Moksha Shastra-Gujarati (Devanagari transliteration). Sutra: 41-47 (Chapter 9),1 (Chapter 10); Upsanhar (Chapter 9); Tenth Chapter Pg 605 to 642.

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अ. ९ सूत्र ४० ] [ प८७

त्रीजुं सूक्ष्मक्रियाप्रतिपातिध्यान मात्र काययोगना धारकने होय छे. (गुणस्थान १३ नो छेल्लो भाग).

चोथुं व्युपरतक्रियानिवर्तिध्यान योगरहित-अयोगी जीवोने होय छे. (गुणस्थान १४)

२. केवळीना मनोयोगसंबंधी स्पष्टीकरण

(१) केवळी भगवानने अतीन्द्रियज्ञान होय छे, तेनो अर्थ एवो नथी के तेमने द्रव्यमन नथी. द्रव्यमननो तेमने सद्भाव छे, पण तेमने मनोनैमित्तिक ज्ञान नथी केमके मानसिक ज्ञान तो क्षायोपशमरूप छे, अने केवळी भगवानने क्षायिकज्ञान होवाथी तेनो अभाव छे.

(२) मनोयोग चार प्रकारना छे-१- सत्य मनोयोग, २-मृषा मनोयोग, ३- सत्यमृषा मनोयोग, ४-असत्यमृषा मनोयोग एटले के जेमां सत्यपणुं, अने मृषापणुं ए बन्ने नथी, आने अनुभय मनोयोग पण कहेवाय छे. केवळी भगवानने आ चारमांथी पहेलो अने चोथो मनोयोग वचनना निमित्ते उपचारथी कहेवामां आवे छे.

प्रश्नः– केवळीने सत्यमनोयोगनो सद्भाव होय ते तो बराबर छे, पण तेमने वस्तुनुं यथार्थ ज्ञान छे अने संशय तथा अनध्यवसायरूप ज्ञाननो अभाव छे तेथी तेमने अनुभय अर्थात् असत्यमृषा मनोयोग केवी रीते संभवे छे?

उत्तरः– संशय अने अनध्यवसायना कारणरूप जे वचन तेनुं निमित्तकारण मन होय छे, तेथी तेमां श्रोताना उपचारथी अनुभयधर्म रही शके छे, माटे संयोगी जिनने अनुभय मनोयोगनो सद्भाव उपचारथी कहेवामां आवे छे. आ रीते सयोगी जिनने अनुभयमनोयोग स्वीकारवामां कांई विरोध नथी. केवळीना ज्ञानना विषयभूत पदार्थो अनंत होवाथी, अने श्रोताने आवरणकर्मनो क्षयोपयम अतिशयरहित होवाथी केवळीना वचनोना निमित्ते संशय अने अनध्यवसायनी उत्पत्ति थई शके छे. तेथी अनुभय मनोयोगनो सद्भाव उपचारथी कहेवामां आवे छे. (श्री धवला पुस्तक १ पा. २८२ थी २८४ तथा ३०८)

३. केवळीने बे प्रकारना वचनयोग

केवळी भगवानने क्षायोपशमिकज्ञान (भावमन) नहि होवा छतां तेमने सत्य अने अनुभय ए बे प्रकारना मनोयोगनी उत्पत्ति कहेवामां आवी छे ते उपचारथी कहेवामां आवी छे. उपचारथी मनद्वारा ए बन्ने प्रकारनां वचनोनी उत्पत्तिनुं विधान करवामां आव्युं छे. जेम बे प्रकारना मनोयोग कह्या छे तेम बे प्रकारना वचनयोग पण कहेवामां आव्या छे, ते पण उपचारथी छे केम के केवळी भगवानने बोलवानी इच्छा नथी, सहजपणे दिव्यध्वनि छे. (श्री धवला पुस्तक १ पा. २८३ तथा ३०८)


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प८८ ] [ मोक्षशास्त्र ४. क्षपक तथा उपशमक जीवोने चारे मनोयोग कई रीते छे

शंका–क्षपक (-क्षपकश्रेणीवाळा) अने उपशमक (-उपशमश्रेणीवाळा) जीवोने सत्यमनोयोग अने अनुभवमनोयोगनो सद्भाव भले हो, पण बाकीनां बे- असत्यमनोयोग अने उभयमनोयोगनो सद्भाव शी रीते छे? केम के ते बन्नेमां रहेवावाळो अप्रमाद ते असत्य अने उभयमनोयोगना कारणभूत प्रमादनो विरोधी छे अर्थात् क्षपक अने उपशमक प्रमादरहित होय छे, माटे तेने असत्यमनोयोग अने उभयमनोयोग कई रीते होय?

समाधानः– आवरण कर्मयुक्त जीवोने विपर्यय अने अनध्यवसायरूप अज्ञानना कारणभूत मननो सद्भाव मानवामां अने तेथी असत्य तथा उभयमनोयोग मानवामां कांई विरोध नथी; परंतु ते कारणे क्षपक अने उपशमक जीवो प्रमत्त मानी शकाय नहि, केम के प्रमाद मोहनो पर्याय छे.

(श्री धवला पु. १, पा. २८प-२८६)

नोंधः– समनस्क (-मनसहित) जीवोने ज्ञाननी उत्पत्ति मनोयोगथी थाय छे-एम मानवामां दोष छे. केम के एम मानवामां केवळज्ञानथी व्यभिचार आवे छे पण समनस्क जीवोने क्षायोपशमिकज्ञान थाय छे तेमां मनोयोग निमित्त छे-ए वात साची छे. बधां वचनो थवामां मन निमित्त छे एम मानवामां दोष छे, केम के एम मानवाथी केवळीभगवानने मन निमित्त नथी तेथी तेमने वचननो अभाव थशे.

(श्री धवला पु. १. पा. २८७-२८८)

प. क्षपक अने उपशमक जीवोना वचनयोग संबंधी

शंकाः– जेमने कषाय क्षीण थई गया छे ते जीवोने असत्यवचनयोग केम होई शके?

समाधानः– असत्यवचननुं कारण अज्ञान छे, ते बारमा गुणस्थान सुधी होय छे, ते अपेक्षाए असत्यवचननो सद्भाव बारमा गुणस्थान सुधी होय छे; अने तेथी उभयसंयोगज सत्यमृषावचन पण बारमा गुणस्थान सुधी होय छे, तेमां कांई विरोध नथी.

शंकाः– वचनगुप्तिनुं पूरी रीते पालन करनारा कषायरहित जीवोने वचनयोग केम संभवे?

समाधानः– कषायरहित जीवोमां अन्तर्जल्प होवामां कांई विरोध नथी.
(श्री धवला पु. १ पा. २८०).।। ४०।।

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अ. ९ सूत्र ४१-४२-४३-४४] [ प८९

शुक्लध्यानना पहेला बे भेदोनी विशेषता
एकाश्रये सवितर्कवीचारे पूर्वे।। ४१।।
अर्थः– [एकाश्रये] एक (श्रुतज्ञानी) ना आश्रये रहेनारां [पूर्वे]

शुक्लध्यानना पहेला बे भेदो [सवितर्कवीचारे] वितर्क अने विचारसहित छे. परंतु-

अवीचारं द्वितियम्।। ४२।।
अर्थः– [द्वितीयम्] उपर कहेलां बे शुक्लध्यानमांथी बीजुं [अवीचारं]

वीचारथी रहित छे, (पण सवितर्क होय छे).

टीका

१. ४२ मुं सूत्र ४१ मा सूत्रना अपवादरूप छे, एटले के शुक्लध्याननो बीजो भेद वीचाररहित छे. जेमां वितर्क अने वीचार बन्ने होय ते पहेलुं पृथक्त्ववितर्क शुक्लध्यान छे, अने जे वीचाररहित तथा वितर्कसहित, मणिना दीपकनी समान अचल छे ते बीजुं-एकत्ववितर्क शुक्लध्यान छे; तेमां अर्थ, वचन अने योगनुं पलटवुं दूर थयुं होय छे एटले के ते संक्रांतिरहित छे. वितर्कनी व्याख्या ४३ मां सूत्रमां अने वीचारनी व्याख्या ४४ मा सूत्रमां आवशे.

२. सूक्ष्म काययोगना अवलंबनथी जे ध्यान थाय छे तेने सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति (त्रीजुं) शुक्लध्यान कहेवाय छे; अने जेमां आत्मप्रदेशोमां परिस्पंद पेदा करवावाळी श्वासोच्छ्वासादि समस्त क्रियाओ निवृत थई जाय छे तेने व्युपरतक्रियानिवर्ति (चोथुं) शुक्लध्यान कहेवाय छे. ।। ४१-४२।।

वितर्कनुं लक्षण
वितर्कः श्रुतम्।। ४३।।
अर्थः– [श्रुतम्] श्रुतज्ञानने [वितर्कः] वितर्क कहेवाय छे.

नोंधः– ‘श्रुतज्ञान’ शब्द श्रवणपूर्वक ज्ञाननुं ग्रहण सूचवे छे. मतिज्ञानना भेदरूप चिंताने पण तर्क कहेवाय छे, ते अहीं ग्रहण करवो नहीं. ।। ४३।।

वीचारनुं लक्षण
वीचारोऽर्थव्यंजनयोगसंक्रान्तिः।। ४४।।
अर्थः– [अर्थ व्यंजन योगसक्रान्तिः] अर्थ, व्यंजन अने योगनी संक्रान्ति (-

बदलवुं) ते [वीचारः] वीचार छे.


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प९० ] [ मोक्षशास्त्र

टीका
अर्थसंक्रान्ति–अर्थ एटले ध्यान करवा योग्य पदार्थ अने संक्रान्ति एटले
बदलवुं ते, ध्यान करवा योग्य पदार्थमां द्रव्यने छोडी पर्यायने ध्यावे
अथवा पर्यायने छोडी द्रव्यने ध्यावे ते अर्थसंक्रान्ति छे.
व्यंजनसंक्रान्ति–व्यंजन एटले वचन अने संक्रान्ति एटले बदलवुं ते. श्रुतना
कोई एक वचनने छोडीने अन्यनुं अवलंबन करवुं तथा तेने
छोडीने कोई अन्यनुं अवलंबन करवुं तथा तेने छोडीने कोई
अन्यनुं अवलंबन करवुं ते व्यंजनसंक्रान्ति छे.
योगसंक्रान्ति–काययोगने छोडीने मनोयोग के वचनयोगने ग्रहण करवो अने
ते छोडीने अन्य योगने ग्रहण करवो ते योग संक्रांति छे.

ए लक्षमां राखवुं के जे जीवने शुक्लध्यान वर्ते छे ते जीव निर्विकल्पदशामां ज छे, तेथी तेने आ संक्रांतिनी खबर नथी; पण ते दशामां तेवी पलटना छे ते केवळज्ञानी जाणे छे.

उपर कहेल संक्रांति-परिवर्तनने वीचार कहेवाय छे. ज्यां सुधी ए वीचार रहे त्यां सुधी ते ध्यानने सवीचार (अर्थात् पहेलुं पृथक्त्ववितर्क) कहेवाय छे. पछी ध्यानमां द्रढता थाय छे त्यारे ते परिवर्तन बंध थई जाय छे, ते ध्यानने अवीचार (अर्थात् बीजुं एकत्ववितर्क कहेवाय छे.)

प्रश्नः– केवळीभगवानने ध्यान होय? उत्तरः– ध्याननुं लक्षण‘एकाग्र चिंतानिरोध’ छे. एक एक पदार्थनुं चिंतवन तो क्षयोपशमज्ञानीने होय, केवळीभगवानने तो युगपत् सकल पदार्थोनुं ज्ञान प्रत्यक्ष करे छे; एवो कोई पदार्थ बाकी रह्यो नथी के जेनुं तेओ ध्यान करे. केवळीभगवान कृतकृत्य छे, तेमने कांई करवानुं बाकी रह्युं नथी; आथी तेमने खरेखर ध्यान नथी. तोपण आयु पूर्ण थतां तथा अन्य त्रण कर्मोनी स्थिति पूर्ण थतां योगनो निरोध अने कर्मोनी निर्जरा स्वयमेव थाय छे, अने ध्याननुं कार्य पण योगनो निरोध अने कर्मनी निर्जरा थवी ते छे, तेथी केवळीभगवानने ध्यान जेवुं कार्य देखीने उपचारथी तेमने शुक्लध्यान कहेवाय छे. खरेखर ध्यान तेमने नथी. ।। ४४।।

अहीं ध्यानतपनुं वर्णन पूरुं थयुं.
अनुप्रेक्षा तथा ध्यान

जो के अनुप्रेक्षा अने ध्यानमां कांई अंतर नथी, पण तेना फळ अपेक्षाए भिन्नता


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अ. ९. सूत्र ४४ ] [ प९१ छे. अनुप्रेक्षानुं फळ ए छे के तेमां अनित्यता वगेरेनुं चिंतवन करवाथी उपेक्षाबुद्धि उत्पन्न करी शकाय छे अने तेने वधारी शकाय छे. ध्याननुं फळ ए छे के तेमां चित्तने अनेक विषयोथी हटावीने एक विषयमां स्थिर करी शकाय छे. आ कारणे अनुप्रेक्षा पछी ध्याननुं स्वरूप, लक्षण तथा भेद वर्णवीने ते बन्नेने जुदा लखवामां आव्या छे. (तत्त्वार्थसार अध्याय ७. गाथा ४३. टीका)

आ नवमा अध्यायना पहेला अढार सूत्रोमां संवर अने तेना कारणोनुं वर्णन कर्युं. त्यारपछी निर्जरा अने तेना कारणोनुं वर्णन शरू कर्युं. निर्जरा तपथी थाय छे (तपसा निर्जरा च-सूत्र ३), तेथी सू. १९-२० मां तपना बार प्रकार वर्णव्या, त्यारपछी छ प्रकारना अंतरंगतपना भेदोनुं वर्णन अहीं सुधी कर्युं.

व्रत, गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा; परिषहजय, बार प्रकारना तप

वगेरे संबंधी खास लक्षमां राखवा लायक स्पष्टीकरण

१. केटलाक जीवो केवळ व्यवहारनयनुं ज अवलंबन करे छे, तेमने परद्रव्यरूप भिन्न साधनसाध्यभावनी द्रष्टि छे, तेथी तेओ व्यवहारमां ज खेदखिन्न रहे छे. तेओ नीचे प्रमाणे वर्ते छे-

श्रद्धा संबंधमां– धर्मद्रव्यादि परद्रव्योनी श्रद्धा करे छे.
ज्ञान संबंधमां–द्रव्यश्रुतना पठन पाठनादि संस्कारोथी अनेक प्रकारना विकल्प

जाळथी कलंकित चैतन्यवृत्तिने धारण करे छे.

चारित्र संबंधमां–यतिना समस्त व्रतसमुदायरूप तप (साधु) -प्रवृत्तिरूप

कर्मकांडोने अचलितपणे आचरे छे, तेमां कोई वेळा पुण्यनी रुचि करे छे, कदाचित् दयावंत थाय छे.

दर्शनाचार संबंधमां–कोई वार प्रशमता, कोई वार वैराग्य, कोईवार

अनुकंपा अने कोईवार आस्तितक्यमां वर्ते छे; तथा शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, मूढद्रष्टि आदि भावो उत्पन्न न थाय तेवी शुभोपयोगरूप सावधानी राखे छे; केवळ व्यवहारनयरूप उपबृंहण, स्थितिकरण, वात्सलय, प्रभावना ए अंगोनी भावना चिंतवे छे अने ते बाबतनो उत्साह वारंवार वधारे छे.

ज्ञानाचार संबंधमां– स्वाध्यायनो काळ विचारे छे, घणा प्रकारना विनयमां
प्रवर्ते छे, शास्त्रनी भक्ति अर्थे दुर्धर उपधान करे छे- आरंभ करे छे,
शास्त्रनुं रूडा प्रकारे बहुमान करे छे, गुरु वगेरेमां उपकारप्रवृत्तिने
भूलता नथी, अर्थ, व्यंजन अने ते बन्नेनी शुद्धतामां सावधान रहे छे.

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प९२ ] [ मोक्षशास्त्र

चारित्राचार संबंधमां–हिंसा, असत्य, चोरी, स्त्रीसेवन अने परिग्रह; ए

बधाथी विरतिरूप पंचमहाव्रतमां स्थिरवृत्ति धारण करे छे; योग (- मन-वचन-काय) ना निग्रहरूप गुप्तिओनां अवलंबननो उद्योग करे छे; इर्या, भाषा, एषणा, आदाननिक्षेपण अने उत्सर्ग ए पांच समितिमां सर्वथा प्रयत्नवंत छे.

तपाचार संबंधमां–अनशन, अवमौदर्य, वृत्तिपरिसंख्यान, रसपरित्याग,

विविक्तशय्यासन अने कायकलेशमां निरंतर उत्साह राखे छे; प्रायश्वित, विनय, वैयावृत्य, व्युत्सर्ग, स्वाध्याय अने ध्यानने अर्थे चित्तने वश करे छे.

वीर्याचार संबंधमां– कर्मकांडमां सर्वशक्तिपूर्वक वर्ते छे. आ जीवो उपर प्रमाणे कर्मचेतनानी प्रधानतापूर्वक अशुभभावनी प्रवृत्ति छोडे छे, पण शुभभावनी प्रवृत्तिने आदरवा योग्य मानीने अंगीकार करे छे; तेथी सकल क्रियाकांडना आडंबरथी पर, दर्शन-ज्ञान-चारित्रनी ऐक्य परिणतिरूप ज्ञानचेतनाने तेओ कोई पण काळे पामता नथी.

तेओ घणा पुण्यना भारथी गर्भित चित्तवृत्ति धारी रहे छे तेथी स्वर्गलोकादि क्लेशप्राप्ति करीने परंपराए लांबा काळ सुधी संसार-सागरमां परिभ्रमण करे छे. (जुओ, श्री पंचास्तिकाय, गाथा १७२ टीका)

२. प्रश्नः– आ अधिकारमां जे जे कार्यो संवर-निर्जरारूप कह्यां छे ते कार्योने केवळ व्यवहारालंबी जीव पण आदरे छे, छतां तेने संवर-निर्जरा केम थतां नथी?

उत्तरः– आ अधिकारमां जे कार्यो संवर-निर्जरारूप कह्यां छे ते व्यवहारलंबी जीवना शुभभावरूप नथी. केवळ व्यवहारालंबी तो मिथ्याद्रष्टि छे, केमके शुभभावने धर्म माने छे तथा तेने धर्ममां मददगार माने छे, तेथी तेने शुद्धता प्रगटे नहि अने संवर-निर्जरा थाय नहि. जे जीवोने शुद्ध निश्चयनयनुं आलंबन होय तेओ सम्यग्द्रष्टि छे, तेओ शुभ भावने धर्म मानता नथी. तेमने रागद्वेष टाळवानो पुरुषार्थ करतां अशुभ टळीने जे शुभ रही जाय छे तेने तेओ धर्म मानता नथी; तेथी क्रमेक्रमे वीतरागभाव वधारीने, ते शुभभावने पण तेओ टाळे छे. एवा जीवोना व्यवहारने आ अधिकारमां उपचारथी संवर-निर्जरानुं कारण कहेल छे.

आ उपचार पण ज्ञानीना शुभभावरूप व्यवहारने लागु पडे छे, केम के तेमने ते व्यवहारनी हेयबुद्धि होवाथी तेने टाळे छे. अज्ञानी तो व्यवहारने ज धर्म मानीने आदरे छे तेथी शुभरागने तो उपचारथी पण संवर-निर्जरानुं कारण कहेवाय नहि.


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अ. ९. स्पष्टीकरण ] [ प९३

खरी रीते तो शुद्धभाव ज संवर-निर्जरारूप छे. जो शुभभाव खरेखर संवर- निर्जरानुं कारण होय तो केवळ व्यवहारालंबीने बधा प्रकारनो निरतिचार व्यवहार छे तेथी तेने शुद्धता प्रगटवी जोईए. परंतु राग संवर निर्जरानुं कारण छे ज नहि. अज्ञानी शुभभावने धर्म मानतो होवाथी तथा शुभ करतां करतां धर्म थशे एम मानतो होवाथी अने शुभ-अशुभ बन्ने टाळतां धर्म थशे एम नहि मानतो होवाथी तेनो तमाम व्यवहार निरर्थक छे, तेथी तेने व्यवहाराभासी कहेवामां आवे छे.

आवो व्यवहार (-जे खरेखर व्यवहाराभास छे ते) भव्य तेमज अभव्य जीवोए अनंतवार कर्यो छे अने तेना फळमां अनंतवार नवमी ग्रेवेयके गया छे, पण तेनाथी धर्म थयो नथी. धर्म तो शुद्ध निश्चयस्वभावना आश्रये थता सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र ज थाय छे.

श्री समयसारजीमां कह्युं छे के-
वदसमिदीगुत्तीओ सीलतवं जिणवरेहि पण्णत्तं।
कुव्वंता वि अभव्वो अण्णाणी मिच्छदिठ्ठी दुण।। २७३।।

जिनवरकहेलां व्रत, समिति, गुप्ति वळी तप–शीलने, करतां छतांय अभव्य जीव अज्ञानी अने मिथ्याद्रष्टि छे. २७३.

अर्थः– जिनवरोए कहेलां व्रत, समिति, गुप्ति, शील, तप करवा छतां पण अभव्य जीव अज्ञानी अने मिथ्याद्रष्टि छे.

टीकाः– शील अने तपथी परिपूर्ण, त्रण गुप्ति अने पांच समिति प्रत्ये सावधानी भरेलुं, अहिंसादि पांच महाव्रतरूप व्यवहारचारित्र अभव्य पण करे छे अर्थात् पाळे छे; तो पण ते निश्चारित्र (-चारित्ररहित) अज्ञानी अने मिथ्याद्रष्टि ज छे कारण के निश्चयचारित्रना कारणरूप ज्ञान श्रद्धानथी शून्य छे.

भावार्थः– अभव्य जीव महाव्रत, समिति, गुप्तिरूप चारित्र पाळे तोपण निश्चयसम्यग्ज्ञान-श्रद्धा विना ते चारित्र ‘सम्यक्चारित्र’ नाम पामतुं नथी; माटे ते अज्ञानी, मिथ्याद्रष्टि अने निश्चारित्र ज छे. (श्री समयसार पा. ३३प-३३६)

नोंधः– अहीं अभव्य जीवनो दाखलो आप्यो छे, पण आ सिद्धांत व्यवहारनो आश्रय लेनार बधा जीवोने एक सरखी रीते लागु पडे छे.

३. शुद्ध आत्मानो अनुभव ते साचो मोक्षमार्ग छे. तेथी तेने निश्चय कह्यो छे. व्रत, तपादि कांई साचो मोक्षमार्ग नथी पण निमित्तादिनी अपेक्षाए उपचारथी तेने


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प९४ ] [ मोक्षशास्त्र मोक्षमार्ग कह्यो, तेथी तेने व्यवहार कहेवाय छे. ए प्रमाणे भूतार्थ मोक्षमार्गपणा वडे निश्चयनय अने अभूतार्थ मोक्षमार्गपणा वडे व्यवहारनय कह्या छे एम जाणवुं. पण ए बन्नेने साचा मोक्षमार्ग जाणीने तेने उपादेय मानवा ते तो मिथ्याबुद्धि ज छे. (जुओ, श्री मोक्षमार्ग-प्रकाशक. पा. २प४)

४. निश्चय-व्यवहारनुं यथार्थ स्वरूप समज्या वगर कोई जीवने धर्म के संवर-निर्जरा थाय नहि, शुद्ध आत्मानुं यथार्थ स्वरूप समज्या वगर निश्चय- व्यवहारनुं यथार्थ स्वरूप समजाय नहि; माटे आत्मानुं यथार्थ स्वरूप समजवानी पहेली जरूर छे.

पात्रनी अपेक्षाए निर्जरामां थती न्यूनाधिकता

सम्यग्द्रष्टिश्रावकविरतानन्तवियोजकदर्शनमोहक्षपकोपशमकोपशान्त

मोहक्षपकक्षीणमोहजिनाः क्रशोऽसंख्येयगुणनिर्जराः।। ४५।।
अर्थः– [सम्यग्द्रष्टि श्रावक विरति] सम्यग्द्रष्टि, पंचम गुणस्थानवर्ती श्रावक,

विरत मुनि, [अनन्तवियोजक दर्शनमोहक्षपक] अनंतानुबंधीनुं विसंयोजन करनार, दर्शनमोहनो क्षय करनार, [उपशमक उपशान्तमोह] उपशमश्रेणी मांडनार, उपशांतमोह, [क्षपक क्षीणमोह] क्षपकश्रेणी मांडनार, क्षीणमोह अने [जिनाः] जिन- ए सर्वेने (अंतर्मुहूर्तपर्यंत परिणामोनी विशुद्धतानी अधिकताथी, आयुकर्मने छोडीने) प्रतिसमय [क्रमशः असंख्येयगुणनिर्जराः] क्रमथी असंख्यातगुणी निर्जरा थाय छे.

टीका

(१) अहीं प्रथम सम्यग्द्रष्टिनी-चोथा गुणस्थाननी दशा जणावी छे. जे असंख्यातगुणी निर्जरा कही छे ते, सम्यग्दर्शन पाम्या पहेलांनी तद्न नजीकनी आत्मानी दशामां थती निर्जरा करतां असंख्यातगुणी समजवी. प्रथमोपशम सम्यक्त्वनी उत्पति पहेलां त्रण करण थाय छे तेमां अनिवृत्तिकरणनाअंत समयमां वर्तती विशुद्धताथी विशुद्ध जे सम्यक्त्व सन्मुख मिथ्याद्रष्टि तेने आयु सिवायना सात कर्मोनी जे निर्जरा थाय छे तेना करतां असंख्यातगुणी निर्जरा असंयतसम्यग्द्रष्टि गुणस्थान प्राप्त करतां अंतर्मुहूर्तपर्यंत समये समये थाय छे एटले के सम्यक्त्व सन्मुख मिथ्याद्रष्टिनी निर्जरा करतां सम्यग्द्रष्टिने गुणश्रेणी निर्जरामां असंख्यगुणा द्रव्य छे. आ चोथा गुणस्थानवाळा अविरति सम्यग्द्रष्टिनी निर्जरा छे.

(२) ते जीव ज्यारे पांचमुं गुणस्थान-श्रावकपणुं प्रगट करे त्यारे अंतर्मुहूर्तपर्यंत निर्जरा थवा योग्य कर्मपुद्गलरूप गुणश्रेणी निर्जराद्रव्य चोथा गुणस्थान करतां असंख्यातगुणा छे.


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अ. ९ सूत्र ४प ] [ प९प

(३) पांचमाथी असंख्यातगुणी निर्जरा सकळसंयमरूप अप्रमत्तसंयत (सातमुं) गुणस्थान प्रगटे त्यारे थाय छे. पांचमा पछी प्रथम सातमुं गुणस्थान प्रगटे छे अने पछी विकल्प उठतां छठ्ठुं प्रमत्त गुणस्थान आवे छे. सूत्रमां ‘विरत’ शब्द कह्यो छे तेमां सातमुं अने छठ्ठुं बन्ने गुणस्थानवाळा जीवोनो समावेश थाय छे.

(४) त्रण करणना प्रभावथी चार अनंतानुबंधी कषायने बार कषाय तथा नव नोकषायरूप परिणमावी दे ते जीवोने अंतर्मुहूर्तपर्यंत समये समये असंख्यातगुणी द्रव्यनिर्जरा थाय छे. अनंतानुबंधीनी आ विसंयोजना चोथुं, पांचमुं, छठ्ठुं अने सातमुं ए चार गुणस्थानोमां थाय छे; ते चारे गुणस्थानमां जे अनंतवियोजक छे ते पोताना गुणस्थानमां पोतानी पूर्वनी निर्जराथी असंख्यातगुणी निर्जरा करे छे.

(प) अनंत वियोजकथी असंख्यातगुणी निर्जरा दर्शनमोहना क्षपकने (ते ज जीवने) थाय छे. पहेलां अनंतानुबंधीनी विसंयोजना कर्या पछी दर्शनमोहना त्रिकने क्षपावे एवो क्रम छे.

(६) दर्शनमोहना क्षपक करतां ‘उपशमक’ ने असंख्यातगुणी निर्जरा थाय छे. प्रश्नः– उपशमकनी वात दर्शनमोहना क्षपक पछी केम करी? उत्तरः– क्षपकनो अर्थ क्षायिक थाय छे, अहीं क्षायिक सम्यग्दर्शननी वात छे; अने ‘उपशमक’ कहेतां द्वितीयोपशम सम्यक्त्वयुक्त उपशमश्रेणीवाळो जीव समजवो. क्षायिकसम्यग्द्रष्टि करतां उपशमश्रेणीवाळाने असंख्यातगुणी निर्जरा थाय छे तेथी पहेलां क्षपकनी वात करी छे अने क्षपक पछी उपशमकनी वात करी छे. क्षायक सम्यग्दर्शन चोथे, पांचमे, छठ्ठे अने सातमे गुणस्थाने प्रगटे छे अने जे जीव चारित्रमोहनो उपशम करवाने उद्यमी थयेल छे. तेने आठमुं, नवमुं अने दसमुं गुणस्थान होय छे.

(७) उपशमक जीव करतां असंख्यातगुणी निर्जरा अगीयारमा उपशांतमोह गुणस्थाने होय छे.

(८) उपशान्तमोहवाळा जीव करतां क्षपकश्रेणीवाळाने असंख्यात गुणी निर्जरा होय छे; आ जीवने आठमुं, नवमुं अने दशमुं गुणस्थान होय छे.

(९) क्षपकश्रेणीवाळा जीव करतां बारमा क्षीणमोह गुणस्थाने असंख्यातगुणी निर्जरा होय छे.

(१०) बारमा गुणस्थान करतां जिनने (तेरमा अने चौदमा गुणस्थाने) असंख्यातगुणी निर्जरा होय छे. जिनना त्रण भेद छे- (१) स्वस्थान केवळी,


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प९६ ] [ मोक्षशास्त्र (२) समुद्घात केवळी अने (३) अयोग केवळी. आ त्रणेमां पण विशुद्धताना कारणे उत्तरोत्तर असंख्यातगुणी निर्जरा छे. अत्यंत विशुद्धताने कारणे समुद्घात केवळीने नाम, गोत्र अने वेदनीयकर्मनी स्थिति आयुकर्म समान थई जाय छे.

आ सूत्रनो सिद्धांत

आ सूत्रमां निर्जरा माटे प्रथम पात्र सम्यग्द्रष्टि जणावेल छे, तेथी एम सिद्ध थाय छे के सम्यग्दर्शनथी ज धर्मनी शरूआत थाय छे.

आ सूत्रमां निर्जराना दस पात्रोनो जे अनुक्रम आप्यो छे तेनो अर्थ एम न समजवो के विरत गुणस्थानवाळा जीव के जेने त्रीजा पात्रमां मूकेल छे तेना करतां चोथा अने पांचमां पात्रमां मूकेला चोथा के पांचमा गुणस्थानवर्ती अनंतानुबंधीना विसंयोजकने के दर्शनमोहना क्षपकने वधारे निर्जरा थाय छे. पण एम समजवुं के ते ते गुणस्थानवर्ती जीव जो अनंतवियोजक थाय के दर्शनमोह क्षपक थाय तो ते जीवने पहेलां करतां असंख्यातगुणी द्रव्यनिर्जरा थाय छे. ।। ४प।।

निर्ग्रंथ (–साधुओ) ना भेद

पुलाकबकुशकुशीलनिर्ग्रंथस्नातका निर्ग्रंथा।। ४६।।

अर्थः– [पुलाक बकुश कुशील निर्ग्रंथ स्नातकाः] पुलाक, बकुश, कुशील,

निर्ग्रंथ अने स्नातक- ए पांच प्रकारना [निर्ग्रथाः] निर्ग्रंथ (-साधु) छे.

टीका
१. सूत्रमां आवेला शब्दोनी व्याख्या

(१) पुलाक–जे उत्तरगुणोनी भावनाथी रहित होय अने कोई क्षेत्र तथा काळमां कोई मूळगुणमां पण अतिचार लगाडे, तथा जेने अल्प विशुद्धता होय तेने पुलाक कहे छे. (जुओ, सूत्र ४७ मां आपेल प्रतिसेवनानी विगत)

(२) बकुश–जे मूळगुणोनुं निर्दोष पालन करे छे पण शरीर तथा उपकरणोनी शोभा वधारवा माटे धर्मानुरागना कारणे कांईक इच्छा राखे छे तेने बकुश कहे छे.

(३) कुशील– तेना बे प्रकार छे-१. प्रतिसेवना कुशील अने २. कषाय कुशील. जेने शरीरादि तथा उपकरणादिथी पूर्ण विरक्तता न होय, अने मूळगुण तथा उत्तरगुणनी परिपूर्णता होय, परंतु उत्तरगुणमां कांईक विराधना कोई वार थती होय तेने प्रतिसेवना कुशील कहे छे. अने जेमणे संज्वलन सिवाय बीजा कषायोने जीती लीधा होय तेने कषाय कुशील कहे छे.


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अ. ९ सूत्र ४६-४७ ] [ प९७

(४) निर्ग्रंथः– जेमने मोहकर्म क्षीण थई गयुं छे तथा जेमने मोहकर्मना उदयनो अभाव छे एवा बारमा तथा अगीआरमा गुणस्थानवर्ती मुनिने निर्ग्रंथ कहे छे.

(प) स्नातकः– समस्त घातीकर्मोनो नाश करनार केवळी भगवानने स्नातक कहे छे. (आमां तेरमुं तथा चौदमुं बन्ने गुणस्थान समजवा.)

२. परमार्थ निर्ग्रंथ अने व्यवहारनिर्ग्रंथ

बार, तेर अने चौदमा गुणस्थाने बिराजता जीवो परमार्थनिर्ग्रंथ छे, केम के तेमने समस्त मोहनो नाश थयो छे; तेओने निश्चयनिर्ग्रंथ कहेवाय छे. बीजा साधुओ जो के सम्यग्दर्शन अने निष्परिग्रहपणाने लीधे निर्ग्रंथ छे अर्थात् तेओ मिथ्यादर्शन तथा वस्त्र, आभरण, हथियार, कटक, धन-धान्य वगेरे परिग्रहथी रहित होवाथी निर्ग्रंथ छे, तोपण तेमने मोहनीयकर्मनो अंशे सद्भाव छे, तेथी तेओ व्यवहारनिर्ग्रंथ छे.

३. केटलाक खुलासा

(१) प्रश्नः– पुलाक मुनिने कोई अवसरमां कोई एक व्रतनो भंग क्षेत्र- काळने वश होय छे, छतां तेने निर्ग्रंथ कह्या, तो श्रावकने पण निर्ग्रंथपणुं कहेवानो प्रसंग आवशे?

उत्तरः– पुलाक मुनि सम्यग्द्रष्टि छे अने परवशथी के जबरजस्तीथी व्रतमां क्षणिक दोष थई जाय छे;पण यथाजातरूप छे तेथी नैगमनये ते निर्ग्रंथ छे; श्रावकने यथाजातरूप (नग्नपणुं) नथी तेथी तेने निर्ग्रंथपणुं कहेवाय नहि.

(२) प्रश्नः– जो यथाजातपणाने लीधे ज पुलाक मुनिने निर्ग्रंथ कहेशो तो घणा मिथ्याद्रष्टिओ पण नग्न रहे छे, तेमने पण निर्ग्रंथ कहेवानो प्रसंग आवशे?

उत्तरः– तेमने सम्यग्दर्शन नथी. एकलुं नग्नपणुं तो गांडाने, बाळकने तथा तिर्यंचोने पण होय छे, परंतु तेथी तेने निर्ग्रंथ कहेवाय नहि. जे सम्यग्दर्शन- ज्ञानपूर्वक संसार अने देह भोगथी विरक्त थई नग्नपणुं धारे तेने निर्ग्रंथ कहेवाय, बीजाने नहि. ।। ४६।।

पुलाकादि मुनिओमां विशेषता

संयमश्रुतप्रतिसेवनातीर्थलिंगलेश्योपपादस्थानविकल्पतःसाध्याः।। ४७।।

अर्थः– उपर कहेला मुनिओ [संयम श्रुत प्रतिसेवना तीर्थ] संयम, श्रुत,

प्रतिसेवना, तीर्थ, [लिंग लेश्या उपपाद स्थान] लिंग लेश्या उपपाद अने स्थान-ए


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प९८] [ मोक्षशास्त्र आठ अनुयोगोद्वार [विकल्पतः साध्या] भेदरूपथी साध्य छे अर्थात् आ आठ प्रकारथी ते पुलाकादि मुनिओमां विशेष भेद पडे छे.

टीका

(१) संयमः– पुलाक, बकुश अने प्रतिसेवनाकुशील साधुने सामायिक अने छेदोपस्थापन ए बे संयम होय छे; कषायकुशील साधुने सामायिक, छेदोपस्थापन, परिहारविशुद्धि अने सूक्ष्मसांपराय ए चार संयम होय छे; निर्ग्रंथ अने स्नातकने यथाख्यातचारित्र होय छे.

(२) श्रुतः– पुलाक, बकुश अने प्रतिसेवनाकुशील साधु वधारेमां वधारे संपूर्ण दस पूर्वधारी होय छे; पुलाकने जघन्य आचारंगमां आचारवस्तुनुं ज्ञान होय छे अने बकुश तथा प्रतिसेवना कुशीलने जघन्य आठ प्रवचनमातानुं ज्ञान होय छे एटले के आचारांगना १८००० पदोमांथी पांच समिति अने त्रण गुप्तिना परमार्थ व्याख्यान सुधी आ साधुओनुं ज्ञान होय छे; कषायकुशील अने निर्ग्रंथने उत्कृष्टज्ञान चौदपूर्वनुं होय छे अने जघन्य ज्ञान आठ प्रवचनमातानुं होय छे. स्नातक तो केवळज्ञानी छे तेथी तेओ श्रुतज्ञानथी पर छे.

(३) प्रतिसेवना (=विराधना) -पांचमहाव्रतो अने रात्रिभोजननो त्याग ए छमांथी कोई एकनी विराधना पुलाकमुनिने परवशथी के जबरजस्तीथी थई जाय छे. महाव्रतोमां तथा रात्रिभोजन त्यागमां कृत, कारित, अनुमोदनाथी पांचे पापोनो त्याग छे तेमां कोई प्रकारमां सामर्थ्यनी हीनताथी दूषण लागे छे; उपकरण-बकुश मुनिने कमंडळ, पींछी, पुस्तकादि उपकरणनी शोभानी अभिलाषाना संस्कारनुं सेवन होय छे ते विराधना जाणवी, तेम ज शरीर-बकुशमुनिने शरीरना संस्काररूप विराधना होय छे; प्रतिसेवनाकुशीलमुनि पांच महाव्रतनी विराधना करता नथी पण उत्तरगुणमां कोई एकनी विराधना करे छे; कषायकुशील, निर्ग्रंथ अने स्नातकने विराधना होती नथी.

(४) तीर्थ– आ पुलाकादि पांचे प्रकारना निर्ग्रंथो समस्त तीर्थंकरोना धर्मशासनमां थाय छे.

(प) लिंग– तेना बे प्रकार छे-१-द्रव्यलिंग अने २-भावलिंग. भावलिंगी पांचे प्रकारना निर्ग्रंथो होय छे. तेओ सम्यग्दर्शनसहित संयम पाळवामां सावधान छे. भावलिंगने द्रव्यलिंग साथे निमित्तनैमित्तिकसंबंध छे. यथाजातरूप लिंगमां कोईने भेद नथी पण प्रवृत्तिरूप लिंगमां फेर होय छेः जेम के-कोई आहार करे छे, कोई अनशनादि तप करे छे, कोई उपदेश करे छे, कोई अध्ययन करे


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अ. ९ सूत्र ४७ ] [ प९९ छे, कोई तीर्थमां विहार करे छे, कोई अनेक आसनरूप ध्यान करे छे; कोई दूषण लाग्या होय तेनुं प्रायश्चित्त ले छे, कोई दूषण लगाडता नथी, कोई आचार्य छे, कोई उपाध्याय छे, कोई प्रवर्तक छे, कोई निर्यापक छे, कोई वैयावृत्य करे छे, कोई ध्यानमां श्रेणीनो प्रारंभ करे छे; ईत्यादि रागविकल्परूप द्रव्यलिंगमां मुनिगणोने भेद होय छे. मुनिना शुभभावने द्रव्यलिंग कहेवामां आवे छे. तेना प्रकारो घणा छे; ते प्रकारोने द्रव्यलिंगो कहेवामां आवे छे.

(६) लेश्या– पुलाकमुनिने त्रण शुभ लेश्याओ होय छे. बकुश तथा प्रतिसेवनाकुशील मुनिने छए लेश्या पण होय छे. कषायथी अनुरंजित योग- परिणति ते लेश्या छे.

प्रश्नः– बकुश तथा प्रतिसेवनाकुशील मुनिने कृष्णादि त्रण अशुभ लेश्याओ कई रीते होय?

उत्तरः– ते बन्ने प्रकारना मुनिने उपकरणनी कांईक आसकित होवाथी कोईक वखते आर्त्तध्यान पण थई जाय छे अने तेथी तेमने कृष्णादि अशुभलेश्या पण होई शके छे.

कषायशीलमुनिने कापोत, पीत, पद्म अने शुक्ल ए चार लेश्याओ होय छे. सूक्ष्मसांपराय गुणस्थानवर्तीने तथा निर्ग्रंथने शुक्ललेश्या होय छे. स्नातकने उपचारथी शुक्ललेश्या छे; अयोगकेवळी लेश्यारहित छे.

(७) उपपाद (=जन्म)-पुलाक मुनिनो उत्कृष्ट जन्म अढार सागरना आयु साथे बारमा सहस्त्रार कल्पमां थाय छे; बकुश अने प्रतिसेवनाकुशीलनो उत्कृष्ट जन्म बावीस सागरना आयु साथे पंदरमा आरण अने सोळमा अच्यूत स्वर्गमां थाय छे. कषायकुशील अने निर्गं्रथनो उत्कृष्ट जन्म तेत्रीस सागर आयु साथे सर्वार्थसिद्धिमां थाय छे. आ सर्वेनो जघन्य जन्म सौधर्म स्वर्गमां बे सागर आयु साथे थाय छे. स्नातक केवळी भगवान छे तेमनो उपपाद निर्वाणमोक्षपणे थाय छे.

(८) स्थानः- तीव्र के मंद कषाय होवाना कारणे असंख्यात संयमलब्धिस्थानो होय छे; तेमां सौथी नानुं संयम-लब्धिस्थान पुलाक मुनिने अने कषायकुशीलने होय छे. ए बन्ने युगपत् असंख्यात लब्धिस्थानो प्राप्त करे छे; ए असंख्यात लब्धिस्थानो पछी आगळनां लब्धिस्थानो पुलाक मुनि प्राप्त करी शकता नथी. कषायकुशील मुनि तेनाथी आगळ असंख्यात लब्धिस्थानो प्राप्त करे छे.

अहीं बीजी वार कहेला आ असंख्यात लब्धिस्थानथी कषायकुशील, प्रतिसेवनाकुशील अने बकुश मुनि ए त्रण युगपत् (-एकसाथे) असंख्यात लब्धिस्थानो प्राप्त करे छे.


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६०० ] [ मोक्षशास्त्र

आ त्रीजी वार कहेला असंख्यात लब्धिस्थाने बकुश मुनि अटकी जाय छे- आगळनां स्थानो प्राप्त करी शकतां नथी, प्रतिसेवनाकुशील त्यांथी आगळ असंख्यात लब्धिस्थानो प्राप्त करी शके छे.

आ चोथी वार कहेलां असंख्यात लब्धिस्थानोथी आगळ असंख्यात

लब्धिस्थानो कषायकुशील प्राप्त करी शके छे, तेथी आगळनां स्थानो प्राप्त करी शकतां नथी.

आ पांचमीवार कहेला लब्धिस्थानोथी आगळ कषायरहित संयम लब्धिस्थानोने निर्ग्रंथ मुनि प्राप्त करी शके छे. ते निर्ग्रंथमुनि पण आगळना असंख्यात लब्धिस्थानोनी प्राप्ति करी शके छे, पछी अटकी जाय छे. त्यार पछी एक संयमलब्धिस्थानने प्राप्त करीने स्नातक निर्वाणने प्राप्त करे छे.

आ प्रमाणे संयमलब्धिनां स्थानो छे, तेमां अविभागप्रतिच्छेदोनी अपेक्षाए संयमनी प्राप्ति अनंत-अनंतगुणी थाय छे. ।। ४७।।

उपसंहार

१. आ अध्यायमां आत्मानी धर्मपरिणतिनुं स्वरूप कह्युं छे; ते परिणतिने ‘जिन’ कहेवामां आवे छे.

२. अपूर्वकरण परिणामने पामेला प्रथमोपशम सम्यक्त्वसन्मुख जीवोने ‘जिन’ कहेवामां आवे छे. (गोम्मटसार-जीवकांड गाथा १, टीका, पानुं १६) त्यांथी शरू थईने पूर्ण शुद्ध प्राप्त करनारा बधा जीवो सामान्यपणे ‘जिन’ कहेवाय छे. श्री प्रवचनसारना त्रीजा अध्यायनी पहेली गाथामां श्री जयसेनाचार्य कहे छे के-“बीजा गुणस्थानथी बारमा गुणस्थान सुधीना जीवो ‘एकदेश जिन’ छे, केवळीभगवान ‘जिनवर’ छे अने तीर्थंकरभगवान ‘जिनवरवृषभ’ छे.” मिथ्यात्व, रागादिने जीतवाथी असंयत सम्यग्द्रष्टि श्रावक तथा मुनिने ‘जिन’ कहेवामां आवे छे; तेमां गणधरादि श्रेष्ठ छे तेथी तेमने ‘श्रेष्ठ जिन’ अथवा ‘जिनवर’ कहेवाय छे अने तीर्थंकरदेव तेमनाथी पण प्रधान छे तेथी तेमने ‘जिनवरवृषभ’ कहेवाय छे. (जुओ, द्रव्यसंग्रह गाथा १ टीका) श्री समयसारजीनी ३१ मी गाथामां पण सम्यग्द्रष्टिने ‘जितेन्द्रिय जिन’ कह्या छे.

सम्यक्त्वसन्मुख मिथ्याद्रष्टि अने अधःकरण, अपूर्वकरण तथा अनिवृत्तिकरणनुं स्वरूप श्री मोक्षमार्गप्रकाशक पा. २६२ थी २७० सुधीमां आप्युं छे. गुणस्थानोनुं स्वरूप श्री जैनसिद्धांतप्रवेशिकाना छेल्ला अध्यायमां आप्युं छे, त्यांथी समजी लेवुं.

३. सम्यग्दर्शनथी धर्मनी शरूआत थाय छे. एम बताववा आ शास्त्रमां पहेला अध्यायनुं पहेलुं ज सूत्र ‘सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः’ मूकयुं छे. धर्ममां


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अ. ९ उपसंहार ] [ ६०१ प्रथम सम्यग्दर्शन प्रगटे छे अने सम्यग्दर्शन प्रगट थती वखतना अपूर्वकरणथी संवर-निर्जरानी शरूआत थाय छे. आ अधिकारना बीजा सूत्रमां सम्यग्दर्शनने संवरनिर्जराना कारण तरीके जुदुं कह्युं नथी, तेनुं कारण ए छे के आ अध्याय ४प मा सूत्रमां तेनो समावेश थई जाय छे.

४. ‘जिनधर्म’ नो अर्थ ‘वस्तुस्वभाव’ थाय छे. जेटले अंशे आत्मानी स्वभावदशा (-शुद्धदशा) प्रगटे तेटले अंशे जीवने ‘जिनधर्म’ प्रगटयो कहेवाय. जिनधर्म ए कोई संप्रदाय, वाडो के संघ नथी पण आत्मानी शुद्धदशा छे; अने आत्मानी शुद्धतामां तारतम्यता होवा छतां शुद्धपणुं तो एक ज प्रकारनुं होवाथी जिनधर्ममां फांटाओ होई शके नहि. जैनधर्मना नामे जे वाडाओ जोवामां आवे छे तेने खरी रीते ‘जिनधर्म’ कही शकाय नहीं. जिनधर्म भरतक्षेत्रमां पांचमा आराना छेडा सुधी रहेवानो छे एटले त्यांसुधी पोतानी शुद्धता प्रगट करनारा मनुष्यो आ क्षेत्रे होय ज, अने तेमने शुद्धताना उपादानकरणनी तैयारी होवाथी आत्मज्ञानी गुरु अने सत्शास्त्रोनुं निमित्त पण होय ज. जैनधर्मना नामे कहेवामां आवता शास्त्रोमांथी कया शास्त्रो परम सत्यना उपदेशक छे तेनो निर्णय धर्म करवा मागता जीवोए अवश्य करवो जोईए. ज्यां सुधी पोते यथार्थ परीक्षा करीने सत्शास्त्रो कया छे तेनो निर्णय जीव न करे त्यां सुधी गृहीतमिथ्यात्व टळे नहि; गृहीतमिथ्यात्व टळ्‌या वगर अगृहीतमिथ्यात्व टळीने सम्यग्दर्शन तो थाय ज शी रीते? तेथी पोतामां जिनधर्म प्रगट करवा माटे अर्थात् साचा संवर-निर्जरा प्रगट करवा माटे जीवोए सम्यग्दर्शन प्रगट करवुं ज जोईए.

प. सम्यग्द्रष्टि जीव आत्मस्वभावनुं भान करीने, अज्ञानमोहने जीतीने राग-द्वेषना स्वामी थता नथी; ते हजारो राणीओना संयोग वच्चे होवा छतां ‘जिन’ छे. चोथा अने पांचमा गुणस्थाने वर्तता जीवोनुं आवुं स्वरूप छे. सम्यग्दर्शननुं माहात्म्य केवुं छे ए बताववा माटे अनंत ज्ञानीओए आ स्वरूप कह्युं छे. ते सम्यग्द्रष्टि जीवोने पोताना शुद्धपर्यायना प्रमाणमां संवर-निर्जरा थाय छे.

६. सम्यग्दर्शनना माहात्म्यने नहि समजनारा मिथ्याद्रष्टि जीवोनी बाह्य संयोगो अने बाह्य त्याग उपर द्रष्टि होय छे, तेथी तेओ उपरना कथननो आशय समजी शकता नथी, अने सम्यग्द्रष्टिना अंतर परिणमनने तेओ जाणी शकता नथी. माटे धर्म करवा मागता जीवोए संयोगद्रष्टि छोडीने वस्तुस्वरूप समजवानी अने यथार्थ तत्त्वज्ञान प्रगट करवानी आवश्यकता छे. सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान अने ते पूर्वकना सम्यक्चारित्र विना संवर-निर्जरा प्रगट करवानो बीजो कोई उपाय नथी. आ नवमा अध्यायना १९ मा सूत्रनी टीका उपरथी मालुम पडशे के मोक्ष अने संसार ए बे सिवाय वचलो कोई


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६०२ ] [ मोक्षशास्त्र साधवायोग्य पदार्थ नथी. आ जगतमां बे ज मार्ग छे-मोक्षमार्ग अने संसारमार्ग.

७. सम्यक्त्व ते मोक्षमार्गनुं मूळ छे अने मिथ्यात्व ते संसारमार्गनुं मूळ छे. जेओ संसारमार्गथी विमुख थाय ते जीवो ज मोक्षमार्ग (अर्थात् धर्म) पामी शके छे. सम्यग्दर्शन वगर जीवने संवर-निर्जरा थाय नहीं; तेथी बीजा सूत्रमां संवरना कारणो जणावतां तेमां प्रथम गुप्ति जणाव्या पछी बीजां कारणो कह्यां छे.

८. ए खास ध्यानमां राखवायोग्य छे के आ शास्त्रमां आचार्य महाराजे महाव्रतो के देशव्रतोने संवरना कारणो तरीके गणाव्यां नथी; केम के सातमा अध्यायना पहेला सूत्रमां जणाव्या प्रमाणे ते शुभास्रव छे. महाव्रत ते संवरनुं कारण नथी एम १८ मा सूत्रनी टीकामां जणाव्युं छे.

९. गुप्ति, समिति, अनुप्रेक्षा, दश प्रकारना धर्म, परिषहजय अने चारित्र ए सर्वे सम्यग्दर्शन वगर होय नहि-एम समजाववा माटे चोथा सूत्रमां ‘सम्यक्’ शब्द वापरवामां आव्यो छे.

१०. धर्मना दस प्रकार छठ्ठा सूत्रमां बताव्या छे. तेमां ‘उतम’ विशेषण वापर्युं

छे; ते एम सूचवे छे के ते धर्मना प्रकारो सम्यग्दर्शनपूर्वक ज होई शके. त्यार पछी अनुप्रेक्षानुं स्वरूप सातमा सूत्रमां अने परिषहजयनुं स्वरूप ८ थी १७ सुधीना सूत्रोमां कह्युं छे. नोकर्म अने बीजी बाह्य वस्तुओनी जे अवस्थाने लोको प्रतिकूळ गणे छे तेने अहीं परिषह कहेवामां आव्या छे. आठमा सूत्रमां ‘परिसोढव्याः’ शब्द वापरीने ते परिषहोने सहन करवानो उपदेश आप्यो छे. निश्चयथी परिषह शुं छे अने उपचारथी परिषह शुं कहेवाय-ए नहि जाणनारा जीवो सूत्र १०-११ नो आश्रय लई (-कुतर्क वडे) एम माने छे के-‘केवळीभगवानने क्षुधा अने तृषाना व्याधिरूप निश्चयपरिषह होय छे, अने छद्मस्थ रागी जीवोनी माफक केवळीभगवान पण क्षुधा अने तृषानो व्याधी टाळवा अशन-पान ग्रहण करे छे. अने रागी जीवोनी माफक भगवान पण अतृप्त रहे छे.’ परंतु तेमनी ए मान्यता खोटी छे. सातमा गुणस्थानथी ज आहारसंज्ञा होती नथी (गोम्मटसार जीवकांड गाथा-१३९ मोटी टीका. पा. ३प१-३प२). एम छतां जेओ भगवानने अशन-पान माने छे तेओ भगवानने आहारसंज्ञाथी पण पर थयेला मानता नथी (जुओ, सूत्र १०-११ नी टका)

११. भगवान ज्यारे मुनिपदे हता त्यारे तो करपात्री होवाथी पोते ज आहार माटे नीकळता अने दातार श्रावक जो योग्य भक्ति-पूर्वक ते वखते विनंति करे तो ऊभा रही करपात्रमां तेओ आहार लेता. परंतु वीतरागी थया पछी पण असह्य वेदनाना कारणे भगवान आहार ले छे एम जेओ माने छे तेओने ‘भगवानने कोई


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अ. ९ उपसंहार] [ ६०३ गणधर के मुनि आहार लावी दे छे, तेओ पोते जता नथी’ एम मानवुं पडे छे. हवे छद्मस्थदशामां तो भगवान आहार माटे कोई पासे मागणी करे नहि अने वीतराग थया पछी आहार लाववा माटे शिष्यो पासे मागणी करे-ए तो घणी ताजूबी भरेली वात छे. वळी भगवानने अशन-पानना सीधा दातार तो ते आहार लावनार मुनि थया. भगवान केटलो आहार लेशे, शुं शुं लेशे, पोते जे कांई लई जशे ते बधुं भगवान लेशे, तेमांथी कांई वधारशे के नहि?- ए वगेरे बाबत भगवान पोते प्रथमथी नक्की करीने मुनिने कहे, के आहार लावनार मुनि पोते नक्की करे? ते पण विचारवा लायक प्रश्नो छे. वळी नग्न मुनि पासे पात्र तो होय नहि तेथी ते तो आहार लाववा माटे निरुपयोगी छेः तेथी, भगवान पोते मुनिदशामां नग्न हता छतां तेओ वीतराग थया पछी तेमना गणधरादिने पात्र राखनारां एटले के परिग्रहधारी कल्पवा पडे अने भगवान ते पात्रधारी मुनिने आहार लाववानी आज्ञा करी एम मानवुं पडे. पण ए बधुं असंगत छे.

१२. वळी जो भगवान जाते अशन-पान करता होय तो भगवाननी ध्यानमुद्रा टळी जाय केम के अध्यानमुद्रा सिवाय पात्रोमां रहेलो आहार जोवानुं, तेना कटका करवानुं, कोळिया लेवानुं, दांतथी चाववानुं, गळे उतारवानुं-ए वगेरे क्रियाओ थई शके नहि. हवे जो भगवानने अध्यानमुद्रा के उपरनी क्रियाओ स्वीकारीए तो ते प्रमाद दशा थाय छे. वळी आठमा सूत्रमां परिषहो ‘परिसोढव्याः’ एवो उपदेश आपे छे, अने भगवान पोते ज तेम करी शकता नथी एटले के भगवान अशक्य कार्योनो उपदेश आपे छे एवो तेनो अर्थ थतां भगवानने मिथ्या उपदेशी कहेवा पडे.

१३. ४६ मा सूत्रमां निर्ग्रंथोना भेद जणाव्या छे तेमां ‘बकुश’ नामनो एक प्रकार जणाव्यो छे; तेमने धर्म प्रभावनाना रागथी शरीर उपरनो तथा शास्त्र, कमंडळ, पींछी उपरनो मेल काढवानो राग थई आवे छे. ते उपरथी केटलाक एम कहेवा मागे छे के ते ‘बकुश’ मुनिने वस्त्र होवामां वांधो नथी. परंतु तेमनुं ए कथन न्यायविरुद्ध छे, एम छठ्ठा अध्यायना तेरमा सूत्रनी टीकामां जणाव्युं छे (जुओ, पानुं ४१२). वळी मुनिनुं स्वरूप नहि समजनारा एम पण कहेवा मागे छे के मुनिने शरीरनी रक्षा माटे वस्त्रनी भावना होय तोपण तेओ क्षपकश्रेणी मांडीने केवळज्ञान प्रगट करी शके छे. ए वात पण खोटी छे. आ अध्यायना ४७ मा सूत्रनी टीकामां संयमलब्धिस्थानोनुं स्वरूप आप्युं छे ते उपरथी मालुम पडशे के बकुशमुनि त्रीजीवारना संयमलब्धिस्थाने अटकी जाय छे अने कषायरहित दशा प्राप्त करी शकता नथी; तो पछी ऋतु वगेरेनी विषमताथी शरीरनी रक्षाने माटे राखवामां आवती वस्त्र वगेरे


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६०४ ] [ मोक्षशास्त्र वस्तुओ प्रत्ये रागवाळा सम्यग्द्रष्टि तो मुनिपद प्राप्त करी शके नहि अने सर्वथा अकषायदशानी प्राप्ति तो तेओ न ज करी शके ए देखीतुं ज छे.

१४. गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परिषहजय अने चारित्रना स्वरूप संबंधमां थती भूलो अने तेनुं निराकरण ते ते विषयोने लगता सूत्रोनी टीकामां आप्युं छे, त्यांथी समजी लेवुं. केटलाक जीवो आहार न लेवो तेने तप माने छे; पण ते मान्यता यथार्थ नथी. तपनी ते व्याख्यामां थती भूलो टाळवा माटे सम्यक्तपनुं स्वरूप १९ मा सूत्रनी भूमिकामां तथा टीका-पारा प मां आप्युं छे, ते समजवुं.

१प. मोक्षमार्ग प्रगट करवा माटे मुमुक्षु जीवोए उपरनी बाबतोनो यथार्थ विचार करीने संवर-निर्जरातत्त्वोनुं स्वरूप बराबर समजवुं जोईए. जे जीवो अन्य पांच तत्त्वो सहित आ संवर तथा निर्जरातत्त्वनी श्रद्धा करे छे, जाणे छे ते पोताना चैतन्यस्वरूप स्वभावभाव तरफ वळीने सम्यग्दर्शन प्रगट करे छे तथा संसारचक्रने तोडी नाखीने अल्पकाळमां वीतरागचारित्रने प्रगट करी निर्वाण पामे छे.

१६. आ अध्यायमां सम्यक्चारित्रनुं स्वरूप कहेतां तेना अनुसंधानमां धर्मध्यान अने शुक्लध्याननुं स्वरूप पण जणाव्युं छे. (जुओ, सूत्र ३६-३९) चारित्रना विभागमां यथाख्यातचारित्र पण समाई जाय छे; चौदमा गुणस्थानना छेल्ला समये परम यथाख्यातचारित्र प्रगट थतां चारित्रनी पूर्णता थाय छे, अने ते ज समये जीव निर्वाण दशा पामे छे-मोक्ष पामे छे. ४९ मा सूत्रमां संयमलब्धिस्थाननुं कथन करतां तेमां निर्वाणपद प्राप्त थवा सुधीनी दशानुं वर्णन जणाव्युं छे. ए रीते आ अध्यायमां सर्वे प्रकारनी ‘जिन’ दशानुं स्वरूप घणां टूंका सूत्रोद्वारा आचार्यभगवाने जणाव्युं छे.

ए प्रमाणे श्री उमास्वामी विरचित मोक्षशास्त्रनी
गुजराती टीकामां नवमो अध्याय पूरो थयो.

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मोक्षशास्त्र–गुजराती टीका
अध्याय दसमो

भूमिका

१. आ शास्त्र शरू करतां आचार्यदेवे पहेला अध्यायना पहेला ज सूत्रमां कह्युं हतुं के सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रनी एकता ते मोक्षमार्ग-कल्याणमार्ग छे. त्यार पछी सात तत्त्वोनी यथार्थ श्रद्धा ते सम्यग्दर्शन छे एम जणावीने ते सात तत्त्वोनां नाम जणाव्या अने दस अध्यायमां ते सात तत्त्वोनुं वर्णन कर्युं. तेमां आ छेल्ला अध्यायमां मोक्षतत्त्वनुं वर्णन करीने आ शास्त्र पूरुं कर्युं छे.

२. मोक्ष संवर-निर्जरापूर्वक थाय छे; तेथी नवमा अध्यायमां संवर-निर्जरानुं स्वरूप कह्युं; अने अपूर्वकरण प्रगट करनारा सम्यकत्वसन्मुख जीवोथी शरू करीने चौदमा गुणस्थाने बिराजता केवळी भगवान सुधीना तमाम जीवोने संवर-निर्जरा थाय छे एम तेमां जणाव्युं. ते निर्जरानी पूर्णता थतां जीव परम समाधानरूप निर्वाणपदमां बिराजे छे; ते दशाने मोक्ष कहेवाय छे. मोक्षदशा प्रगट करनार जीवोए सर्व कार्य सिद्ध कर्युं होवाथी ‘सिद्ध भगवान’ कहेवाय छे.

३. केवळीभगवानने (तेरमा तथा चौदमा गुणस्थाने) संवर निर्जरा थता होवाथी तेमनो उल्लेख नवमा अध्यायमां करवामां आव्यो छे; पण त्यां केवळज्ञाननुं स्वरूप जणाव्युं नथी. केवळज्ञान ते भावमोक्ष छे अने ते भावमोक्षना बळे द्रव्यमोक्ष (सिद्धदशा) थाय छे. (जुओ, प्रवचनसार अ. १. गा. ८४. जयसेनाचार्यनी टीका) तेथी आ अध्यायमां प्रथम भावमोक्षरूप केवळज्ञाननुं स्वरूप जणावीने पछी द्रव्यमोक्षनुं स्वरूप जणाव्युं छे.

केवळज्ञाननी उत्पत्तिनुं कारण
मोहक्षयाज्ज्ञानदर्शनावरणान्तरायक्षयाच्च केवलम्।। १।।
अर्थः– [मोहक्षयात्] मोहनो क्षय थवाथी (अंतर्मुहूर्तपर्यंत क्षीणकषाय नामनुं

गुणस्थान पाम्या बाद) [ज्ञानदर्शनावरण अंतराय क्षयात् च] ज्ञानावरण, दर्शनावरण


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६०६ ] [ मोक्षशास्त्र अने-अंतराय-ए त्रणे कर्मोनो एकी साथे क्षय थवाथी [केवलम्] केवळज्ञान- उत्पन्न थाय छे.

टीका

१. जीव द्रव्य एक पूर्ण अखंड होवाथी तेनुं ज्ञानसामर्थ्य संपूर्ण छे. संपूर्ण वीतराग थतां संपूर्ण सर्वज्ञता प्रगटे छे. ज्यारे जीव संपूर्ण वीतराग थाय त्यारे कर्म साथेनो निमित्तनैमित्तिकसंबंध एवो होय छे के मोहकर्म जीवना प्रदेशे संयोगरूपे रहे ज नहि, एने मोहकर्मनो क्षय थयो कहेवाय छे. जीवनी संपूर्ण वीतरागता प्रगट थया पछी अल्पकाळमां तुरत ज संपूर्ण ज्ञान प्रगटे छे तेने केवळज्ञान कहेवाय छे, कारण के ते ज्ञान शुद्ध, निर्भेळ, अखंड, राग वगरनुं छे. ते दशामां जीवने ‘केवळी भगवान’ कहेवाय छे. भगवान समस्त पदार्थोने जाणे छे तेथी कांई तेओ केवळी कहेवाता नथी, परंतु ‘केवळ’ अर्थात् शुद्ध आत्माने जाणता अनुभवता होवाथी तेओ ‘केवळी’ कहेवाय छे. भगवान युगपद् परिणमता समस्त चैतन्यविशेषोवाळा केवळज्ञान वडे अनादिनिधन निष्कारण असाधारण स्वसंवेधमान चैतन्यसामान्य जेनो महिमा छे तथा चेतक स्वभाव वडे एकपणुं होवाथी जे केवळ (-एकलो, निर्भेळ, शुद्ध अखंड) छे एवा आत्माने आत्माथी आत्मामां अनुभववाने लीधे केवळी छे. (जुओ, श्री प्रवचनसार गाथा ३३)

२. आत्मसिद्धिशास्त्रमां कह्युं छे के-
केवळ निज स्वभावनुं अखंड वर्ते ज्ञान,
कहीये केवळज्ञान ते, देह छतां निवार्ण. १३३.

भगवान परने जाणे छे-ए व्यवहार कथन छे. व्यवहारे केवळज्ञान लोकालोकने युगपत् जाणे छे एम कहेवाय छे; केम के भगवान संपूर्ण ज्ञानपणे परिणमता होवाथी कोई पण द्रव्य, गुण के पर्याय तेमना ज्ञान बहार नथी. निश्चयथी तो केवळज्ञान पोताना शुद्धस्वभावने ज अखंडपणे जाणे छे.

३. केवळज्ञान स्वरूपथी उत्पन्न थयुं छे, स्वतंत्र छे तथा अक्रम छे. ते ज्ञान प्रगट थाय त्यारे ज्ञानावरणकर्मनो कायमने माटे क्षय थाय छे, तेथी ते ज्ञानने क्षायिक ज्ञान कहेवाय छे. केवळज्ञान प्रगट थाय ते ज समये केवळदर्शन अने संपूर्ण वीर्य पण प्रगटे छे अने दर्शनावरण तथा अंतरायकर्मनो सर्वथा क्षय थाय छे.

४. केवळज्ञान थतां भावमोक्ष थयो कहेवाय छे (आ अरिहंतदशा छे) अने आयुष्यनी स्थिति पूरी थतां चार अघातिकर्मनो अभाव थईने द्रव्यमोक्ष थाय छे;