Moksha Shastra-Gujarati (Devanagari transliteration). Sutra: 2-9 (Chapter 10); Upsanhar (Chapter 10); Parishist-1.

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अ. १०. सू. १ ] [ ६०७ ते सिद्धदशा छे. केवळज्ञानपूर्वक ज मोक्ष थाय छे माटे मोक्षनुं वर्णन करतां तेमां पहेलां केवळज्ञाननी उत्पत्तिनुं सूत्र जणाव्युं छे.

प. प्रश्नः– जीवने तेरमा गुणस्थाने अनंत वीर्य प्रगटयुं होवा छतां योग वगेरे गुणनो विकार रहे छे अने संसारीपणुं रहे छे तेनुं कारण अघातिकर्मनो उदय छे-मान्यता खरी छे?

उत्तरः– ए मान्यता खरी नथी. तेरमा गुणस्थाने संसारीपणुं रहेवानुं खरुं कारण ए छे के त्यां जीवना योग गुणनो विकार छे तेमज जीवना प्रदेशोनी वर्तमान लायकात ते क्षेत्रे (- शरीर साथे) रहेवानी छे, तथा जीवना अव्याबाध, निर्नामी, निर्गोत्री अने अनायुष्यी धर्मो हजी पूर्ण प्रगट थता नथी. आ प्रमाणे जीव पोताना ज कारणे संसारमां रहे छे. जड, अघातिकर्मना उदयना कारण के कोई परना कारणे जीव संसारमां खरेखर रहे छे ए मान्यता तद्दन खोटी छे. ‘तेरमा गुणस्थाने चार अघाति कर्मोनो उदय छे तेथी जीव सिद्धपणुं पामतो नथी’ ए तो मात्र व्यवहारकथन छे; ज्यारे जीवने पोताना विकारीभावने कारणे संसार होय त्यारे तेरमा अने चौदमा गुणस्थाने-जडकर्मनी साथेनो निमित्त-नैमित्तिकसंबंध केवो होय छे ते बताववा माटे कर्मशास्त्रोमां उपर जणाव्या मुजबनुं व्यवहारकथन कर्युं होय छे. खरेखर कर्मना उदय-सत्ता वगेरेने कारणे कोई जीव संसारमां रहे छे एम मानवुं ते, जीव अने जडकर्मोने एकमेक मानवारूप मिथ्या मान्यता छे. शास्त्रोना अर्थ करवामां अज्ञानीओनी मूळभूत भूल ए छे के व्यवहारनयना कथनोने ते निश्चयनयना कथनो मानीने व्यवहारने ज परमार्थ मानी ले छे. ते भूल टाळवा माटे आ शास्त्रना पहेला अध्यायना छठ्ठा सूत्रमां प्रमाण तथा नयनुं यथार्थ ज्ञान करवानी आचार्यभगवाने आज्ञा करी छे. (प्रमाणनयैरधिगमः). जेओ व्यवहारना कथनोने ज निश्चयना कथनो मानीने शास्त्रोना तेवा अर्थो करे छे तेमनुं ते अज्ञान टाळवा माटे श्री कुंदकुंदाचार्यदेवे समयसारजीमां × ३२४ थी ३२६ गाथा कही छे..... माटे जिज्ञासुओए शास्त्रोनां कथनो कया नयथी छे अने _________________________________________________________________

× ते गाथाओ आ प्रमाणे छे-
व्यवहारमूढ अतत्त्वविद् परद्रव्यने ‘मारुं’ कहे,
‘परमाणुमात्र न मारुं ज्ञानी जाणता निश्चय वडे. ३२४
ज्यम पुरुष कोई कहे ‘अमारुं’ गाम, पुर ने देश छे,’
पण ते नथी तेनां, अरे! जीव मोहथी ‘मारां’ कहे; ३२प.
एवी ज रीते जे ज्ञानी पण ‘मुज’ जाणतो परद्रव्यने,
निजरूप करे परद्रव्यने, ते जरूर मिथ्यात्वी बने. ३२६.

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६०८ ] [ मोक्षशास्त्र तेनो परमार्थ (-भूतार्थ, साचो) अर्थ शुं थाय छे ते बराबर समजीने शास्त्रकारना कथनना मर्मने जाणी लेवो जोईए, परंतु भाषाना शब्दोने वळगवुं न जोईए.

६. केवळज्ञान उत्पन्न थतां ज मोक्ष केम थतो नथी?

(१) प्रश्नः– केवळज्ञाननी उत्पत्ति वखते मोक्षना कारणभूत रत्नत्रयनी पूर्णता जई जाय छे तो पछी ते ज समये मोक्ष थवो जोईए; आ रीते, जे संयोगी तथा अयोगी केवळीनां बे गुणस्थानो कह्यां छे ते रहेवानो कोई समय ज रहेतो नथी?

उत्तरः– केवळज्ञाननी उत्पत्ति वखते जो के यथाख्यातचारित्र थई गयुं छे तोपण हजी परमयथाख्यातचारित्र थयुं नथी. कषाय अने योग अनादिथी अनुसंगी होवा छतां प्रथम कषायनो नाश थाय छे; तेथी केवळी भगवानने वीतरागतारूप यथाख्यातचारित्र प्रगटयुं होवा छतां पण योगना व्यापारनो नाश थयो नथी. योगनो व्यापार ते चारित्रने दूषण उत्पन्न करनारो छे. ते योगना विकारनी क्रमेक्रमे भावनिर्जरा थाय छे ते योगना व्यापारनी संपूर्ण भावनिर्जरा थई जतां सुधी तेरमुं गुणस्थान रहे छे. योगनो व्यापार बंध पडया पछी पण केटलाक वखत सुधी अव्याबाध, निर्नाम (नामरहितपणुं), अनायुष्य (आयुष्यरहितपणुं) अने निर्गोत्र- ए धर्मो प्रगट थतां नथी; तेथी चारित्रमां दूषण रहे छे. चौदमा गुणस्थानना छेल्ला समयनो व्यय थतां ते दोषनो अभाव थई जाय छे अने ते ज समये परम यथाख्यातचारित्र प्रगट थतां अयोगीजिन मोक्षरूप अवस्था धारण करे छे; ए रीते, मोक्ष, अवस्था प्रगटया पहेलां सयोगीकेवळी अने अयोगीकेवळी एवा बे गुणस्थानो दरेक केवळीभगवानने होय छे.

(२) प्रश्नः– ज्यारे केवळज्ञान प्रगट थाय ते ज वखते मोक्ष अवस्था प्रगट थई जाय एम मानीए तो शुं दोष आवे?

उत्तरः– तेम थतां नीचेना दोषो आवे- १- जीवमां योगगुणनो विकार होवा छतां, तेमज बीजु (अव्याबाध आदि) गुणोमां विकार होवा छतां, अने परमयथाख्यातचारित्र प्रगट थया सिवाय जीवनी सिद्धदशा प्रगट थई जाय, के जे अशक्य छे.

२-जो केवळज्ञान प्रगट थाय ते ज समये सिद्धदशा प्रगट थई जाय तो धर्मतीर्थ ज रहे नहि; जो अरिहंतदशा ज न रहे तो कोई सर्वज्ञ उपदेशक - आप्तपुरुष थाय ज नहि. तेनुं परिणाम ए आवे के भव्य जीवो पोताना पुरुषार्थथी धर्म पामवा लायक पर्याय प्रगट करवा तैयार होय छतां तेने निमित्तरूप सत्यधर्मना उपदेशनो (-दिव्यध्वनिनो) संयोग न थाय एटले के उपादान निमित्तनो मेळ तूटी जाय. आ प्रमाणे बनी शके


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अ. १०. सू. २ ] [ ६०९ ज नहि. केमके एवो नियम छे के जे समये जे जीव पोताना उपादाननी जागृतिथी धर्म पामवानी योग्यता मेळवे ते समये ते जीवने एटला पुण्यनो तो संयोग होय ज के जेथी तेने उपदेशादिक योग्य निमित्तो (-सामग्री) स्वयं आवी मळे ज. उपादाननी पर्यायनो अने निमित्तनी पर्यायनो एवो ज सहज स्वाभाविक निमित्तनैमित्तिकसंबंध छे. जो आम न थतुं होय तो जगतमां कोई जीव धर्म पामी शके ज नहि. अर्थात् बधा जीवो द्रव्यद्रष्टिए पूर्ण होवा छतां पोतानो शुद्धपर्याय प्रगट करी शके ज नहि, तेम थतां जीवोनुं दुःख कदी टळे नहि अने सुखस्वरूपे तेओ कदी थई शके नहि.

३. जगतमां जो कोई जीव धर्म न पामी शके तो तीर्थंकर, सिद्ध, अरहिंत, आचार्य, उपाध्याय, साधु, श्रावक, सम्यग्द्रष्टि अने सम्यग्द्रष्टिनी भूमिकामां रहेता उपदेशक ए वगेरे पदो पण जगतमां रहे नहि; जीवनी साधक अने सिद्ध दशा पण रहे नहि, सम्यग्द्रष्टिनी भूमिका ज प्रगट थाय नहि, तेम ज ते भूमिकामां थतो धर्म प्रभावनादिनो राग-पुण्यानुबंधी पुण्य, सम्यग्द्रष्टिने लायक देवगति-देवक्षेत्रो ए वगेरे व्यवस्थानो पण नाश थाय.

(३) आ उपरथी एम समजवुं के जीवना उपादानना दरेक समयना पर्यायनी जे प्रकारनी योग्यता होय ते मुजब ते जीवने ते समये योग्य निमित्तनो संयोग स्वयं मळे छे- एवा निमित्तनैमित्तिकसंबंध तेरमा गुणस्थाननी हैयाति सिद्ध करे छे; एक बीजानां कर्तारूपे कोई छे ज नहि, तेम ज उपादाननी पर्यायमां जे समये लायकात होय ते समये तेने निमित्तनी राह जोवी पडे एम पण नथी; बन्नेनो सहजपणे एवो ज मेळ होय ज छे. ते ज निमित्तनैमित्तिकभाव छे, छतां बन्ने द्रव्यो स्वतंत्र छे. निमित्त परद्रव्य छे तेने जीव मेळवी शके नहि, तेम ज ते निमित्त जीवमां कांई करी शके नहि, केम के कोई द्रव्य परद्रव्यनी पर्यायनुं कर्ताहर्ता नथी. ।। ।।

मोक्षनुं कारण अने लक्षण
बंधहेत्वभावनिर्जराभ्यां कृत्स्नकर्मावप्रमोक्षो मोक्षः।। २।।
अर्थः– [बंधहेतु अभाव] बंधनां कारणो (-मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद,

कषाय अने योग) नो अभाव तथा [निर्जराभ्यां कृत्स्नकर्मविप्रमोक्षो] निर्जरा वडे समस्त कर्मोनो अत्यंत नाश [मोक्षः] ते मोक्ष छे.

टीका
१. कर्म त्रण प्रकारनां छे. - (१) भावकर्म (र) द्रव्यकर्म अने (३) नोकर्म.

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६१० ] [ मोक्षशास्त्र भावकर्म जीवनो विकार छे अने द्रव्यकर्म तथा नोकर्म जड छे. भावकर्मनो अभाव थतां द्रव्यकर्मनो अभाव थाय छे अने द्रव्यकर्मनो अभाव थतां नोकर्म (शरीर) नो अभाव थाय छे. अस्तिथी कहीए तो जीवनी संपूर्ण शुद्धता ते मोक्ष छे अने नास्तिथी कहीए तो जीवनी संपूर्ण विकारथी मुक्तदशा ते मोक्ष छे. आ दशामां जीव कर्म तथा शरीर रहित होय छे अने तेनो आकार छेल्ला शरीरथी सहेज न्यून होय छे.

र. मोक्ष यत्नथी साध्य छे

(३) प्रश्नः– मोक्ष यत्नसाध्य छे के अयत्नसाध्य छे? उत्तरः– मोक्ष यत्न साध्य छे. जीव पोताना यत्नथी (-पुरुषार्थथी) प्रथम मिथ्यात्व टाळीने सम्यग्दर्शन प्रगट करे छे अने पछी विशेष पुरुषार्थथी क्रमेक्रमे विकार टाळीने मुक्त थाय छे. पुरुषार्थ ना विकल्पथी मोक्ष साध्य नथी.

(र) मोक्षनुं प्रथम कारण सम्यग्दर्शन छे अने ते पुरुषार्थथी ज प्रगटे छे. श्री समयसार कलश ३४ मां अमृतचंद्रसूरि कहे छे के-

हे भव्य! तने नकामो कोलाहल करवाथी शुं लाभ छे? ए कोलाहलथी तुं विरक्त था अने एक चैतन्यमात्र वस्तुने पोते निश्चळ थई देखः एवो छ महिना अभ्यास कर अने जो (तपास) के एम करवाथी आत्मानी प्राप्ति नथी थती के थाय छे? अर्थात् एवो प्रयत्न करवाथी आत्मानी प्राप्ति अवश्य थाय छे.

वळी कलश र३ मां पण कहे छे के- हे भाई! तुं कोई पण रीते महा कष्टे अथवा मरीने पण (एटले के घणा प्रयत्न वडे) तत्त्वोनो कौतूहली थई आ शरीरादि मूर्तद्रव्योनो एक मुहूर्त (के घडी) पाडोशी थई आत्मानो अनुभव कर के जेथी पोताना आत्माने विलासरूप, सर्व परद्रव्योथी जुदो देखी आ शरीरादि मूर्तिक पुद्गलद्रव्य साथे एकपणाना मोहने तुं तरत ज छोडशे.

भावार्थः– जो आ आत्मा बे घडी पुद्गलद्रव्यथी भिन्न पोताना शुद्ध स्वरूपनो अनुभव करे (तेमां लीन थाय), परिषह आव्ये पण डगे नहि, तो घातिकर्मनो नाश करी, केवळज्ञान उत्पन्न करी, मोक्षने प्राप्त थाय. आत्मानुभवनुं एवुं माहात्म्य छे.

आमां आत्मानुभव माटेनो पुरुषार्थ करवानुं जणाव्युं छे. अने मोक्ष कार्य छे. कारण विना कार्य सिद्ध थतुं नथी. पुरुषार्थथी मोक्ष थाय छे


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अ. १० सू. २ ] [ ६११ एम सूत्रकारे पोते, आ अध्यायना छठ्ठा सूत्रमां ‘पूर्व प्रयोगात्’ शब्द वापरीने जणाव्युं छे.

(४) समाधिशतकमां श्री पूज्यापादआचार्य जणावे छे के-
अयत्नसाध्यं निर्वाणं चितत्त्व भूतजं यदि।
अन्यथा योगतस्तस्मान्न दुख योगिना क्वचित्।। १००।।

अर्थः– जो पृथ्वी आदि भूतथी जीवतत्त्वनी उत्पत्ति होय तो निर्वाण अयत्नसाध्य छे, पण जो तेम न होय तो योगथी एटले के स्वरूपसंवेदननो अभ्यास करवाथी निर्वाणनी प्राप्ति थाय; ते कारणे निर्वाण माटे पुरुषार्थ करनारा योगीओने गमे तेवा उपसर्ग उपस्थित थवा छतां दुःख थतुं नथी.

(प) श्री अष्टप्राभृतमां दर्शनप्राभृत गा. ६, सूत्रप्राभृत गा. १६ अने संवरप्राभृत गा. ८७ थी ९० मां स्पष्ट रीते जणाव्युं छे के धर्म-संवर-निर्जरा-मोक्ष ए आत्माना वीर्य-बळ-प्रयत्न वडे ज थाय छे; ते शास्त्रनी वचनिका पा. १प-१६ तथा २४२ मां पण तेम ज कह्युं छे.

(६) प्रश्नः– आमां अनेकांतस्वरूप क्यां आव्युं? उत्तरः– आत्माना सत्य पुरुषार्थथी ज धर्म-मोक्ष थाय छे, अने बीजा कोई प्रकारे थतो नथी, ते ज सम्यक् अनेकांत थयो.

(७) प्रश्नः– आप्तमीमांसानी ८८ मी गाथामां कह्युं छे के पुरुषार्थ अने दैव बन्नेनी जरूरीयात छे तेनो शुं खुलासो छे?

उत्तरः– ज्यारे जीव मोक्षनो पुरुषार्थ करे छे त्यारे परम पुण्यनो उदय होय छे एटलुं बताववा माटे कथन छे. पुण्योदयथी धर्म के मोक्ष नथी, परंतु निमित्तनैमित्तिकसंबंध एवो छे के मोक्षनो पुरुषार्थ करनारा जीवने ते वखते उत्तमसंहनन वगेरे बाह्यसंयोग होय छे. खरेखर पुरुषार्थ अने पुण्य ए बन्नेथी मोक्ष थाय छे- एम प्रतिपादन करवा माटे ते कथन नथी. पण ते वखते पुण्यनो उदय होतो नथी एम कहेनारनी भूल छे-एम बताववा माटे ते गाथानुं कथन छे.

आ उपरथी सिद्ध थाय छे के मोक्षनी सिद्धि पुरुषार्थ वडे ज थाय छे; ते सिवाय थई शकती नथी. ।। ।।

मोक्षमां सर्व कर्मोनो अत्यंत अभाव थाय छे ते उपरना सूत्रमां जणाव्युं; कर्मो सिवाय बीजा शेनो अभाव थाय छे ते हवे जणावे छे-


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६१२ ] [ मोक्षशास्त्र

औपशमिकादि भव्यत्वानां च।। ३।।
अर्थः– [च] वळी [औपशमिकादि भव्यत्वानां] औपशमिकादि भावोनो तथा

पारिणामिक भावोमांथी भव्यत्वभावनो मुक्त जीवने अभाव थाय छे.

टीका

‘औपशमिकादि’ कहेतां औपशमिक, औदयिक अने क्षायोपशमिक ए त्रण भावो समजवा, क्षायिकभाव तेमां गणवो नहि.

जे जीवोने सम्यग्दर्शनादि प्राप्त करवानी योग्यता होय ते भव्यजीव कहेवाय छे. ज्यारे जीवने सम्यग्दर्शनादि गुणो पूर्णरूपे प्रगट थई जाय छे त्यारे ते आत्मामां ‘भव्यत्व’ नो व्यवहार मटी जाय छे. आ संबंधमां विशेष ए लक्ष मां राखवा योग्य छे के ‘भव्यत्व’ जो के पारिणामिकभाव छे तोपण, जेम पर्यायार्थिकनये जीवना सम्यग्दर्शनादि गुणोने निमित्तपणे घातक देशघाति तथा सर्वघाति नामना मोहादिक कर्मसामान्य छे तेम, जीवना भव्यत्वगुणने पण कर्मसामान्य निमित्तपणे प्रच्छादक कही शकाय छे. (जुओ, हिंदी समयसार, श्री जयसेनाचार्यनी संस्कृत टीका पा.-४२३) सिद्धपणुं प्रगट थतां भव्यत्वगुणनी विकारी पर्यायनो नाश थाय छे ए अपेक्षा लक्षमां राखीने भव्यत्व भावनो नाश थाय छे-एम अहीं कह्युं छे. अध्याय र, सूत्र-७, पानुं-२२४ मां भव्यत्वभावनी पर्यायनी अशुद्धतानो नाश थाय छे एम कह्युं छे-माटे ते टीका पण अहीं वांचवी. ।। ।।

अन्यत्र केवलसम्यक्त्वज्ञानदर्शनसिद्धत्वेभ्यः।। ४।।

अर्थः– [केवलसम्यक्त्व ज्ञान दर्शन] केवळसम्यक्त्व, केवळज्ञान, केवळदर्शन

अने [सिद्धत्वेभ्यः अन्यत्र] सिद्धत्व-ए भावो सिवायना बीजा भावोना अभावथी मोक्ष थाय छे.

टीका

मुक्त अवस्थामां केवळज्ञानादि गुणो साथे जे गुणोनो सहभावीसंबंध छे एवां अनंत वीर्य, अनंत सुख, अनंत दान, अनंतलाभ, अनंतभोग, अनंतउपभोग वगेरे गुणो पण होय छे. ।। ।।

मुक्त जीवोनुं स्थान
तदनंतरमूर्ध्वं गच्छत्यालोकांतात्।। ५।।
अर्थः– [तदनंतरम्] तुरत ज [ऊर्ध्व गच्छति आलोक अंतात्] ऊर्ध्वगमन

करीने आ लोकना छेडा सुधी जाय छे.


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अ. १० सू. ६-७ ] [ ६१३

टीका

चोथा सूत्रमां कहेल सिद्धत्वगुण ज्यारे प्रगटे छे त्यारे त्रीजा सूत्रमां कहेला भावो होता नथी, तेम ज कर्मोनो पण अभाव थाय छे; ते ज समये जीव ऊर्ध्वगमन करीने सीधो लोकने छेडे जाय छे अने त्यां कायम स्थित रहे छे. ऊर्ध्वगमन थवानुं कारण छठ्ठा- सातमा सूत्रमां जणाव्युं छे अने लोकना छेडाथी आगळ नहि जवानुं कारण आठमा सूत्रमां जणाव्युं छे. ।। ।।

मुक्तजीवना ऊर्ध्वगमननुं कारण
पूर्वप्रयोगादसंगत्वाद्वन्धच्छेदात्तथागतिपरिणामाच्च।। ६।।
अर्थः– [पूर्वप्रयोगात्] १. पूर्वप्रयोगथी, [असगत्वात्] र. संगरहित थवाथी,

[बंधछेदात्] ३. बंधनो नाश थवाथी [तथागतिपरिणामात् च] अने ४. तथागतिपरिणाम अर्थात् ऊर्ध्वगमनस्वभाव होवाथी -मुक्तजीवने ऊर्ध्वगमन थाय छे.

नोंधः– पूर्वप्रयोग एटले पूर्वे करेलो पुरुषार्थ, प्रयत्न, उद्यम; आ संबंधमां आ अध्यायना बीजा सूत्रनी टीका तथा सातमा सूत्रना पहेला द्रष्टांत उपरनी टीका वांचीने समजवी. ।। ।।

उपरना सूत्रमां कहेलां चारे कारणोना द्रष्टांत
आविद्धकुलालचक्रवद्वयपगतलेपालाबुवदेरण्डबीज–
वरदग्निशिखावच्च।। ७।।
अर्थः– मुक्तजीव [आविद्धकुलालचक्रवत्] १. कुंभारद्वारा धुमावेला चाकनी माफक

पूर्वप्रयोगथी, [व्यपगतलेपआलाबुवत्] र. लेप दूर थयेला तूंबडानी माफक असंगपणाथी, [एरंडबीजवत्] ३. एरंडना बीजनी माफक बंधनरहित थवाथी [च] अने [अग्निशिखावत्] ४. अग्निशिखानी माफक ऊर्ध्वगमन स्वभावथी ऊर्ध्वगमन करे छे.

टीका

१. पूर्वप्रयोगनुं द्रष्टांत– जेम कुंभार चाकने फेरवीने हाथ लई ले छतां ते चाक पूर्वना वेगथी फरे छे, तेम जीव पण संसार अवस्थामां मोक्षप्राप्ति माटे वारंवार अभ्यास (उद्यम, प्रयत्न, पुरुषार्थ) करतो हतो ते अभ्यास छूटी जाय छे तोपण पहेलाना अभ्यासना संस्कारथी मुक्तजीवने ऊर्ध्वगमन थाय छे.

२. असंगनुं दष्टांत –तूंबडाने ज्यांसुधी लेपनो संयोग रहे छे त्यांसुधी ते

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६१४ ] [ मोक्षशास्त्र पोताना उपादाननी लायकातना कारणे पाणीमां डुबेलुं रहे छे, पण ज्यारे लेप (- माटी) गळीने दूर थाय छे त्यारे ते पाणीनी उपर स्वयं पोतानी लायकातथी आवी जाय छे; तेम जीव ज्यांसुधी संगवाळो होय त्यांसुधी पोतानी योग्यताथी संसारसमुद्रमां डुबेलो रहे छे अने असंगी थतां ऊर्ध्वगमन करीने लोकना छेडे चाल्यो जाय छे.

३. बंध छेदनुं द्रष्टांत – जेम एरंडाना झाडनुं सूकुं बी ज्यारे छटके छे त्यारे उपरनुं पड (-बंधन) छूटी जवाथी तेनुं मिंज उपर जाय छे, तेम ज्यारे जीवनी पकवदशा (मुक्तदशा) थतां कर्मबंधनो छेद थाय छे त्यारे ते मुक्तजीव ऊर्ध्वगमन करे छे.

४. ऊर्ध्वगमनस्वभावनुं द्रष्टांत– जेम अग्निनी शिखानो स्वभाव ऊर्ध्वगमन करवानो छे अर्थात् हवाना अभावमां जेम अग्नि (-दीपकादि) नी शिखा ऊर्ध्व जाय छे तेम जीवनो स्वभाव ऊर्ध्वगमन करवानो छे; तेथी मुक्त दशां थतां जीव पण ऊर्ध्वगमन करे छे. ।। ।।

लोकाग्रथी आगळ नहि जवानुं कारण
धर्मास्तिकायाभावात्।। ८।।
अर्थः– [धर्मास्तिकाय अभावात्] आगळ (-अलोकमां) धर्मास्तिकायनो

अभाव होवाथी मुक्त जीव लोकना अंत सुधी ज जाय छे.

टीका

१. आ सूत्रनुं कथन निमित्तनी मुख्यताथी छे. गति करतां द्रव्योने निमित्तरूप धर्मास्तिकाय द्रव्य छे; ते द्रव्य लोकाकाश जेवडुं छे. ते एम सूचवे छे के जीव अने पुद्गलनी गति ज स्वभावथी एटली छे के ते लोकना छेडा सुधी ज गमन करे. जो एम न होय तो एकला आकाशमां ‘लोकाकाश’ अने अलोकाकाश’ एवा बे भेद पडे ज नहि. छ द्रव्यनो बनेलो लोक छे अने अलोकाकाशमां एकलुं आकाश ज छे. जीव अने पुद्गल ए बे ज द्रव्योमां गमनशक्ति छे; तेमनी गतिशक्ति ज सहजपणे एवी छे के ते लोकमां ज रहे. गतिनुं निमित्त जे धर्मास्तिकाय, तेनो अलोकाकाशमां अभाव छे ते एम सूचवे छे के गति करनार द्रव्योनी उपादानशक्ति ज लोकना छेडा सुधी गमन करवानी छे. एटले खरेखर तो जीवनी पोतानी योग्यता ज अलोकमां जवानी नथी, तेथी ज ते अलोकमां जतो नथी, धर्मास्तिकायनो अभाव तो तेमां निमित्तमात्र छे.


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अ. १० सू. ८-९ ] [ ६१प

२. बृहद्द्रव्यसंग्रहमां सिद्धना अगुरुलघुगुणनुं वर्णन करतां जणावे छे के-जो सिद्धस्वरूप सर्वथा गुरु (-भारे) होय तो लोढाना गोळानी जेम तेनुं सदा अधःपतन थया करे अर्थात् ते नीचे ज पडया करे, अने जो ते सर्वथा लघु (हलकुं) होय तो जेम पवनना झपाटाथी आकोलीया वृक्षनुं रू ऊडया करे छे तेम ते सिद्धस्वरूपनुं पण निरंतर भ्रमण ज थया करे; परंतु सिद्धस्वरूप एवुं नथी, तेथी तेमां अगुरुलघुगुण कहेवामां आव्यो छे. (बहद्द्रव्यसंग्रह पा. ३८). आ अगुरुलधु गुणना कारणे सिद्ध जीव सदा लोकाग्रे स्थिर रहे छे, त्यांथी आगळ जता नथी अने नीचे आवता नथी. ।। ।।

मुक्तजीवोमां व्यवहारनये भेद

क्षेत्रकालगतिलिंगतीर्थचारित्रप्रत्येकबुद्धबोधित ज्ञानावगाहनान्तरसंख्याल्पबहुत्वतः साध्या।। ९।।

अर्थः– [क्षेत्र काल गति लिंग तीर्थ चारित्र] क्षेत्र, काळ, गति, लिंग, तीर्थ,

चारित्र, [प्रत्येकबुद्धबोधित ज्ञान अवगाहना अन्तर संख्या अल्पबहुत्वतः] प्रत्येकबुद्धबोधित, ज्ञान, अवगाहना, अंतर, संख्या, अने अल्पबहुत्व-आ बार अनुयोगोथी [साध्याः] मुक्त जीवो (-सिद्धो) मां पण भेद साधी शकाय छे.

टीका
१. क्षेत्र–ऋजुसूत्रनय अपेक्षाए (-वर्तमान अपेक्षाए) आत्मप्रदेशोमां सिद्ध

थाय छे, आकाशप्रदेशोमां सिद्ध थाय छे, सिद्धक्षेत्रमां सिद्ध थाय छे. भूतनैगमनयनी अपेक्षाए पंदर कर्मभूमिमां जन्मेला पुरुषो ज सिद्ध थाय छे. पंदर कर्मभूमिमां जन्मेला पुरुषनुं कोई देवादि अन्यक्षेत्रमां संहरण करे तो अढी द्वीपप्रमाण समस्त मनुष्यक्षेत्रथी सिद्ध थाय छे.

२. काळ- ऋजुसूत्रनय अपेक्षाए एक समयमां सिद्ध थाय छे. भूतनैगमनये
उत्सर्पिणी तथा अवसर्पिणी बन्ने काळमां सिद्ध थाय छे; तेमां
अवसर्पिणीकाळना त्रीजा आराना अंत भागमां चोथा आरामां अने
पांचमा आरानी शरूआतमां (-चोथा आरामां जन्म्या होय तेवा
जीवो) सिद्ध थाय छे. उत्सर्पिणी काळना ‘दुषमसुषम’ काळमां
चोवीश तीर्थंकरो थाय छे अने ते काळमां जीवो सिद्ध थाय छे
(त्रिलोकप्रज्ञप्ति पा. ३प०); विदेहक्षेत्रमां अवसर्पिणी के उत्सर्पिणी
एवा काळना भेद नथी. पंचमकाळमां जन्मेला जीवो सम्यग्दर्शनादि
धर्म पामे पण ते भवे मोक्ष

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६१६ ] [ मोक्षशास्त्र

पामे नहि. विदेहक्षेत्रमां जन्मेला जीवो अढीद्वीपना कोई पण भागमां सर्वकाळे मोक्ष पामे छे.

३. गति– ऋजुसूत्रनये सिद्धगति विषे ज मोक्ष पामे छे; भूतनैगमनये

मुनुष्यगतिमां ज मोक्ष पामे छे.

४. लिंग – ऋजुसूत्रनये लिंग (-वेद) रहित ज मोक्ष पामे छे;

भूतनैगमनये त्रणे प्रकारना भाववेदमां क्षपकश्रेणी चडीने मोक्ष पामे छे; अने द्रव्यवेदमां तो पुरुषलिंग अने यथाजातरूप लिंगे ज मोक्ष पामे छे.

प. तीर्थ– कोई जीवो तीर्थंकर थईने मोक्ष पामे अने कोई जीवो सामान्य

केवळी थईने मोक्ष पामे छे. सामान्य केवळीमां पण कोई तो तीर्थंकर विद्यमान होय त्यारे मोक्ष पामे अने कोई तीर्थंकरोनी पछी तेमना तीर्थमां मोक्ष पामे छे.

६. चारित्र – ऋजुसूत्रनये चारित्रना भेदनो अभाव करीने मोक्ष पामे;

भूतनैगमनये -नजीकनी अपेक्षाए यथाख्यातचारित्रथी ज मोक्ष पामे, दूरनी अपेक्षाए सामायिक, छेदोपस्थापन, सूक्ष्मसांपराय तथा यथाख्यातथी अने कोईने परिहारविशुद्ध होय तो तेनाथी-ए पांच प्रकारना चारित्रथी मोक्ष पामे छे.

७. प्रत्येकबुद्धबोधित– प्रत्येकबुद्ध जीवो वर्तमान निमित्तनी हाजरी वगर

पोतानी शक्तिथी बोध पामे, पण भूतकाळमां सम्यग्दर्शन थयुं त्यारे के त्यार पहेलां सम्यग्ज्ञानीना उपदेशनुं निमित्त होय; अने बोधित जीवो वर्तमानमां सम्यग्ज्ञानीना उपदेशना निमित्तथी धर्म पामे. आ बन्ने प्रकारना जीवो मोक्ष पामे छे.

८. ज्ञान– ऋजुसूत्रनये केवळज्ञानथी ज सिद्ध थाय छे; भूत नैगमनये कोई

मति, श्रुत ए बे ज्ञानथी, कोई मति, श्रुत, अवधि ए त्रणथी अथवा तो मति, श्रुत, मनःपर्यय ए त्रणथी अने कोई मति, श्रुत अवधि, मनःपर्यय ए चार ज्ञानथी (-केवळज्ञानपूर्वक) सिद्ध थाय छे.

९. अवगाहना– कोई ने उत्कृष्ट-पांचसो पचीस धनुषनी, कोईने जघन्य-

साडात्रण हाथमां कंईक ओछी अने कोईने मध्यम अवगाहना होय छे. मध्यम अवगाहनाना घणा भेद छे.

१०. अंतर– एक सिद्ध पछी बीजा सिद्ध थवानुं जघन्य अंतर एक समयनुं
अने उत्कृष्ट अंतर छ मासनुं छे.

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अ. १० सू. ९ ] [ ६१७

११. संख्या– जघन्यपणे एक समयमां एक जीव सिद्ध थाय छे, उत्कृष्टपणे

एक समयमां एकसो आठ जीवो सिद्ध थाय छे.

१२. अल्पबहुत्व– संख्यामां हीन-अधिकता. उपरना अगीआरे प्रकारमां
अल्पबहुत्व लागु पडे छे ते नीचे मुजब-
(१) क्षेत्र– संहरण सिद्धो करतां जन्मसिद्ध संख्यात गुणा छे. समुद्र वगेरे

जळक्षेत्रोथी थोडा सिद्ध थाय छे अने महाविदेहादि क्षेत्रोथी अधिक सिद्ध थाय छे. (र) काळ– उत्सर्पिणीकाळमां थयेला सिद्धो करतां अवसर्पिणीकाळमां

थयेला सिद्धोनी संख्या अधिक छे, अने ते बन्ने काळ विना सिद्ध थयेला जीवोनी संख्या तेनाथी संख्यात गुणी छे, केमके विदेहक्षेत्रोमां अवसर्पिणी के उत्सर्पिणी एवा भेद नथी. (३) गति– बधा जीवो मनुष्य गतिथी ज सिद्ध थाय छे माटे ते अपेक्षाए

गतिमां अल्पबहुत्व नथी; परंतु एक गतिना अंतर अपेक्षाए (अर्थात् मनुष्यभव पहेलानी गति अपेक्षाए) तिर्यंचगतिथी आवीने मनुष्य थई सिद्ध थया तेवा जीव थोडा छे, तेना करतां संख्यातगुणा जीवो मनुष्यगतिथी आवीने मनुष्य थई सिद्ध थाय छे, तेनाथी संख्यातगुणा जीवो नरकगतिथी आवीने मनुष्य थई सिद्ध थाय छे, अने तेनाथी संख्यातगुणा जीवो देवगतिथी आवीने मनुष्य थई सिद्ध थाय छे. (४) लिंग– भावनपुसंकवेदवाळा पुरुषो क्षपकश्रेणी मांडीने सिद्ध थाय

एवा जीवो थोडा छे. तेनाथी संख्यातगुणा भावस्त्रीवेदवाळा पुरुषो क्षपकश्रेणी मांडीने सिद्ध थाय छे अने तेनाथी संख्यातगुणा भावपुरुषभेदवाळा पुरुषो क्षपकश्रेणी मांडीने सिद्ध थाय छे. (प) तीर्थ– तीर्थंकर थईने सिद्ध थनारा जीवो थोडा छे अने तेनाथी

संख्यातगुणा सामान्य केवळी थईने सिद्ध थाय छे. (६) चारित्र– पांचे चारित्रथी सिद्ध थनारा जीवो थोडा छे अने तेनाथी

संख्यातगुणा जीवो परिहारविशुद्ध सिवायना चार चारित्रथी सिद्ध थनार छे. (७) प्रत्येकबुद्धबोधित–प्रत्येकबुद्ध सिद्ध थनारा जीवो अल्प छे अने

तेनाथी संख्यातगुणा बोधितबुद्ध जीवो सिद्ध थाय छे. (८) ज्ञान – मति, श्रुत ए बे ज्ञानथी केवळज्ञान प्राप्त करी सिद्ध थनारा

जीवो

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६१८ ] [ मोक्षशास्त्र

अल्प छे, तेनाथी संख्यातगुणा चार ज्ञानथी केवळज्ञान प्राप्त करी सिद्ध थाय छे अने तेनाथी संख्यातगुणा त्रण ज्ञानथी केवळज्ञान प्रगटावी सिद्ध थाय छे. (९) अवगाहना– जघन्य अवगाहनाथी सिद्ध थनारा जीवो अल्प छे,

तेनाथी संख्यातगुणा उत्कृष्ट अवगाहनाथी अने तेनाथी संख्यातगुणा मध्यम अवगाहनाथी सिद्ध थाय छे. (१०) अंतर– छ मासना अंतरवाळा सिद्ध सर्वथी थोडा छे अने तेनाथी

संख्यातगुणा एक समयना अंतरवाळा सिद्ध थाय छे. (११) संख्या – उत्कृष्टपणे एक समयमां एकसो आठ जीवो सिद्ध थाय

छे, तेनाथी अनंतगुणा एक समयमां १०७ थी लईने प० सुधी
सिद्ध थाय छे, तेनाथी असंख्यात गुणा जीवो एक समयमां ४९
थी २प सुधी सिद्ध थनारा छे, अने तेनाथी संख्यातगुणा एक
समयमां २४ थी मांडीने १ सुधी सिद्ध थनारा जीवो छे.

ए रीते बाह्य निमित्तोनी अपेक्षाए सिद्धोमां भेदनी कल्पना करवामां आवी छे; वास्तवमां अवगाहनागुण सिवायना बीजा आत्मीय गुणोनी अपेक्षाए तेमनामां कांई भेद नथी. अहीं एम न समजवुं के ‘एक सिद्धमां बीजा सिद्ध भळी जाय छे- माटे भेद नथी.’ सिद्धदशामां पण दरेक जीवो जुदे जुदा ज रहे छे, कोई जीवो एकबीजामां भळी जता नथी. ।। ।।

उपसंहार

१. मोक्षतत्त्वनी मान्यता संबंधी थती भूल अने तेनुं निराकरण केटलाक जीवो एम माने छे के, स्वर्गना सुख करतां अनंतगणुं सुख मोक्षमां छे. पण ते मान्यता मिथ्या छे, केमके ए गुणाकारमां ते स्वर्ग अने मोक्षना सुखनी जाति एक गणे छे; स्वर्गमां तो विषयादि सामग्रीजनित इन्द्रिय-सुख होय छेः तेनी जाति तेने भासे छे, पण मोक्षमां विषयादि सामग्री नथी एटले त्यांना अतीन्द्रिय सुखनी जाति तेने भासती नथी. परंतु महापुरुषो मोक्षने स्वर्ग थी उत्तम कहे छे तेथी ते अज्ञानी पण समज्या वगर बोले छे. जेम कोई गायनना स्वरूपने तो ओळखतो


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अ. १० उपसंहार ] [ ६१९ नथी पण बधी सभा गायनने वखाणे तेथी ते पण वखाणे छेः तेम ज्ञानी जीवो तो मोक्षनुं स्वरूप जाणीने तेने उत्तम कहे छे, तेथी अज्ञानी जीव पण समज्या वगर उपर प्रमाणे कहे छे.

प्रश्नः– अज्ञानी जीव सिद्धना सुखनी अने स्वर्गना सुखनी जाति एक जाणे छे-एम शा उपरथी कही शकाय?

उत्तरः– जे साधननुं फळ ते स्वर्ग माने छे ते ज जातना साधननुं फळ ते मोक्ष माने छे. ते एम माने छे के ते जातनुं थोडुं साधन होय तो तेनाथी इंद्रादि पद मळे अने जेने ते साधन संपूर्ण होय ते मोक्ष पामे छे. ए प्रमाणे बन्नेना साधननी एक जाति माने छे, तेथी तेनां कार्यनी (स्वर्ग तथा मोक्षनी) पण एक जाति होवानुं तेने श्रद्धान छे-एम नक्की थाय छे. इंद्र वगेरेने जे सुख छे ते तो कषायभावोथी आकुळतारूप छे, तेथी परमार्थे ते दुःखी छे, अने सिद्धने तो कषायरहित अनाकुळ सुख छे. माटे एम समजवुं के ते बन्नेनी जाति एक नथी. स्वर्गनुं कारण तो प्रशस्त राग छे अने मोक्षनुं कारण वीतरागभाव छे. ए रीते ते बन्नेना कारणमां फेर छे. जे जीवोने आ भाव भासतो नथी तेने मोक्षतत्त्वनुं साचुं श्रद्धान नथी.

र. अनादि कर्मबंधन नष्ट थवानी सिद्धि
श्री तत्त्वार्थसारना आठमा अध्यायमां कह्युं छे के-
आधभावान्नभावस्य कर्मबंधनसंततेः।
श्रन्ताभाव प्रसज्येत द्रष्टत्वादन्तबीजवत्।। ६।।

भावार्थः– जे वस्तुनी उत्पत्तिनो आद्यसमय न होय ते अनादि कहेवाय छे, तेनो कदी अंत थतो नथी. जो अनादि पदार्थनो अंत थई जाय तो सत्नो विनाश थाय छे एम मानवुं पडे. परंतु सत्नो नाश थवो ते सिद्धांतथी अने युक्तिथी विरुद्ध छे.

आ न्यायने कारणे, आ प्रकरणमां एवी शंका उपस्थित थई शके के-अनादि कर्मबंधननी संततिनो नाश केम थई शके? अर्थात् कर्मबंधननो कोई आद्यसमय नथी तेथी ते अनादि छे, अने जे अनादि होय तेनो अंत पण थवो न जोईए, माटे जेम कर्मबंधन अनादिथी चाल्युं आवे छे तेम अनंतकाळ सुधी सदा जीवनी साथे रहेवुं जोईए. एटले तेनुं फळ ए थशे के कर्मबंधनथी जीव कदी मुक्त थई शकशे नहि.

आ शंकामां बे प्रकार रहेला छे- (१) आ जीवने कर्मबंध कदी छूटवो न जोईए, अने (र) कर्मत्वरूप जे पुद्गलो छे तेमां कर्मत्व सदा चालु रहेवुं जोईए; केम के


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६२० ] [ मोक्षशास्त्र कर्मत्व एक जाति छे, ते सामान्य होवाथी ध्रुव छे. तेथी तेनी गमे तेटली पर्यायो बदले तोपण ते सर्वे कर्मरूप ज रहेशे. जे स्वभावनुं जे होय ते ते ज स्वभावनुं हंमेशां रहे छे. जीव पोताना चैतन्यस्वभावने छोडतो नथी अने पुद्गलो पोताना रस, रूपादि स्वभावने छोडतां नथीः आ रीते ज्यारे बीजां द्रव्यो पोतपोताना स्वभावने छोडतां नथी तो पछी कर्मद्रव्य पण पोताना कर्मत्वस्वभावने केम छोडे?

उपरनी शंकानुं समाधान आ प्रमाणे छे-कर्मनो संबंध जो के अनादिथी छे परंतु ते अनादि संबंध तेने ते ज (Identical) रजकणोनो नथी, पण एकेक कर्मनो संबंध केटलीक मुदत सुधी ज रहे छे. एकेक कर्मनी उत्पत्तिनो पण कोईने कोई समय होय छे अने तेना छूटवानो पण नियत समय होय छे. एटलुं खरुं छे के, जीवने विकारी अवस्थामां कोईने कोई कर्मनो संयोग चालु रहे छे. संसारी जीवोने विकारी अवस्था अनादिथी थई रही छे, तेथी कर्मनो संबंध कोई नियतकाळथी थयो नथी ते कारणे ते अनादि छे. आ तो समुच्चय कर्मनी अपेक्षाए वात छे; पण कोई एक कर्म अनादिकाळथी जीवनी साथे लागेलुं चालु छे- एवो तेनो अर्थ नथी. आ रीते, एकेक कर्मना संबंधनी अवधि-मर्यादा छे, तेम ज जे रीते उत्पत्तिनो वखत होय छे तेम तेना नाशनो पण वखत होय छे; केम के जेनो संयोग थाय तेनो वियोग थाय ज. ज्यारे कर्मोनो वियोग थाय त्यारे जो जीव नवीन कर्मोनुं बंधन न थवा दे तो कर्मनो संबंध निर्मूळ नष्ट थई शके छे. आथी ए तात्पर्य सिद्ध थयुं के जुदी जुदी चीजोनो संबंध अनादि काळथी होय तोपण ते नष्ट थई शके छे. तेनुं उदाहरण पण मळे छे-बीज-वृक्षनो संबंध संतति प्रवाहपणे अनादिथी छे. कोई पण बीज पोताथी पूर्वना वृक्ष वगर पेदा थई शकतुं नथी अने वृक्ष पोताथी पूर्वना बीज वगर होतुं नथी. बीजनुं उपादानकारण पूर्व वृक्ष कही शकाय अने पूर्व बीज पण कही शकाय. प्रत्येक बीजना पूर्वमां कोईने कोई उपादान होय छे; ए रीते बीज-वृक्षनी अथवा तो बीज-बीजनी संतति अनादि थई जाय छे. ए संतति अनादि होवा छतां पण ते संततिना अंतिम बीजने जो पीसी नांखे अगर बाळी नांखे तो तेनो संततिप्रवाह नष्ट थई जाय छे. एवी रीते कर्मोनी संतति अनादि होवा छतां पण कर्मनाशना प्रयोगोद्वारा पूर्वोपार्जित कर्मोमांथी अंतिम रहेलां कर्मोनो नाश करी देवामां आवे तो पछी तेनी संतति निःशेष नष्ट थई जाय छे. पूर्वोपार्जित कर्मोना नाशनो अने नवां कर्मोनी उत्पत्ति न थवा देवानो उपाय संवर-निर्जरा- प्रकरणमां (नवमा अध्यायमां) जणाव्यो छे. आ उत्तरथी ‘कर्मोनो संबंध जीवथी कदी छूटी न शके’ एवो शंकानो पहेलो प्रकार दूर थाय छे.


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अ. १० उपसंहार ] [ ६२१

शंकानो बीजो प्रकार ए छे के-जो कोई द्रव्य पोताना स्वभावने छोडतुं नथी तो पछी कर्मरूप पदार्थ पण अकर्मरूप केम थाय? तेनुं समाधान ए छे के, कर्म ए कोई द्रव्य नथी, पण संयोगी पर्याय छे. जे द्रव्यमां कर्मपणानी पर्याय थाय छे ते पुद्गलद्रव्य छे, अने ते तो सदा टकी रहे छे तथा पोताना वर्णादि स्वभावने छोडतुं नथी. पुद्गलद्रव्यमां तेनी लायकात अनुसार शरीरादि तथा माटी, पत्थर वगेरे कार्यरूप अवस्था थाय छे अने तेनी अवधि पूरी थतां ते विनाश पामी जाय छे; तेवी ज रीते कोई पुद्गलोमां जीव साथे एकक्षेत्रे बंधन थवारूप सामर्थ्य अने जीवने पराधीन थवामां निमित्तपणुं प्रगट थाय छे; ज्यां सुधी पुद्गलोनी ए दशा रहे छे त्यां सुधी तेने ‘कर्म’ कहेवाय छे. कर्म ए मूळ द्रव्य नहि होवाथी, पण पर्याय होवाथी ते पर्याय टळीने अन्य पर्याय थई शके छे. पुद्गल द्रव्योनी एक कर्मपर्याय नष्ट थईने बीजी जे पर्याय थाय ते कर्मरूप पण थई शके छे अने अकर्मरूप पण थई शके छे. कोई एक द्रव्यने उत्तरोत्तर काळमां जो एक सरखी लायकात रह्या करे तो तेनी पर्याय एक सरखी थती रहे, अने जो तेनी लायकात बदले तो तेनी पर्याय जुदी जुदी जातनी थाय. जेम कोई माटीमां घडारूपे थवानी लायकात होय त्यारे कुंभार निमित्त मळे अने ते माटी स्वयं घडारूपे थई जाय छे. फरी पहेली अवस्था बदलीने बीजी वार घडो बनी शके छे, अगर कोई बीजी पर्याय पण थई शके छे. एवी रीते कर्मरूप पर्यायमां पण समजवुं. जो ‘कर्म’ ए कोई निराळुं द्रव्य ज होय तो तेनुं अकर्मरूप थवुं बनी शके नहि, परंतु कर्म ए कोई खास द्रव्य नहि होवाथी ते जीवथी छूटी शके छे अने कर्मपणुं छोडीने अकर्मरूपे थई शके छे.

३. ए प्रकारे, जीवमांथी कर्मरूप अवस्थाने छोडीने पुद्गलो अकर्मरूप घट- पटादिपणे थई शके छे-ए सिद्ध कर्युं. परंतु जीवमांथी अमुक कर्मो ज अकर्मरूपे थवाथी जीव कर्मरहित थई जतो नथी, केम के जेम एक कर्मरूप पुद्गलो कर्मत्वने छोडीने अकर्मरूपे बनी जाय छे तेम, जीवना विकारनुं निमित्त पामीने, अकर्मरूप रहेलां पुद्गलो कर्मरूप पण परिणम्या करे छे. ज्यां सुधी जीव विकार करे त्यां सुधी तेनी परतंत्रता चालु रहे छे अने बीजां पुद्गलो कर्मरूप थईने तेनी साथे बंधाया करे छे; ए रीते संसारमां कर्मशृंखला चालु रहे छे. अमुक कर्मोनुं छूटवुं अने तेनुं ज अथवा तो अन्य अकर्मरूप परमाणुओनुं नवा कर्मरूपे थवुं एवी प्रक्रिया संसारी जीवोने चाल्या करे छे. परंतु कर्म सदा कर्म ज रहे छे, अथवा तो जीवो सदाय कोई अमुक ज कर्मोथी बंधायेला रहे छे, अथवा बधां ज कर्मो सर्व जीवोने छूटी जाय छे अने सर्व जीवो सर्वथा मुक्त थई जाय छे-एम नथी.


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६२२ ] [ मोक्षशास्त्र

४. ए रीते अनादिकाळनी कर्मशृंखला अनेक काळ सुधी चालती ज रहे छे एम देखवामां आवे छे; परंतु शृंखलाओनो नियम एवो नथी के जे अनादिकालीन होय ते अनंतकाळ पर्यंत रहेवी ज जोईए, केम के शृंखला संयोगथी थाय छे अने संयोगनो कोईने कोई वखते वियोग थई शके छे. जो ते वियोग अंशतः होय तो तो शृंखला चालु रहे छे, पण ज्यारे तेनो अत्यंतिक वियोग थई जाय छे त्यारे शृंखलानो प्रवाह तूटी जाय छे. जेम शृंखला बळवान कारणद्वारा तूटे छे तेम कर्मशृंखला अर्थात् संसारशृंखला पण जीवना सम्यग्दर्शनादि सत्य पुरुषार्थ द्वारा निर्मूळ नष्ट थई जाय छे. विकारी शृंखलामां अर्थात् विकारी पर्यायमां पण अनंततानो नियम नथी, तेथी जीव विकारी पर्यायनो अभाव करी शके छे अने विकारनो अभाव करतां कर्मनो संबंध पण छूटी जाय छे अने तेनुं कर्मत्व नष्ट थईने अन्यरूपे परिणमी जाय छे.

प. आत्माने बंधन छे तेनी सिद्धि

कोई जीवो कहे छे के आत्माने बंधन होतुं ज नथी. तेओनी ए मान्यता खोटी छे, केम के बंधन वगर परतंत्रता होय नहि. जेम गाय भेंस वगेरे पशुओ ज्यारे बंधनमां नथी होतां त्यारे परतंत्र होतां नथी; परतंत्रता ते बंधननी हयाती सूचवे छे. माटे आत्माने बंधन मानवुं योग्य छे. आत्माने खरुं बंधन पोताना विकारीभावनुं ज छे; तेनुं निमित्त पामीने जडकर्मनुं बंधन थाय छे अने तेना फळ तरीके शरीरनो संयोग थाय छे. शरीरना संयोगमां आत्मा रहे छे ते परतंत्रता सूचवे छे. ए ध्यान राखवुं के कर्म, शरीर इत्यादि परद्रव्यो कांई आत्माने परतंत्र करतां नथी पण जीव पोते अज्ञानताथी पोताने परतंत्र माने छे अने परवस्तुथी पोताने लाभ-नुकशान थाय एवी ऊंधी पक्कड करीने परमां इष्ट-अनिष्टपणुं कल्पे छे. दुःखनुं कारण पराधीनता छे. शरीरना निमित्ते जीवने दुःख थाय छे. तेथी जे जीव शरीरथी पोताने लाभ-नुकशान माने ते परतंत्र रहे ज छे. कर्म के परवस्तु जीवने परतंत्र करती नथी. पण जीव स्वयं परतंत्र थाय छे. ए रीते संसारी आत्माने त्रण प्रकारनुं बंधन सिद्ध थाय छे-एक तो पोतानो विकारी भाव, बीजुं तेनुं निमित्त पामीने सूक्ष्मकर्म साथे थतो संबंध अने त्रीजुं तेना निमित्ते स्थूळ शरीर साथे थतो संबंध. (जुओ, तत्त्वार्थसार, पानुं ३९४).

६. मुक्त थया पछी फरी बंध के जन्म न थाय

जीवना मिथ्यादर्शनादि विकारी भावोनो अभाव थवाथी कर्मनो कारण- कार्यसंबंध पण छूटी जाय छे. जाणवुं-देखवुं ते कांई कर्मबंधनुं कारण नथी पण पर वस्तुओमां-राग-द्वेषमां आत्मीयपणानी भावना ते बंधनुं कारण थाय छे. मिथ्याभावनाना


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अ. १० उपसंहार ] [ ६२३ कारणे जीवना ज्ञान तथा दर्शनने (-श्रद्धाने) मिथ्याज्ञान तथा मिथ्यादर्शन कहेवाय छे. ए मिथ्याभावना छूटी जवाथी जगतनी चराचर वस्तुओनुं जाणवुं-देखवुं थाय छे; केम के ज्ञान-दर्शन तो जीवना स्वाभाविक असाधारण धर्मो छे. वस्तुना स्वाभाविक असाधारण धर्मोनो कदी नाश थतो नथी; जो तेनो नाश थाय तो वस्तुनो पण नाश थई जाय. तेथी मिथ्यावासनाना अभावमां पण जाणवुं-देखवुं तो होय छे; पण बंधना कारण-कार्यनो अभाव मिथ्यावासनाना अभावनी साथे ज थई जाय छे. कर्मने आववाना कारणोनो अभाव थया पछी, जाणवा-देखवा छतां पण जीवने कर्मोनो बंध थतो नथी. अने कर्मोनो बंध नहि थवाथी तेना फळरूपे स्थूळ शरीरनो संयोग पण मळतो नथी, तेथी तेने फरीने जन्म होतो नथी.

(जुओ, तत्त्वार्थसार पा. ३९४).
७. बंध ते जीवनो स्वाभाविक धर्म नथी

जो बंध ते जीवनो स्वाभाविक धर्म होय तो ते बंध जीवने सदा रहेवो जोईए; पण ते तो संयोग-वियोगरूप छे; तेथी जूनो टळे छे अने जीव विकार करे तो नवो बंधाय छे. जो बंध स्वाभाविक होय तो बंधथी जुदो कोई मुक्तात्मा होई शके नहि. वळी बंध जो स्वाभाविक होय तो जीवोमां परस्पर अंतर न देखाय. भिन्न कारण विना एक जातिना पदार्थोमां अंतर होय नहि, पण जीवोमां अंतर जोवामां आवे छे. तेनुं कारण ए छे के, जीवोनुं लक्ष भिन्न भिन्न पर वस्तु उपर छे. पर वस्तुओ अनेक प्रकारनी होवाथी तेना लक्षे जीवनी अवस्था एक सरखी रहे नहि. जीव पोते पराधीन थतो रहे छे; ते पराधीनता ज बंधननुं कारण छे. जेम बंधन स्वाभाविक नथी तेम ते आकस्मिक पण नथी अर्थात् कारण वगर तेनी उत्पत्ति नथी. दरेक कार्य पोतपोताना कारण अनुसार थाय छे. स्थूळ बुद्धिवाळा लोको तेनुं कारण न जाणता होवाथी तेने अकस्मात् कहे छे. बंधनुं कारण जीवना विकार भाव छे. जीवना विकारी भावोमां तारतम्यता देखाय छे, तेथी ते क्षणिक छे अने विकारभाव क्षणिक होवाथी, तेना कारणे थतो कर्मबंध पण क्षणिक छे; केमके जेनुं कारण शाश्वत होय तेनुं कार्य पण शाश्वत होय. तारतम्यता सहित होवाथी कर्मबंध शाश्वत नथी. शाश्वतपणुं अने तारतम्यता ए बन्नेने शीत अने उष्णतानी माफक परस्पर विरोध छे. तारतम्यतानुं कारण क्षणभंगुर छे; जेनुं कारण क्षणिक होय ते कार्य शाश्वत केम होई शके? कर्मनो बंध अने उदय तारतम्यता सहित ज थाय छे माटे बंध शाश्वतिक के स्वाभाविक चीज नथी; तेथी बंधना हेतुओनो अभाव थतां मोक्ष थाय छे-एम स्वीकारवुं ज जोईए. (जुओ, तत्त्वार्थसार पानुं ३९६).


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६२४ ] [ मोक्षशास्त्र

८. सिद्धोनुं लोकाग्रथी स्थानांतर थतुं नथी

प्रश्नः– आत्मा मुक्त थतां पण स्थानवाळो होय छे. जेने स्थान होय ते एक स्थानमां ज स्थिर न रहे पण नीचे जाय अथवा तो विचलित थतो रहे छे, तेथी मुक्त आत्मा पण ऊर्ध्वलोकमां ज स्थिर न रहेतां, नीचे जाय अथवा तो एक स्थानथी बीजे स्थाने जाय-एम शा माटे नथी बनतुं?

उत्तरः– पदार्थमां स्थानांतर थवानुं कारण स्थान नथी, परंतु स्थानांतरनुं कारण तो तेनी क्रियावतीशक्ति छे. जेम नावमां ज्यारे पाणी आवीने भराय छे त्यारे ते डगमग थाय छे अने नीचे डुबी जाय छे; तेम आत्मामां पण ज्यारे कर्मास्रव थतो रहे छे त्यारे ते संसारमां डुबे छे अने स्थानो बदलतो रहे छे. पण मुक्त अवस्थामां तो जीव कर्मास्रवथी रहित थई जाय छे, तेथी ऊर्ध्वगमन स्वभावने कारणे लोकग्रे स्थित थया पछी स्थानांतर थवानुं कांई कारण रहेतुं नथी.

जो स्थानांतरनुं कारण स्थानने मानीए तो, एवो कोई पदार्थ नथी के जे स्थानवाळो न होय; केमके जेटला पदार्थो छे ते बधाय कोईक ने कोईक स्थानमां रहेला छे अने तेथी ते बधाय पदार्थोनुं स्थानांतर थवुं जोईए. परंतु धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, काळ आदि स्थानांतर रहित द्रव्यो देखावाथी ते हेतु मिथ्या ठरे छे. माटे सिद्ध थयुं के -संसारी जीवोने पोतानी क्रियावतीशक्तिना परिणमननी ते वखतनी लायकात ते क्षेत्रांतरनुं मूळकारण छे अने कर्मनो उदय ते मात्र निमित्तकारण छे. मुक्तात्मा कर्मास्रवथी सर्वथा रहित होवाथी तेओ पोताना स्थानथी विचलित थता नथी (जुओ, तत्त्वार्थसार पा. ३९७). वळी तत्त्वार्थसार अ. ८ नी गाथा १र मां जणाव्युं छे के-गुरुत्वना अभावने लीधे मुक्तात्मानुं नीचे पतन थतुं नथी.

९. जीवनी मुक्तदशा मनुष्यपर्यायथी ज थाय छे अने मनुष्यो अढी द्वीपमां ज होय छे; तथा सिद्धशिला पण बराबर अढी द्वीपसमान विस्तारनी (४प लाख योजननी) अढी द्वीपनी उपर छे. तेथी मुक्त थनार जीव मोडा (वळांक) वगर सीधा ऊर्ध्वगतिथी लोकांते जाय छे. तेमां तेने एक ज समय लागे छे.

१० अधिक जीवो थोडा क्षेत्रमां रहे छे

प्रश्नः– सिद्ध क्षेत्रना प्रदेशो तो असंख्यात छे अने मुक्त जीवो तो अनंत छे; तो असंख्यात प्रदेशमां अनंत जीवो कई रीते रही शके?

उत्तरः– सिद्ध जीवोने शरीर नथी अने जीव सूक्ष्म (-अरूपी) छे, तेथी एक जग्याए अनंत जीवो साथे रही शके छे. जेम एक ज जग्याए अनेक दीपकोनो प्रकाश


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अ. १० उपसंहार ] [ ६२प रही शके छे तेम. ते प्रकाश तो पुद्गल छे; पुद्गल वस्तुओ पण आ रीते रही शके, तो पछी अनंत शुद्ध जीवोने एक क्षेत्रे साथे रहेवामां कांई बाध नथी.

११. सिद्ध जीवोने आकार छे

केटलाक जीवो एम माने छे के जीव अरूपी छे माटे तेने आकार होय नहीं. ए मान्यता खोटी छे. दरेक वस्तुमां प्रदेशत्व नामनो गुण छेः तेथी वस्तुनो कोईने कोई आकार अवश्य होय छे. जेनो आकार न होय एवी कोई चीज होई शके नहि. जे वस्तु होय तेने पोतानो आकार होय छे. जीव अरूपी-अमूर्तिक छे, अमूर्तिक वस्तुने पण अमूर्तिक-आकार होय छे. जे शरीरने छोडीने जीव मुक्त थाय ते शरीरना आकार करतां सहेज न्यून आकार मुक्त दशामां पण जीवने होय छे.

प्रश्नः– आत्माने जो आकार होय तो पछी तेने निराकार कई रीते कहेवामां आवे छे?

उत्तरः– आकारना बे अर्थ थाय छे-एक तो लंबाई-पहोळाई-मोटाईरूप आकार अने बीजो मूर्तिकपणारूप आकार. मूर्तिकपणारूप आकार एक पुद्गलद्रव्यमां ज होय छे, अन्य कोई द्रव्योमां होतो नथी, तेथी ज्यारे आकारनो अर्थ मूर्तिकपणुं करवामां आवे त्यारे पुद्गल सिवायना सर्वे द्रव्योने निराकार कहेवाय छे. ए रीते पुद्गलनो मूर्तिक आकार नहि होवानी अपेक्षाए जीवने निराकार कहेवाय छे. परंतु पोताना स्वक्षेत्रनी लंबाई-पहोळाई-मोटाई अपेक्षाए बधां द्रव्यो आकारवान छे. आम ज्यारे सद्भावथी आकारनो संबंध मानवामां आवे त्यारे आकारनो अर्थ लंबाई-पहोळाई-मोटाई ज थाय छे. आत्माने पोतानो आकार छे, तेथी ते साकार छे.

संसारदशामां जीवनी लायकातना कारणे तेना आकारनो पर्याय संकोच- विस्ताररूप थतो हतो. हवे पूर्ण शुद्धता थतां संकोच-विस्तार थतो नथी. सिद्धदशा थतां जीवने स्वभावव्यंजनपर्याय प्रगटे छे अने ते ज प्रमाणे अनंतकाळ सुधी रह्या करे छे. (जुओ, तत्त्वार्थसार पानुं ३९८ थी ४०६).

ए प्रमाणे श्री उमास्वामी विरचित मोक्षशास्त्रनी
गुजराती टीकामां दसमो अध्याय पूरो थयो.

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मोक्षशास्त्र–गुजराती टीका
परिशिष्ट–१

आ मोक्षशास्त्रना आधार उपरथी श्री अमृतचंद्रसूरिए ‘श्री तत्त्वार्थसार शास्त्र बनाव्युं छे; तेना उपसंहारमां ते ग्रंथनो सारांश २३ गाथा द्वारा आप्यो छे. ते आ शास्त्रने लागु पडतो होवाथी अहीं आपवामां आवे छे.

ग्रंथनो सारांश
प्रमाणनयनिक्षेपनिर्देशादिसदादिभिः।
सप्ततत्त्वमिति ज्ञात्वा मोक्षमार्ग समाश्रयेत्।। १।।

अर्थः– जे सात तत्त्वोनुं स्वरूप क्रमथी कहेवामां आव्युं छे तेने प्रमाण, नय, निक्षेप, निर्देशादि तथा सत् आदि अनुयोगो द्वारा जाणीने मोक्षमार्गनो यथार्थपणे आश्रय करवो जोईए.

प्रश्नः– आ शास्त्रना पहेला सूत्रनो अर्थ निश्चयनय, व्यवहारनय अने प्रमाण द्वारा शुं थाय?

उत्तरः– सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रनी एकता ते मोक्षमार्ग छे-ए कथनमां अभेदस्वरूप निश्चयनयनी विवक्षा होवाथी ते निश्चयनयनुं कथन जाणवुं, मोक्षमार्गने सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र एवा भेदथी कहेवो तेमां भेदस्वरूप व्यवहारनयनी विवक्षा होवाथी ते व्यवहारनयनुं कथन जाणवुं; अने ते बन्नेनुं यथार्थज्ञान करवुं ते प्रमाण छे. मोक्षमार्ग ए पर्याय छे तेथी आत्माना त्रिकाळी चैतन्यस्वभावनी अपेक्षाए ते सद्भूतव्यवहार छे.

प्रश्नः– निश्चयनय एटले शुं?
उत्तरः– ‘सत्यार्थ एम ज छे’ एम जाणवुं ते.
प्रश्नः– व्यवहारनय एटले शुं?
उत्तरः– ‘सत्यार्थ एम नथी पण निमित्तादिनी अपेक्षाए उपचार कर्यो छे’
एम जाणवुं ते. अथवा पर्यायभेदनुं कथन पण व्यवहारनये कथन छे.