत्कृष्ट बोध, ज्ञान तथा चित्त छे तेने जे जीव नित्य धारण करे छे तेने ज प्रायश्चित्त होय छे. (बोध, ज्ञान ने चित्तनो अर्थ एक ज छे.)


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प७६] [ मोक्षशास्त्र प्रायः = प्रकृष्टपणे अने चित्त = ज्ञान; प्रकृष्टपणे जे ज्ञान ते ज प्रायश्चित्त छे. क्रोधादिविभावभावनो क्षय करवानी भावनामां वर्तवुं तथा पोताना आत्मिक गुणोनी चिंता करवी ते खरुं प्रायश्चित्त छे. पोताना आत्मिकतत्त्वमां रमणरूप जे तपश्चरण ते ज शुद्धनिश्चयप्रायश्चित्त छे (जुओ, श्री नियमसार गाथा ११३ थी १२१).

४. निश्चयप्रतिक्रमणनुं स्वरूप

वचननी रचनाने छोडीने तथा रागद्वेषादि भावोनुं निवारण करीने जे कोई पोताना आत्माने ध्यावे छे तेने प्रतिक्रमण होय छे. सर्वे विराधना अर्थात् अपराधने छोडीने जे मोक्षार्थी जीव स्वरूपनी आराधनामां वर्तन करे छे तेने खरुं प्रतिक्रमण छे.

(नियमसार गाथा ८३-८४).
प. निश्चयआलोचनानुं स्वरूप

जे जीव पोताना आत्माने नोकर्म, द्रव्यकर्म तथा विभाव गुणपर्यायथी रहित ध्यावे छे तेने खरी आलोचना होय छे. समताभावमां पोताना परिणामने धरीने पोताना आत्माने देखवो ते खरी आलोचना छे. (जुओ, श्री नियमसार गाथा १०७ थी ११२). ।। २२।।

सम्यक् विनयतपना चार भेद
ज्ञानदर्शनचारित्रोपचाराः।। २३।।
अर्थः– [ज्ञान दर्शन चारित्र उपचाराः] ज्ञानविनय, दर्शनविनय,

चारित्रविनय अने उपचारविनय-आ चार भेद विनयतपना छे,

(१) ज्ञानविनय– आदरपूर्वक योग्यकाळमां सत्शास्त्रनो अभ्यास करवो;

मोक्षने माटे ज्ञाननुं ग्रहण-अभ्यास-संस्मरण वगेरे करवुं ते ज्ञानविनय छे.

(२) दर्शनविनय– शंका, कांक्षा वगेरे दोषरहित सम्यग्दर्शनने धारण करवुं ते

दर्शनविनय छे.

(३) चारित्रविनय– चारित्रने निर्दोष रीते पाळवुं ते चारित्रविनय छे.
(४) उपचारविनय–आचार्य वगेरे पूज्य पुरुषोने देखीने ऊभा थवुं,
नमस्कार करवा ए वगेरे उपचारविनय छे. आ बधा भेदो
व्यवहारविनयना छे.

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अ. ९. सूत्र २४-२प ] [ प७७

निश्चयविनयनुं स्वरूप

शुद्धभाव ते निश्चयविनय छे. पोताना अकषायभावमां अभेदपरिणमन सहित शुद्धतारूपे टकवुं ते निश्चयविनय छे; तेथी ज कहेवाय छे के ‘विनयवंत भगवान कहावै, नहि किसीको शिष नमावे’ (आत्मसिद्धि-प्रवचनो पा. १७३), अर्थात् भगवान विनयवंत कहेवाय छे पण कोईने शिष नमावता नथी. ।। २३।।

सम्यक् वैयावृत्यतपना दस भेद

आचार्योपाध्ययतपस्विशैक्ष्यग्लानगणकुलसंघसाधुमनोज्ञानाम्।। २४।।

अर्थः– [आचार्य उपाध्याय तपस्वि] आचार्य, उपाध्याय, तपस्वी, [शैक्ष्य

ग्लान गण कुल] शैक्ष्य, ग्लान, गण, कुळ, [संघ साधु मनोज्ञानाम्] संघ, साधु अने मनोज्ञ-ए दस प्रकारनां मुनिओनी सेवा करवी ते दस प्रकार वैयावृत्यतपना छे.

टीका
१. सूत्रमां आवेला शब्दोना अर्थ
(१) आचार्य- जे मुनि पोते पांच आचारने आचरे अने बीजाने आचरण

करावे ते.

(२) उपाध्याय-जेनी पासे शास्त्रोनुं अध्ययन करवामां आवे ते.
(३) तपस्वी- महान उपवास करनार साधु.
(४) शैक्ष्य- शास्त्रना अध्ययनमां तत्पर मुनि.
(प) ग्लान- रोगथी पीडित मुनि.
(६) गण- वृद्ध मुनिओ अनुसार चालनारा मुनिओनो समुदाय.
(७) कुळ- दीक्षा देनार आचार्यना शिष्यो.
(८) संघ- ऋषि, यति, मुनि अने अणगार ए चार प्रकारना मुनिओनो

समूह. (संघना बीजा प्रकारे चार भेदो आ प्रमाणे छे-साधु, अर्जिका, श्रावक अने श्राविका.)

(९) साधु- जेणे घणा काळथी दीक्षा लीघी होय ते, अथवा रत्नत्रयभावनाथी

पोताना आत्माने साधे ते.

(१०) मनोज्ञ- लोकमां जेनी घणी प्रशंसा थई रही होय एवा मुनि. २. आ दरेकनी सेवा करवी ते वैयावृत्य छे. आ वैयावृत्य शुभभावरूप छे, तेथी


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प७८ ] [ मोक्षशास्त्र व्यवहार छे. वैयावृत्यनो अर्थ सेवा छे. पोताना अकषायभावनी सेवा ते निश्वय वैयावृत्य छे. (आत्मसिद्धि-प्रवचनो पा. १७४).

३. संघना चार भेद कह्या तेना अर्थ

ऋषि = ऋद्धिधारी साधु. यति = ईन्द्रियोने वश करनारा साधु अथवा उपशम के क्षपकश्रेणी मांडनारा साधु. मुनि = अवधिज्ञानी के मनःपर्ययज्ञानी साधु. अणगार = सामान्य साधु.

वळी ऋद्धिना पण चार भेद छे- (१) राजर्षि = विक्रिया, अक्षीण ऋद्धिप्राप्त. (२) ब्रह्मर्षि = बुद्धि औषधयुक्त ऋद्धि प्राप्त. (३) देवर्षि = गगनगमन ऋद्धिप्राप्त. (४) परमऋषि = केवळज्ञानी।। २४।।

सम्यक् स्वाध्यायतपना पांच भेद

वाचनापृच्छनानुप्रेक्षाम्नायधर्मापदेशाः।। २५।।

अर्थः– [वाचना पृच्छना अनुप्रेक्षा] वाचना, पूछवुं, अनुप्रेक्षा, [आम्नाय

धर्मोपदेशाः] आम्नाय अने धर्मोपदेश करवो- आ पांच भेदो स्वाध्यायतपना छे.

टीका

वाचना - निर्दोष ग्रंथ, तेना अर्थ तथा ते बन्नेनुं भव्य जीवोने श्रवण कराववुं ते.

पृच्छना - संशयने दूर करवा माटे अथवा निश्चयने द्रढ करवा माटे प्रश्न पूछवा ते.

पोतानुं उच्चपणुं प्रगट करवा माटे. कोईने ठगवा माटे, कोईनो पराजय करवा माटे, बीजानुं हास्य करवा माटे ईत्यादि खोटा परिणामोथी प्रश्न करवा ते पृच्छना-स्वाध्यायतप नथी.

अनुप्रेक्षा- जाणेला पदार्थोनुं वारंवार चिंतवन करवुं ते. आम्नाय- निर्दोष उच्चारण करीने पाठ बोलवा ते. धर्मोपदेश- धर्मनो उपदेश करवो ते. प्रश्नः– आ पांच प्रकारनां स्वाध्याय शा माटे छे? उत्तरः- प्रज्ञानी अधिकता, प्रशंसनीय अभिप्राय के आशय, उत्कृष्ट उदासीनता, तपनी वृद्धि, अतिचारनी विशुद्धि ए वगेरेना हेतुथी आ पांच प्रकारना स्वाध्याय कहेवामां आव्या छे. ।। २प।।


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अ. ९. सूत्र २६-२७ ] [ प७९

सम्यक् व्युत्सर्गतपना बे भेद
बाह्याभ्यंतरोपध्योः।। २६।।
अर्थः– [बाह्य आभ्यंतर उपध्योः] बाह्य उपधि व्युत्सर्ग अने आभ्यंतर

उपधि व्युत्सर्ग- ए बे भेद व्युत्सर्गतपना छे.

टीका

१. बाह्य उपधि एटले बाह्य परिग्रह अने आभ्यंतर उपधि एटले अंतरंग परिग्रह. दस प्रकारना बाह्य परिग्रह अने चौद प्रकारना अंतरंग परिग्रहनो त्याग व्युत्सर्गतप छे. आत्माना विकारी परिणाम ते अंतरंग परिग्रह छे; तेने बाह्यपरिग्रह साथे निमित्त-नैमित्तिकसंबंध छे.

२. प्रश्नः– आ व्युत्सर्गतप शा माटे छे? उत्तरः- निःसंगपणुं, निडरता, जीवितनी आशानो अभाव, ए वगेरे माटे आ तप छे.

३. जे चौद अंतरंग परिग्रह छे तेमां सौथी प्रथम मिथ्यात्व टळे छे; ते टळ्‌या सिवाय बीजा कोई पण परिग्रह टळे ज नहि. ए सिद्धांत बताववा माटे आ शास्त्रना पहेला ज सूत्रमां मोक्षमार्ग तरीके आत्माना जे त्रण शुद्ध भावोना एकत्वनी जरूरियात बतावी छे तेमां पण पहेलां ज सम्यग्दर्शन जणाव्युं छे. सम्यग्दर्शन वगर ज्ञान के चारित्र पण सम्यक् होतां नथी. चारित्र माटे जे ‘सम्यक्’ विशेषण मूकवामां आवे छे ते अज्ञानपूर्वकना आचरणनी निवृत्ति सूचवे छे. पहेलां सम्यक् श्रद्धा-ज्ञान थया पछी जे यथार्थ चारित्र होय ते ज सम्यक्चारित्र छे. माटे मिथ्यात्व टाळ्‌या वगर कोई प्रकारनुं तप के धर्म थाय नहि. ।। २६।।

निर्जरातत्त्वनुं वर्णन चाले छे. निर्जरानुं कारण तप छे; तपना भेदोनुं वर्णन चाले छे, तेमां आभ्यंतर तपना पहेला पांच भेदोनुं वर्णन पूरुं थयुं. हवे छठ्ठो भेद ध्यान छे; तेनुं वर्णन करे छे.

सम्यक् ध्यानतपनुं लक्षण
उत्तमसंहननस्यैकाग्रचिंतानिरोधोध्यानमान्तर्मुहूर्तात्।। २७।।
अर्थः– [उत्तमसंहननस्य] उत्तम संहननवाळाने [आ अन्तर्महूर्तात्]

अंतर्मुहूर्त सुधी [एकाग्रचिंतानिरोधः ध्यानम] एकाग्रता पूर्वक चिंतानो निरोध ते ध्यान छे.


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प८० ] [ मोक्षशास्त्र

टीका
१. उत्तमसंहनन- वज्रर्षभनाराच वज्रनाराच, अने नाराच ए त्रण

उत्तमसंहनन छे. तेमां मोक्ष पामनार जीवने पहेलुं संहनन होय छे.

एकाग्र- एकाग्रनो अर्थ मुख्य, सहारो, अवलंबन, आश्रय प्रधान अथवा
सन्मुख थाय छे. वृत्तिने अन्य क्रियाथी खेंचीने एक ज विषयमां
रोकवी ते एकाग्र चिंतानिरोध छे अने ते ज ध्यान छे. ज्यां
एकाग्रता नथी त्यां भावना छे.
२. आ सूत्रमां ध्याता, ध्यान, ध्येय अने ध्याननो काळ ए चार बाबतो

नीचे प्रमाणे आवी जाय छे- १. उत्तमसंहननधारी पुरुष ते ध्याता. २. एकाग्रचिंतानिरोध ते ध्यान. ३. जे एक विषयने प्रधान कर्यो ते ध्येय. ४. अंतर्मुहूर्त ते ध्याननो उत्कृष्ट काळ.

मुहूर्त एटले ४८ मिनिट, अने अंतर्मुहूर्त एटले ४८ मिनिटनी अंदर काळ. ४८ मिनिटमां एक समय ओछो ते उत्कृष्ट अंतर्मुहूर्त छे.

३. उत्तम संहननवाळाने अंतर्मुहूर्त सुधी ध्यान रही शके छे एम अहीं कह्युं छे, तेनो अर्थ एवो थयो के अनुत्तम संहननवाळाने सामान्य ध्यान थाय छे, एटले के जेटलो वखत उत्तम संहननवाळाने रहे छे तेटलो वखत तेने रहेतुं नथी. आ सूत्रमां काळनुं कथन कर्युं छे तेमां आ बाबत गर्भितपणे आवी जाय छे.

४. अष्टप्राभृतमां मोक्षप्राभृतमां कह्युं छे के- जीव आजे पण त्रिरत्नवडे शुद्धात्माने ध्यावीने स्वर्गलोकमां वा लौकांतिकमां देवपणुं पामे छे अने त्यांथी च्यवीने मनुष्य थई मोक्ष पामे छे (गाथा-७७); माटे पंचमकाळना अनुत्तम संहननवाळा जीवोने पण धर्मध्यान थई शके छे.

. प्रश्नः– ध्यानमां चिंतानो निरोध छे, अने चिंतानो निरोध ते अभाव छे, तेथी ते अभावना कारणे ध्यान पण गधेडाना शिंगडानी जेम असत् थयुं?

उत्तरः- ध्यान असत्रूप नथी. बीजा विचारोथी निवृत्तिनी अपेक्षाए अभाव छे, परंतु स्वविषयना आकारनी अपेक्षाए सद्भाव छे एटले के तेमां स्वरूपनी प्रवृत्तिनो सद्भाव छे, एम ‘एकाग्र’ शब्दथी नक्की करी शकाय छे. स्वरूपनी अपेक्षाए ध्यान विद्यमान-सत्रूप छे.


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अ. ९ सूत्र २८-२९ ] [ प८१

६. आ सूत्रनो एवो अर्थ पण थई शके छे के, जे ज्ञान चळाचळता रहित अचल प्रकाशवाळुं अथवा देदिप्यमान थाय छे ते ध्यान छे. ।। २७।।

ध्यानना भेद
आर्त्तरौद्रधर्म्यशुक्लानि।। २८।।
अर्थः– [आर्त रौद्र धर्म्य शुक्लानि] आर्त्त, रौद्र, धर्म अने शुक्ल- ए चार

भेद ध्यानना छे.

टीका

प्रश्नः– आ संवर-निर्जरानो अधिकार छे अने अहीं निर्जराना कारणोनुं वर्णन चाले छे. आर्त्त अने रौद्रध्यान तो बंधनां कारण छे, तो तेने अहीं केम लीधा?

उत्तरः- निर्जराना कारणरूप जे ध्यान छे तेनाथी आ ध्यानने जुदां बतावीने, ध्यानना बधा प्रकारो समजाव्या छे.

आर्त्तध्यान- दुःख-पीडा विषे चिंतवन.
रौद्रध्यान- निर्दय-क्रूर आशयनुं चिंतवन.
धर्मध्यान- धर्मसहित चिंतवन.
शुक्लध्यान- शुद्ध पवित्र उज्ज्वळ परिणामवाळुं चिंतवन.
आ चार ध्यानोमां पहेला बे अशुभ छे अने बीजां बे धर्मरूप छे.
।। २८।।
मोक्षना कारणरूप ध्यान
परे मोक्षहेतू।। २९।।
अर्थः– [परे] जे चार प्रकारनां ध्यान कह्यां तेमांथी पाछळनां बे अर्थात् धर्म

अने शुक्लध्यान [मोक्षहेतू] मोक्षनां कारण छे.

टीका

पहेलां बे-आर्त्तध्यान अने रौद्रध्यान-संसारनां कारण छे अने धर्म तथा शुक्लध्यान मोक्षनां कारण छे.

प्रश्नः– छेल्लां बे ध्यान मोक्षनां कारण छे ए तो सूत्रमां कह्युं छे; परंतु पहेलां बे ध्यान संसारनुं कारण छे एवो अर्थ सूत्रमांथी शी रीते काढयो?

उत्तरः- मोक्ष अने संसार ए बे सिवाय वचलो कोई साधवा योग्य पदार्थ नथी.


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प८२ ] [ मोक्षशास्त्र आ जगतमां बे ज मार्ग छे- मोक्षमार्ग अने संसारमार्ग. आ बे सिवाय त्रीजो कोई साधनीय पदार्थ नथी, तेथी आ सूत्र एम पण स्थापन करे छे के धर्मध्यान अने शुक्लध्यान सिवायना आर्त्त अने रौद्रध्यान संसारनां कारण छे. ।। २९।।

आर्त्तध्यानना चार भेद छे; तेनुं वर्णन हवे अनुक्रमे चार सूत्रो द्वारा करे छे.
आर्त्तममनोज्ञस्य संप्रयोगे तद्विप्रयोगाय स्मृतिसमन्वा हारः।। ३०।।
अर्थः– [अमनोज्ञस्य संप्रयोगे] अनिष्ट पदार्थनो संयोग थतां [तत्

विप्रयोगाय] तेने दूर करवा माटे [स्मृति समन्वाहारः] वारंवार विचार करवो ते [आर्त्तम्] अनिष्ट संयोगज नामनुं आर्त्तध्यान छे. ।। ३०।।

विपरीतं मनोज्ञस्य।। ३१।।
अर्थः– [मनोज्ञस्य] ईष्ट पदार्थ संबंधी [विपरीतं] उपर करतां विपरीत

अर्थात् ईष्ट पदार्थनो वियोग थतां तेनां संयोग माटे वारंवार विचार करवो ते ‘ईष्ट वियोगज’ नामनुं आर्त्तध्यान छे. ।। ३१।।

वेदनायाश्च।। ३२।।
अर्थः– [वेदनाया च] रोगजनित पीडा थतां तेने दूर करवा माटे वारंवार

चिंतवन करवुं, ते वेदनाजन्य आर्त्तध्यान छे. ।। ३२।।

निदानं च।। ३३।।
अर्थः– [निदानं च] भविष्यकाळ संबंधी विषयोनी प्राप्तिमां चित्तने तल्लीन

करी देवुं ते निदानज आर्त्तध्यान छे. ।। ३३।।

गुणस्थान अपेक्षाए आर्त्तध्यानना स्वामी
तदविरतदेशविरतप्रमत्तसंयतानाम्।। ३४।।
अर्थः– (तत्) ते आर्त्तध्यान [अविरत] अविरत- पहेला चार गुणस्थान,

[देशविरत] देशविरत- पांचमुं गुणस्थान अने [प्रमत्तसंयतानाम्] प्रमत्त संयत- छठ्ठा गुणस्थाने होय छे.

नोंध– ‘निदानज’ आर्त्तध्यान छठ्ठा गुणस्थाने होतुं नथी.
टीका

मिथ्याद्रष्टि जीव तो अविरत छे अने सम्यग्द्रष्टि जीव पण अविरत होय छे. जेथी


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अ. ९ सूत्र ३प ] [ प८३ चार प्रकारना जीवोने आर्त्तध्यान होय छे- (१) मिथ्याद्रष्टि (२) सम्यग्द्रष्टि- अविरति (३) देशविरत अने (४) प्रमत संयत. मिथ्याद्रष्टिने सौथी खराब आर्त्तध्यान होय छे अने त्यारपछी प्रमत्तसंयत सुधी ते क्रमेक्रमे मंद थतुं जाय छे. छठ्ठा गुणस्थान पछी आर्त्तध्यान होतुं नथी.

मिथ्याद्रष्टि जीव पर वस्तुना संयोग-वियोगने आर्त्तध्याननुं कारण माने छे, तेथी तेने आर्त्तध्यान खरेखर मंद पण थतुं नथी. सम्यग्द्रष्टि जीवोने आर्त्तध्यान कवचित थाय छे अने तेनुं कारण तेओना पुरुषार्थनी नबळाई छे; तेथी तेओ पोतानो पुरुषार्थ वधारीने क्रमे क्रमे आर्त्तध्याननो अभाव करीने छेवटे तेनो सर्वथा नाश करे छे. मिथ्याद्रष्टि जीवने पोताना ज्ञानस्वभावनी अरुचि छे तेथी तेने सर्वत्र निरंतर दुःखमय एवुं आर्त्तध्यान वर्ते छे; सम्यग्द्रष्टिने पोताना ज्ञानस्वभावनी अखंड रुचि वर्ते छे, तेथी तेने नित्य धर्मध्यान वर्ते छे, मात्र पुरुषार्थनी नबळाईथी कोईक वखत अशुभभावरूप आर्त्तध्यान होय छे, पण ते मंद होय छे. ।। ३४।।

रौद्रध्यानना भेद अने स्वामी
हिंसाऽनृतस्तेयविषयसंरक्षणेभ्योरौद्रमविरतदेशविरतयोः।। ३५।।
अर्थः– [हिंसा अनृत स्तेय विषयसंरक्षणभ्यो] हिंसा, असत्य, चोरी अने

विषय-संरक्षणना भावथी उत्पन्न थतुं ध्यान [रौद्रम्] रौद्र ध्यान छे, आ ध्यान [अविरत देशविरतयोः] अविरत अने देशविरत (पहेलेथी पांच) गुणस्थानोए होय छे.

टीका

क्रूर परिणामोथी जे ध्यान थाय छे ते रौद्रध्यान छे. निमित्तना भेदनी अपेक्षाए रौद्रध्यानना चार प्रकार पडे छे. ते नीचे प्रमाणे-

१. हिंसानंदी– हिंसामां आनंद मानी तेना साधन मेळववामां तल्लीन रहेवुं ते. २. मृषानंदी– असत्य बोलवामां आनंद मानी तेनुं चिंतवन करवुं ते. ३. चौर्यानंदी– चोरीमां आनंद मानी तेनुं चिंतवन करवुं ते. ४. परिग्रहानंदी– परिग्रहनी रक्षानी चिंता करवामां तल्लीन थई जवुं ते.।। ३प।।


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प८४ ] [ मोक्षशास्त्र

धर्मध्यानना भेद

आज्ञाऽपायविपाकसंस्थानविचयाय धर्म्यम्।। ३६।।

अर्थः– [आज्ञापआयविपाकसंस्थानविचयाय] आज्ञाविचय, अपायविचय,

विपाकविचय अने संस्थानविचयने माटे चिंतवन करवुं ते [धर्म्यम्] धर्मध्यान छे.

टीका
१. धर्मध्यानना चार प्रकार नीचे प्रमाणे छे-
(१) आज्ञाविचय– आगमनी प्रमाणताथी अर्थनो विचार करवो ते.
(२) अपायविचय– संसारी जीवोना दुःखनो अने तेमांथी छूटवाना

उपायनो विचार करवो ते.

(३) विपाकविचय– कर्मना फळनो (-उदयनो) विचार करवो ते.
(४) संस्थानविचय– लोकना आकारनो विचार करवो ते.
२. उपर्युक्त चार प्रकारनो विचार-
(१) वीतरागआज्ञाविचार, साधक दशानो विचार, हुं वर्तमानमां केटली

भूमिकामां छुं ए संबंधी विचार करवो ते आज्ञाविचय छे.

(२) बाधकतानो विचार, विध्न केटलुं बाकी छे तेनो तथा दुःखना कारणोनो

विचार ते अपायविचय छे.

(३) विपाकनो विचार, कर्मोदयजन्य कषायभावनी अस्थिरता टाळवानो

विचार करवो ते विपाकविचय छे.

(४) संस्थानविचार, कर्मोदयनी सत्तानो क्यारे नाश थशे अने मारा शुद्ध

आत्मद्रव्यनुं प्रगट निरावरण संस्थान केवा पुरुषार्थथी प्रगट थाय; शुद्धोपयोगनी आकृति सहित स्वभाव व्यंजन पर्यायनो स्वयं स्थिर शुद्ध आकार क्यारे प्रगट थशे; ते संबंधी विचार करवो ते संस्थान विचय छे.

३. प्रश्नः– छठ्ठा गुणस्थाने तो निर्विकल्प दशा होती नथी तो त्यां धर्मध्यान केम संभवे?

उत्तरः– छठ्ठा गुणस्थाने विकल्प होय छे खरुं, परंतु त्यां ते विकल्पनुं स्वामित्व नथी अने सम्यग्दर्शननी द्रढता थईने अशुभराग टळतो जाय छे, तेथी तेटले दरज्जे त्यां धर्मध्यान छे, अने तेनाथी संवर-निर्जरा थाय छे. चोथा अने पांचमा


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अ. ९ सूत्र ३७ ] [ प८प गुणस्थाने पण ए ज रीते धर्मध्यान होय छे अने तेनाथी ते गुणस्थानने लायक संवर-निर्जरा थाय छे. जे शुभभाव होय ते तो बंधनुं कारण थाय छे, ते खरुं धर्मध्यान नथी.

४. धर्मध्यान–(धर्म = स्वभाव; ध्यान = एकाग्रता;) पोताना शुद्ध स्वभावमां एकाग्रता ते निश्चयधर्मध्यान छे; जेमां क्रियाकांडना सर्व आडंबरोनो त्याग छे एवी अंतरंगक्रियाना आधाररूप जे आत्मा तेने, मर्यादारहित तथा त्रणे काळना कर्मोनी उपाधिरहित एवा स्वरूपे जे जाणे छे ते ज्ञाननी विशेषपरिणति- के जेमां आत्मा पोताना आश्रयमां स्थिर थाय छे-ते निश्चयधर्मध्यान छे, अने ते ज संवर-निर्जरानुं कारण छे.

व्यवहारधर्मध्यान ते शुभभाव छे; कर्मना चिंतवनमां मन लाग्युं रहे ए तो शुभपरिणामरूप धर्मध्यान छे. जेओ केवळ शुभपरिणामथी मोक्ष माने छे तेमने समजाव्या छे के शुभपरिणामथी अर्थात् व्यवहारधर्मध्यानथी मोक्ष थतो नथी. [जुओ, श्री समयसार गाथा २९१ टीका तथा भावार्थ]. ।। ३६।।

शुक्लध्यानना स्वामी
शुक्ले चाद्ये पूर्वविदः।। ३७।।
अर्थः– [शुक्ले च आद्ये] पहेला बे प्रकारनां शुक्लध्यान अर्थात्

पृथक्त्ववितर्क अने एकत्ववितर्क ए बे ध्यान पण [पूर्वविदः] पूर्वज्ञानधारी श्रुतकेवळीने होय छे.

नोंधः– आ सूत्रमां शब्द छे ते एम सूचवे छे के श्रुतकेवळीने धर्मध्यान

पण होय छे.

टीका

१. शुक्लध्यानना चार प्रकार ३९ मा सूत्रमां कहेशे. शुक्लध्याननो पहेलो भेद आठमा गुणस्थाने शरु थाय छे अने दसमा गुणस्थान सुधी रहे छे; तेना निमित्ते मोहनीयकर्मनो क्षय के उपशम थाय छे. बीजो भेद बारमा गुणस्थाने होय छे; तेना निमित्ते बाकीनां घातिकर्मोनो क्षय थाय छे. अगीयारमा गुणस्थाने पहेलो भेद होय छे.

२. आ सूत्रमां पूर्वधारी श्रुतकेवळीने शुक्लध्यान होवानुं कह्युं छे ते उत्सर्ग कथन छे; तेमां अपवाद कथननो समावेश गौणपणे थई जाय छे. अपवाद कथन ए छे के कोई जीवने निश्चयस्वरूपआश्रित आठ प्रवचनमाता पूरतुं सम्यग्ज्ञान होय तो ते पुरुषार्थ वधारीने पोताना स्वरूपमां स्थिर थई शुक्लध्यान प्रगट करे छे. तेनुं


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प८६ ] [ मोक्षशास्त्र द्रष्टांत शिवभूति मुनि छे; तेओने विशेष शास्त्रज्ञान न होवा छतां निश्चयस्वरूपआश्रित सम्यग्ज्ञान हतुं अने तेथी पुरुषार्थ वधारी शुक्लध्यान प्रगट करीने केवळज्ञान पाम्या हता.

(जुओ, तत्त्वार्थसार अ. ६. गाथा ४६ नी टीका). ।। ३७।।

शुक्लध्यानना चार भेदोमांथी पहेला बे भेद कोने होय ते जणाव्युं, हवे बाकीना बे भेद कोने होय छे ते जणावे छे.

परे केवलिनः।। ३८।।
अर्थः– [परे] शुक्लध्यानना छेल्ला बे भेद अर्थात् सूक्ष्म क्रिया प्रतिपाति

अने व्युपरतक्रियानिवर्ति ए बे ध्यान [केवलिनः] केवळी भगवानने होय छे.

टीका

त्रीजो भेद तेरमा गुणस्थानना छेल्ला भागमां होय छे; त्यारपछी चौदमुं गुणस्थान प्रगटे छे. अने चोथो भेद चौदमा गुणस्थाने होय छे. ।। ३८।।

शुक्लध्यानना चार भेद

पृथक्त्वैकत्ववितर्कसूक्ष्मक्रियाप्रतिपातिव्युपरतक्रियानिवर्तीनि।। ३९।।

अर्थः–[पृथक्त्व एकत्ववितर्क] पृथकत्ववितर्क, एकत्ववितर्क, [सूक्ष्मक्रिया–

प्रतिपातिव्युपरतक्रियानिवर्तीनि] सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति अने व्युपरतक्रियानिवर्ति - ए चार भेद शुक्लध्यानना छे. ।। ३९।।

योग अपेक्षाए शुक्लध्यानना स्वामी
क्र्येकयोगकाययोगायोगानाम्।। ४०।।
अर्थः– [त्रि एकयोग काययोग अयोगानाम्] उपर कहेला चार प्रकारना

शुक्लध्यान अनुक्रमे त्रण योगवाळा, एक योगवाळा, मात्र काययोगवाळा अने अयोगी जीवोने होय छे.

टीका

१. पहेलुं पृथक्त्ववितर्कध्यान मन, वचन, काय ए त्रण योगना धारक जीवोने होय छे. (गुणस्थान ८ थी ११)

बीजुं एकत्ववितर्कध्यान त्रणमांथी कोई एक योगना धारकने होय छे. (गुणस्थान १२)