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गुजराती टीका परिशिष्ट-१] [ ६२७
तक्राद्यः साध्यरुपः स्याद् द्वितीयस्तस्य साधनम्।। २।।
अर्थः– निश्चयमोक्षमार्ग अने व्यवहारमोक्षमार्ग एम बे प्रकारे मोक्षमार्गनुं कथन छे; तेमां पहेलो साध्यरूप छे अने बीजो तेना साधानरूप छे.
प्रश्नः– व्यवहारमोक्षमार्ग साधन छे तेनो अर्थ शुं? उत्तरः– प्रथम रागसहित दर्शन-ज्ञान-चारित्रनुं स्वरूप जाणवुं अने ते ज वखते ‘राग ते धर्म नथी के धर्मनुं साधन नथी’ एम मानवुं. एम मान्या पछी जीव ज्यारे रागने तोडीने निर्विकल्प थाय त्यारे तेने निश्चयमोक्षमार्ग थाय छे अने ते ज वखते रागसहित दर्शन-ज्ञान-चारित्रनो व्यय थयो तेने व्यवहार मोक्षमार्ग कहेवाय छे; ए रीते ‘व्यय’ ते साधन छे.
२. आ संबंधमां श्री परमात्मप्रकाशमां नीचे प्रमाणे जणाव्युं छे- प्रश्नः– निश्चयमोक्षमार्ग तो निर्विकल्प छे अने ते वखते सविकल्प मोक्षमार्ग नथी, तो ते (सविकल्प मोक्षमार्ग) शी रीते साधक थाय छे?
उत्तरः– भूतनैगमनथी परंपराए साधक थाय छे एटले के पूर्वे ते हतो पण वर्तमानमां नथी छतां भूतनैगमनये ते वर्तमानमां छे एवो संकल्प करीने तेने साधक कह्यो छे (पा. १४२ संस्कृत टीका). आ संबंधमां अध्याय ६ सूत्र १८ नी टीका पारा प मां छेल्लो प्रश्न अने तेनो उत्तर छे ते वांचवो.
३. शुद्धनिश्चयनये शुद्धात्मानुभूतिरूप वीतराग (–निश्चय) सम्यक्तवनुं कारण नित्य आनंदस्वभाव एवो निज शुद्धात्मा ज छे.
मोक्षमार्ग तो कांई बे नथी पण मोक्षमार्गनुं निरूपण बे प्रकारथी छे. ज्यां साचा मोक्षमार्गने मोक्षमार्ग निरूपण कर्यो छे ते निश्चय (खरो) मोक्षमार्ग छेः तथा जे मोक्षमार्ग तो नथी परंतु मोक्षमार्गमां निमित्त छे अथवा साथे होय छे तेने उपचारथी मोक्षमार्ग कहेवामां आवे छे, पण ते खरो मोक्षमार्ग नथी.
सम्यक्त्वज्ञानवृत्तात्मा मोक्षमार्गः स निश्चयः।। ३।।
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६२८ ] [ मोक्षशास्त्र
अर्थः– निज शुद्धात्मानी अभेदरूपथी श्रद्धा करवी, अभेदरूपथी ज ज्ञान करवुं तथा अभेदरूपथी ज तेमां लीन थवुं-ए प्रकारे जे सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रस्वरूप आत्मा ते निश्चयमोक्षमार्ग छे.
सम्यकत्वज्ञानवृत्तात्मा स मार्गो व्यवहारतः।। ४।।
अर्थः– आत्मामां जे सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक्चारित्र भेदनी मुख्यताथी प्रगट थई रह्यां छे ते सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान-सम्यक्चारित्ररूप रत्नत्रयने व्यवहारमार्ग समजवो जोईए.
अर्थः– जे परद्रव्यनी (-साते तत्त्वोनी, भेदरूपे) श्रद्धा करे छे, तेवी ज रीते भेदरूप जाणे छे अने तेवी ज रीते भेदरूपे उपेक्षा करे छे ते मुनिने व्यवहारी कहेवाय छे.
तदेवोपेक्षमाणश्च निश्चयान्मुनिसत्तमः।। ६।।
अर्थः– जे स्वद्रव्यने ज श्रद्धामय तथा ज्ञानमय बनावी ले छे अने जेने आत्मानी प्रवृत्ति उपेक्षारूप ज थई जाय छे एवा श्रेष्ठ मुनि निश्चयरत्नत्रययुक्त छे.
स्वस्थो दर्शनचारिक्रमोहाभ्यामनुपप्लुतः।। ७।।
अर्थः– जे जाणे छे ते आत्मा छे, ज्ञान जाणे छे तेथी ज्ञान ज आत्मा छे; एवी ज रीते ज सम्यक्श्रद्धा करे छे ते आत्मा छे. श्रद्धा करनार सम्यग्दर्शन छे तेथी ते ज आत्मा छे. जे उपेक्षित थाय छे ते आत्मा छे. उपेक्षा गुण उपेक्षित थाय छे तेथी ते ज आत्मा छे अथवा आत्मा ज ते छे. आ अभेदरत्नत्रयस्वरूप छे. आवी
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गुजराती टीका परिशिष्ट-१ ] [ ६२९ अभेदरूप स्वस्थदशा तेमने ज थई शके छे के जेओ दर्शनमोह अने चारित्रमोहना उदयाधीन रहेता नथी.
आनुं तात्पर्य ए छे के, मोक्षनुं कारण रत्नत्रय बताव्युं छे; ते रत्नत्रयने मोक्षनुं कारण मानीने तेना स्वरूपने जाणवानी इच्छा ज्यांसुधी रहे छे त्यांसुधी साधु ते रत्नत्रयने विषयरूप (ध्येयरूप) मानीने तेनुं चिंतवन करे छे; ते रत्नत्रयना स्वरूपनो विचार करे छे. ज्यांसुधी एवी दशा रहे छे त्यांसुधी पोताना विचारद्वारा रत्नत्रय भेदरूप ज जाणवामां आवे छे, तेथी साधुना ते प्रयत्नने भेदरूप रत्नत्रय कहेवामां आवे छे; ते व्यवहारनी दशा छे. एवी दशामां अभेदरत्नत्रय कदी थई शकतां नथी, परंतु ज्यांसुधी एवी दशा पण न होय अथवा ए प्रकारे मुमुक्षु समजी न ले त्यां सुधी तने निश्चयदशा केम प्राप्त थई शके? व्यवहार करतां करतां निश्चयदशा प्रगटे ज नहीं.
ए ख्यालमां राखवुं के व्यवहारदशा वखते राग छे तेथी मुमुक्षुने ते टाळवायोग्य छे, ते लाभदायक नथी. स्वाश्रित एकतारूप निश्चयदशा ज लाभदायक छे-एवुं जो पहेलेथी ज लक्ष होय तो ज तेने व्यवहारदशा होय छे. जो पहेलेथी ज एवी मान्यता न होय अने ते रागदशाने ज धर्म अगर धर्मनुं कारण माने तो तेने कदी धर्म थाय नहि अने तेने ते व्यवहारदशा पण कहेवाय नहीं; खरेखर ते व्यवहाराभास छे-एम समजवुं. माटे रागरूप व्यवहारदशा टाळीने निश्चयदशा प्रगट करवानुं लक्ष पहेलेथी ज होवुं जोईए.
एवी दशा थई जतां ज्यारे साधु स्वलक्ष तरफ वळे छे, त्यारे स्वयमेव सम्यग्दर्शनमय-सम्यग्ज्ञानमय तथा सम्यक्चारित्रमय थई जाय छे. तेथी ते पोताथी अभेदरूप-रत्नत्रयनी दशा छे अने ते यथार्थ वीतरागदशा होवाथी निश्चयरत्नत्रयरूप कहेवामां आवे छे.
आ अभेद अने भेदनुं तात्पर्य समजी जतां ए वात मानवी पडशे के व्यवहाररत्नत्रय ते यथार्थ रत्नत्रय नथी. तेथी तेने हेय कहेवामां आवे छे. जो साधु तेमां ज लाग्या रहे तो तेनो ते व्यवहारमार्ग मिथ्यामार्ग छे, निरुपयोगी छे. एम कहेवुं जोईए के ते साधुए तेने हेयरूप न जाणतां यथार्थरूप जाणी राख्यो छे. जे जेने यथार्थरूप जाणे अने माने ते तेने कदी छोडे नहि; तेथी ते साधुनो व्यवहारमार्ग मिथ्यामार्ग छे अथवा ते अज्ञानरूप संसारनुं कारण छे.
वळी तेवी ज रीते जे व्यवहारने हेय समजीने अशुभभावमां रहे छे अने निश्चयनुं अवलंबन करता नथी ते उभयभ्रष्ट (शुद्ध अने शुभ बन्नेथी भ्रष्ट) छे. निश्चयनयनुं
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६३०] [ मोक्षशास्त्र अवलंबन प्रगटयुं नथी अने व्यवहारने तो हेय मानीने अशुभमां रह्या करे छे तेओ निश्चयने लक्षे शुभमां पण जता नथी तो पछी तेओ निश्चय सुधी पहोंची शके नहीं-ए निर्विवाद छे.
आ श्लोकमां अभेद रत्नत्रयनुं स्वरूप कृदंत शब्दो द्वारा कर्तृभाव-साधन शब्दोनुं अभेदपणुं बतावीने सिद्ध कर्युं. हवे आगळना श्लोकोमां क्रियापदोद्वारा कर्ताकर्मभाव वगेरेमां विभक्तिनुं रूप देखाडीने अभेद सिद्ध करे छे.
दर्शनज्ञानचारिक्रक्रयमात्मैव स
अर्थः– जे निजस्वरूपने देखे छे, निजस्वरूपने जाणे छे अने निजस्वरूप अनुसार प्रवृत्ति करे छे ते आत्मा ज छे, तेथी दर्शन-ज्ञान-चारित्र ए त्रणेरूप आत्मा ज छे.
अर्थः– जे पोताना स्वरूपने देखवामां आवे छे, पोताना स्वरूपने जाणवामां आवे छे अने पोताना स्वरूपने धारण करवामां आवे छे ते दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप रत्नत्रय छे, परंतु तन्मय आत्मा ज छे तेथी आत्मा ज अभेदरूपथी रत्नत्रयरूप छे.
दर्शनज्ञानचारिक्रक्रयमात्मैव तन्मयः।। १०।।
अर्थः– जे निजस्वरूप द्वारा देखवामां आवे छे. निजस्वरूप द्वारा जाणवामां आवे छे अने निजस्वरूप द्वारा स्थिरता थाय छे ते दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप रत्नत्रय छे. ते कोई जुदी चीज नथी, पण तन्मय आत्मा ज अभेदरूपथी रत्नत्रयरूप छे.
अर्थः– जे स्वरूपनी प्राप्तिने माटे देखे छे. जे स्वरूपनी प्राप्तिने माटे जाणे छे
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गुजराती टीका परिशिष्ट-१ ] [ ६३१ तथा जे स्वरूपनी प्राप्तिने माटे प्रवृत्ति करे छे ते दर्शन-ज्ञान-चारित्र नामवाळां रत्नत्रय छे; ते कोई जुदी चीज नथी परंतु ते-मय आत्मा ज छे अर्थात् आत्मा ते रत्नत्रयथी जुदो नथी पण तन्मय ज छे.
दर्शनज्ञानचारिक्रक्रयमात्मैव तन्मयः।। १२।।
अर्थः– जे निजस्वरूपथी देखे छे, निजस्वरूपथी जाणे छे तथा निजस्वरूपथी वर्ते छे ते दर्शन-ज्ञान-चारित्रस्वरूप रत्नत्रय छे; ते बीजुं कोई नथी पण तन्मय थयेलो आत्मा ज छे.
दर्शनज्ञानचारिक्रक्रयमात्मैव तन्मयः।। १३।।
अर्थः– जे निजस्वरूपना संबंधने देखे छे, निजस्वरूपना संबंधने जाणे छे तथा निजस्वरूपना संबंधनी प्रवृत्ति करे छे ते दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप रत्नत्रय छे. ते आत्माथी जुदी बीजी कोई चीज नथी पण आत्मा ज तन्मय छे.
दर्शनज्ञानचारिक्रक्रयमात्मैव तन्मयः।। १४।।
अर्थः– जे निजस्वरूपमां देखे छे, जे निजस्वरूपमां जाणे छे तथा जे निजस्वरूपमां स्थिर थाय छे ते दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप रत्नत्रय छे. ते आत्माथी कोई भिन्न वस्तु नथी पण आत्मा ज तन्मय छे.
दर्शनज्ञानचारिक्रक्रयमात्मैव तन्मयः।। १५।।
अर्थः– जे देखवारूप, जाणवारूप तथा चारित्ररूप क्रियाओ छे ते दर्शन-ज्ञान-
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६३२ ] [ मोक्षशास्त्र चारित्ररूप रत्नत्रय छे; परंतु ए क्रियाओ आत्माथी कोई जुदी चीज नथी. तन्मय आत्मा ज छे.
दर्शनज्ञानचारिक्रक्रयमात्मैव तन्मयः।। १६।।
अर्थः– जे दर्शन, ज्ञान, चारित्र गुणोनो आश्रय छे ते दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप रत्नत्रय छे. दर्शनादि गुणो आत्माथी जुदी कोई चीज नथी परंतु आत्मा ज तन्मय थयो मानवो जोईए अथवा आत्मा तन्मय ज छे.
दर्शनज्ञानचारिक्रक्रयमात्मैव स स्मृतः।। १७।।
अर्थः– सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रमय पर्यायोनो जे आश्रय छे ते दर्शन-ज्ञान- चारित्ररूप रत्नत्रय छे. रत्नत्रय आत्माथी कोई जुदी चीज नथी, आतमा ज तन्मय थईने रहे छे अथवा तन्मय ज आत्मा छे. आत्मा तेनाथी कोई जुदी चीज नथी.
दर्शनज्ञानचारिक्रमयस्यात्मन एव ते।। १८।।
अर्थः– दर्शन-ज्ञान-चारित्रना जे प्रदेशो बताववामां आव्या छे ते आत्माना प्रदेशोथी कांई भिन्न नथी. दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप आत्माना ज ते प्रदेशो छे. अथवा दर्शन-ज्ञान-चारित्रना प्रदेशरूप ज आत्मा छे अने ते ज रत्नत्रय छे. जेम आत्माना प्रदेशो अने रत्नत्रयना प्रदेशो भिन्न भिन्न नथी तेम परस्पर दर्शनादि त्रणेना प्रदेशो पण भिन्न नथी, तेथी आत्मा अने रत्नत्रय भिन्न नथी पण आत्मा तन्मय ज छे.
अर्थः– अगुरुलघु नामनो गुण होवाथी वस्तुमां जेटला गुणो छे ते ए सीमाथी अधिक पोतानी हानि-वृद्धि करता नथी; ए ज बधा द्रव्योमां अगुरुलघुगुणनुं प्रयोजन
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गुजराती टीका परिशिष्ट-१ ] [ ६३३ छे. ए गुणना निमित्तथी बधा गुणोमां जे सीमानुं उल्लंघन थतुं नथी तेने पण अगुरुलघु कहेवाय छे; तेथी अहीं अगुरुलघुने दर्शनादिकनुं विशेषण कहेवुं जोईए.
अर्थात्–अगुरुलघुरूप प्राप्त थवावाळा जे दर्शन, ज्ञान, चारित्र छे ते आत्माथी जुदां नथी अने परस्परमां पण तेओ कांई जुदां जुदां नथी; दर्शन-ज्ञान- चारित्ररूप जे रत्नत्रय छे, तेनुं ते (अगुरुलघु) स्वरूप छे अने ते तन्मय ज छे. ए रीते अगुरुलघुरूप रत्नत्रयमय आत्मा छे, पण आत्मा तेनाथी जुदी चीज नथी. केम के आत्मानो अगुरुलघुस्वभाव छे अने आत्मा रत्नत्रयस्वरूप छे तेथी ते सर्वे आत्माथी अभिन्न छे.
दर्शनज्ञानचारिक्रमयस्यात्मन एव ते।। २०।।
अर्थः– दर्शन-ज्ञान-चारित्रमां जे उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य छे ते सर्वे आत्माना ज छे; केम के दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप जे रत्नत्रय छे ते आत्माथी भिन्न नथी. दर्शन- ज्ञान-चारित्रमय ज आत्मा छे, अथवा तो दर्शन-ज्ञान-चारित्र आत्मामय ज छे, तेथी रत्नत्रयना जे उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य छे ते उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य आत्माना ज छे. परस्परमां उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य पण अभिन्न ज छे.
आ रीते जो रत्नत्रयनां जेटलां विशेषणो छे ते सर्वे आत्मानां ज छे अने आत्माथी अभिन्न छे तो रत्नत्रयने पण आत्मस्वरूप ज मानवुं जोईए.
आ प्रकारे अभेदरूपथी जे निजात्मानां दर्शन-ज्ञान-चारित्र छे ते निश्चयरत्नत्रय छे, तेना समुदायने (-एकताने) निश्चय मोक्षमार्ग कहेवाय छे. आ ज मोक्षमार्ग छे.
एको ज्ञाता सर्वदेवाद्वितीयः स्याद् द्रव्यार्थादेशतो मुक्तिमार्गः।। २१।।
अर्थः– सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, तथा सम्यक्चारित्ररूप जुदी जुदी पर्यायो द्वारा जीवने जाणवो ते पर्यायार्थिकनयनी अपेक्षाए मोक्षमार्ग छे. अने ए सर्वे पर्यायोमां ज्ञाता जीव एक ज सदा रहे छे, पर्याय तथा जीवनो कोई भेद नथी-एम रत्नत्रयथी आत्माने अभिन्न जाणवो ते द्रव्यार्थिकनयनी अपेक्षाए मोक्षमार्ग छे.
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६३४ ] [ मोक्षशास्त्र
अर्थात् रत्नत्रयथी जीव अभिन्न छे अथवा भिन्न छे एम जाणवुं ते द्रव्यार्थिक अने पर्यायार्थिकनयनुं स्वरूप छे; परंतु रत्नत्रयमां भेदपूर्वक प्रवृत्ति होवी ते व्यवहारमोक्षमार्ग छे अने अभेदपूर्वक प्रवृत्ति होवी ते निश्चयमोक्षमार्ग छे. तेथी उपरना श्लोकोनुं तात्पर्य ए छे केः-
आत्माने प्रथम द्रव्यार्थिक अने पर्यायार्थिकनय द्वारा जाणीने पर्याय उपरथी लक्ष उठावी पोतानो त्रिकाळी सामान्य चैतन्यस्वभाव-जे द्रव्यार्थिकनयनो विषय छे ते तरफ वळतां शुद्धता अने निश्चयरत्नत्रय प्रगटे छे.
निर्वाणमार्गमधितिष्ठति निष्प्रकम्पः।
संसारबन्धमवधूय स धूतमोह–
श्चेतन्यरुपमचलं शिवतत्त्वमेति।। २२।।
अर्थः– बुद्धिमान अने संसारथी उपेक्षित थयेल जे जीव आ ग्रंथने अथवा तत्त्वार्थना सारने आ उपर कहेला प्रकारे समजीने निश्चलतापूर्वक मोक्षमार्गमां प्रवृत्त थशे ते जीव मोहनो नाश करी संसारबंधने दूर करी, निश्चळ चैतन्यस्वरूपी मोक्षतत्त्वने (-शीवतत्त्वने) प्राप्त करी शके छे.
वाक्यानि चास्य शास्क्रस्य
अर्थः– वर्णो (अर्थात् अनादिसिद्ध अक्षरोनो समूह) आ पदोना कर्ता छे, पदावलि वाक्योना कर्ता छे अने वाक्योए आ शास्त्र कर्युं छे. आ शास्त्र में (- आचार्ये) बनाव्युं छे-एम कोई ए न समजवुं.
नोंधः- (१) एक द्रव्य बीजा द्रव्यनुं कर्ता थई शक्तुं नथी-ए सिद्धांत प्रतिपादन करीने अहीं आचार्यभगवाने स्पष्टपणे जणाव्युं छे के जीव जडशास्त्रने बनावी शके नहीं.
(२) श्री समयसारनी टीका, श्री प्रवचनसारनी टीका, श्री पंचास्तिकायनी टीका
गुजराती टीकाः परिशिष्ट-१ ] [ ६३प अने श्री पुरुषार्थसिद्धिउपाय शास्त्रना कर्तृत्वसंबंधमां पण आचार्यभगवान श्री अमृतचंद्रसूरिए जणाव्युं छे के-आ शास्त्रना अथवा टीकाना कर्ता पुद्गलद्रव्यो छे, हुं (आचार्य) नथी. आ तत्त्व-जिज्ञासुओए खास ख्यालमां राखवानी जरूरीयात होवाथी आचार्यभगवाने तत्त्वार्थसार पूरुं करतां पण ते स्पष्टपणे जणाव्युं छे. माटे प्रथम भेदविज्ञान प्राप्त करी एक द्रव्य बीजा द्रव्यनुं कांई पण करी शके नहीं एम नक्की करवुं; ए नक्की करतां जीवने पोता तरफ ज वळवानुं रहे छे. हवे पोता तरफ वळतां पोतामां बे पडखां छे. तेमां एक त्रिकाळी चैतन्यस्वभाव-जे परमपारिणामिकभाव कहेवाय छे-ते छे. अने बीजुं पोतानी वर्तमान पर्याय छे. पर्याय उपर लक्ष करतां विकल्प (-राग) टळता नथी, माटे त्रिकाळी चैतन्यस्वभावभाव तरफ वळवा माटे सर्व वीतरागी शास्त्रोनी अने श्री गुरुओनी आज्ञा छे. माटे ते तरफ वळी पोतानी शुद्धदशा प्रगटाववी ए ज जीवनुं कर्तव्य छे. माटे ते प्रमाणे ज करवा सर्व जीवोए पुरुषार्थ करवो जोईए. ते शुद्धदशाने ज मोक्ष कहे छे. ‘मोक्ष’ नो अर्थ निजशुद्धतानी पूर्णता अथवा सर्व समाधान छे. अने ते ज अविनाशी अने शाश्वत-खरुं सुख छे. जीव दरेक समये साचुं कायमी सुख मेळववा इच्छे छे अने पोताना ज्ञान अनुसार उपाय पण करे छे, पण तेने मोक्षना साचा उपायनी खबर न होवाथी ऊंधा उपाय हरसमये कर्या करे छे. ते ऊंधा उपायथी पाछा हठीने सवळा उपाय तरफ लायक जीवो वळे-एटलो आ शास्त्रनो हेतु छे.
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१. दरेक द्रव्य त्रिकाळी पर्यायोनो पिंड छे अने तेथी ते त्रणेकाळना वर्तमान पर्यायोने लायक छे; अने पर्याय एक एक समयनो छे; तेथी दरेक द्रव्य दरेक समये ते ते समयना पर्यायने लायक छे; अने ते ते समयनो पर्याय ते ते समये थवा लायक होवाथी थाय छे; कोई द्रव्यनो पर्याय आघो-पाछो थतो ज नथी.
२. माटीद्रव्य (-माटीना परमाणुओ) पोताना त्रणे काळना पर्यायोने लायक छे, छतां त्रणे काळे एक घडो थवानी ज तेमां लायकात छे एम मानवामां आवे तो, माटी द्रव्य एक पर्याय पूरतुं ज थई जाय अने तेना द्रव्यपणानो नाश थाय.
३. माटीद्रव्य त्रणे काळे घडो थवाने लायक छे एम कहेवामां आवे छे ते, परद्रव्योथी माटीने जुदी पाडीने एम बताववा माटे छे के माटी सिवाय बीजा द्रव्यो माटीनो घडो थवाने कोई काळे लायक नथी. परंतु जे वखते माटीद्रव्यनो तथा तेना पर्यायनी लायकातनो निर्णय करवानो होय त्यारे, ‘माटीद्रव्य त्रणे काळे घडो थवाने लायक छे’ एम मानवुं ते मिथ्या छे; केम के तेम मानतां; माटीद्रव्यना बीजा जे पर्यायो थाय छे ते पर्यायो थवाने माटीद्रव्य लायक नथी, तोपण थाय छे-एम थयुं के जे सर्वथा खोटुं छे.
४. उपरनां कारणोने लीधे, ‘माटी द्रव्य त्रणेकाळ घडो थवाने लायक छे अने कुंभार न आवे त्यां सुधी घडो थतो नथी’ एम मानवुं ते मिथ्या छे; पण माटी द्रव्यनो पर्याय जे समये घडापणे थवाने लायक छे ते एक समयनी ज लायकात होवाथी ते ज समये घडा-रूप पर्याय थाय, आघो-पाछो थाय नहि; अने ते वखते कुंभार वगरे निमित्तो स्वयं योग्य स्थळे होय ज.
प. दरेक द्रव्य पोते ज पोताना पर्यायनो स्वामी होवाथी तेनो पर्याय ते ते समयनी लायकात प्रमाणे स्वयं थया ज करे छे; ए रीते दरेक द्रव्यनो पोतानो पर्याय दरेक समये ते ते द्रव्यने ज आधीन छे, बीजा कोई द्रव्यने आधीन ते पर्याय नथी.
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गुजराती टीकाः परिशिष्ट-२ ] [ ६३७
६. जीवद्रव्य त्रिकाळ पर्यायनो पिंड छे. तेथी ते त्रिकाळ वर्तमान पर्यायोने लायक छे. अने प्रगट पर्याय एक समयनो होवाथी ते ते पर्यायने लायक छे.
७. जो एम न मानवामां आवे तो, एक पर्याय पूरतुं ज द्रव्य थई जाय. दरेक द्रव्य पोताना पर्यायनो स्वामी होवाथी तेनो वर्तमान वर्ततो एक एक समयनो पर्याय छे ते, ते द्रव्यने हाथ छे-आधीन छे.
८. जीवने ‘पराधीन’ कहेवामां आवे छे तेनो अर्थ ‘पर द्रव्यो तेने आधीन करे छे अथवा तो परद्रव्यो तेने पोतानुं रमकडुं बनावे छे’ एम नथी, पण ते ते समयनो पर्याय जीव पोते पर द्रव्यना पर्यायने आधीन थई करे छे. परद्रव्यो के तेनो कोई पर्याय जीवने कदी पण आश्रय आपी शके, तेने रमाडी शके, हेरान करी शके के सुखी-दुःखी करी शके-ए मान्यता जूठ्ठी छे.
९. दरेक द्रव्य सत् छे, माटे ते द्रव्ये, गुणे ने पर्याये पण सत् छे अने तेथी ते हंमेशा स्वतंत्र छे. जीव पराधीन थाय छे ते पण स्वतंत्रपणे पराधीन थाय छे. कोई परद्रव्य के तेनो पर्याय तेने पराधीन के परतंत्र बनावतां नथी.
१०. ए रीते श्री वीतरागदेवोए संपूर्ण स्वतंत्रतानो ढंढेरो पीटयो छे.
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परिशिष्ट–३
अध्यात्मशास्त्रोमां ‘अभेद ते निश्चयनय’ एम कह्युं नथी. जो अभेद ते निश्चयनय एवो अर्थ करीए तो कोई वखते निश्चयनय मुख्य थाय, अने कोई वखते व्यवहारनय मुख्य थाय, केम के आगमशास्त्रोमां कोई वखते व्यवहारनयने मुख्य अने निश्चयनयने गौण करीने कथन करवामां आवे छे. अध्यात्मशास्त्रोमां हंमेशा ‘मुख्य ते निश्चयनय’ छे, अने तेना ज आश्रये धर्म थाय-एम समजाववामां आवे छे; अने तेमां निश्चयनय सदा मुख्य ज रहे छे. ज्यां विकारी पर्यायोनुं व्यवहारनयथी कथन करवामां आवे त्यां पण निश्चयनयने ज मुख्य अने व्यवहारनयने गौण करवानो आशय छे-एम समजवुं. कारण के पुरुषार्थ वडे पोतामां शुद्धपर्याय प्रगट करवा अर्थात् विकारी पर्याय टाळवा माटे हंमेशा निश्चयनय ज आदरणीय छे; ते वखते बन्ने नयोनुं ज्ञान होय छे पण धर्म प्रगटाववा माटे बन्ने नयो कदी आदरणीय नथी. व्यवहारनयना आश्रये कदी धर्म अंशे पण थतो नथी, परंतु तेना आश्रये तो राग-द्वेषना विकल्पो ज ऊठे छे.
छ ए द्रव्यो, तेना गुणो अने तेना पर्यायोना स्वरूपनुं ज्ञान कराववा माटे कोई वखते निश्चयनयनी मुख्यता अने व्यवहारनयनी गौणता राखीने कथन करवामां आवे, अने कोई वखते व्यवहारनयने मुख्य करीने तथा निश्चयनयने गौण राखीने कथन करवामां आवे; पोते विचार करे तेमां पण कोई वखते निश्चयनयनी मुख्यता अने कोई वखते व्यवहारनयनी मुख्यता करवामां आवे. अध्यात्मशास्त्रमां पण जीवनो विकारीपर्याय जीव स्वयं करे छे तेथी थाय छे अने ते जीवनां अनन्य परिणाम छे-एम व्यवहारनये कहेवामां-समजाववामां आवे, पण ते दरेक वखते निश्चयनय एक ज मुख्य अने आदरणीय छे एम ज्ञानीओनुं कथन छे. कोई वखते निश्चयनय आदरणीय छे अने कोई वखते व्यवहारनय आदरणीय छे-एम मानवुं ते भूल छे. त्रणे काळे एकला निश्चयनयना आश्रये ज धर्म प्रगटे छे एम समजवुं.
प्रश्नः– शुं साधक जीवने नय होता ज नथी? उत्तरः– साधकदशामां ज नय होय छे. केम के केवळीने तो प्रमाण होवाथी तेमने नय होता नथी, अज्ञानीओ व्यवहारनयना आश्रये धर्म थाय एम माने छे तेथी
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परिशिष्ट-३ ] [ ६३९ तेमनो व्यवहारनय तो निश्चयनय ज थई गयो, एटले अज्ञानीने साचा नय होता नथी. ए रीते साधक जीवोने ज तेमना श्रुतज्ञानमां नय पडे छे. निर्विकल्पदशा सिवायना काळमां ज्यारे तेमने श्रुतज्ञानना भेदरूप उपयोग नयपणे होय छे त्यारे, अने संसारना काममां होय के स्वाध्याय, व्रत, नियमादि कार्योमां होय त्यारे, जे विकल्पो ऊठे छे ते बधा व्यवहारनयना विषय छे; परंतु ते वखते पण तेमना ज्ञानमां निश्चयनय एक ज आदरणीय होवाथी (-अने व्यवहारनय ते वखते होवा छतां पण ते आदरणीय नहि होवाथी-) तेमनी शुद्धता वधे छे. ए रीते सविकल्प दशामां निश्चयनय आदरणीय छे अने व्यवहारनय उपयोगरूप होवा छतां ज्ञानमां ते ज वखते हेयपणे छे; ए रीते निश्चयनय अने व्यवहारनय-ए बन्ने साधक जीवोने एकी वखते होय छे.
माटे साधक जीवोने नय होता ज नथी ए मान्या साची नथी, पण साधक जीवोने ज निश्चय अने व्यवहार-बन्ने नयो एकी साथे होय छे. निश्चयनयना आश्रय विना साचो व्यवहारनय होय ज नहि. जेने अभिप्रायमां व्यवहारनयनो आश्रय होय तेने तो निश्चयनय रह्यो ज नहि; केम के तेने तो, जे व्यवहारनय छे ते ज निश्चयनय थई गयो.
चारे अनुयोगोमां कोई वखते व्यवहारनयने मुख्य करीने कथन करवामां आवे छे अने कोई वखते निश्चयनयने मुख्य करीने कथन करवामां आवे छे, पण ते दरेक अनुयोगमां कथननो सार एक ज छे अने ते ए छे के-निश्चयनय अने व्यवहारनय बन्ने जाणवा योग्य छे, पण शुद्धता माटे आश्रय करवा योग्य निश्चयनय एक ज छे अने व्यवहारनय कदी पण आश्रय करवा योग्य नथी-ते हंमेशा हेय ज छे एम समजवुं.
व्यवहारनयना ज्ञाननुं फळ तेनो आश्रय छोडीने निश्चयनयनो आश्रय करवो ते छे. जो व्यवहारनयने उपादेय मानवामां आवे तो ते व्यवहारनयना साचा ज्ञाननुं फळ नथी पण व्यवहारनयना अज्ञाननुं एटले के मिथ्याज्ञाननुं फळ छे.
निश्चयनयनो आश्रय करवो तेनो अर्थ ए छे के, निश्चयनयना विषयभूत आत्माना त्रिकाळी चैतन्यस्वरूपनो आश्रय करवो; अने व्यवहारनयनो आश्रय छोडवो-तेने हेय समजवो-तेनो अर्थ ए छे के, व्यवहारनयना विषयरूप विकल्प, परद्रव्यो के स्वद्रव्यनी अधूरी अवस्था तरफनो आश्रय छोडवो.
अध्यात्ममां मुख्य ते निश्चय अने गौण ते व्यवहार-ए धोरण होवाथी तेमां सदाय मुख्यता निश्चयनी ज छे, ने व्यवहार सदाय गौणपणे ज छे. अध्यात्मनुं अर्थात् साधक जीवनुं आ धोरण छे. साधक जीवनी द्रष्टिनुं सळंग धोरण ए ज रीते छे.
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६४० ] [ मोक्षशास्त्र
साधक जीवो शरूआतथी अंतसुधी निश्चयनी ज मुख्यता राखीने व्यवहारने गौण ज करता जाय छे; तेथी साधकदशामां निश्चयनी मुख्यताना जोरे साधकने शुद्धतानी वृद्धि ज थती जाय छे अने अशुद्धता टळती ज जाय छे ए रीते निश्चयनी मुख्यताना जोरे पूर्ण केवळज्ञान थतां त्यां मुख्य-गौणपणुं होतुं नथी अने नय पण होता नथी.
वस्तुमां द्रव्य अने पर्याय, नित्यपणुं अने अनित्यपणुं, ईत्यादि जे विरुद्ध धर्मस्वभाव छे ते कदी टळतो नथी. पण जे बे विरुद्ध धर्मो छे तेमां एकना लक्षे विकल्प तूटे छे अने बीजाना लक्षे राग थाय छे. अर्थात् द्रव्यना लक्षे विकल्प तूटे छे अने पर्यायना लक्षे राग थाय छे, एथी बे नयोनो विरोध छे. हवे, द्रव्यस्वभावनी मुख्यता अने अवस्थानी गौणता करीने साधक जीव ज्यारे स्वभाव तरफ ढळी गयो त्यारे विकल्प तूटीने स्वभावमां अभेद थतां ज्ञान प्रमाण थई गयुं. हवे ते ज्ञान जो पर्यायने जाणे तोपण त्यां मुख्यता तो सदाय द्रव्यस्वभावनी ज रहे छे. ए रीते, जे द्रव्यस्वभावनी मुख्यता करीने ढळतां ज्ञान प्रमाण थयुं ते ज द्रव्यस्वभावनी मुख्यता साधकदशानी पूर्णता सुधी निरंतर रह्या करे छे. अने ज्यां द्रव्यस्वभावनी ज मुख्यता छे त्यां सम्यग्दर्शनथी पाछा पडवानुं कदी होतुं ज नथी; तेथी साधक जीवने सळंगपणे द्रव्यस्वभावनी मुख्यताना जोरे शुद्धता वधतां वधतां ज्यारे केवळज्ञान थाय छे त्यारे वस्तुना परस्पर विरुद्ध बन्ने धर्मोने (द्रव्य अने पर्यायने) एक साथे जाणे छे, पण त्यां हवे एकनी मुख्यता ने बीजानी गौणता करीने ढळवानुं रह्युं नथी. त्यां संपूर्ण प्रमाण थई जतां बे नयोनो विरोध टळी गयो (अर्थात् नयो ज टळी गया) तोपण वस्तुमां जे विरुद्ध धर्मस्वभाव छे ते तो टळता नथी.
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१. आ जगतमां जीव, पुद्गल, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाश अने काळ ए छ द्रव्यो अनादि अनंत छे, तेने टूंकामां ‘विश्व’ कहेवाय छे. (अध्याय-प).
र. तेओ सत् होवाथी तेमना कोई कर्ता नथी, के तेमना कोई नियामक नथी, पण विश्वना ते दरेक द्रव्यो पोते स्वतंत्रपणे नित्य टकीने समये समये पोतानी नवी अवस्था प्रगट करे छे अने जूनी अवस्था टाळे छे (अ. प सू. ३०)
३. ते छ द्रव्योमांथी जीव सिवायना पांच द्रव्यो जड छे तेमनामां ज्ञान, आनंद गुण नहि होवाथी तेओ सुखी-दुःखी नथी; जीवोमां ज्ञान, आनंद गुण छे पण तेओ पोतानी भूलथी अनादिथी दुःखी थई रह्या छे; तेमां जे जीवो मनवाळां छे तेओ हित-अहितनी परीक्षा करवानी शक्ति धरावता होवाथी तेमने दुःख टाळी अविनाशी सुख प्रगट करवानो उपदेश ज्ञानीओए आप्यो छे.
४. शरीरनी क्रिया, पर जीवोनी दया, दान, व्रत वगेरे सुखनो उपाय होवानुं अज्ञानी जीवो माने छे, ते उपायो खोटा छे एम जणाववा आ शास्त्रमां सौथी पहेलां ज ‘सम्यग्दर्शन सुखनुं मूळ कारण छे’ एम जणाव्युं छे. सम्यग्दर्शन प्रगट थया पछी ते जीवने सम्यक्चारित्र प्रगट थया विना रहेतुं ज नथी.
प. जीव ज्ञाता-द्रष्टा छे अने तेनो व्यापार के जेने उपयोग कहेवामां आवे छे ते तेनुं लक्षण छे; राग, विकार, पुण्य, विकल्प, करुणा वगेरे जीवनुं लक्षण नथी-एम तेमां गर्भितपणे कह्युं छे (अ. र सू. ८).
६. दया, दान, अणुव्रत, महाव्रत, मैत्री आदि चार भावना वगेरे शुभभावो तेम ज हिंसा, जूठुं, चोरी, अब्रह्मचर्य, परीग्रह वगेरे अशुभभावो आस्रवनां कारणो छे-एम कहीने पुण्य-पाप बन्नेने आस्रव तरीके वर्णव्या छे (अ. ६ तथा ७).
७. मिथ्यादर्शन ते संसारनुं मूळ छे, एम अ. ८. सू. १ मां जणाव्युं छे. तथा बंधनां बीजां कारणो अने बंधना प्रकारोनुं स्वरूप पण जणाव्युं छे.
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६४२ ] [ मोक्षशास्त्र
८. संसारनुं मूळ कारण मिथ्यादर्शन छे, ते सम्यग्दर्शन वडे ज टळी शके, ते सिवाय उत्कृष्ट शुभभाव वडे पण ते टळी शके नहि. संवर-निर्जरारूप धर्मनी शरूआत सम्यग्दर्शनथी ज थाय छे. ते सम्यग्दर्शन प्रगट थया पछी अंशेअंशे शुद्धि प्रगटतां श्रावकदशा तथा मुनिदशा केवी होय छे ते पण जणाव्युं छे. मुनिओ बावीस प्रकारना परिषहो उपर जय मेळवे छे एम जणाव्युं छे. जो कोई पण वखते मुनि परिषहजय न करे तो तेने बंध थाय छे, ते विषयनो समावेश आठमा बंध अधिकारमां आवी गयो छे, अने परिषहजय ज संवर-निर्जरा होवाथी ते विषय नवमा अध्यायमां जणाव्यो छे.
९. सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रनी एकतानी पूर्णता थतां (अर्थात् संवर- निर्जरानी पूर्णता थतां) अशुद्धतानो सर्वथा नाश थईने जीव संपूर्णपणे जडकर्म अने शरीरथी भिन्न थाय छे अने अविचळ सुखदशा प्राप्त करे छे, ते ज मोक्षतत्त्व छे, एनुं वर्णन दसमा अध्यायमां कर्युं छे.
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