Niyamsar-Gujarati (Devanagari transliteration). Shlok: 230-254 ; Gatha: 140-147 ; Nishchay-Paramavshyak Adhikar.

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२७२ ]
नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
विपरीताभिनिवेशं परित्यज्य जैनकथिततत्त्वेषु
यो युनक्ति आत्मानं निजभावः स भवेद्योगः ।।१३9।।
इह हि निखिलगुणधरगणधरदेवप्रभृतिजिनमुनिनाथकथिततत्त्वेषु विपरीताभिनिवेश-
विवर्जितात्मभाव एव निश्चयपरमयोग इत्युक्त :
अपरसमयतीर्थनाथाभिहिते विपरीते पदार्थे ह्यभिनिवेशो दुराग्रह एव विपरीताभि-
निवेशः अमुं परित्यज्य जैनकथिततत्त्वानि निश्चयव्यवहारनयाभ्यां बोद्धव्यानि सकलजिनस्य
भगवतस्तीर्थाधिनाथस्य पादपद्मोपजीविनो जैनाः, परमार्थतो गणधरदेवादय इत्यर्थः
तैरभिहितानि निखिलजीवादितत्त्वानि तेषु यः परमजिनयोगीश्वरः स्वात्मानं युनक्ति , तस्य च
निजभाव एव परमयोग इति
अन्वयार्थ[विपरीताभिनिवेशं परित्यज्य] विपरीत अभिनिवेशनो परित्याग करीने
[यः] जे [जैनकथिततत्त्वेषु] जैनकथित तत्त्वोमां [आत्मानं] आत्माने [युनक्ति ] जोडे छे,
[निजभावः] तेनो निज भाव [सः योगः भवेत्] ते योग छे.
टीकाअहीं, समस्त गुणोना धरनारा गणधरदेव वगेरे जिनमुनिनाथोए
कहेलां तत्त्वोमां विपरीत अभिनिवेश रहित आत्मभाव ते ज निश्चय-परमयोग छे एम
कह्युं छे.
अन्य समयना तीर्थनाथे कहेला (जैन दर्शन सिवाय अन्य दर्शनना तीर्थप्रवर्तके
कहेला) विपरीत पदार्थमां अभिनिवेशदुराग्रह ते ज विपरीत अभिनिवेश छे. तेनो
परित्याग करीने जैनोए कहेलां तत्त्वो निश्चयव्यवहारनयथी जाणवायोग्य छे. सकलजिन
एवा भगवान तीर्थाधिनाथनां चरणकमळना उपजीवको ते जैनो छे; परमार्थे गणधरदेव
वगेरे एवो तेनो अर्थ छे. तेमणे (गणधरदेव वगेरे जैनोए) कहेलां जे समस्त
जीवादि तत्त्वो तेमां जे परम जिनयोगीश्वर निज आत्माने जोडे छे, तेनो निजभाव ज
परम योग छे.
[हवे आ १३९मी गाथानी टीका पूर्ण करतां टीकाकार मुनिराज श्लोक कहे छेः]
देह सहित होवा छतां तीर्थंकरदेवे रागद्वेष अने अज्ञानने संपूर्ण रीते जीत्या छे तेथी तेओ
सकलजिन छे.
उपजीवक = सेवा करनार; सेवक; आश्रित; दास.

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कहानजैनशास्त्रमाळा ]
परम-भक्ति अधिकार
[ २७३
[श्लोकार्थ] आ दुराग्रहने (उपरोक्त विपरीत अभिनिवेशने) छोडीने, जैन-
मुनिनाथोना (गणधरदेवादिक जैनमुनिनाथोना) मुखारविंदथी प्रगट थयेलां, भव्य जनोना
भवोनो नाश करनारां तत्त्वोमां जे जिनयोगीनाथ (जैन मुनिवर) निज भावने साक्षात् जोडे
छे, तेनो ए निज भाव ते योग छे. २३०.
वृषभादि जिनवर ए रीते करी श्रेष्ठ भक्ति योगनी,
शिवसौख्य पाम्या; तेथी कर तुं भक्ति उत्तम योगनी. १४०.
अन्वयार्थ[वृषभादिजिनवरेन्द्राः] वृषभादि जिनवरेन्द्रो [एवम्] ए रीते
[योगवरभक्ति म्] योगनी उत्तम भक्ति [कृत्वा] करीने [निर्वृतिसुखम्] निर्वृतिसुखने [आपन्नाः]
पाम्या; [तस्मात्] तेथी [योगवरभक्ति म्] योगनी उत्तम भक्तिने [धारय] तुं धारण कर.
टीकाआ, भक्ति अधिकारना उपसंहारनुं कथन छे.
आ भारतवर्षमां पूर्वे श्री नाभिपुत्रथी मांडीने श्री वर्धमान सुधीना चोवीश तीर्थंकर-
परमदेवोसर्वज्ञवीतराग, त्रिलोकवर्ती कीर्तिवाळा महादेवाधिदेव परमेश्वरोबधा, यथोक्त
(वसंततिलका)
तत्त्वेषु जैनमुनिनाथमुखारविंद-
व्यक्तेषु भव्यजनताभवघातकेषु
त्यक्त्वा दुराग्रहममुं जिनयोगिनाथः
साक्षाद्युनक्ति निजभावमयं स योगः
।।२३०।।
उसहादिजिणवरिंदा एवं काऊण जोगवरभत्तिं
णिव्वुदिसुहमावण्णा तम्हा धरु जोगवरभत्तिं ।।१४०।।
वृषभादिजिनवरेन्द्रा एवं कृत्वा योगवरभक्ति म्
निर्वृतिसुखमापन्नास्तस्माद्धारय योगवरभक्ति म् ।।१४०।।
भक्त्यधिकारोपसंहारोपन्यासोयम्
अस्मिन् भारते वर्षे पुरा किल श्रीनाभेयादिश्रीवर्धमानचरमाः चतुर्विंशति-
तीर्थकरपरमदेवाः सर्वज्ञवीतरागाः त्रिभुवनवर्तिकीर्तयो महादेवाधिदेवाः परमेश्वराः सर्वे

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२७४ ]
नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
प्रकारे निज आत्मा साथे संबंध राखनारी शुद्धनिश्चययोगनी उत्तम भक्ति करीने, परम-
निर्वाणवधूना अति पुष्ट स्तनना गाढ आलिंगनथी सर्व आत्मप्रदेशे अत्यंत-आनंदरूपी
परमसुधारसना पूरथी परितृप्त थया; माटे
स्फुटितभव्यत्वगुणवाळा हे महाजनो! तमे निज
आत्माने परम वीतराग सुखनी देनारी एवी ते योगभक्ति करो.
[हवे आ परम-भक्ति अधिकारनी छेल्ली गाथानी टीका पूर्ण करतां टीकाकार
मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेव सात श्लोक कहे छेः]
[श्लोकार्थ] गुणमां जेओ मोटा छे, जेओ त्रिलोकनां पुण्यना राशि छे (अर्थात
जेमनामां जाणे के त्रण लोकनां पुण्य एकठां थयां छे), देवेंद्रोना मुगटनी किनारी पर प्रकाशती
माणेकपंक्तिथी जेओ पूजित छे (अर्थात
् जेमनां चरणारविंदमां देवेंद्रोना मुगट झूके छे),
(जेमनी आगळ) शची आदि प्रसिद्ध इन्द्राणीओना साथमां शक्रेंद्र वडे करवामां आवतां नृत्य,
गान अने आनंदथी जेओ शोभे छे, अने
श्री तथा कीर्तिना जेओ स्वामी छे, ते श्री
नाभिपुत्रादि जिनेश्वरोने हुं स्तवुं छुं. २३१.
[श्लोकार्थ] श्री वृषभथी मांडीने श्री वीर सुधीना जिनपतिओ पण यथोक्त मार्गे
एवमुक्त प्रकारस्वात्मसंबन्धिनीं शुद्धनिश्चययोगवरभक्तिं कृत्वा परमनिर्वाणवधूटिकापीवरस्तन-
भरगाढोपगूढनिर्भरानंदपरमसुधारसपूरपरितृप्तसर्वात्मप्रदेशा जाताः, ततो यूयं महाजनाः
स्फु टितभव्यत्वगुणास्तां स्वात्मार्थपरमवीतरागसुखप्रदां योगभक्तिं कुरुतेति
(शार्दूलविक्रीडित)
नाभेयादिजिनेश्वरान् गुणगुरून् त्रैलोक्यपुण्योत्करान्
श्रीदेवेन्द्रकिरीटकोटिविलसन्माणिक्यमालार्चितान्
पौलोमीप्रभृतिप्रसिद्धदिविजाधीशांगनासंहतेः
शक्रेणोद्भवभोगहासविमलान् श्रीकीर्तिनाथान् स्तुवे
।।२३१।।
(आर्या)
वृषभादिवीरपश्चिमजिनपतयोप्येवमुक्त मार्गेण
कृत्वा तु योगभक्तिं निर्वाणवधूटिकासुखं यान्ति ।।२३२।।
१. स्फुटित = प्रकटित; प्रगट थयेल; प्रगट.
२. श्री = शोभा; सौंदर्य; भव्यता.

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कहानजैनशास्त्रमाळा ]
परम-भक्ति अधिकार
[ २७५
(पूर्वोक्त प्रकारे) योगभक्ति करीने निर्वाणवधूना सुखने पाम्या छे. २३२.
[श्लोकार्थ] अपुनर्भवसुखनी (मुक्तिसुखनी) सिद्धि अर्थे हुं शुद्ध योगनी उत्तम
भक्ति करुं छुं; संसारनी घोर भीतिथी सर्व जीवो नित्य ते उत्तम भक्ति करो. २३३.
[श्लोकार्थ] गुरुना सान्निध्यमां निर्मळसुखकारी धर्मने प्राप्त करीने, ज्ञान वडे
जेणे समस्त मोहनो महिमा नष्ट कर्यो छे एवो हुं, हवे रागद्वेषनी परंपरारूपे परिणत
चित्तने छोडीने, शुद्ध ध्यान वडे समाहित (
एकाग्र, शांत) करेला मनथी आनंदात्मक
तत्त्वमां स्थित रहेतो थको, परब्रह्ममां (परमात्मामां) लीन थाउं छुं. २३४.
[श्लोकार्थ] इन्द्रियलोलुपता जेमने निवृत्त थई छे अने तत्त्वलोलुप
(तत्त्वप्राप्ति माटे अति उत्सुक) जेमनुं चित्त छे, तेमने सुंदर-आनंदझरतुं उत्तम तत्त्व
प्रगटे छे. २३५.
[श्लोकार्थ] अति अपूर्व निजात्मजनित भावनाथी उत्पन्न थता सुख माटे
(आर्या)
अपुनर्भवसुखसिद्धयै कुर्वेहं शुद्धयोगवरभक्ति म्
संसारघोरभीत्या सर्वे कुर्वन्तु जन्तवो नित्यम् ।।२३३।।
(शार्दूलविक्रीडित)
रागद्वेषपरंपरापरिणतं चेतो विहायाधुना
शुद्धध्यानसमाहितेन मनसानंदात्मतत्त्वस्थितः
धर्मं निर्मलशर्मकारिणमहं लब्ध्वा गुरोः सन्निधौ
ज्ञानापास्तसमस्तमोहमहिमा लीये परब्रह्मणि
।।२३४।।
(अनुष्टुभ्)
निर्वृतेन्द्रियलौल्यानां तत्त्वलोलुपचेतसाम्
सुन्दरानन्दनिष्यन्दं जायते तत्त्वमुत्तमम् ।।२३५।।
(अनुष्टुभ्)
अत्यपूर्वनिजात्मोत्थभावनाजातशर्मणे
यतन्ते यतयो ये ते जीवन्मुक्ता हि नापरे ।।२३६।।

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(वसंततिलका)
अद्वन्द्वनिष्ठमनघं परमात्मतत्त्वं
संभावयामि तदहं पुनरेकमेकम्
किं तैश्च मे फलमिहान्यपदार्थसार्थैः
मुक्ति स्पृहस्य भवशर्मणि निःस्पृहस्य
।।२३७।।
इति सुकविजनपयोजमित्रपंचेन्द्रियप्रसरवर्जितगात्रमात्रपरिग्रहश्रीपद्मप्रभमलधारिदेवविरचितायां
नियमसारव्याख्यायां तात्पर्यवृत्तौ परमभक्त्यधिकारो दशमः श्रुतस्कन्धः ।।
२७६ ]नियमसार
जे यतिओ यत्न करे छे, तेओ खरेखर जीवन्मुक्त थाय छे, बीजाओ नहि. २३६.
[श्लोकार्थ] जे परमात्मतत्त्व (रागद्वेषादि) द्वंद्वमां रहेलुं नथी अने अनघ
(निर्दोष, मळ रहित) छे, ते केवळ एकनी हुं फरीफरीने संभावना (सम्यक् भावना) करुं
छुं. मुक्तिनी स्पृहावाळा अने भवना सुख प्रत्ये निःस्पृह एवा मने आ लोकमां पेला
अन्यपदार्थसमूहोथी शुं फळ छे? २३७.
आ रीते, सुकविजनरूपी कमळोने माटे जेओ सूर्य समान छे अने पांच इन्द्रियोना
फेलाव रहित देहमात्र जेमने परिग्रह हतो एवा श्री पद्मप्रभमलधारिदेव वडे रचायेली
नियमसारनी तात्पर्यवृत्ति नामनी टीकामां (अर्थात
् श्रीमद्भगवत्कुंदकुंदाचार्यदेवप्रणीत श्री
नियमसार परमागमनी निर्ग्रंथ मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेवविरचित तात्पर्यवृत्ति नामनी
टीकामां)
परम-भक्ति अधिकार नामनो दशमो श्रुतस्कंध समाप्त थयो.

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२७७
११
निश्चय-परमावश्यक अधिकार
अथ सांप्रतं व्यवहारषडावश्यकप्रतिपक्षशुद्धनिश्चयाधिकार उच्यते
जो ण हवदि अण्णवसो तस्स दु कम्मं भणंति आवासं
कम्मविणासणजोगो णिव्वुदिमग्गो त्ति पिज्जुत्तो ।।१४१।।
यो न भवत्यन्यवशः तस्य तु कर्म भणन्त्यावश्यकम्
कर्मविनाशनयोगो निर्वृतिमार्ग इति प्ररूपितः ।।१४१।।
अत्रानवरतस्ववशस्य निश्चयावश्यककर्म भवतीत्युक्त म्
हवे व्यवहार छ आवश्यकोथी प्रतिपक्ष शुद्धनिश्चयनो (शुद्धनिश्चय-आवश्यकनो)
अधिकार कहेवामां आवे छे.
नथी अन्यवश जे जीव, आवश्यक करम छे तेहने;
आ कर्मनाशनयोगने निर्वाणमार्ग कहेल छे. १४१.
अन्वयार्थ[यः अन्यवशः न भवति] जे अन्यवश नथी (अर्थात् जे जीव अन्यने
वश नथी) [तस्य तु आवश्यकम् कर्म भणन्ति] तेने आवश्यक कर्म कहे छे (अर्थात् ते
जीवने आवश्यक कर्म छे एम परम योगीश्वरो कहे छे). [कर्मविनाशनयोगः] कर्मनो विनाश
करनारो योग (एवुं जे आ आवश्यक कर्म) [निर्वृतिमार्गः] ते निर्वाणनो मार्ग छे [इति
प्ररूपितः] एम कह्युं छे.
टीकाअहीं (आ गाथामां), निरंतर स्ववशने निश्चय-आवश्यक-कर्म छे एम
कह्युं छे.

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२७८ ]
नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
यः खलु यथाविधि परमजिनमार्गाचरणकुशलः सर्वदैवान्तर्मुखत्वादनन्यवशो भवति
किन्तु साक्षात्स्ववश इत्यर्थः तस्य किल व्यावहारिकक्रियाप्रपंचपराङ्मुखस्य स्वात्माश्रय-
निश्चयधर्मध्यानप्रधानपरमावश्यककर्मास्तीत्यनवरतं परमतपश्चरणनिरतपरमजिनयोगीश्वरा
वदन्ति
किं च यस्त्रिगुप्तिगुप्तपरमसमाधिलक्षणपरमयोगः सकलकर्मविनाशहेतुः स एव
साक्षान्मोक्षकारणत्वान्निर्वृतिमार्ग इति निरुक्ति र्व्युत्पत्तिरिति
तथा चोक्तं श्रीमदमृतचन्द्रसूरिभिः
(मंदाक्रांता)
‘‘आत्मा धर्मः स्वयमिति भवन् प्राप्य शुद्धोपयोगं
नित्यानन्दप्रसरसरसे ज्ञानतत्त्वे निलीय
प्राप्स्यत्युच्चैरविचलतया निःप्रकम्पप्रकाशां
स्फू र्जज्ज्योतिःसहजविलसद्रत्नदीपस्य लक्ष्मीम्
।।’’
विधि अनुसार परमजिनमार्गना आचरणमां कुशळ एवो जे जीव सदाय
अंतर्मुखपणाने लीधे अन्यवश नथी परंतु साक्षात् स्ववश छे एवो अर्थ छे, ते व्यावहारिक
क्रियाप्रपंचथी पराङ्मुख जीवने स्वात्माश्रित-निश्चयधर्मध्यानप्रधान परम आवश्यक कर्म छे
एम निरंतर परमतपश्चरणमां लीन परमजिनयोगीश्वरो कहे छे. वळी, सकळ कर्मना
विनाशनो हेतु एवो जे
त्रिगुप्तिगुप्त-परमसमाधिलक्षण परम योग ते ज साक्षात् मोक्षनुं
कारण होवाने लीधे निर्वाणनो मार्ग छे. आम निरुक्ति अर्थात् व्युत्पत्ति छे.
एवी रीते (आचार्यदेव) श्रीमद् अमृतचंद्रसूरिए (श्री प्रवचनसारनी तत्त्वदीपिका
नामनी टीकामां पांचमा श्लोक द्वारा) कह्युं छे के
‘‘[श्लोकार्थ] ए रीते शुद्धोपयोगने प्राप्त करीने आत्मा स्वयं धर्म थतो
अर्थात् पोते धर्मपणे परिणमतो थको नित्य आनंदना फेलावथी सरस (अर्थात् जे शाश्वत
आनंदना फेलावथी रसयुक्त छे) एवा ज्ञानतत्त्वमां लीन थईने, अत्यंत अविचळपणाने
लीधे, देदीप्यमान ज्योतिवाळा अने सहजपणे विलसता (
स्वभावथी ज प्रकाशता)
१. ‘अन्यवश नथी’ ए कथननो ‘साक्षात् स्ववश छे’ एवो अर्थ छे.
२. निज आत्मा जेनो आश्रय छे एवुं निश्चयधर्मध्यान परम आवश्यक कर्ममां प्रधान छे.
३. परम योगनुं लक्षण त्रण गुप्ति वडे गुप्त (
अंतर्मुख) एवी परम समाधि छे. [परम आवश्यक
कर्म ते ज परम योग छे अने परम योग ते निर्वाणनो मार्ग छे.]

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कहानजैनशास्त्रमाळा ]
निश्चय-परमावश्यक अधिकार
[ २७९
तथा हि
(मंदाक्रांता)
आत्मन्युच्चैर्भवति नियतं सच्चिदानन्दमूर्तौ
धर्मः साक्षात
् स्ववशजनितावश्यकर्मात्मकोऽयम्
सोऽयं कर्मक्षयकरपटुर्निर्वृतेरेकमार्गः
तेनैवाहं किमपि तरसा यामि शं निर्विकल्पम्
।।२३८।।
ण वसो अवसो अवसस्स कम्म वावस्सयं ति बोद्धव्वं
जुत्ति त्ति उवाअं ति य णिरवयवो होदि णिज्जुत्ती ।।१४२।।
न वशो अवशः अवशस्य कर्म वाऽवश्यकमिति बोद्धव्यम्
युक्ति रिति उपाय इति च निरवयवो भवति निरुक्ति : ।।१४२।।
रत्नदीपकनी निष्कंप-प्रकाशवाळी शोभाने पामे छे (अर्थात् रत्नदीपकनी माफक स्वभावथी
ज निष्कंपपणे अत्यंत प्रकाश्याजाण्या करे छे).’’
वळी (आ १४१मी गाथानी टीका पूर्ण करतां टीकाकार मुनिराज श्री
पद्मप्रभमलधारिदेव श्लोक कहे छे)
[श्लोकार्थ] स्ववशताथी उत्पन्न आवश्यक-कर्मस्वरूप आ साक्षात् धर्म नियमथी
(चोक्कस) सच्चिदानंदमूर्ति आत्मामां (सत्-चिद्-आनंदस्वरूप आत्मामां) अतिशयपणे होय
छे. ते आ (आत्मस्थित धर्म), कर्मक्षय करवामां कुशळ एवो निर्वाणनो एक मार्ग छे. तेनाथी
ज हुं शीघ्र कोई (
अद्भुत) निर्विकल्प सुखने प्राप्त करुं छुं. २३८.
वश जे नहीं ते ‘अवश’, ‘आवश्यक’ अवशनुं कर्म छे;
ते युक्ति अगर उपाय छे, अशरीर तेथी थाय छे. १४२.
अन्वयार्थ[न वशः अवशः] जे (अन्यने) वश नथी ते ‘अवश’ छे [वा] अने
[अवशस्य कर्म] अवशनुं कर्म ते [आवश्यकम्] ‘आवश्यक’ छे [इति बोद्धव्यम्] एम जाणवुं;
[युक्ति : इति] ते (अशरीर थवानी) युक्ति छे, [उपायः इति च] ते (अशरीर थवानो)
उपाय छे, [निरवयवः भवति] तेनाथी जीव निरवयव (अर्थात् अशरीर) थाय छे.
[निरुक्ति :] आम निरुक्ति छे.

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२८० ]
नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
अवशस्य परमजिनयोगीश्वरस्य परमावश्यककर्मावश्यं भवतीत्यत्रोक्त म्
यो हि योगी स्वात्मपरिग्रहादन्येषां पदार्थानां वशं न गतः, अत एव अवश
इत्युक्त :, अवशस्य तस्य परमजिनयोगीश्वरस्य निश्चयधर्मध्यानात्मकपरमावश्यक-
कर्मावश्यं भवतीति बोद्धव्यम्
निरवयवस्योपायो युक्ति : अवयवः कायः,
अस्याभावात् अवयवाभावः अवशः परद्रव्याणां निरवयवो भवतीति निरुक्ति :
व्युत्पत्तिश्चेति
(मंदाक्रांता)
योगी कश्चित्स्वहितनिरतः शुद्धजीवास्तिकायाद्
अन्येषां यो न वश इति या संस्थितिः सा निरुक्ति :
तस्मादस्य प्रहतदुरितध्वान्तपुंजस्य नित्यं
स्फू र्जज्ज्योतिःस्फु टितसहजावस्थयाऽमूर्तता स्यात
।।२३9।।
टीकाअहीं, *अवश परमजिनयोगीश्वरने परम आवश्यक कर्म जरूर छे एम
कह्युं छे.
जे योगी निज आत्माना परिग्रह सिवाय अन्य पदार्थोने वश थतो नथी अने
तेथी ज जेने ‘अवश’ कहेवामां आवे छे, ते अवश परमजिनयोगीश्वरने निश्चय-
धर्मध्यानस्वरूप परम-आवश्यक-कर्म जरूर छे एम जाणवुं. (ते परम-आवश्यक-कर्म)
निरवयवपणानो उपाय छे, युक्ति छे. अवयव एटले काय; तेनो (कायनो) अभाव ते
अवयवनो अभाव (अर्थात
् निरवयवपणुं). परद्रव्योने अवश जीव निरवयव थाय छे
(अर्थात् जे जीव परद्रव्योने वश थतो नथी ते अकाय थाय छे). आ प्रमाणे
निरुक्तिव्युत्पत्तिछे.
[हवे आ १४२ मी गाथानी टीका पूर्ण करतां टीकाकार मुनिराज श्लोक कहे
छेः]
[श्लोकार्थ] कोई योगी स्वहितमां लीन रहेतो थको शुद्धजीवास्तिकाय
सिवायना अन्य पदार्थोने वश थतो नथी. आम जे सुस्थित रहेवुं ते निरुक्ति (अर्थात
अवशपणानो व्युत्पत्ति-अर्थ) छे. एम करवाथी (पोतामां लीन रही परने वश नहि
*अवश = परने वश न होय एवा; स्ववश; स्वाधीन; स्वतंत्र.

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कहानजैनशास्त्रमाळा ]
निश्चय-परमावश्यक अधिकार
[ २८१
वट्टदि जो सो समणो अण्णवसो होदि असुहभावेण
तम्हा तस्स दु कम्मं आवस्सयलक्खणं ण हवे ।।१४३।।
वर्तते यः स श्रमणोऽन्यवशो भवत्यशुभभावेन
तस्मात्तस्य तु कर्मावश्यकलक्षणं न भवेत।।१४३।।
इह हि भेदोपचाररत्नत्रयपरिणतेर्जीवस्यावशत्वं न समस्तीत्युक्त म्
अप्रशस्तरागाद्यशुभभावेन यः श्रमणाभासो द्रव्यलिङ्गी वर्तते स्वस्वरूपादन्येषां
परद्रव्याणां वशो भूत्वा, ततस्तस्य जघन्यरत्नत्रयपरिणतेर्जीवस्य स्वात्माश्रयनिश्चयधर्मध्यान-
लक्षणपरमावश्यककर्म न भवेदिति अशनार्थं द्रव्यलिङ्गं गृहीत्वा स्वात्मकार्यविमुखः सन्
परमतपश्चरणादिकमप्युदास्य जिनेन्द्रमन्दिरं वा तत्क्षेत्रवास्तुधनधान्यादिकं वा सर्वमस्मदीयमिति
मनश्चकारेति
थवाथी) *दुरितरूपी तिमिरपुंजनो जेणे नाश कर्यो छे एवा ते योगीने सदा प्रकाशमान
ज्योति वडे सहज अवस्था प्रगटवाथी अमूर्तपणुं थाय छे. २३९.
वर्ते अशुभ परिणाममां, ते श्रमण छे वश अन्यने;
ते कारणे आवश्यकात्मक कर्म छे नहि तेहने. १४३.
अन्वयार्थ[यः] जे [अशुभभावेन] अशुभ भाव सहित [वर्तते] वर्ते छे, [सः
श्रमणः] ते श्रमण [अन्यवशः भवति] अन्यवश छे; [तस्मात्] तेथी [तस्य तु] तेने
[आवश्यकलक्षणं कर्म] आवश्यकस्वरूप कर्म [न भवेत्] नथी.
टीकाअहीं, भेदोपचार-रत्नत्रयपरिणतिवाळा जीवने अवशपणुं नथी एम कह्युं छे.
जे श्रमणाभासद्रव्यलिंगी अप्रशस्त रागादिरूप अशुभभाव सहित वर्ते छे, ते निज
स्वरूपथी अन्य (भिन्न) एवां परद्रव्योने वश छे; तेथी ते जघन्य रत्नत्रयपरिणतिवाळा
जीवने स्वात्माश्रित निश्चय-धर्मध्यानस्वरूप परम-आवश्यक-कर्म नथी. (ते श्रमणाभास)
भोजन अर्थे द्रव्यलिंग ग्रहीने स्वात्मकार्यथी विमुख रहेतो थको परम तपश्चरणादि प्रत्ये पण
उदासीन (बेदरकार) रहीने जिनेन्द्रमंदिर अथवा तेनुं क्षेत्र, मकान, धन, धान्यादिक बधुं
अमारुं छे एम बुद्धि करे छे.
*दुरित = दुष्कृत; दुष्कर्म. (पाप तेम ज पुण्य बन्ने खरेखर दुरित छे.)

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२८२ ]
नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
(मालिनी)
अभिनवमिदमुच्चैर्मोहनीयं मुनीनां
त्रिभुवनभुवनान्तर्ध्वांतपुंजायमानम्
तृणगृहमपि मुक्त्वा तीव्रवैराग्यभावाद्
वसतिमनुपमां तामस्मदीयां स्मरन्ति
।।२४०।।
(शार्दूलविक्रीडित)
कोपि क्वापि मुनिर्बभूव सुकृती काले कलावप्यलं
मिथ्यात्वादिकलंकपंकरहितः सद्धर्मरक्षामणिः
सोऽयं संप्रति भूतले दिवि पुनर्देवैश्च संपूज्यते
मुक्तानेकपरिग्रहव्यतिकरः पापाटवीपावकः
।।२४१।।
(शिखरिणी)
तपस्या लोकेस्मिन्निखिलसुधियां प्राणदयिता
नमस्या सा योग्या शतमखशतस्यापि सततम्
परिप्राप्यैतां यः स्मरतिमिरसंसारजनितं
सुखं रेमे कश्चिद्बत कलिहतोऽसौ जडमतिः
।।२४२।।
[हवे आ १४३मी गाथानी टीका पूर्ण करतां टीकाकार मुनिराज पांच श्लोक कहे छेः]
[श्लोकार्थ
] त्रिलोकरूपी मकानमां रहेला (महा) तिमिरपुंज जेवुं मुनिओनुं आ
(कोई) नवुं तीव्र मोहनीय छे के (पहेलां) तेओ तीव्र वैराग्यभावथी घासना घरने पण
छोडीने (पछी) ‘अमारुं ते अनुपम घर!’ एम स्मरण करे छे! २४०.
[श्लोकार्थ] कळिकाळमां पण क्यांक कोईक भाग्यशाळी जीव मिथ्यात्वादिरूप
मळकादवथी रहित अने *सद्धर्मरक्षामणि एवो समर्थ मुनि थाय छे. जेणे अनेक परिग्रहोना
विस्तारने छोड्यो छे अने जे पापरूपी अटवीने बाळनारो अग्नि छे ते आ मुनि आ काळे
भूतळमां तेम ज देवलोकमां देवोथी पण सारी रीते पूजाय छे. २४१.
[श्लोकार्थ] आ लोकमां तपश्चर्या समस्त सुबुद्धिओने प्राणप्यारी छे; ते योग्य
*सद्धर्मरक्षामणि = सद्धर्मनी रक्षा करनारो मणि. (रक्षामणि = आपत्तिओथी अथवा पिशाच वगेरेथी
पोतानी जातने बचाववा माटे पहेरवामां आवतो मणि).

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कहानजैनशास्त्रमाळा ]
निश्चय-परमावश्यक अधिकार
[ २८३
(आर्या)
अन्यवशः संसारी मुनिवेषधरोपि दुःखभाङ्नित्यम्
स्ववशो जीवन्मुक्त : किंचिन्न्यूनो जिनेश्वरादेषः ।।२४३।।
(आर्या)
अत एव भाति नित्यं स्ववशो जिननाथमार्गमुनिवर्गे
अन्यवशो भात्येवं भृत्यप्रकरेषु राजवल्लभवत।।२४४।।
जो चरदि संजदो खलु सुहभावे सो हवेइ अण्णवसो
तम्हा तस्स दु कम्मं आवासयलक्खणं ण हवे ।।१४४।।
यश्चरति संयतः खलु शुभभावे स भवेदन्यवशः
तस्मात्तस्य तु कर्मावश्यकलक्षणं न भवेत।।१४४।।
तपश्चर्या सो इन्द्रोने पण सतत वंदनीय छे. तेने पामीने जे कोई जीव कामान्धकारयुक्त
संसारथी जनित सुखमां रमे छे, ते जडमति अरेरे! कळिथी हणायेलो छे (
कळिकाळथी इजा
पामेलो छे). २४२.
[श्लोकार्थ] जे जीव अन्यवश छे ते भले मुनिवेशधारी होय तोपण संसारी छे,
नित्य दुःखनो भोगवनार छे; जे जीव स्ववश छे ते जीवन्मुक्त छे, जिनेश्वरथी किंचित् न्यून
छे (अर्थात् तेनामां जिनेश्वरदेव करतां जराक ज ऊणप छे). २४३.
[श्लोकार्थ] आम होवाथी ज जिननाथना मार्गने विषे मुनिवर्गमां स्ववश मुनि
सदा शोभे छे; अने अन्यवश मुनि नोकरना समूहोमां *राजवल्लभ नोकर समान शोभे
छे (अर्थात् जेम आवडत विनानो, खुशामतियो नोकर शोभतो नथी तेम अन्यवश मुनि
शोभतो नथी). २४४.
संयत रही शुभमां चरे, ते श्रमण छे वश अन्यने;
ते कारणे आवश्यकात्मक कर्म छे नहि तेहने. १४४.
अन्वयार्थ[यः] जे (जीव) [संयतः] संयत रहेतो थको [खलु] खरेखर
[शुभभावे] शुभ भावमां [चरति] चरेप्रवर्ते छे, [सः] ते [अन्यवशः भवेत्] अन्यवश
*राजवल्लभ = (खुशामतथी) राजानो मानीतो थयेलो

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२८४ ]
नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
अत्राप्यन्यवशस्याशुद्धान्तरात्मजीवस्य लक्षणमभिहितम्
यः खलु जिनेन्द्रवदनारविन्दविनिर्गतपरमाचारशास्त्रक्रमेण सदा संयतः सन्
शुभोपयोगे चरति, व्यावहारिकधर्मध्यानपरिणतः अत एव चरणकरणप्रधानः,
स्वाध्यायकालमवलोकयन् स्वाध्यायक्रियां करोति, दैनं दैनं भुक्त्वा भुक्त्वा
चतुर्विधाहारप्रत्याख्यानं च करोति, तिसृषु संध्यासु भगवदर्हत्परमेश्वरस्तुतिशत-
सहस्रमुखरमुखारविन्दो भवति, त्रिकालेषु च नियमपरायणः इत्यहोरात्रेऽप्येकादशक्रिया-तत्परः,
पाक्षिकमासिकचातुर्मासिकसांवत्सरिकप्रतिक्रमणाकर्णनसमुपजनितपरितोषरोमांच-
कंचुकितधर्मशरीरः, अनशनावमौदर्यरसपरित्यागवृत्तिपरिसंख्यानविविक्त शयनासनकाय-
क्लेशाभिधानेषु षट्सु बाह्यतपस्सु च संततोत्साहपरायणः, स्वाध्यायध्यानशुभाचरणप्रच्युत-
प्रत्यवस्थापनात्मकप्रायश्चित्तविनयवैयावृत्त्यव्युत्सर्गनामधेयेषु चाभ्यन्तरतपोनुष्ठानेषु च
छे; [तस्मात्] तेथी [तस्य तु] तेने [आवश्यकलक्षणं कर्म] आवश्यकस्वरूप कर्म [न भवेत्]
नथी.
टीकाअहीं पण (आ गाथामां पण), अन्यवश एवा अशुद्ध-अंतरात्मजीवनुं
लक्षण कह्युं छे.
जे (श्रमण) खरेखर जिनेंद्रना वदनारविंदमांथी नीकळेला परम-आचारशास्त्रना क्रमथी
(रीतथी) सदा संयत रहेतो थको शुभोपयोगमां चरेप्रवर्ते छे; व्यावहारिक धर्मध्यानमां
परिणत रहे छे तेथी ज *चरणकरणप्रधान छे; स्वाध्यायकाळने अवलोकतो थको
(स्वाध्याययोग्य काळनुं ध्यान राखीने) स्वाध्यायक्रिया करे छे, प्रतिदिन भोजन करीने
चतुर्विध आहारनुं प्रत्याख्यान करे छे, त्रण संध्याओ वखते (सवारे, बपोरे ने सांजे)
भगवान अर्हत् परमेश्वरनी लाखो स्तुति मुखकमळथी बोले छे, त्रणे काळे नियमपरायण
रहे छे (अर्थात् त्रणे वखतना नियमोमां तत्पर रहे छे),ए रीते अहर्निश (दिवस-रात
थईने) अगियार क्रियामां तत्पर रहे छे; पाक्षिक, मासिक, चातुर्मासिक अने सांवत्सरिक
प्रतिक्रमण सांभळवाथी ऊपजेला संतोषथी जेनुं धर्मशरीर रोमांचथी छवाई जाय छे;
अनशन, अवमौदर्य, रसपरित्याग, वृत्तिपरिसंख्यान, विविक्त शय्यासन अने कायक्लेश
नामनां छ बाह्य तपमां जे सतत उत्साहपरायण रहे छे; स्वाध्याय, ध्यान, शुभ आचरणथी
च्युत थतां फरी तेमां स्थापनस्वरूप प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्त्य अने व्युत्सर्ग नामनां
*चरणकरणप्रधान = शुभ आचरणना परिणाम जेने मुख्य छे एवो

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कहानजैनशास्त्रमाळा ]
निश्चय-परमावश्यक अधिकार
[ २८५
कुशलबुद्धिः, किन्तु स निरपेक्षतपोधनः साक्षान्मोक्षकारणं स्वात्माश्रयावश्यककर्म
निश्चयतः परमात्मतत्त्वविश्रान्तिरूपं निश्चयधर्मध्यानं शुक्लध्यानं च न जानीते, अतः
परद्रव्यगतत्वादन्यवश इत्युक्त :
अस्य हि तपश्चरणनिरतचित्तस्यान्यवशस्य
नाकलोकादिक्लेशपरंपरया शुभोपयोगफलात्मभिः प्रशस्तरागांगारैः पच्यमानः सन्नासन्न-
भव्यतागुणोदये सति परमगुरुप्रसादासादितपरमतत्त्वश्रद्धानपरिज्ञानानुष्ठानात्मकशुद्ध-
निश्चयरत्नत्रयपरिणत्या निर्वाणमुपयातीति
(हरिणी)
त्यजतु सुरलोकादिक्लेशे रतिं मुनिपुंगवो
भजतु परमानन्दं निर्वाणकारणकारणम्
सकलविमलज्ञानावासं निरावरणात्मकं
सहजपरमात्मानं दूरं नयानयसंहतेः
।।२४५।।
अभ्यंतर तपना अनुष्ठानमां (आचरणमां) जे कुशळबुद्धिवाळो छे; परंतु ते निरपेक्ष तपोधन
साक्षात
् मोक्षना कारणभूत स्वात्माश्रित आवश्यक-कर्मनेनिश्चयथी परमात्मतत्त्वमां
विश्रांतिरूप निश्चयधर्मध्यानने तथा शुक्लध्याननेजाणतो नथी; तेथी परद्रव्यमां परिणत
होवाथी तेने अन्यवश कहेवामां आव्यो छे. जेनुं चित्त तपश्चरणमां लीन छे एवो आ
अन्यवश श्रमण देवलोकादिना क्लेशनी परंपरा पामवाथी शुभोपयोगना फळस्वरूप प्रशस्त
रागरूपी अंगाराओथी शेकातो थको, आसन्नभव्यतारूपी गुणनो उदय थतां परमगुरुना
प्रसादथी प्राप्त परमतत्त्वनां श्रद्धान-ज्ञान-अनुष्ठानस्वरूप शुद्ध-निश्चय-रत्नत्रयपरिणति वडे
निर्वाणने पामे छे (अर्थात
् क्यारेक शुद्ध-निश्चय-रत्नत्रयपरिणतिने प्राप्त करे तो ज अने
त्यारे ज निर्वाणने पामे छे).
[हवे आ १४४मी गाथानी टीका पूर्ण करतां टीकाकार मुनिराज श्लोक कहे
छेः]
[श्लोकार्थ] मुनिवर देवलोकादिना क्लेश प्रत्ये रति तजो अने *निर्वाणना
कारणनुं कारण एवा सहजपरमात्माने भजोके जे सहजपरमात्मा परमानंदमय छे,
सर्वथा निर्मळ ज्ञाननुं रहेठाण छे, निरावरणस्वरूप छे अने नय-अनयना समूहथी (सुनयो
तथा कुनयोना समूहथी) दूर छे. २४५.
*निर्वाणनुं कारण परमशुद्धोपयोग छे अने परमशुद्धोपयोगनुं कारण सहजपरमात्मा छे.

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२८६ ]
नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
दव्वगुणपज्जयाणं चित्तं जो कुणइ सो वि अण्णवसो
मोहंधयारववगयसमणा कहयंति एरिसयं ।।१४५।।
द्रव्यगुणपर्यायाणां चित्तं यः करोति सोप्यन्यवशः
मोहान्धकारव्यपगतश्रमणाः कथयन्तीद्रशम् ।।१४५।।
अत्राप्यन्यवशस्य स्वरूपमुक्त म्
यः कश्चिद् द्रव्यलिङ्गधारी भगवदर्हन्मुखारविन्दविनिर्गतमूलोत्तरपदार्थसार्थप्रति-
पादनसमर्थः क्वचित् षण्णां द्रव्याणां मध्ये चित्तं धत्ते, क्वचित्तेषां मूर्तामूर्तचेतनाचेतनगुणानां
मध्ये मनश्चकार, पुनस्तेषामर्थव्यंजनपर्यायाणां मध्ये बुद्धिं करोति, अपि तु त्रिकाल-
निरावरणनित्यानंदलक्षणनिजकारणसमयसारस्वरूपनिरतसहजज्ञानादिशुद्धगुणपर्यायाणामाधार-
भूतनिजात्मतत्त्वे चित्तं कदाचिदपि न योजयति, अत एव स तपोधनोऽप्यन्यवश
इत्युक्त :
जे चित्त जोडे द्रव्य-गुण-पर्यायनी चिंता विषे,
तेनेय मोहविहीन श्रमणो अन्यवश भाखे अरे! १४५.
अन्वयार्थ[यः] जे [द्रव्यगुणपर्यायाणां] द्रव्य-गुण-पर्यायोमां (अर्थात् तेमना
विकल्पोमां) [चित्तं करोति] मन जोडे छे, [सः अपि] ते पण [अन्यवशः] अन्यवश छे;
[मोहान्धकारव्यपगतश्रमणाः] मोहान्धकार रहित श्रमणो [ईद्रशम्] आम [कथयन्ति] कहे छे.
टीकाअहीं पण अन्यवशनुं स्वरूप कह्युं छे.
भगवान अर्हत्ना मुखारविंदथी नीकळेला (कहेवायेला) मूळ अने उत्तर पदार्थोनुं
सार्थ (अर्थ सहित) प्रतिपादन करवामां समर्थ एवो जे कोई द्रव्यलिंगधारी (मुनि) क्यारेक
छ द्रव्योमां चित्त जोडे छे, क्यारेक तेमना मूर्त-अमूर्त चेतन-अचेतन गुणोमां मन जोडे छे
अने वळी क्यारेक तेमना अर्थपर्यायो अने व्यंजनपर्यायोमां बुद्धि जोडे छे, परंतु त्रिकाळ-
निरावरण, नित्यानंद जेनुं लक्षण छे एवा निजकारणसमयसारना स्वरूपमां लीन
सहजज्ञानादि शुद्धगुणपर्यायोना आधारभूत निज आत्मतत्त्वमां चित्त क्यारेय जोडतो नथी,
ते तपोधनने पण ते कारणे ज (अर्थात
् पर विकल्पोने वश थतो होवाना कारणे ज)
अन्यवश कहेवामां आव्यो छे.

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कहानजैनशास्त्रमाळा ]
निश्चय-परमावश्यक अधिकार
[ २८७
प्रध्वस्तदर्शनचारित्रमोहनीयकर्मध्वांतसंघाताः परमात्मतत्त्वभावनोत्पन्नवीतराग-
सुखामृतपानोन्मुखाः श्रवणा हि महाश्रवणाः परमश्रुतकेवलिनः, ते खलु कथयन्तीद्रशम्
अन्यवशस्य स्वरूपमिति
तथा चोक्त म्
(अनुष्टुभ्)
‘‘आत्मकार्यं परित्यज्य द्रष्टाद्रष्टविरुद्धया
यतीनां ब्रह्मनिष्ठानां किं तया परिचिन्तया ।।’’
तथा हि
(अनुष्टुभ्)
यावच्चिन्तास्ति जन्तूनां तावद्भवति संसृतिः
यथेंधनसनाथस्य स्वाहानाथस्य वर्धनम् ।।२४६।।
जेमणे दर्शनमोहनीय अने चारित्रमोहनीय कर्मरूपी तिमिरसमूहनो नाश कर्यो छे
अने परमात्मतत्त्वनी भावनाथी उत्पन्न वीतरागसुखामृतना पानमां जे उन्मुख (तत्पर)
छे एवा श्रमणो खरेखर महाश्रमणो छे, परम श्रुतकेवळीओ छे; तेओ खरेखर
अन्यवशनुं आवुं (
उपर कह्या प्रमाणे) स्वरूप कहे छे.
एवी रीते (अन्यत्र श्लोक द्वारा) कह्युं छे केः
‘‘[श्लोकार्थ] आत्मकार्यने छोडीने द्रष्ट तथा अद्रष्टथी विरुद्ध एवी ते
चिंताथी (प्रत्यक्ष तथा परोक्षथी विरुद्ध एवा विकल्पोथी) ब्रह्मनिष्ठ यतिओने शुं
प्रयोजन छे?’’
वळी (आ १४५मी गाथानी टीका पूर्ण करतां टीकाकार मुनिराज श्लोक कहे
छे)
[श्लोकार्थ] जेम इन्धनयुक्त अग्नि वृद्धि पामे छे (अर्थात् ज्यां सुधी
इन्धन छे त्यां सुधी अग्निनी वृद्धि थाय छे), तेम ज्यां सुधी जीवोने चिंता (विकल्पो)
छे त्यां सुधी संसार छे. २४६.

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२८८ ]
नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
परिचत्ता परभावं अप्पाणं झादि णिम्मलसहावं
अप्पवसो सो होदि हु तस्स दु कम्मं भणंति आवासं ।।१४६।।
परित्यज्य परभावं आत्मानं ध्यायति निर्मलस्वभावम्
आत्मवशः स भवति खलु तस्य तु कर्म भणन्त्यावश्यम् ।।१४६।।
अत्र हि साक्षात् स्ववशस्य परमजिनयोगीश्वरस्य स्वरूपमुक्त म्
यस्तु निरुपरागनिरंजनस्वभावत्वादौदयिकादिपरभावानां समुदयं परित्यज्य काय-
करणवाचामगोचरं सदा निरावरणत्वान्निर्मलस्वभावं निखिलदुरघवीरवैरिवाहिनीपताकालुंटाकं
निजकारणपरमात्मानं ध्यायति स एवात्मवश इत्युक्त :
तस्याभेदानुपचाररत्नत्रयात्मकस्य
निखिलबाह्यक्रियाकांडाडंबरविविधविकल्पमहाकोलाहलप्रतिपक्षमहानंदानंदप्रदनिश्चयधर्मशुक्ल-
ध्यानात्मकपरमावश्यककर्म भवतीति
परभाव छोडी, आत्मने ध्यावे विशुद्धस्वभावने,
छे आत्मवश ते साधु, आवश्यक करम छे तेहने. १४६.
अन्वयार्थ[परभावं परित्यज्य] जे परभावने परित्यागीने [निर्मलस्वभावम्] निर्मळ
स्वभाववाळा [आत्मानं] आत्माने [ध्यायति] ध्यावे छे, [सः खलु] ते खरेखर [आत्मवशः
भवति] आत्मवश छे [तस्य तु] अने तेने [आवश्यम् कर्म] आवश्यक कर्म [भणन्ति] (जिनो)
कहे छे.
टीकाअहीं खरेखर साक्षात् स्ववश परमजिनयोगीश्वरनुं स्वरूप कह्युं छे.
जे (श्रमण) निरुपराग निरंजन स्वभाववाळो होवाने लीधे औदयिकादि परभावोना
समुदायने परित्यागीने, निज कारणपरमात्मानेके जे (कारणपरमात्मा) काया, इन्द्रिय अने
वाणीने अगोचर छे, सदा निरावरण होवाथी निर्मळ स्वभाववाळो छे अने समस्त
*दुरघरूपी वीर शत्रुओनी सेनाना ध्वजने लूंटनारो छे तेनेध्यावे छे, तेने ज (ते श्रमणने
ज) आत्मवश कहेवामां आव्यो छे. ते अभेद-अनुपचाररत्नत्रयात्मक श्रमणने समस्त
बाह्यक्रियाकांड-आडंबरना विविध विकल्पोना महा कोलाहलथी प्रतिपक्ष
+महा-आनंदानंदप्रद
निश्चयधर्मध्यान तथा निश्चयशुक्लध्यानस्वरूप परमावश्यक-कर्म छे.
*दुरघ = दुष्ट अघ; दुष्ट पाप. (अशुभ तेम ज शुभ कर्म बंने दुरघ छे.)
+परम आवश्यक कर्म निश्चयधर्मध्यान तथा निश्चयशुक्लध्यानस्वरूप छेके जे ध्यानो महा आनंद-
आनंदना देनारां छे. आ महा आनंद-आनंद विकल्पोना महा कोलाहलथी विरुद्ध छे.

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कहानजैनशास्त्रमाळा ]
निश्चय-परमावश्यक अधिकार
[ २८९
(पृथ्वी)
जयत्ययमुदारधीः स्ववशयोगिवृन्दारकः
प्रनष्टभवकारणः प्रहतपूर्वकर्मावलिः
स्फु टोत्कटविवेकतः स्फु टितशुद्धबोधात्मिकां
सदाशिवमयां मुदा व्रजति सर्वथा निर्वृतिम्
।।२४७।।
(अनुष्टुभ्)
प्रध्वस्तपंचबाणस्य पंचाचारांचिताकृतेः
अवंचकगुरोर्वाक्यं कारणं मुक्ति संपदः ।।२४८।।
(अनुष्टुभ्)
इत्थं बुद्ध्वा जिनेन्द्रस्य मार्गं निर्वाणकारणम्
निर्वाणसंपदं याति यस्तं वंदे पुनः पुनः ।।२४9।।
(द्रुतविलंबित)
स्ववशयोगिनिकायविशेषक
प्रहतचारुवधूकनकस्पृह
त्वमसि नश्शरणं भवकानने
स्मरकिरातशरक्षतचेतसाम्
।।२५०।।
[हवे आ १४६मी गाथानी टीका पूर्ण करतां टीकाकार मुनिराज आठ श्लोको कहे
छेः]
[श्लोकार्थ] उदार जेनी बुद्धि छे, भवनुं कारण जेणे नष्ट कर्युं छे, पूर्व कर्मावलि
जेणे हणी नाखी छे अने स्पष्ट उत्कट विवेक द्वारा प्रगट-शुद्धबोधस्वरूप सदाशिवमय संपूर्ण
मुक्तिने जे प्रमोदथी पामे छे, ते आ स्ववश मुनिश्रेष्ठ जयवंत छे. २४७.
[श्लोकार्थ] कामदेवनो जेमणे नाश कर्यो छे अने (ज्ञान-दर्शन-चारित्र-तप-
वीर्यात्मक) पंचाचारथी सुशोभित जेमनी आकृति छेएवा अवंचक (मायाचार रहित)
गुरुनुं वाक्य मुक्तिसंपदानुं कारण छे. २४८.
[श्लोकार्थ] निर्वाणनुं कारण एवो जे जिनेंद्रनो मार्ग तेने आ रीते जाणीने जे
निर्वाणसंपदाने पामे छे, तेने हुं फरीफरीने वंदुं छुं. २४९.
[श्लोकार्थ] जेणे सुंदर स्त्रीनी अने सुवर्णनी स्पृहाने नष्ट करी छे एवा हे

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२९० ]
नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
(द्रुतविलंबित)
अनशनादितपश्चरणैः फलं
तनुविशोषणमेव न चापरम्
तव पदांबुरुहद्वयचिंतया
स्ववश जन्म सदा सफलं मम
।।२५१।।
(मालिनी)
जयति सहजतेजोराशिनिर्मग्नलोकः
स्वरसविसरपूरक्षालितांहः समंतात
सहजसमरसेनापूर्णपुण्यः पुराणः
स्ववशमनसि नित्यं संस्थितः शुद्धसिद्धः
।।२५२।।
(अनुष्टुभ्)
सर्वज्ञवीतरागस्य स्ववशस्यास्य योगिनः
न कामपि भिदां क्वापि तां विद्मो हा जडा वयम् ।।२५३।।
(अनुष्टुभ्)
एक एव सदा धन्यो जन्मन्यस्मिन्महामुनिः
स्ववशः सर्वकर्मभ्यो बहिस्तिष्ठत्यनन्यधीः ।।२५४।।
योगीसमूहमां श्रेष्ठ स्ववश योगी! तुं अमारुंकामदेवरूपी भीलना तीरथी घवायेला
चित्तवाळानुंभवरूपी अरण्यमां शरण छे. २५०.
[श्लोकार्थ] अनशनादि तपश्चरणोनुं फळ शरीरनुं शोषण (सुकावुं) ज छे, बीजुं
नहि. (परंतु) हे स्ववश! (हे आत्मवश मुनि!) तारा चरणकमळयुगलना चिंतनथी मारो
जन्म सदा सफळ छे. २५१.
[श्लोकार्थ] जेणे निज रसना विस्ताररूपी पूर वडे पापने सर्व तरफथी धोई
नाख्यां छे, जे सहज समतारसथी पूर्ण भरेलो होवाथी पवित्र छे, जे पुराण (सनातन)
छे, जे स्ववश मनमां सदा सुस्थित छे (अर्थात
् जे सदा मननेभावने स्ववश करीने
बिराजमान छे) अने जे शुद्ध सिद्ध छे (अर्थात् जे शुद्ध सिद्धभगवान समान छे)एवो
सहज तेजराशिमां मग्न जीव जयवंत छे. २५२.
[श्लोकार्थ] सर्वज्ञ-वीतरागमां अने आ स्ववश योगीमां क्यारेय कांई पण भेद
नथी; छतां अरेरे! आपणे जड छीए के तेमनामां भेद गणीए छीए. २५३.
[श्लोकार्थ] आ जन्ममां स्ववश महामुनि एक ज सदा धन्य छे के जे

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कहानजैनशास्त्रमाळा ]
निश्चय-परमावश्यक अधिकार
[ २९१
आवासं जइ इच्छसि अप्पसहावेसु कुणदि थिरभावं
तेण दु सामण्णगुणं संपुण्णं होदि जीवस्स ।।१४७।।
आवश्यकं यदीच्छसि आत्मस्वभावेषु करोषि स्थिरभावम्
तेन तु सामायिकगुणं सम्पूर्णं भवति जीवस्य ।।१४७।।
शुद्धनिश्चयावश्यकप्राप्त्युपायस्वरूपाख्यानमेतत
इह हि बाह्यषडावश्यकप्रपंचकल्लोलिनीकलकलध्वानश्रवणपराङ्मुख हे शिष्य शुद्ध-
निश्चयधर्मशुक्लध्यानात्मकस्वात्माश्रयावश्यकं संसारव्रततिमूललवित्रं यदीच्छसि, समस्त-
विकल्पजालविनिर्मुक्त निरंजननिजपरमात्मभावेषु सहजज्ञानसहजदर्शनसहजचारित्रसहजसुख-
प्रमुखेषु सततनिश्चलस्थिरभावं करोषि, तेन हेतुना निश्चयसामायिकगुणे जाते मुमुक्षोर्जीवस्य
बाह्यषडावश्यकक्रियाभिः किं जातम्, अप्यनुपादेयं फलमित्यर्थः
अतः परमावश्यकेन
अनन्यबुद्धिवाळो रहेतो थको (निजात्मा सिवाय अन्य प्रत्ये लीन नहि थतो थको) सर्व
कर्मोथी बहार रहे छे. २५४.
आवश्यकार्थे तुं निजात्मस्वभावमां स्थिरता करे;
तेनाथी सामायिक तणो गुण पूर्ण थाये जीवने. १४७.
अन्वयार्थ[यदि] जो तुं [आवश्यकम् इच्छसि] आवश्यकने इच्छे छे तो तुं
[आत्मस्वभावेषु] आत्मस्वभावोमां [स्थिरभावम्] स्थिरभाव [करोषि] करे छे; [तेन तु] तेनाथी
[जीवस्य] जीवने [सामायिकगुणं] सामायिकगुण [सम्पूर्णं भवति] संपूर्ण थाय छे.
टीकाआ, शुद्धनिश्चय-आवश्यकनी प्राप्तिनो जे उपाय तेना स्वरूपनुं कथन छे.
बाह्य षट्-आवश्यकप्रपंचरूपी नदीना कोलाहलना श्रवणथी (व्यवहार छ
आवश्यकना विस्ताररूपी नदीना ककळाटना श्रवणथी) पराङ्मुख हे शिष्य! शुद्धनिश्चय-
धर्मध्यान तथा शुद्धनिश्चय-शुक्लध्यानस्वरूप स्वात्माश्रित आवश्यकने
के जे संसाररूपी
लताना मूळने छेदवानो कुहाडो छे तेनेजो तुं इच्छे छे, तो तुं समस्त विकल्पजाळ रहित
निरंजन निज परमात्माना भावोमांसहज ज्ञान, सहज दर्शन, सहज चारित्र अने सहज
सुख वगेरेमांसतत-निश्चळ स्थिरभाव करे छे; ते हेतुथी (अर्थात् ते कारण वडे)
निश्चयसामायिकगुण ऊपजतां, मुमुक्षु जीवने बाह्य छ आवश्यकक्रियाओथी शुं ऊपज्युं?