Moksha Shastra-Gujarati (Devanagari transliteration). Sutra: 1-6 (Chapter 1).

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मंगळाचरण] [

१- आ अध्यायमां मोक्षनो उपाय अने जीवना ज्ञाननी अवस्थाओनुं वर्णन छे.
र- आ अध्यायमां जीवना भावो, लक्षण अने जीवनो शरीर साथेनो
संबंध-तेनुं वर्णन छे.
३-४- विकारी जीवने रहेवानां क्षेत्रो; ए प्रमाणे पहेला चार अध्यायोमां
प्रथम जीवतत्त्वनुं वर्णन करवामां आव्युं छे.
प- आ अध्यायमां बीजा अजीवतत्त्वनुं वर्णन छे.
६-७- आ अध्यायोमां जीवना नवा विकारीभावो (आस्रवो) तथा तेनुं
निमित्त पामीने जीवने सूक्ष्म जड कर्म साथे थतो संबंध जणाव्यो छे; ए
रीते त्रीजा आस्रवतत्त्वनुं वर्णन कर्युं छे.
८- आ अध्यायमां जीवने जड कर्म साथे केवा प्रकारे बंध थाय छे अने जड

कर्म केटलो वखत जीव साथे रहे छे ते जणाव्युं छे; ए रीते चोथा बंधतत्त्वनुं आ अध्यायमां वर्णन कर्युं छे.

९- आ अध्यायमां-जीवने अनादिथी नहि थयेल धर्मनी शरूआत संवरथी थाय

छे, जीवनी आ अवस्था थतां तेने साचा सुखनी शरूआत थाय छे अने क्रमेक्रमे शुद्धि वधतां विकार टळे छे तेथी निर्जरा एटले के जड कर्म साथेना बंधनो अंशे अंशे अभाव थाय छे-ए जणाव्युं छे; ए रीते पांचमुं अने छठ्ठुं एटले संवर अने निर्जरातत्त्व नवमा अध्यायमां जणाव्यां छे.

१०- जीवनी शुद्धिनी पूर्णता, सर्व दुःखोथी अविनाशी मुक्ति अने संपूर्ण

पवित्रता ते मोक्षतत्त्व होवाथी आचार्य भगवाने सातमुं मोक्षतत्त्व आ अध्यायमां जणाव्युं छे.

(८) मंगलाचरणमां भगवानने ‘कर्मरूपी पर्वतोना भेदनार’ कह्या छे. कर्म बे प्रकारना छेः- १-भावकर्म, र-द्रव्यकर्म. जीव ज्यारे सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रथी भावकर्मरूपी पर्वतोने टाळे छे त्यारे द्रव्यकर्म स्वयं पोताथी टळी जाय छे नाश पामे छे एवो जीवनी शुद्धताने अने कर्मना क्षयने निमित्त-नैमित्तिक संबंध छे- एम अहीं बताव्युं छे. जीव जड कर्मनो परमार्थे नाश करी शके छे-एम कहेवानो हेतु नथी.

(९) मंगलाचरणमां नमस्कार करतां तीर्थंकर भगवान पासे देवागमन, समोसरण, चामर, दिव्य शरीरादि जे पुण्यनी विभूति छे ते लीधी नथी, केमके पुण्य ते गुण नथी.

(१०) मंगलाचरणमां गुणथी ओळखाण करीने भगवानने नमस्कार कर्या छे. एटले के-भगवान विश्वना अर्थात् बधा तत्त्वोना जाणनार छे, मोक्षमार्गना नेता छे अने तेमणे सर्व विकारनो (दोषनो) नाश कर्यो छे-एम भगवानना गुणोनुं स्वरूप बतावी गुणोनी ओळखाण करीने तेमनी स्तुति करी छे.


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] [मोक्षशास्त्र

मोक्षप्राप्तिनो उपाय
सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः।। १।।
अर्थः– [सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि]सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान अने सम्यक्चारित्र

ए त्रणे मळीने [मोक्षमार्गः] मोक्षनो मार्ग छे अर्थात् मोक्षनी प्राप्तिनो उपाय छे.

–टीका–
(१) सम्यक्– आ शब्द प्रशंसावाचक छे, ते यथार्थपणुं सूचवे छे. विपरीत
आदि दोषोनो अभाव ते ‘सम्यक्’ छे.
दर्शन–श्रद्धा; ‘आम ज छे-अन्यथा नथी’ एवो प्रतीतिभाव.
सम्यग्ज्ञान-संशय, विपर्यय अने अनध्यवसाय रहित पोताना आत्मानुं
तथा परनुं यथार्थ ज्ञान ते सम्यग्ज्ञान.
संशय = विरुद्धानेककोटिस्पर्शि ज्ञानं संशयः= ‘आ प्रमाणे छे के आ
प्रमाणे छे’ एवुं जे परस्पर विरुद्धतापूर्वक बे प्रकाररूप ज्ञान
तेने संशय कहे छे; जेम के आत्मा पोताना कार्यने करी शकतो
हशे के जडना कार्यने करी शकतो हशे! एवुं जाणवुं ते संशय छे.
विपर्यय = विपरीतैककोटि निश्चयो विपर्ययः=वस्तु स्वरूपथी विरुद्धतापूर्वक
‘आम ज छे’ एवुं एकरूप ज्ञान तेनुं नाम विपर्यय छे; जेमके
शरीरने आत्मा जाणवो ते विपर्यय छे.
अनध्यवसाय = किमित्यालोचनमात्रमनध्यवसायः– ‘कंईक छे’ एवो
निर्धाररहित विचार तेनुं नाम अनध्यवसाय छे. जेम के
‘हुं कोईक छुं’ एम जाणवुं ते अनध्यवसाय छे.
सम्यक्चारित्र-(अहीं ‘सम्यक्’ पद अज्ञानपूर्वकना आचरणनी निवृत्ति माटे
वापर्यो छे.) सम्यग्दर्शन-ज्ञानपूर्वक आत्मामां स्थिरता ते
सम्यक्चारित्र छे.

आ त्रणे अनुक्रमे आत्माना श्रद्धा, ज्ञान अने चारित्र ए गुणोना शुद्ध पर्यायो (हालतो) छे.

मोक्षमार्गः– आ शब्द एकवचनमां छे; ते एम सूचवे छे के मोक्षना त्रण मार्ग
[नोंधः- ‘जीव’ अने ‘आत्मा’ ए बन्ने शब्दो एक ज अर्थमां वपराय छे.]

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अ. १ सूत्र १] [

नथी पण आ त्रणनुं एकत्व ते मोक्षमार्ग छे, मोक्षमार्ग एटले
पोताना आत्मानी शुद्धिनो पंथ-रस्तो-मार्ग-उपाय; तेने
अमृतमार्ग, स्वरूपमार्ग अथवा कल्याणमार्ग पण कहेवाय छे.

(र) आ कथन ‘हकार’थी छे, ते एम सूचवे छे के आनाथी विरुद्धभावो जेवां के राग, पुण्य वगेरेथी धर्म थाय के ते धर्ममां सहायरूप थाय एवी मान्यता, ज्ञान अने आचरण ते मोक्षमार्ग नथी.

(३) आ सूत्रमां “सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि ते निश्चयरत्नत्रय छे,

व्यवहाररत्नत्रय नथी, तेनुं कारण ए छे के व्यवहाररत्नत्रय राग होवाथी बंधरूप छे.

(४) आ सूत्रमां मोक्षमार्ग शब्द निश्चयमोक्षमार्ग बताववा माटे कहेल छे एम समजवुं.

(प) मोक्षमार्ग परम निरपेक्ष छे- “निज परमात्मतत्त्वनां सम्यक् श्रद्धान- ज्ञान-अनुष्ठानरूप शुद्धरत्नत्रयात्मकमार्ग परम निरपेक्ष होवाथी मोक्षमार्ग छे अने ते शुद्धरत्नत्रयनुं फळ निज शुद्धात्मानी प्राप्ति छे.” (नियमसार गा. रनी टीका)

आ सूत्रमां ‘सम्यग्दर्शन’ कह्युं छे ते निश्चयसम्यग्दर्शन छे ए वात त्रीजा सूत्रथी सिद्ध थाय छे, तेमां ज निसर्गज अने अधिगमज एवा भेद कह्या छे ते निश्चयसम्यग्दर्शनना ज भेद छे. अने आ सूत्रनी संस्कृत टीका श्री तत्त्वार्थ राजवार्त्तिकमां जे कारिका तथा व्याख्या द्वारा वर्णन कर्युं छे ते आधारे आ सूत्र तथा बीजा सूत्रमां कहेल सम्यग्दर्शन छे ते निश्चयसम्यग्दर्शन छे एम सिद्ध थाय छे.

तथा आ सूत्रमां “ज्ञान” कह्युं छे ते निश्चयसम्यग्ज्ञान छे. अध्याय १ सूत्र ६मां तेना ज पांच भेद कह्या छे, तेमां ज मनःपर्यय अने केवळज्ञान पण आवी जाय छे. तेथी सिद्ध थाय के अहीं निश्चयसम्यग्ज्ञान कह्युं छे. पछी आ सूत्रमां “चारित्राणि” शब्द निश्चय सम्यकचारित्र बताववा माटे कहेल छे. श्री तत्त्वार्थ राजवार्त्तिकमां आ सूत्रकथित सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रने निश्चयसम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र मानेल छे. केमके व्यवहार सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र (व्यवहाररत्नत्रय) आस्रव अने बंधरूप छे, तेथी आ सूत्रनो अर्थ करवामां आ त्रणे आत्मानी शुद्धपर्याय एकत्वरूप परिणमेल छे. आ प्रकारे शास्त्रकारे ज बताव्युं छे एम स्पष्ट थाय छे.

पहेला सूत्रनो सिद्धांत

(६) अज्ञानदशामां जीवो दुःख भोगवी रह्या छे तेनुं कारण ए छे के-तेओने पोताना स्वरूपनी भ्रमणा छे. आ भ्रमणाने ‘मिथ्यादर्शन’ कहेवामां आवे छे.


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] [मोक्षशास्त्र ‘दर्शन’ नो एक अर्थ मान्यता थाय छे, तेथी मिथ्यादर्शननो अर्थ खोटी मान्यता छे. पोताना स्वरूपनी खोटी मान्यता होय त्यां पोताना स्वरूपनुं ज्ञान जीवने खोटुं ज होय; ते खोटा ज्ञानने ‘मिथ्याज्ञान’ कहेवामां आवे छे. ज्यां स्वरूपनी खोटी मान्यता अने खोटुं ज्ञान होय त्यां चारित्र पण खोटुं ज होय; आ खोटा चारित्रने ‘मिथ्याचारित्र’ कहेवामां आवे छे. अनादिथी जीवोने ‘मिथ्यादर्शन-ज्ञान-चारित्र’ चाल्यां आवे छे तेथी जीवो अनादिथी दुःख भोगवी रह्या छे.

पोतानी आ दशा जीव पोते करतो होवाथी पोते तेने टाळी शके. ए टाळवानो उपाय ‘सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र’ ज छे, बीजो नथी एम अहीं कह्युं छे. ते उपरथी सिद्ध थाय छे के बीजा जे उपायो जीव सतत् कर्या करे छे ते बधा खोटा छे. जीव धर्म करवा मागे छे पण तेने साचा उपायनी खबर नहि होवाथी ते खोटा उपायो कर्या विना रहे नहि; माटे जीवोए आ महान भूल टाळवा माटे प्रथम सम्यग्दर्शन प्रगट करवुं जोईए. ते विना धर्मनी शरूआत कदी कोईने थाय ज नहि. ।। ।।

सम्यग्दर्शननुं लक्षण
तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम्।। २।।
अर्थः– [तत्त्वार्थश्रद्धानं] तत्त्व (वस्तु) ना स्वरूप सहित अर्थ-जीवादि

पदार्थोनी श्रद्धा करवी ते [सम्यग्दर्शनम्] सम्यग्दर्शन छे.

टीका

(१) तत्त्वोनी साची श्रद्धानुं नाम सम्यग्दर्शन छे. ‘अर्थ’ एटले द्रव्य-गुण- पर्याय; ‘तत्त्व’ एटले तेनो भाव-स्वरूप; स्वरूप (भाव) सहित प्रयोजनभूत पदार्थोनुं श्रद्धान ते सम्यग्दर्शन छे.

(र) आ गाथामां सम्यग्दर्शनने ओळखवानुं लक्षण आप्युं छे. सम्यग्दर्शन लक्ष्य अने तत्त्वार्थश्रद्धा तेनुं लक्षण छे.

(३) कोई जीवने ‘आ जाणपणुं छे, आ श्वेत वर्ण छे’ इत्यादि प्रतीति तो होय, परंतु दर्शन-ज्ञान आत्मानो स्वभाव छे अने हुं आत्मा छुं तथा पुद्गल माराथी भिन्न (जुदो) पदार्थ छे, एवुं श्रद्धान न होय तो उपर कहेला मात्र ‘भाव’नुं श्रद्धान जरापण कार्यकारी नथी.. ‘हुं आत्मा छुं’ एवुं श्रद्धान कर्युं पण आत्मानुं जेवुं स्वरूप छे तेवुं श्रद्धान कर्युं नहि, तो ‘भाव’ना श्रद्धान विना आत्मानुं श्रद्धान खरुं नथी; माटे ‘तत्त्व’ अने तेना ‘अर्थ’नुं श्रद्धान होय ते ज कार्यकारी छे.


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अ. १ सूत्र २] [

(४) बीजो अर्थः– जीवादिने जेम ‘तत्त्व’ कहेवामां आवे छे तेम ‘अर्थ’ पण कहेवामां आवे छे; जे तत्त्व छे ते ज अर्थ छे, अने तेनुं श्रद्धान ते सम्यग्दर्शन छे. जे पदार्थ जेम अवस्थित छे तेम तेनुं होवुं ते तत्त्व छे, अने ‘अर्थते’ कहेतां निश्चय करीए ते अर्थ छे. तेथी तत्त्वस्वरूपनो जे निश्चय ते तत्त्वार्थ छे. तत्त्वार्थनी श्रद्धा ते सम्यग्दर्शन छे.

(प) विपरीत अभिनिवेश (ऊंधा अभिप्राय) रहित जीवादिनुं तत्त्वार्थ श्रद्धान ते सम्यग्दर्शननुं लक्षण छे. सम्यग्दर्शनमां विपरीत मान्यता होती नथी एम बताववा माटे ‘दर्शन’ पहेलां’ सम्यक्’ पद वापर्युं छे. जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा अने मोक्ष ए सात तत्त्वो छे-एम चोथा सूत्रमां कहेशे.

(६) निश्चयथी शुद्ध आत्मानो प्रतिभास ते सम्यग्दर्शननुं लक्षण छे. अभेदद्रष्टिमां आत्मा ते ज सम्यग्दर्शन छे.

(७) ‘तत्त्व’ शब्दनो मर्म

तत्त्व’ शब्दनो अर्थ तत्पणुं-तेपणुं’ थाय छे. दरेक वस्तुने-तत्त्वने स्वरूपथी तत्पणुं अने पररूपथी अतत्पणुं छे. जीव वस्तु होवाथी तेने पोताना स्वरूपथी तत्पणुं छे अने परना स्वरूपथी अतत्पणुं छे. जीव चैतन्यस्वरूप होवाथी ते ज्ञाता छे अने अन्य सर्व वस्तुओ ज्ञेय छे तेथी जीव बीजा सर्व पदार्थोथी तद्न भिन्न छे. जीव पोताथी तत् होवाथी तेनुं ज्ञान तेने पोताथी थाय छे; जीव परथी अतत् होवाथी तेने परथी ज्ञान थई शके नहि. ‘घडानुं ज्ञान घडाना आधारे थाय छे’ -एम केटलाक जीवो माने छे पण ते भूल छे. ज्ञान जीवनुं स्वरूप होवाथी ते ज्ञान पोताथी तत् छे अने परथी अतत् छे. जीवने दरेक समये पोतानी लायकात अनुसार ज्ञाननी अवस्था थाय छे; परज्ञेय संबंधी पोतानुं ज्ञान थती वखते परज्ञेय हाजर होय छे, पण ते परवस्तुथी जीवने ज्ञान थाय छे एम माननारे जीवने ‘तत्त्व’ मान्युं नथी. जो घडाथी घडा संबंधी ज्ञान थतुं होय तो अणसमजु जीव होय तेनी पासे घडो होय त्यारे तेने ते घडानुं ज्ञान थवुं जोईए, पण तेम थतुं नथी; माटे ज्ञान पोताथी थाय छे एम समजवुं जीवने जो परथी ज्ञान थाय तो जीव अने पर एक तत्त्व थई जाय, पण तेम बने नहि.

(८) सम्यग्दर्शननुं माहात्म्य

अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य अने परिग्रहत्याग ए जो मिथ्यादर्शन सहित होय तो गुण थवाने बदले संसारमां दीर्घकाळ सुधी परिभ्रमण कराववावाळा दोषोने उत्पन्न करे छे. जेम झेरसहितना औषधथी लाभ थतो नथी तेम मिथ्यात्व सहित


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] [मोक्षशास्त्र अहिंसादिथी जीवनो संसाररोग मटतो नथी. मिथ्यात्व होय त्यां निश्चयथी (खरेखर) तो अहिंसादि होतां ज नथी. “आत्मभ्रांति सम रोग नहि” ए पद खास लक्षमां राखवा लायक छे. अनादिकाळथी जीवने मिथ्यात्वदशा चाली आवती होवाथी जीवने सम्यग्दर्शन नथी; माटे पहेलां सम्यग्दर्शन प्राप्त करवानो प्रयत्न करवा आचार्य भगवान वारंवार उपदेश करे छे.

सम्यग्दर्शन विना ज्ञान, चारित्र अने तपमां सम्यक्पणुं आवतुं नथी; सम्यग्दर्शन ज ज्ञान, चारित्र, वीर्य अने तपनो आधार छे. आंखोथी जेम मोढाने शोभा-सुंदरता प्राप्त थाय छे तेम सम्यग्दर्शनथी ज्ञानादिकमां सम्यक्पणुं-शोभा- सुंदरता प्राप्त थाय छे.

आ संबंधी रत्नकरंड श्रावकाचारमां कह्युं छे केः-
न सम्यक्त्वसमं किचित्त्रैकाल्ये त्रिजगत्यपि।
श्रेयोऽश्रेयश्च मिथ्यात्वसमं नान्यत्तनुभृताम्।। ३४।।

अर्थः– सम्यग्दर्शन समान आ जीवने त्रणकाळ त्रणलोकमां बीजुं कोई कल्याण नथी अने मिथ्यात्व समान त्रणकाळ त्रणलोकमां बीजुं कोई अकल्याण नथी.

भावार्थः– अनंतकाळ वीती गयो, एक समय वर्तमान चाले छे अने भविष्यमां अनंतकाळ आवशे-ए त्रणे काळमां अने अधोलोक, तथा मध्यलोक तथा ऊर्ध्वलोक-ए त्रणे लोकमां जीवने सर्वोत्कृष्ट उपकार करनार सम्यक्त्व समान बीजुं कोई छे नहि, थयुं नथी अने थशे नहि. त्रणलोकमां रहेला इन्द्र, अहमिन्द्र, भुवनेन्द्र, चक्रवर्ती, नारायण, बलभद्र के तीर्थंकर वगेरे चेतन अने मणि, मंत्र, औषध वगेरे जड द्रव्य-ए कोई सम्यक्त्व समान उपकार करनार नथी; अने आ जीवनुं सौथी महान अहित-बूरुं जेवुं मिथ्यात्व करे छे एवुं अहित बूरुं करनार कोई चेतन के अचेतन द्रव्य त्रणकाळ त्रणलोकमां छे नहि. थयुं नथी अने थशे नहि; तेथी मिथ्यात्वने छोडवा माटे परम पुरुषार्थ करो. समस्त संसारना दुःखनो नाश करनार, आत्मकल्याण प्रगट करनार एक सम्यक्त्व छे; माटे ते प्रगट करवानो ज पुरुषार्थ करो.

वळी सम्यक्त्व ए ज प्रथम कर्तव्य छे ए संबंधमां श्री अष्टपाहुडमां नीचे प्रमाणे कह्युं छेः-

श्रावके प्रथम शुं करवुं ते कहे छे-
गहिऊण य सम्मत्तं सुणिम्मलं सुरगिरीव णिक्कंप।
तं
जाणे झाइज्जइ सावय! दुक्खक्खयट्ठाए।।
(मोक्षपाहुड गाथा ८६)

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अ. १ सूत्र २] [

अर्थः– प्रथम तो श्रावके सुनिर्मळ एटले के सारी रीते निर्मळ अने मेरुवत् निष्कंप, अचळ अने चळ, मलिन तथा अगाढ दूषण रहित अत्यंत निश्चळ एवा सम्यक्त्वने ग्रहण करीने तेने (सम्यक्त्वना विषयभूत एकरूप आत्माने) ध्यानमां ध्याववुं; शा माटे ध्याववुं? दुःखना क्षय अर्थे ध्याववुं.

भावार्थः– श्रावके पहेलां तो निरतिचार निश्चळ सम्यक्त्वने ग्रहण करी तेनुं ध्यान करवुं के जे सम्यक्त्वनी भावनाथी गृहस्थने गृहकार्य संबंधी आकुळता, क्षोभ, दुःख होय ते मटी जाय, कार्यना बगडवा-सुधरवामां वस्तुना स्वरूपनो विचार आवे त्यारे दुःख मटी जाय, सम्यग्द्रष्टिने एवो विचार होय छे के सर्वज्ञे जेवुं वस्तुनुं स्वरूप जाण्युं छे तेम निरंतर परिणमे छे, अने तेम थाय छे तेमां इष्ट-अनिष्ट मानी सुखी-दुःखी थवुं ते निष्फळ छे. आवा विचारथी दुःख मटे, ते प्रत्यक्ष अनुभवगोचर छे, तेथी सम्यकत्वनुं ध्यान करवानुं कह्युं छे.

हवे सम्यक्त्वनुं ध्याननो महिमा कहे छेः-
सम्मत्तं जो झायइ सम्माइट्ठी हवेइ सो जीवो।
सम्मत्तपरिणदो उण खवेइ दुट्ठट्ठकम्माणि।।
(मोक्षपाहुड गाथा ८७)

अर्थः– जे जीव सम्यकत्वने ध्यावे छे ते जीव सम्यग्द्रष्टि छे; वळी ते सम्यक्त्वरूप परिणमतां दुष्ट जे आठ कर्मो तेनो क्षय थाय छे.

भावार्थः– सम्यक्त्वनुं ध्यान एवुं छे के, जो पहेलां सम्यक्त्व न थयुं होय तो पण, तेना स्वरूपने जाणी तेने ध्यावे तो ते सम्यग्द्रष्टि थई जाय छे. वळी सम्यक्त्व प्राप्त थये जीवनां परिणाम एवां होय छे के संसारना कारणरूप जे दुष्ट आठ कर्मो तेनो क्षय थाय छे; सम्यक्त्व थतां ज कर्मनी गुणश्रेणी निर्जरा थती जाय छे. अनुक्रमे मुनि थाय त्यारे, चारित्र अने शुक्लध्यान तेना सहकारी होय त्यारे सर्व कर्मोनो नाश थाय छे.

हवे ते वातने संक्षेपमां कहे छेः-
कि बहुणा भणिण्णं जे सिद्धा णरवरा गए काले।
सिज्झिहहि जे वि भविया तं जाणइ सम्ममाहप्पं।।
(मोक्षपाहुड गाथा ८८)

अर्थः– श्री कुंदकुंदाचार्यदेव कहे छे के- “ घणुं कहेवाथी शुं साध्य छे? जे नरप्रधान भूतकाळमां सिद्ध थया तथा भविष्यमां सिद्ध थशे ते सम्यक्त्वनुं ज माहात्म्य जाणो!”


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१०] [मोक्षशास्त्र

भावार्थः– आ सम्यक्त्वनुं एवुं माहात्म्य छे के आठ कर्मोनो नाश करी जे भूतकाळमां मुक्ति-प्राप्त थया छे तथा भविष्यमां थशे, ते आ सम्यकत्वथी ज थया छे अने थशे; तेथी आचार्य देव कहे छे के विशेष शुं कहेवुं? संक्षेपमां समजो के मुक्तिनुं प्रधान कारण आ सम्यकत्व ज छे. एम न जाणो के गृहस्थीओने शुं धर्म होय! आ सम्यकत्व-धर्म एवो छे के जे सर्वधर्मना अंगने सफळ करे छे.

जे निरंतर सम्यकत्व पाळे छे ते धन्य छे-एम हवे कहे छेः-
ते धण्णा सुकयत्था ते सूरा ते वि पंडिया मणुया।
सम्मतं
सिद्धियरं सिविणे वि ण मइलियं जेहिं।।
(मोक्षपाहुड गाथा ८९)

अर्थः– जे पुरुषने मुकितनुं करवावाळुं सम्यकत्व छे, अने ते सम्यकत्वने स्वप्रावस्था विषे पण मलिन कर्युं नथी-अतिचार लगाव्यो नथी, ते पुरुष धन्य छे, ते ज मनुष्य छे, ते ज कृतार्थ छे, ते ज शूरवीर छे अने ते ज पंडित छे.

भावार्थः– लोकमां कंई दानादिक करे तेने धन्य कहीए तथा विवाह, यज्ञादिक करे छे तेने कृतार्थ कहीए, युद्धमां पाछो न फरे तेने शूरवीर कहीए, घणां शास्त्रो भणे तेने पंडित कहीए-आ बधुं कथनमात्र छे. मोक्षनुं कारण जे सम्यकत्व तेने जे मलिन न करे, निरतिचार पाळे ते ज धन्य छे, ते ज कृतार्थ छे, ते ज शूरवीर छे, ते ज पंडित छे, ते ज मनुष्य छे; ए (सम्यकत्व) विना मनुष्य पशुसमान छे. एवुं सम्यकत्वनुं माहात्म्य कह्युं छे.

(९) सम्यग्दर्शननुं बळ

केवळी अने सिद्ध भगवान रागादिरूप परिणमता नथी अने संसार अवस्था इच्छता नथी, ते आ सम्यग्दर्शननुं ज बळ जाणवुं.

(१०) सम्यग्दर्शनना भेदो

ज्ञानादिकनी हीनता-अधिकता होवा छतां पण, तिर्यंचादिकना (ढोर वगेरेना) अने केवळी तथा सिद्ध भगवानना सम्यग्दर्शनने समान कह्युं छे, तेओने आत्मानी प्रतीति एक ज प्रकारनी होय छे; पण स्वपर्यायनी लायकातनी अपेक्षाए सम्यग्दर्शनना त्रण भेद पडे छे, तेनां नाम-(१) औपशमिक सम्यग्दर्शन, (र) क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन, (३) क्षायिक सम्यग्दर्शन.

औपशमिक सम्यग्दर्शन– ते दशामां मिथ्यात्वकर्मनां तथा अनंतानुबंधी कषायना जड रजकणो स्वयं उपशमरूप होय छे, जेम मेला पाणीमांथी मेल नीचे बेसी जाय छे तेम,


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अ. १ सूत्र २] [११ अथवा जेम अग्निने राखथी ढांक्यो होय तेम; आत्माना पुरुषार्थ वडे जीव प्रथम सम्यग्दर्शन प्रगट करे छे त्यारे औपशमिक सम्यग्दर्शन ज होय छे.×

क्षायोपशमिक सम्यग्द्रर्शन- ते दशामां मिथ्यात्व अने मिश्रमिथ्यात्व कर्मना रजकणो आत्मप्रदेशोथी छूटा पडतां तेनुं फळ आवतुं नथी, अने सम्यकमोहनीय कर्मना रजकणो उदयरूपे होय छे, तथा अनंतानुबंधी कषायकर्मना रजकणो विसंयोजनरूपे होय छे.

क्षायिक सम्यग्द्रर्शन– ते दशामां मिथ्यात्वप्रकृतिना (त्रण पेटा विभागोना) रजकणो आत्मप्रदेशेथी तद्न खसी जाय छे, तेथी मिथ्यात्व तथा अनंतानुबंधीनी साते प्रकृतिनो क्षय थयो कहेवाय छे.

(११) सम्यग्दर्शनना बीजा प्रकारे भेदो

सर्व सम्यग्द्रष्टि जीवोने आत्मानी-तत्त्वनी प्रतीत एक सरखी होय छे तो पण चारित्रदशानी अपेक्षाए तेओमां बे भेदो पडे छेः (१) वीतराग सम्यग्दर्शन, (र) सराग सम्यग्दर्शन.

सम्यग्द्रष्टि जीव ज्यारे पोताना आत्मामां स्थिर होय छे त्यारे तेने निर्विकल्प दशा होय छे; त्यारे राग साथे बुद्धिपूर्वक जोडाण होतुं नथी; जीवनी आ दशाने ‘वीतराग सम्यग्दर्शन’ कहेवामां आवे छे; अने ज्यारे सम्यग्द्रष्टि जीव पोतामां स्थिर न रही शके त्यारे रागमां तेनुं अनित्य-जोडाण थतुं होवाना कारणे ते दशाने ‘सराग सम्यग्दर्शन’ कहेवामां आवे छे. शुभरागथी धर्म थाय के धर्ममां सहाय थाय एम सम्यग्द्रष्टि जीव कदी मानता नथी-ए खास लक्षमां राखवुं.

(१र) सराग सम्यग्द्रष्टिने प्रशमादि भावो

सम्यग्द्रष्टिने राग साथे जोडाण होय त्यारे चार प्रकारना शुभभाव होय छे; तेनां _________________________________________________________________ × नोंध- अनादि मिथ्याद्रष्टिने औपशमिक सम्यग्दर्शन थतां मिथ्यात्व अने अनंतानुबंधीनी चार, एम पांच प्रकृति उपशमरूप होय छे. अने सादिमिथ्याद्रष्टिने औपशमिक सम्यग्दर्शन थतां, जेने मिथ्यात्वनी त्रण प्रकृति सत्तारूपे होय छे तेने, मिथ्यात्वनी त्रण अने अनंतानुबंधीनी चार, एम सात प्रकृति उपशमरूपे होय छे; अने जे सादि मिथ्याद्रष्टिने एक मिथ्यात्व प्रकृति ज सत्तामां होय छे तेने मिथ्यात्वनी एक अने अनंतानुबंधीनी चार एम पांच प्रकृति उपशमरूपे होय छे.


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१२] [मोक्षशास्त्र नाम-(१) प्रशम (र) संवेग (३) अनुकंपा अने (४) आस्तिकय.

प्रशम = क्रोध-मान-माया-लोभसंबंधी राग-द्वेषादिकनुं मंदपणुं,
संवेग = संसार एटले के विकारी भावनो भय.
अनुकंपा = पोते अने पर एम सर्व प्राणीओ पर दयानो प्रादुर्भाव.
आस्तिकय = जीवादि तत्त्वोनुं जेवुं अस्तित्व छे तेवुं आगम अने युक्ति
वडे मानवुं ते आस्तिकय.

सराग सम्यग्द्रष्टिने आ चार प्रकारना रागमां जोडाण होय छे, तेथी ए चार भावोने उपचारथी सम्यग्दर्शननां लक्षण कहेवामां आवे छे. जीवने सम्यग्द्रर्शन न होय तो ते शुभभावो प्रशमाभास, संवेगाभास, अनुकंपाभास अने आस्तिकयाभास छे एम समजवुं. प्रशमादि सम्यग्दर्शननां खरां (निश्चय) लक्षण नथी, तेनुं खरुं लक्षण पोताना शुद्धात्मानी प्रतीति छे.

(१३) सम्यग्दर्शननो विषय–लक्ष

प्रश्नः– सम्यग्द्रष्टि पोताना आत्माने केवो माने छे? उत्तरः– सम्यग्द्रष्टि पोताना आत्माने परमार्थे त्रिकाळी शुद्ध, ध्रुव, अखंड चैतन्यस्वरूप माने छे.

प्रश्नः– ते वखते जीवनी विकारी अवस्था तो होय छे तेनुं शुं? उत्तरः– विकारी अवस्था सम्यग्ज्ञाननो विषय छे तेथी तेने सम्यग्द्रष्टि जाणे छे खरा पण सम्यग्द्रष्टिनुं लक्ष अवस्था (पर्याय, भेद) उपर होतुं नथी; कारण के अवस्थाना लक्षे जीवने राग थाय छे अने ध्रुवस्वरूपना लक्षे शुद्ध पर्याय प्रगटे छे.

(१४) बीजा सूत्रनो सिद्धांत

संसार-समुद्रथी रत्नत्रयरूपी (सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूपी) जहाजने पार करवा माटे सम्यग्दर्शन चतुर खेवटियो (नाविक) छे. जे जीव सम्यग्दर्शन प्रगट करे छे ते अनंत सुखने पामे छे; जे जीवने सम्यग्दर्शन नथी ते पुण्य करे तो पण ते अनंत दुःख भोगवे छे; माटे खरुं सुख प्राप्त करवा जीवोए तत्त्वनुं स्वरूप यथार्थ समजी सम्यग्दर्शन प्रगट करवुं. तत्त्वनुं स्वरूप समज्या विना कोई जीवने सम्यग्दर्शन थाय नहि; जे जीवो तत्त्वनुं स्वरूप यथार्थपणे समजे तेने सम्यग्दर्शन थाय ज-एम आ सूत्र प्रतिपादन करे छे. ।। ।।


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अ. १ सूत्र ३] [१३

सम्यग्दर्शनना उत्पत्तिनी अपेक्षाए भेदो
तन्निसर्गादधिगमाद्वा।। ३।।
अर्थः– [तत्] ते सम्यग्दर्शन [निसर्गात्] स्वभावथी [वा] अथवा

[अधिगमात्] परना उपदेश वगेरेथी उत्पन्न थाय छे.

टीका

(१) उत्पत्तिनी अपेक्षाए सम्यग्दर्शनना बे भेद छे- (१) निसर्गज (र) अधिगमज.

निसर्गज-जे परना उपदेश विना आपोआप (पूर्वना संस्कारथी) उत्पन्न
थाय तेने निसर्गज सम्यग्दर्शन कहे छे.
अधिगमज-परना उपदेशादिथी जे सम्यग्दर्शन थाय तेने अधिगमज
सम्यग्दर्शन कहे छे.

(र) जे जीवने सम्यग्दर्शन प्रगटे छे ते जीवे ते वखते अथवा पूर्व भवे सम्यग्ज्ञानी आत्मा पासेथी उपदेश सांभळेल होय छे, (तेने देशनालब्धि कहेवामां आवे छे.) ते विना कोईने सम्यग्दर्शन थाय नहि; आ उपरथी एम न समजवुं के ते उपदेश सम्यग्दर्शनने उत्पन्न करे छे. सम्यग्दर्शन तो जीव पोताथी ज पोतानामां प्रगट करे छे, ज्ञानीनो उपदेश तो निमित्तमात्र छे. अज्ञानीनो उपदेश सांभळीने कोई सम्यग्दर्शन प्रगट करी शके नहि. वळी, जो सद्गुरुनो उपदेश सम्यग्दर्शन उत्पन्न करतो होय तो, जे जे जीवो ते उपदेश सांभळे तेने तेने ते थवुं जोईए, पण तेम थतुं नथी; सद्गुरुना उपदेशथी सम्यग्दर्शन थयुं एम कहेवुं ते व्यवहार छे- निमित्तनुं ज्ञान कराववा माटेनुं कथन छे.

(३) अधिगमनुं स्वरूप आ अध्यायना छठ्ठा सूत्रमां आपवामां आव्युं छे, त्यां जणाव्युं छे के ‘प्रमाण अने नयवडे अधिगम थाय छे’ (प्रमाण अने नयनुं स्वरूप ते सूत्रनी टीकामां आप्युं छे, माटे त्यांथी जाणी लेवुं.)

(४) त्रीजा सूत्रनो सिद्धांत

जीवने पोतानी भूलना कारणे अनादिथी पोताना स्वरूपनी भ्रमणा छे; तेथी ज्यारे ते भ्रमणा पोते टाळे त्यारे सम्यग्दर्शन उत्पन्न थाय छे. जीव ज्यारे पोतानुं साचुं स्वरूप समजवानी जिज्ञासा करे छे त्यारे तेने आत्मज्ञानी पुरुषना उपदेशनो योग मळे छे; ते उपदेश सांभळी जीव पोताना स्वरूपनो यथार्थ निर्णय करे तो तेने सम्यग्दर्शन


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१४] [मोक्षशास्त्र थाय छे, कोई जीवने आत्मज्ञानी पुरुषनो उपदेश सांभळे त्यारे तुरत सम्यग्दर्शन उत्पन्न थाय छे अने कोईने ते भवमां लांबे वखते के पछीना भवमां उत्पन्न थाय छे; जेने तुरत सम्यग्दर्शन उत्पन्न थाय छे तेने अधिगमज सम्यग्दर्शन थयुं एम कहेवामां आवे छे, अने जेने पूर्वना संस्कारथी उत्पन्न थाय छे तेने निसर्गज सम्यग्दर्शन थयुं एम कहेवामां आवे छे.

जेम वैदक संबंधीनुं ज्ञान मेळववुं होय तो वैदकना ज्ञानी गुरुनी शिक्षा द्वारा ते प्राप्त करी शकाय, पण वैदकना अज्ञानी द्वारा प्राप्त करी शकाय नहि; तेम आत्मज्ञानी गुरुना उपदेश द्वारा सम्यग्दर्शन प्राप्त करी शकाय छे, पण आत्माना अज्ञानी एवा गुरुना उपदेश द्वारा प्राप्त करी शकातुं नथी; माटे साचा सुखना उमेदवार जीवोए उपदेशकनी पसंदगी करवामां काळजी राखवानी जरूर छे. जो उपदेशकनी पसंदगी करवामां भूल करे तो जीव सम्यग्दर्शन पामी शके नहि-एम समजवुं. ।। ।।

तत्त्वोनां नाम

जीवाजीवास्त्रवबन्धसंवरनिर्जरामोक्षास्तत्त्वम्।। ४।।

अर्थः– [जीवाजीवास्त्रवबन्धसंवरनिर्जरामोक्षाः] १-जीव, र-अजीव, ३-

आस्रव, ४-बंध, प-संवर, ६-निर्जरा अने ७-मोक्ष ए सात [तत्त्वम्] तत्त्व छे.

टीका

१. जीवः– जीव एटले आत्मा, ते सदाय जाणनारो, परथी जुदो ने त्रिकाळ टकनारो छे. ज्यारे ते परनिमित्तना शुभ अवलंबनमां जोडाय छे त्यारे तेने शुभभाव (पुण्य) थाय छे; अशुभ अवलंबनमां जोडाय छे त्यारे अशुभभाव (पाप) थाय छे; अने ज्यारे स्वावलंबी थाय त्यारे शुद्धभाव (धर्म) थाय छे.

र. अजीवः– जेमां चेतना-जाणपणुं नथी; तेवां द्रव्यो पांच छे. तेमां धर्म, अधर्म, आकाश अने काळ ते चार अरूपी छे अने पुद्गल रूपी-स्पर्श, रस, गंध, वर्ण सहित छे.

अजीव वस्तुओ आत्माथी जुदी छे तेम ज अनंत आत्माओ पण एकबीजाथी स्वतंत्र-जुदा छे. पर लक्ष वगर जीवमां विकार थाय नहि; पर तरफ वलण करतां जीवने पुण्य-पापनी शुभाशुभ विकारी लागणी थाय छे.

३. आस्रवः– विकारी शुभाशुभ भावपणे अरूपी अवस्था जीवमां थाय ते भावआस्रव अने ते समये नवां कर्म योग्य रजकणोनुं आववुं (आत्मा साथे एकक्षेत्रे रहेवुं) ते द्रव्य-आस्रव छे.


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अ. १ सूत्र ४] [१प

पुण्य-पाप ए बन्ने आस्रवना पेटा भाग छे. पुण्यः– दया, दान, भक्ति, पूजा, व्रत वगेरेना शुभभाव जीवनी पर्यायमां थाय छे ते अरूपी विकारी भाव छे-ते भावपुण्य छे, अने ते समये कर्म योग्य जड परमाणुओनो जथ्थो स्वयं (पोताना कारणे पोताथी) एकक्षेत्रावगाह संबंधे जीवनी साथे बंधाय छे ते द्रव्यपुण्य छे. (तेमां जीवनी अशुद्ध पर्याय निमित्तमात्र छे.)

पापः– हिंसा, असत्य, चोरी, अव्रत वगेरेना अशुभभाव ते भावपाप छे अने ते समये कर्म योग्य जडनी शक्तिथी परमाणुओनो जथ्थो स्वयं बंधाय ते द्रव्य-पाप छे. (तेमां जीवनी अशुद्ध पर्याय निमित्तमात्र छे.) परमार्थे-खरेखर आ पुण्य-पाप (शुभाशुभभाव) आत्माने अहितकर छे, आत्मानी क्षणिक अशुद्ध दशा छे, आत्मानुं असली स्वरूप नथी. द्रव्य पुण्य-पाप पुद्गल द्रव्यनी अशुद्ध अवस्था छे ते आत्मानुं हित-अहित करी शके नहीं.

४. बंधः– आत्मानुं अज्ञान, राग-द्वेष, पुण्य-पापना भावमां अटकी जवुं ते भावबंध छे अने ते समये कर्म योग्य पुद्गलनुं स्वयं कर्मरूप बंधावुं ते द्रव्यबंध छे. (तेमां जीवनी अशुद्ध पर्याय निमित्तमात्र छे.)

प. संवरः– पुण्य-पापना विकारी भावने (आस्रवने) आत्माना शुद्धभाव द्वारा रोकवा ते भावसंवर छे अने ते अनुसार नवां कर्म बंधातां अटके ते द्रव्यसंवर छे.

६. निर्जराः– अखंडानंद शुद्ध आत्मस्वभावना अवलंबनना बळथी स्वरूप स्थिरतानी वृद्धि वडे अशुद्ध (शुभाशुभ) अवस्थानो अंशे नाश करवो ते भावनिर्जरा अने ते समये खरवा योग्य जड कर्मोनुं अंशे खरी जवुं ते द्रव्यनिर्जरा छे.

७. मोक्षः– समस्त कर्मोना क्षयना कारणभूत तथा निश्चयरत्नत्रयस्वरूप परम विशुद्ध परिणामो ते भावमोक्ष छे अने पोतानी योग्यताथी स्वयं स्वतः द्रव्यकर्मोनो आत्मप्रदेशोथी अत्यंत अभाव थवो ते द्रव्यमोक्ष छे, जीव अत्यंत शुद्ध थई जाय ते दशाने मोक्षतत्त्व कहे छे.

(१) आ प्रमाणे जेवुं सात तत्त्वोनुं (पुण्य-पापने आस्रवना पेटामां गण्या छे तेथी अहीं सात तत्त्वो कह्यां छे) स्वरूप छे तेवुं जे जीव शुभभावथी विचारे छे तेने शुद्धनुं लक्ष होय तो व्यवहार-समकित छे. व्रतादिना शुभभाव संवर-निर्जरामां गणे तो आस्रवतत्त्वनी श्रद्धामां भूल आवे. व्यवहारश्रद्धामां कोई पडखे भूल न आवे तेम सात तत्त्वमांथी शुद्धनय वडे एकरूप अखंड ज्ञायकस्वभावी आत्माने तारवी


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१६] [मोक्षशास्त्र लेवो (तेनुं लक्ष करवुं) ते परमार्थश्रद्धा एटले के सम्यग्दर्शन छे. [समयसार प्रवभाग १, पृष्ठ ४६१ थी ४६३]

(र) सात तत्त्वोमां पहेलां बे तत्त्वो-‘जीव’ अने ‘अजीव’ ए द्रव्यो छे, अने बीजां पांच तत्त्वो तेमना (जीव अने अजीवना) संयोगी अने वियोगी पर्यायो (विशेष अवस्थाओ) छे. आस्रव अने बंध ते संयोगी छे तथा संवर, निर्जरा अने मोक्ष ते जीव-अजीवना वियोगी पर्याय छे, जीव अने अजीव तत्त्वो सामान्य छे अने बीजा पांच तत्त्वो, पर्यायो होवाथी विशेष कहेवाय छे.

(३) जेनी दशाने अशुद्धमांथी शुद्ध करवी छे तेनुं नाम तो जरूर प्रथम देखाडवुं ज जोईए, तेथी ‘जीव’ तत्त्व प्रथम कह्युं; पछी जे तरफना लक्षे अशुद्धता अर्थात् विकार थाय छे तेनुं नाम आपवुं जरूरी छे तेथी ‘अजीव’ तत्त्व कह्युं. अशुद्धदशानां कारण-कार्यनुं ज्ञान करवा माटे ‘आस्रव’ अने ‘बंध’ तत्त्व कह्यां. ए कह्या पछी मुक्तिनुं कारण कहेवुं जोईए; अने मुक्तिनुं कारण ते ज थई शके के जे बंध अने बंधना कारणथी ऊलटा प्रकारे होय; तेथी आस्रवनो निरोध थवो ते ‘संवर’ तत्त्व कह्युं. अशुद्धता-विकारना नीकळी जवाना कार्यने ‘निर्जरा’ तत्त्व कह्युं. जीव अत्यंत शुद्ध थई जाय ते दशा ‘मोक्ष’ तत्त्व छे-ए कह्युं. आ तत्त्वो समजवानी अत्यंत जरूर छे माटे ते कह्यां छे. तेने समजवाथी जीव मोक्ष-उपायमां लागी शके छे. मात्र जीव-अजीवने जाणनारुं ज्ञान उपयोगी थतुं नथी, माटे जेओ खरा सुखना मार्गमां प्रवेश करवा मागे छे तेमणे आ तत्त्वो यथार्थपणे जाणवां जोईए.

(४) सात तत्त्वो होवा छतां आ सूत्रमां छेडे ‘तत्त्वम्’ एवो एकवचन

बतावनार शब्द वापर्यो छे ते एम बतावे छे के आ सात तत्त्वोनुं ज्ञान करी, भेद उपरनुं लक्ष टाळी, जीवना त्रिकाळी ज्ञायकभावनो आश्रय करवाथी जीव शुद्धता प्रगट करी शके छे.

(प) चोथा सूत्रनो सिद्धांत

आ सूत्रमां सात तत्त्वो कह्यां छे; तेमां पुण्य अने पापनो समावेश आस्रव अने बंध तत्त्वोमां थई जाय छे. जे वडे सुख ऊपजे अने दुःखनो नाश थाय ए कार्यनुं नाम प्रयोजन छे. जीव अने अजीवना विशेषो (भेद) घणा छे, तेमां जे विशेषोसहित जीव-अजीवनुं यथार्थ श्रद्धान करतां स्व-परनुं श्रद्धान थाय, रागादिक दूर करवानुं श्रद्धान थाय अने तेथी सुख ऊपजे, तथा जेनुं अयथार्थ श्रद्धान करतां स्व- परनुं श्रद्धान न थाय, रागादिक दूर करवानुं श्रद्धान न थाय अने तेथी दुःख ऊपजे, ए विशेषोसहित जीव-अजीव पदार्थ प्रयोजनभूत समजवा. आस्रव अने बंध दुःखनां


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अ. १ सूत्र प] [१७ कारणो छे, तथा संवर, निर्जरा अने मोक्ष ए सुखनां कारणो छे; माटे जीवादि सात तत्त्वोनुं श्रद्धान करवानी जरूरियात छे. आ सात तत्त्वोनी श्रद्धा वगर शुद्धभाव प्रगट थई शके नहि. ‘सम्यग्दर्शन’ ते जीवना श्रद्धागुणनी शुद्ध अवस्था छे; माटे ते शुद्धभाव प्रगट करवा माटे सात तत्त्वोनां श्रद्धा-ज्ञान अनिवार्य छे. जे जीव आ सात तत्त्वोनी श्रद्धा करे ते ज पोताना जीव एटले शुद्धात्माने जाणी ते तरफ पोतानो पुरुषार्थ वाळी सम्यग्दर्शन प्रगटावी शके छे. आ सात (अथवा पुण्य-पाप सहित नव) तत्त्व सिवाय बीजां कोई ‘तत्त्व’ नथी-एम समजवुं. .।। ।।

सात तत्त्वो, सम्यग्दर्शनादि तथा बीजा शब्दोना अर्थ समजवानी रीत
नामस्थापनाद्रव्यभावतस्तन्न्यासः।। ५।।
अर्थः– [नामस्थापनाद्रव्यभावतः] नाम, स्थापना, द्रव्य अने भावथी [तत्

न्यासः] ते सात तत्त्वो तथा सम्यग्दर्शनादिनो लोकव्यवहार थाय छे.

टीका

(१) बोलनारना मुखथी नीकळेला शब्दोना, अपेक्षाना वशे जुदाजुदा अर्थो थाय छे; ते अर्थोमां व्यभिचार (दोष) न आवे अने साचो अर्थ केम थाय ते बताववा आ सूत्र कह्युं छे.

(र) ए अर्थोना सामान्य प्रकार चार करवामां आव्या छे. पदार्थना भेदने न्यास अथवा निक्षेप कहेवामां आवे छे. (प्रमाण अने नयना अनुसारे प्रचलित थयेला लोकव्यवहारने निक्षेप कहे छे) ज्ञेय पदार्थ अखंड छे छतां तेने जाणतां ज्ञेय पदार्थना जे भेद (-अंश, पडखां) करवामां आवे छे तेने निक्षेप कहे छे. ते अंशने जाणनार ज्ञानने नय कहे छे. निक्षेप नयनो विषय छे. नय निक्षेपनो विषय करनार (विषयी) छे.

(३) निक्षेपना भेदोनी व्याख्या

नामनिक्षेपः– गुण, जाति के क्रियानी अपेक्षारहित मात्र ईच्छानुसार कोईनुं नाम राखवुं ते नामनिक्षेप छे. जेम कोईनुं नाम ‘जिनदत्त’ राख्युं, त्यां जोके ते जिनदेवनो दीधेलो नथी तो पण लोकव्यवहार (ओळखवा) माटे तेनुं ‘जिनदत्त’ नाम राखवामां आव्युं छे. एक वस्तुनी ओळखाण थई जाय तेटला ज माटे मात्र जे संज्ञा आपवामां आवी होय तेने नामनिक्षेप कहेवामां आवे छे.

स्थापनानिक्षेपः– अनुपस्थित (हाजर न होय एवी) कोई वस्तुनो बीजी उपस्थित वस्तुमां संबंध या मनोभावना जोडीने आरोप करी देवो के ‘आ ते ज


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१८] [मोक्षशास्त्र छे’-एवी भावनाने स्थापना कहेवामां आवे छे. आ आरोप ज्यां थाय छे त्यां जीवोने एवी मनोभावना थवा लागे छे के ‘आ ते ज छे.’

स्थापना बे प्रकारनी थाय छे-तदाकार अने अतदाकार. जे पदार्थनो जेवो आकार होय तेवो आकार तेनी स्थापनामां करवो ते ‘तदाकार स्थापना’ छे अने गमे ते आकार करवामां आव्यो होय ते ‘अतदाकार स्थापना’ छे. सद्रशताने स्थापना निक्षेपनुं कारण समजवुं नहि, पण केवळ मनोभावना ज तेनुं कारण छे. जनसमुदायनी ए मानसिक भावना ज्यां थाय छे त्यां स्थापनानिक्षेप मानवो जोईए. वीतराग-प्रतिमा जोतां घणा जीवोने भगवान अने तेमनी वीतरागतानी मनोभावना थाय छे, माटे ते स्थापनानिक्षेप छे. ×

द्रव्यनिक्षेपः– भूत, भविष्य पर्यायनी मुख्यता लई तेने वर्तमानमां कहेवी- जाणवी ते द्रव्यनिक्षेप छे. जेम श्रेणीक राजा भविष्यमां तीर्थंकर थवाना छे तेने वर्तमानमां तीर्थंकर कहेवा-जाणवा, अने महावीर भगवानादि भूतकाळमां थयेला तीर्थंकरोने वर्तमान तीर्थंकरो गणी स्तुति करवी ते द्रव्यनिक्षेप छे.

भावनिक्षेपः– केवळ वर्तमान पर्यायनी मुख्यताथी जे पदार्थ वर्तमान जे दशामां छे ते-रूप कहेवो-जाणवो ते भावनिक्षेप छे. जेम सीमंधर भगवान वर्तमान तीर्थंकरपदे महाविदेहमां बिराजे छे तेमने तीर्थंकर कहेवा-जाणवा, अने महावीर भगवान हाल सिद्ध छे तेमने सिद्ध कहेवा-जाणवा ते भावनिक्षेप छे.

(४) ‘सम्यग्दर्शनादि’ के ‘जीवाजीवादि’ एवा शब्दो ज्यां वापर्या होय त्यां क्यो निक्षेप लागु पडे छे ते नक्की करी जीवे साचो अर्थ समजी लेवो जोईए.

(प) स्थापनानिक्षेप अने द्रव्यनिक्षेप वच्चेनो भेद

"In Sthapna the connotation is merely attributed. It is never there it cannot be there. In Dravya it will be there or has been there. The common factor between the two is that it is not there now, and to that extent connotation is fictitious in both. " (English Tatvarth Sutram page-11)

अर्थः– स्थापनानिक्षेपमां बतावणी मात्र आरोपित छे, तेमां ते (मूळ वस्तु) कदी नथी, ते त्यां कदी होई शकती नथी. द्रव्यनिक्षेपमां ते (मूळ वस्तु) भविष्यमां प्रगटशे अथवा भूतमां हती. बे वच्चेनुं सामान्यपणुं एटलुं छे के- _________________________________________________________________

× नोंधः– नामनिक्षेप अने स्थापनानिक्षेपमां ए अंतर छे के नामनिक्षेपमां पूज्य- अपूज्यनो व्यवहार थतो नथी, पण स्थापनानिक्षेपमां पूज्यनो व्यवहार थाय छे.


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अ. १ सूत्र ६] [१९ वर्तमानकाळमां ते बन्नेमां विद्यमान नथी, अने तेटले दरज्जे बन्नेमां आरोप छे. (ईंग्लिश तत्त्वार्थसूत्र पानुं-११)

(६) पांचमा सूत्रनो सिद्धांत

भगवानना नामनिक्षेप अने स्थापनानिक्षेप ते शुभभावनां निमित्त छे, तेथी व्यवहार छे; द्रव्यनिक्षेप ते निश्चयपूर्वक व्यवहार होवाथी पोतानो शुद्ध पर्याय थोडा वखतमां प्रगटशे एम सूचवे छे. भावनिक्षेप ते निश्चयपूर्वक पोतानो शुद्ध पर्याय होवाथी धर्म छे, एम समजवुं. निश्चय अने व्यवहारनयनो खुलासो हवे पछीना सूत्रनी टीकामां करवामां आव्यो छे. ।। ।।

सम्यग्दर्शनादि तथा तत्त्वोने जाणवानो उपाय
प्रमाणनयैरधिगमः।। ६।।
अर्थः– सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रय अने जीवादि तत्त्वोनुं [अधिगमः] ज्ञान

[प्रमाणनयैः] प्रमाण अने नयोथी थाय छे.

टीका

(१) प्रमाणः– साचा ज्ञानने-निर्दोष ज्ञानने अर्थात् सम्यग्ज्ञानने प्रमाण कहे छे. अनंत गुण या धर्मना समुदायरूप पोतानुं तथा परवस्तुनुं स्वरूप प्रमाण द्वारा जाणवामां आवे छे. प्रमाण वस्तुना सर्व देशने (बधां पडखांने) ग्रहण करे छे- जाणे छे.

(र) नयः– प्रमाण द्वारा नक्की थयेली वस्तुना एक देशने जे ज्ञान ग्रहण करे तेने नय कहे छे. प्रमाण द्वारा नक्की थयेल अनंत धर्मात्मक वस्तुना एक एक अंगनुं ज्ञान मुख्यपणे करावे ते नय छे. वस्तुओमां धर्म अनंत छे तेथी तेना अवयवो अनंत सुधी थई शके छे, अने तेथी अवयवना ज्ञानरूप नय पण अनंत सुधी थई शके छे. श्रुतप्रमाणना विकल्प, भेद के अंशने नय कहेवामां आवे छे. श्रुतज्ञानमां ज नयरूप अंश पडे छे. जे नय छे ते प्रमाणसापेक्षरूप होय छे. (मति, अवधि के मनः- पर्ययज्ञानमां नयना भेद पडता नथी.)

(2) “Right belief is not identical with blind faith. Its authority is neither external nor autocratic. It is reasoned knowledge. It is a sort of a sight of a thing. You cannot doubt its testimony. So long as there is doubt, there is no right belief. But doubt must not be suppressed, it must be destroyed. Things


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२०] [मोक्षशास्त्र have not to be taken on trust. They must be tested and tried by every one him-self. This Sutra lays down the mode in which it can be done. It refers the inquirer to the first laws of thought and to the universal principles of all reasoning, that is to logic under the names of PRAMAN and NAYA.” (English Tatvarth Sutram page-15)

अर्थः– सम्यग्दर्शन ते आंधळी श्रद्धा साथे एकरूप नथी, तेनो अधिकार आत्मानी बहार के स्वच्छंदी नथी; ते युक्तिपूर्वकना ज्ञान सहित होय छे; तेनो प्रकार (वस्तुना दर्शन) देखवा समान छे. ज्यांसुधी (स्वस्वरूपनी) शंका छे त्यां सुधी साची मान्यता नथी. ते शंकाने दबाववी न जोईए परंतु तेनो नाश करवो जोईए. (कोईने) भरोसे वस्तु ग्रहण करवानी नथी. दरेके पोते पोताथी तेनी परीक्षा करी तेने माटे यत्न करवो जोईए. ते क्या प्रकारे थई शके छे ते आ सूत्र बतावे छे. विचारणाना प्राथमिक नियमो तथा तमाम युक्तिओने लगता विश्वना सिद्धांतोने प्रमाण अने नयनुं नाम आपी तेनो आश्रय लेवा सत्यना शोधकने आ सूत्र सूचवे छे.

(ईंग्लिश तत्त्वार्थसूत्र पानुं-१प)
(३) युक्ति

प्रमाण अने नय ते युक्तिनो विषय छे. सत्शास्त्रनुं ज्ञान ते आगमज्ञान छे. आगममां जणावेला तत्त्वोनुं यथार्थपणुं युक्ति द्वारा नक्की कर्या सिवाय तत्त्वोना भावोनुं यथार्थ भासन थाय नहि, माटे अहीं युक्ति द्वारा निर्णय करवा जणाव्युं छे.

(४) अनेकान्त–एकांत

जैनशास्त्रोमां अनेकान्त अने एकांत ए शब्दो खूब वापरवामां आवे छे; तेथी तेनुं टूंक स्वरूप अहीं जणाववामां आवे छे.

अनेकान्त = (अनेक+अंत) अनेक धर्मो; एकांत = (एक+अंत) एक धर्म; अनेकान्त अने एकांत ए बन्नेना बब्बे भेदो छे; अनेकान्तना बे भेदो (१) सम्यक् अनेकान्त, अने (र) मिथ्या अनेकान्त; तथा एकांतना बे भेदो (१) सम्यक् एकांत, अने (र) मिथ्या एकांत; सम्यक् अनेकान्त ते प्रमाण छे अने मिथ्या अनेकान्त ते प्रमाणाभास छे. सम्यक् एकांत ते नय छे अने मिथ्या एकांत ते नयाभास छे.

(प) सम्यक् अने मिथ्या अनेकान्तनुं स्वरूप
प्रत्यक्ष, अनुमान तथा आगमप्रमाणथी अविरुद्ध एक वस्तुमां जे अनेक धर्मो

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अ. १ सूत्र ६] [२१ छे तेने निरूपण करवामां तत्पर छे ते सम्यक् अनेकान्त छे. दरेक चीज पोतापणे छे अने परपणे नथी. आत्मा स्वस्वरूपे छे-परस्वरूपे नथी; पर तेना स्वरूपे छे अने आत्माना स्वरूपे नथी-आ प्रमाणे जाणवुं ते सम्यक् अनेकान्त छे. अने तत्-अतत् स्वभावनी जे खोटी कल्पना करवामां आवे ते मिथ्या अनेकान्त छे. जीव पोतानुं करी शके अने बीजा जीवनुं पण करी शके-एमां जीवनुं पोताथी अने परथी एम बन्नेथी तत्पणुं थयुं तेथी ते मिथ्या-अनेकान्त छे.

(६) सम्यक् अने मिथ्या अनेकान्तना द्रष्टांतो
१-आत्मा पोतापणे छे अने परपणे नथी एम जाणवुं ते सम्यक् (साचुं)
अनेकान्त; आत्मा पोतापणे छे अने परपणे पण छे एम जाणवुं ते
मिथ्या अनेकान्त.
र-आत्मा पोतानुं करी शके छे अने शरीरादि पर वस्तुओनुं कांई करी शकतो
नथी-एम जाणवुं ते सम्यक् अनेकान्त;
आत्मा पोतानुं करी शके छे अने शरीरादि परनुं पण करी शके छे एम
जाणवुं ते मिथ्या अनेकान्त.
३-आत्माने शुद्धभावथी धर्म थाय अने शुभभावथी धर्म न थाय एम
जाणवुं ते सम्यक् अनेकान्त;
आत्माने शुद्धभावथी धर्म थाय अने शुभभावथी पण धर्म थाय एम
जाणवुं ते मिथ्या अनेकान्त.
४-निश्चयस्वरूपने आश्रये धर्म थाय अने व्यवहारना आश्रये धर्म न थाय
एम जाणवुं ते सम्यक् अनेकान्त;
निश्चयस्वरूपने आश्रये धर्म थाय अने व्यवहारना आश्रये पण धर्म थाय
एम जाणवुं ते मिथ्या अनेकान्त.
प-व्यवहारनो अभाव थतां निश्चय प्रगटे एम जाणवुं ते सम्यक् अनेकान्त;
व्यवहार करतां करतां निश्चय प्रगटे एम जाणवुं ते मिथ्या अनेकान्त.
६-आत्माने पोतानी शुद्ध क्रियाथी लाभ थाय अने शरीरनी क्रियाथी लाभ के
नुकशान न थाय एम जाणवुं ते सम्यक् अनेकान्त; आत्माने पोतानी शुद्ध
क्रियाथी लाभ थाय अने शरीरनी क्रियाथी पण लाभ थाय एम जाणवुं ते
मिथ्या अनेकान्त.
७-एक वस्तुमां परस्पर बे विरोधी शक्तिओ (सत्-असत्, तत्-अतत्,
नित्य-अनित्य, एक-अनेक वगेरे) प्रकाशीने वस्तुने सिद्ध करे ते सम्यक्
अनेकान्त;

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२२] [मोक्षशास्त्र एक वस्तुमां बीजी वस्तुनी शक्ति प्रकाशीने, एक वस्तु बे वस्तुनुं कार्य करे एम मानवुं ते मिथ्या अनेकान्त; अथवा तो सम्यक् अनेकान्तथी वस्तुनुं जे स्वरूप निश्चित छे तेनाथी विपरीत वस्तुस्वरूपनी केवळ कल्पना करी, तेमां न होय तेवा स्वभावोनी कल्पना करवी ते मिथ्या अनेकान्त छे.

८-जीव पोताना भाव करी शके अने परवस्तुने कांई न करी शके एम
जाणवुं ते सम्यक् अनेकान्त;
जीव सूक्ष्म पुद्गलोनुं कांई न करी शके पण स्थूळ पुद्गलोनुं करी शके
एम जाणवुं ते मिथ्या अनेकान्त.
(७) सम्यक् अने मिथ्या एकान्तनुं स्वरूप

पोताना स्वरूपे होवापणुं अने पररूपे नहि होवापणुं-आदि वस्तुनुं जे स्वरूप छे तेनी अपेक्षा राखीने प्रमाण द्वारा जाणेल पदार्थना एक देशनो (एक पडखांनो) विषय करनार नय ते सम्यक् एकांत छे; अने कोई वस्तुना एक धर्मनो निश्चय करी ते वस्तुमां रहेला अन्य धर्मोनो निषेध करवो ते मिथ्या एकांत छे.

(८) सम्यक् अने मिथ्या एकान्तनां द्रष्टांतो
१-‘सिद्ध भगवानो एकांत सुखी छे’-एम जाणवुं ते सम्यक् एकांत छे,
केमके ‘सिद्ध जीवोने बिलकुल दुःख नथी’ एम गर्भितपणे तेमां आवी
जाय छे. सर्व जीवो एकांत सुखी छे-एम जाणवुं ते मिथ्या एकांत छे,
केमके तेमां अज्ञानी जीवो वर्तमान दुःखी छे तेनो नकार थाय छे.
र-‘एकांत बोधबीजरूप जीवनो स्वभाव छे’ एम जाणवुं ते सम्यक् एकांत
छे, केमके ‘छद्मस्थ जीवनी वर्तमान ज्ञानअवस्था ओछा उघाडवाळी छे’-
एम तेमां गर्भितपणे आवी जाय छे.
३-‘सम्यग्ज्ञान ते धर्म छे’-एम जाणवुं ते सम्यक् एकांत छे. केमके
‘सम्यग्ज्ञानपूर्वक वैराग्य होय छे-’ एम गर्भितपणे तेमां आवी जाय छे;
सम्यग्ज्ञान विनानो ‘त्याग ते ज धर्म छे’-एम जाणवुं ते मिथ्या एकांत
छे, केमके ते सम्यग्ज्ञान विनानो होवाथी मिथ्या त्याग छे.
(९) प्रमाणना प्रकारो
प्रमाणना बे प्रकार छे-परोक्ष अने प्रत्यक्ष.
परोक्षः– जे ईन्द्रियोथी स्पर्शाई प्रवर्ते तथा जे चक्षु अने मनथी वगर स्पर्श्ये