Niyamsar-Gujarati (Devanagari transliteration). Shlok: 255-271 ; Gatha: 148-158.

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२९२ ]
नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
निष्क्रियेण अपुनर्भवपुरन्ध्रिकासंभोगहासप्रवीणेन जीवस्य सामायिकचारित्रं सम्पूर्णं भवतीति
तथा चोक्तं श्रीयोगीन्द्रदेवैः
(मालिनी)
‘‘यदि चलति कथञ्चिन्मानसं स्वस्वरूपाद्
भ्रमति बहिरतस्ते सर्वदोषप्रसङ्गः
तदनवरतमंतर्मग्नसंविग्नचित्तो
भव भवसि भवान्तस्थायिधामाधिपस्त्वम्
।।’’
तथा हि
(शार्दूलविक्रीडित)
यद्येवं चरणं निजात्मनियतं संसारदुःखापहं
मुक्ति श्रीललनासमुद्भवसुखस्योच्चैरिदं कारणम्
बुद्ध्वेत्थं समयस्य सारमनघं जानाति यः सर्वदा
सोयं त्यक्त बहिःक्रियो मुनिपतिः पापाटवीपावकः
।।२५५।।
अनुपादेय फळ ऊपज्युं एवो अर्थ छे. माटे अपुनर्भवरूपी (मुक्तिरूपी) स्त्रीनां संभोग
अने हास्य प्राप्त करवामां प्रवीण एवा निष्क्रिय परम-आवश्यकथी जीवने सामायिकचारित्र
संपूर्ण थाय छे.
एवी रीते (आचार्यवर) श्री योगीन्द्रदेवे (अमृताशीतिमां ६४ मा श्लोक द्वारा) कह्युं
छे केः
‘‘[श्लोकार्थ] जो कोई प्रकारे मन निज स्वरूपथी चलित थाय अने तेनाथी
बहार भमे तो तने सर्व दोषनो प्रसंग आवे छे, माटे तुं सतत अंतर्मग्न अने संविग्न
चित्तवाळो था के जेथी तुं मोक्षरूपी स्थायी धामनो अधिपति थशे.’’
वळी (आ १४७मी गाथानी टीका पूर्ण करतां टीकाकार मुनिराज श्लोक कहे छे)ः
[श्लोकार्थ] जो ए रीते (जीवने) संसारदुःखनाशक निजात्मनियत चारित्र
अनुपादेय = हेय; नापसंद करवा जेवुं; नहि वखाणवा जेवुं.
संविग्न = संवेगी; वैरागी; विरक्त.
निजात्मनियत = निज आत्माने वळगेलुं; निज आत्माने अवलंबतुं; निजात्माश्रित; निज आत्मामां
एकाग्र.

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कहानजैनशास्त्रमाळा ]
निश्चय-परमावश्यक अधिकार
[ २९३
आवासएण हीणो पब्भट्ठो होदि चरणदो समणो
पुव्वुत्तकमेण पुणो तम्हा आवासयं कुज्जा ।।१४८।।
आवश्यकेन हीनः प्रभ्रष्टो भवति चरणतः श्रमणः
पूर्वोक्त क्रमेण पुनः तस्मादावश्यकं कुर्यात।।१४८।।
अत्र शुद्धोपयोगाभिमुखस्य शिक्षणमुक्त म्
अत्र व्यवहारनयेनापि समतास्तुतिवंदनाप्रत्याख्यानादिषडावश्यकपरिहीणः
श्रमणश्चारित्रपरिभ्रष्ट इति यावत्, शुद्धनिश्चयेन परमाध्यात्मभाषयोक्त निर्विकल्प-
समाधिस्वरूपपरमावश्यकक्रियापरिहीणश्रमणो निश्चयचारित्रभ्रष्ट इत्यर्थः पूर्वोक्त स्ववशस्य
परमजिनयोगीश्वरस्य निश्चयावश्यकक्रमेण स्वात्माश्रयनिश्चयधर्मशुक्लध्यान-
होय, तो ते चारित्र मुक्तिश्रीरूपी (मुक्तिलक्ष्मीरूपी) सुंदरीथी उत्पन्न थता सुखनुं
अतिशयपणे कारण थाय छे;
आम जाणीने जे (मुनिवर) निर्दोष समयना सारने सर्वदा
जाणे छे, ते आ मुनिपतिके जेणे बाह्य क्रिया छोडी छे तेपापरूपी अटवीने
बाळनारो अग्नि छे. २५५.
आवश्यके विरहित श्रमण चारित्रथी प्रभ्रष्ट छे;
तेथी यथोक्त प्रकार आवश्यक करम कर्तव्य छे. १४८.
अन्वयार्थ[आवश्यकेन हीनः] आवश्यक रहित [श्रमणः] श्रमण [चरणतः]
चरणथी [प्रभ्रष्टः भवति] प्रभ्रष्ट (अति भ्रष्ट) छे; [तस्मात् पुनः] अने तेथी [पूर्वोक्त क्रम्*ोण]
पूर्वोक्त क्रमथी (पूर्वे कहेली विधिथी) [आवश्यकं कुर्यात्] आवश्यक करवुं.
टीकाअहीं (आ गाथामां) शुद्धोपयोगसंमुख जीवने शिखामण कही छे.
अहीं (आ लोकमां) व्यवहारनये पण, समता, स्तुति, वंदना, प्रत्याख्यान वगेरे
छ आवश्यकथी रहित श्रमण चारित्रपरिभ्रष्ट (चारित्रथी सर्वथा भ्रष्ट) छे; शुद्धनिश्चये,
परम-अध्यात्मभाषाथी जेने निर्विकल्प-समाधिस्वरूप कहेवामां आवे छे एवी परम
आवश्यक क्रियाथी रहित श्रमण निश्चयचारित्रभ्रष्ट छे;
आम अर्थ छे. (माटे) स्ववश
परमजिनयोगीश्वरना निश्चय-आवश्यकनो जे क्रम पूर्वे कहेवामां आव्यो छे ते क्रमथी
(
ते विधिथी), स्वात्माश्रित एवां निश्चय-धर्मध्यान अने निश्चय-शुक्लध्यानस्वरूपे, परम

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२९४ ]
नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
स्वरूपेण सदावश्यकं करोतु परममुनिरिति
(मंदाक्रांता)
आत्मावश्यं सहजपरमावश्यकं चैकमेकं
कुर्यादुच्चैरघकुलहरं निर्वृतेर्मूलभूतम्
सोऽयं नित्यं स्वरसविसरापूर्णपुण्यः पुराणः
वाचां दूरं किमपि सहजं शाश्वतं शं प्रयाति
।।२५६।।
(अनुष्टुभ्)
स्ववशस्य मुनीन्द्रस्य स्वात्मचिन्तनमुत्तमम्
इदं चावश्यकं कर्म स्यान्मूलं मुक्ति शर्मणः ।।२५७।।
आवासएण जुत्तो समणो सो होदि अंतरंगप्पा
आवासयपरिहीणो समणो सो होदि बहिरप्पा ।।१४9।।
मुनि सदा आवश्यक करो.
[हवे आ १४८मी गाथानी टीका पूर्ण करतां टीकाकार मुनिराज बे श्लोक कहे
छेः]
[श्लोकार्थ] आत्माए अवश्य मात्र सहज-परम-आवश्यकने एकने जके
जे *अघसमूहनुं नाशक छे अने मुक्तिनुं मूळ (कारण) छे तेने जअतिशयपणे
करवुं. (एम करवाथी,) सदा निज रसना फेलावथी पूर्ण भरेलो होवाने लीधे पवित्र
अने पुराण (सनातन) एवो ते आत्मा वाणीथी दूर (वचन-अगोचर) एवा कोई
सहज शाश्वत सुखने पामे छे. २५६.
[श्लोकार्थ] स्ववश मुनींद्रने उत्तम स्वात्मचिंतन (निजात्मानुभवन) होय छे;
अने आ (निजात्मानुभवनरूप) आवश्यक कर्म (तेने) मुक्तिसौख्यनुं कारण थाय छे. २५७.
आवश्यके संयुक्त योगी अंतरात्मा जाणवो;
आवश्यके विरहित श्रमण बहिरंग आत्मा जाणवो. १४९.
*अघ = दोष; पाप. (अशुभ तेम ज शुभ बन्ने अघ छे.)

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कहानजैनशास्त्रमाळा ]
निश्चय-परमावश्यक अधिकार
[ २९५
आवश्यकेन युक्त : श्रमणः स भवत्यंतरंगात्मा
आवश्यकपरिहीणः श्रमणः स भवति बहिरात्मा ।।१४9।।
अत्रावश्यककर्माभावे तपोधनो बहिरात्मा भवतीत्युक्त :
अभेदानुपचाररत्नत्रयात्मकस्वात्मानुष्ठाननियतपरमावश्यककर्मणानवरतसंयुक्त : स्व-
वशाभिधानपरमश्रमणः सर्वोत्कृष्टोऽन्तरात्मा, षोडशकषायाणामभावादयं क्षीणमोहपदवीं
परिप्राप्य स्थितो महात्मा
असंयतसम्यग्द्रष्टिर्जघन्यांतरात्मा अनयोर्मध्यमाः सर्वे
मध्यमान्तरात्मानः निश्चयव्यवहारनयद्वयप्रणीतपरमावश्यकक्रियाविहीनो बहिरात्मेति
उक्तं च मार्गप्रकाशे
(अनुष्टुभ्)
‘‘बहिरात्मान्तरात्मेति स्यादन्यसमयो द्विधा
बहिरात्मानयोर्देहकरणाद्युदितात्मधीः ।।’’
अन्वयार्थ[आवश्यकेन युक्त :] आवश्यक सहित [श्रमणः] श्रमण [सः] ते
[अंतरंगात्मा] अंतरात्मा [भवति] छे; [आवश्यकपरिहीणः] आवश्यक रहित [श्रमणः] श्रमण
[सः] ते [बहिरात्मा] बहिरात्मा [भवति] छे.
टीकाअहीं, आवश्यक कर्मना अभावमां तपोधन बहिरात्मा होय छे एम कह्युं छे.
अभेद-अनुपचार-रत्नत्रयात्मक *स्वात्मानुष्ठानमां नियत परमावश्यक-कर्मथी निरंतर
संयुक्त एवो जे ‘स्ववश’ नामनो परम श्रमण ते सर्वोत्कृष्ट अंतरात्मा छे; आ महात्मा सोळ
कषायोना अभाव द्वारा क्षीणमोहपदवीने प्राप्त करीने स्थित छे. असंयत सम्यग्द्रष्टि जघन्य
अंतरात्मा छे. आ बेनी मध्यमां रहेला सर्वे मध्यम अंतरात्मा छे. निश्चय अने व्यवहार ए
बे नयोथी प्रणीत जे परम आवश्यक क्रिया तेनाथी जे रहित होय ते बहिरात्मा छे.
श्री मार्गप्रकाशमां पण (बे श्लोक द्वारा) कह्युं छे केः
‘‘[श्लोकार्थ] अन्यसमय (अर्थात् परमात्मा सिवायना जीवो) बहिरात्मा अने
अंतरात्मा एम बे प्रकारे छे; तेमां बहिरात्मा देह-इन्द्रिय वगेरेमां आत्मबुद्धिवाळो होय
छे.’’
*
स्वात्मानुष्ठान = निज आत्मानुं आचरण. (परम आवश्यक कर्म अभेद-अनुपचार-रत्नत्रयस्वरूप
स्वात्माचरणमां नियमथी रहेलुं छे अर्थात
् ते स्वात्माचरण ज परम आवश्यक कर्म छे.)

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२९६ ]
नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
(अनुष्टुभ्)
‘‘जघन्यमध्यमोत्कृष्टभेदादविरतः सुद्रक्
प्रथमः क्षीणमोहोन्त्यो मध्यमो मध्यमस्तयोः ।।’’
तथा हि
(मंदाक्रांता)
योगी नित्यं सहजपरमावश्यकर्मप्रयुक्त :
संसारोत्थप्रबलसुखदुःखाटवीदूरवर्ती
तस्मात्सोऽयं भवति नितरामन्तरात्मात्मनिष्ठः
स्वात्मभ्रष्टो भवति बहिरात्मा बहिस्तत्त्वनिष्ठः
।।२५८।।
अंतरबाहिरजप्पे जो वट्टइ सो हवेइ बहिरप्पा
जप्पेसु जो ण वट्टइ सो उच्चइ अंतरंगप्पा ।।१५०।।
अन्तरबाह्यजल्पे यो वर्तते स भवति बहिरात्मा
जल्पेषु यो न वर्तते स उच्यतेऽन्तरंगात्मा ।।१५०।।
‘‘[श्लोकार्थ] अंतरात्माना जघन्य, मध्यम अने उत्कृष्ट एवा (त्रण) भेदो छे;
अविरत सम्यग्द्रष्टि ते पहेलो (जघन्य) अंतरात्मा छे, क्षीणमोह ते छेल्लो (उत्कृष्ट)
अंतरात्मा छे अने ते बेनी मध्यमां रहेलो ते मध्यम अंतरात्मा छे.’’
वळी (आ १४९मी गाथानी टीका पूर्ण करतां टीकाकार मुनिराज श्लोक कहे छे)ः
[श्लोकार्थ] योगी सदा सहज परम आवश्यक कर्मथी युक्त रहेतो थको
संसारजनित प्रबळ सुखदुःखरूपी अटवीथी दूरवर्ती होय छे तेथी ते योगी अत्यंत
आत्मनिष्ठ अंतरात्मा छे; जे स्वात्माथी भ्रष्ट होय ते बहिःतत्त्वनिष्ठ (बाह्य तत्त्वमां लीन)
बहिरात्मा छे. २५८.
जे बाह्य-अंतर जल्पमां वर्ते, अरे! बहिरात्म छे;
जल्पो विषे वर्ते नहीं, ते अंतरात्मा जीव छे. १५०.
अन्वयार्थ[यः] जे [अन्तरबाह्यजल्पे] अंतर्बाह्य जल्पमां [वर्तते] वर्ते छे, [सः] ते
[बहिरात्मा] बहिरात्मा [भवति] छे; [यः] जे [जल्पेषु] जल्पोमां [न वर्तते] वर्ततो नथी,
[सः] ते [अन्तरंगात्मा] अंतरात्मा [उच्यते] कहेवाय छे.

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कहानजैनशास्त्रमाळा ]
निश्चय-परमावश्यक अधिकार
[ २९७
बाह्याभ्यन्तरजल्पनिरासोऽयम्
यस्तु जिनलिंगधारी तपोधनाभासः पुण्यकर्मकांक्षया स्वाध्यायप्रत्याख्यान-
स्तवनादिबहिर्जल्पं करोति, अशनशयनयानस्थानादिषु सत्कारादिलाभलोभस्सन्नन्तर्जल्पे
मनश्चकारेति स बहिरात्मा जीव इति
स्वात्मध्यानपरायणस्सन् निरवशेषेणान्तर्मुखः
प्रशस्ताप्रशस्तसमस्तविकल्पजालकेषु कदाचिदपि न वर्तते अत एव परमतपोधनः
साक्षादंतरात्मेति
तथा चोक्तं श्रीमदमृतचंद्रसूरिभिः
(वसंततिलका)
‘‘स्वेच्छासमुच्छलदनल्पविकल्पजाला-
मेवं व्यतीत्य महतीं नयपक्षकक्षाम्
अन्तर्बहिः समरसैकरसस्वभावं
स्वं भावमेकमुपयात्यनुभूतिमात्रम्
।।’’
टीकाआ, बाह्य तथा अंतर जल्पनो निरास (निराकरण, खंडन) छे.
जे जिनलिंगधारी तपोधनाभास पुण्यकर्मनी कांक्षाथी स्वाध्याय, प्रत्याख्यान,
स्तवन वगेरे बहिर्जल्प करे छे अने अशन, शयन, गमन, स्थिति वगेरेमां (खावुं,
सूवुं, गमन करवुं, स्थिर रहेवुं इत्यादि कार्योमां) सत्कारादिनी प्राप्तिनो लोभी वर्ततो
थको अंतर्जल्पमां मनने जोडे छे, ते बहिरात्मा जीव छे. निज आत्माना ध्यानमां
परायण वर्ततो थको निरवशेषपणे (संपूर्णपणे) अंतर्मुख रहीने (परम तपोधन)
प्रशस्त-अप्रशस्त समस्त विकल्पजाळोमां क्यारेय वर्ततो नथी तेथी ज परम तपोधन
साक्षात
् अंतरात्मा छे.
एवी रीते (आचार्यदेव) श्रीमद् अमृतचंद्रसूरिए (श्री समयसारनी आत्मख्याति
नामनी टीकामां ९० मा श्लोक द्वारा) कह्युं छे केः
‘‘
[श्लोकार्थ] ए प्रमाणे जेमां बहु विकल्पोनी जाळो आपोआप ऊठे छे
एवी मोटी नयपक्षकक्षाने (नयपक्षनी भूमिने) ओळंगी जईने (तत्त्ववेदी) अंदर अने
बहार समता-रसरूपी एक रस ज जेनो स्वभाव छे एवा अनुभूतिमात्र एक पोताना
भावने (
स्वरूपने) पामे छे.’’

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२९८ ]
नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
तथा हि
(मंदाक्रांता)
मुक्त्वा जल्पं भवभयकरं बाह्यमाभ्यन्तरं च
स्मृत्वा नित्यं समरसमयं चिच्चमत्कारमेकम्
ज्ञानज्योतिःप्रकटितनिजाभ्यन्तरांगान्तरात्मा
क्षीणे मोहे किमपि परमं तत्त्वमन्तर्ददर्श
।।२५9।।
जो धम्मसुक्कझाणम्हि परिणदो सो वि अंतरंगप्पा
झाणविहीणो समणो बहिरप्पा इदि विजाणीहि ।।१५१।।
यो धर्मशुक्लध्यानयोः परिणतः सोप्यन्तरंगात्मा
ध्यानविहीनः श्रमणो बहिरात्मेति विजानीहि ।।१५१।।
अत्र स्वात्माश्रयनिश्चयधर्मशुक्लध्यानद्वितयमेवोपादेयमित्युक्त म्
वळी (आ १५० मी गाथानी टीका पूर्ण करतां टीकाकार मुनिराज श्लोक कहे
छे)ः
[श्लोकार्थ] भवभयना करनारा, बाह्य तेम ज अभ्यंतर जल्पने छोडीने,
समरसमय (समतारसमय) एक चैतन्यचमत्कारने सदा स्मरीने, ज्ञानज्योति वडे जेणे निज
अभ्यंतर अंग प्रगट कर्युं छे एवो अंतरात्मा, मोह क्षीण थतां, कोई (अद्भुत) परम तत्त्वने
अंदरमां देखे छे. २५९.
वळी धर्मशुक्लध्यानपरिणत अंतरात्मा जाणजे;
ने ध्यानविरहित श्रमणने बहिरंग आत्मा जाणजे. १५१.
अन्वयार्थ[यः] जे [धर्मशुक्लध्यानयोः] धर्मध्यान अने शुक्लध्यानमां [परिणतः]
परिणत छे [सः अपि] ते पण [अन्तरंगात्मा] अंतरात्मा छे; [ध्यानविहीनः] ध्यानविहीन
[श्रमणः] श्रमण [बहिरात्मा] बहिरात्मा छे [इति विजानीहि] एम जाण.
टीकाअहीं (आ गाथामां), स्वात्माश्रित निश्चय-धर्मध्यान अने निश्चय-शुक्लध्यान
ए बे ध्यानो ज उपादेय छे एम कह्युं छे.

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कहानजैनशास्त्रमाळा ]
निश्चय-परमावश्यक अधिकार
[ २९९
इह हि साक्षादन्तरात्मा भगवान् क्षीणकषायः तस्य खलु भगवतः
क्षीणकषायस्य षोडशकषायाणामभावात् दर्शनचारित्रमोहनीयकर्मराजन्ये विलयं गते अत
एव सहजचिद्विलासलक्षणमत्यपूर्वमात्मानं शुद्धनिश्चयधर्मशुक्लध्यानद्वयेन नित्यं ध्यायति
आभ्यां ध्यानाभ्यां विहीनो द्रव्यलिंगधारी द्रव्यश्रमणो बहिरात्मेति हे शिष्य त्वं जानीहि
(वसंततिलका)
कश्चिन्मुनिः सततनिर्मलधर्मशुक्ल-
ध्यानामृते समरसे खलु वर्ततेऽसौ
ताभ्यां विहीनमुनिको बहिरात्मकोऽयं
पूर्वोक्त योगिनमहं शरणं प्रपद्ये
।।२६०।।
किं च केवलं शुद्धनिश्चयनयस्वरूपमुच्यते
(अनुष्टुभ्)
बहिरात्मान्तरात्मेति विकल्पः कुधियामयम्
सुधियां न समस्त्येष संसाररमणीप्रियः ।।२६१।।
अहीं (आ लोकमां) खरेखर साक्षात् अंतरात्मा भगवान क्षीणकषाय छे. खरेखर
ते भगवान क्षीणकषायने सोळ कषायोनो अभाव होवाने लीधे दर्शनमोहनीय अने
चारित्रमोहनीय कर्मरूपी योद्धाओनां दळ नाश पाम्यां छे तेथी ते (भगवान क्षीणकषाय)
*सहजचिद्दविलासलक्षण अति-अपूर्व आत्माने शुद्धनिश्चय-धर्मध्यान अने शुद्धनिश्चय-
शुक्लध्यान ए बे ध्यानो वडे नित्य ध्यावे छे. आ बे ध्यानो विनानो द्रव्यलिंगधारी द्रव्यश्रमण
बहिरात्मा छे एम हे शिष्य! तुं जाण.
[हवे अहीं टीकाकार मुनिराज श्लोक कहे छेः]
[श्लोकार्थ
] कोई मुनि सतत-निर्मळ धर्मशुक्ल-ध्यानामृतरूपी समरसमां खरेखर
वर्ते छे; (ते अंतरात्मा छे;) ए बे ध्यानो विनानो तुच्छ मुनि ते बहिरात्मा छे. हुं पूर्वोक्त
(समरसी) योगीनुं शरण ग्रहुं छुं. २६०.
वळी (आ १५१ मी गाथानी टीका पूर्ण करतां टीकाकार मुनिराज वडे श्लोक द्वारा)
केवळ शुद्धनिश्चयनयनुं स्वरूप कहेवामां आवे छेः
[श्लोकार्थ] (शुद्ध आत्मतत्त्वने विषे) बहिरात्मा अने अंतरात्मा एवो आ
* सहजचिद्दविलासलक्षण = जेनुं लक्षण (चिह्न अथवा स्वरूप) सहज चैतन्यनो विलास छे एवा

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३०० ]
नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
पडिकमणपहुदिकिरियं कुव्वंतो णिच्छयस्स चारित्तं
तेण दु विरागचरिए समणो अब्भुट्ठिदो होदि ।।१५२।।
प्रतिक्रमणप्रभृतिक्रियां कुर्वन् निश्चयस्य चारित्रम्
तेन तु विरागचरिते श्रमणोभ्युत्थितो भवति ।।१५२।।
परमवीतरागचारित्रस्थितस्य परमतपोधनस्य स्वरूपमत्रोक्त म्
यो हि विमुक्तैहिकव्यापारः साक्षादपुनर्भवकांक्षी महामुमुक्षुः परित्यक्त सकलेन्द्रिय-
व्यापारत्वान्निश्चयप्रतिक्रमणादिसत्क्रियां कुर्वन्नास्ते, तेन कारणेन स्वस्वरूपविश्रान्तिलक्षणे
परमवीतरागचारित्रे स परमतपोधनस्तिष्ठति इति
विकल्प कुबुद्धिओने होय छे; संसाररूपी रमणीने प्रिय एवो आ विकल्प सुबुद्धिओने होतो
नथी. २६१.
प्रतिक्रमण आदि क्रियाचरण निश्चय तणुंकरतो रहे,
तेथी श्रमण ते वीतराग चरित्रमां आरूढ छे. १५२.
अन्वयार्थ[प्रतिक्रमणप्रभृतिक्रियां] प्रतिक्रमणादि क्रियाने[निश्चयस्य चारित्रम्]
निश्चयना चारित्रने[कुर्वन्] (निरंतर) करतो रहे छे [तेन तु] तेथी [श्रमणः] ते श्रमण
[विरागचरिते] वीतराग चारित्रमां [अभ्युत्थितः भवति] आरूढ छे.
टीकाअहीं परम वीतराग चारित्रमां स्थित परम तपोधननुं स्वरूप कह्युं
छे.
जेणे ऐहिक व्यापार (सांसारिक कार्यो) तजेल छे एवो जे साक्षात् अपुनर्भवनो
(मोक्षनो) अभिलाषी महामुमुक्षु सकळ इन्द्रियव्यापारने छोड्यो होवाथी निश्चय-
प्रतिक्रमणादि सत्क्रियाने करतो स्थित छे (अर्थात
् निरंतर करे छे), ते परम तपोधन ते
कारणे निजस्वरूपविश्रांतिलक्षण परमवीतराग-चारित्रमां स्थित छे (अर्थात् ते परम
श्रमण, निश्चयप्रतिक्रमणादि निश्चयचारित्रमां स्थित होवाने लीधे, जेनुं लक्षण निज
स्वरूपमां विश्रांति छे एवा परमवीतराग चारित्रमां स्थित छे).
[हवे आ १५२ मी गाथानी टीका पूर्ण करतां टीकाकार मुनिराज श्लोक कहे
छेः]

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कहानजैनशास्त्रमाळा ]
निश्चय-परमावश्यक अधिकार
[ ३०१
(मंदाक्रांता)
आत्मा तिष्ठत्यतुलमहिमा नष्टद्रक्शीलमोहो
यः संसारोद्भवसुखकरं कर्म मुक्त्वा विमुक्तेः
मूले शीले मलविरहिते सोऽयमाचारराशिः
तं वंदेऽहं समरससुधासिन्धुराकाशशांकम्
।।२६२।।
वयणमयं पडिकमणं वयणमयं पच्चखाण णियमं च
आलोयण वयणमयं तं सव्वं जाण सज्झायं ।।१५३।।
वचनमयं प्रतिक्रमणं वचनमयं प्रत्याख्यानं नियमश्च
आलोचनं वचनमयं तत्सर्वं जानीहि स्वाध्यायम् ।।१५३।।
सकलवाग्विषयव्यापारनिरासोऽयम्
पाक्षिकादिप्रतिक्रमणक्रियाकारणं निर्यापकाचार्यमुखोद्गतं समस्तपापक्षयहेतुभूतं
द्रव्यश्रुतमखिलं वाग्वर्गणायोग्यपुद्गलद्रव्यात्मकत्वान्न ग्राह्यं भवति, प्रत्याख्यान-
[श्लोकार्थ] दर्शनमोह अने चारित्रमोह जेना नष्ट थया छे एवो जे अतुल
महिमावाळो आत्मा संसारजनित सुखना कारणभूत कर्मने छोडीने मुक्तिनुं मूळ एवा
मळरहित चारित्रमां स्थित छे, ते आत्मा चारित्रनो पुंज छे. समरसरूपी सुधाना सागरने
उछाळवामां पूर्ण चंद्र समान ते आत्माने हुं वंदुं छुं. २६२.
रे! वचनमय प्रतिक्रमण, नियमो, वचनमय पचखाण जे,
जे वचनमय आलोचना, सघळुंय ते स्वाध्याय छे. १५३.
अन्वयार्थ[वचनमयं प्रतिक्रमणं] वचनमय प्रतिक्रमण, [वचनमयं प्रत्याख्यानं]
वचनमय प्रत्याख्यान, [नियमः] (वचनमय) नियम [च] अने [वचनमयम् आलोचनं]
वचनमय आलोचना[तत् सर्वं] ए बधुं [स्वाध्यायम्] (प्रशस्त अध्यवसायरूप)
स्वाध्याय [जानीहि] जाण.
टीकाआ, समस्त वचनसंबंधी व्यापारनो निरास (निराकरण, खंडन) छे.
पाक्षिक आदि प्रतिक्रमणक्रियानुं कारण एवुं जे निर्यापक आचार्यना मुखथी

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३०
२ ]
नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
नियमालोचनाश्च पौद्गलिकवचनमयत्वात्तत्सर्वं स्वाध्यायमिति रे शिष्य त्वं जानीहि इति
(मंदाक्रांता)
मुक्त्वा भव्यो वचनरचनां सर्वदातः समस्तां
निर्वाणस्त्रीस्तनभरयुगाश्लेषसौख्यस्पृहाढयः
नित्यानंदाद्यतुलमहिमाधारके स्वस्वरूपे
स्थित्वा सर्वं तृणमिव जगज्जालमेको ददर्श
।।२६३।।
तथा चोक्त म्
‘‘परियट्टणं च वायण पुच्छण अणुपेक्खणा य धम्मकहा
थुदिमंगलसंजुत्तो पंचविहो होदि सज्झाउ ।।’’
नीकळेलुं, समस्त पापक्षयना हेतुभूत, सघळुं द्रव्यश्रुत ते वचनवर्गणायोग्य पुद्गलद्रव्यात्मक
होवाथी ग्राह्य नथी. प्रत्याख्यान, नियम अने आलोचना पण (पुद्गलद्रव्यात्मक होवाथी)
ग्रहण करवायोग्य नथी. ते बधुं पौद्गलिक वचनमय होवाथी स्वाध्याय छे एम हे
शिष्य! तुं जाण.
[हवे अहीं टीकाकार मुनिराज श्लोक कहे छेः]
[श्लोकार्थ
] आम होवाथी, मुक्तिरूपी स्त्रीना पुष्ट स्तनयुगलना आलिंगन-
सौख्यनी स्पृहावाळो भव्य जीव समस्त वचनरचनाने सर्वदा छोडीने, नित्यानंद आदि
अतुल महिमाना धारक निजस्वरूपमां स्थित रहीने, एकलो (निरालंबपणे) सर्व
जगतजाळने (समस्त लोकसमूहने) तृण समान (तुच्छ) देखे छे. २६३.
एवी रीते (श्री मूलाचारमां पंचाचार अधिकारने विषे २१९ मी गाथा द्वारा) कह्युं
छे केः
‘‘[गाथार्थः] परिवर्तन (भणेलुं पाछुं फेरवी जवुं ते), वाचना (शास्त्र-
व्याख्यान), पृच्छना (शास्त्रश्रवण), अनुप्रेक्षा (अनित्यत्वादि बार अनुप्रेक्षा) अने धर्मकथा
(६३ शलाकापुरुषोनां चरित्रो)
आम पांच प्रकारनो, *स्तुति तथा मंगळ सहित,
स्वाध्याय छे.’’
*स्तुति = देव अने मुनिने वंदन. (धर्मकथा, स्तुति अने मंगळ थईने स्वाध्यायनो पांचमो प्रकार
गणाय छे.)

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कहानजैनशास्त्रमाळा ]
निश्चय-परमावश्यक अधिकार
[ ३०३
जदि सक्कदि कादुं जे पडिकमणादिं करेज्ज झाणमयं
सत्तिविहीणो जा जइ सद्दहणं चेव कायव्वं ।।१५४।।
यदि शक्यते कर्तुम् अहो प्रतिक्रमणादिकं करोषि ध्यानमयम्
शक्ति विहीनो यावद्यदि श्रद्धानं चैव कर्तव्यम् ।।१५४।।
अत्र शुद्धनिश्चयधर्मध्यानात्मकप्रतिक्रमणादिकमेव कर्तव्यमित्युक्त म्
मुक्ति सुंदरीप्रथमदर्शनप्राभृतात्मकनिश्चयप्रतिक्रमणप्रायश्चित्तप्रत्याख्यानप्रमुखशुद्धनिश्चय-
क्रियाश्चैव कर्तव्याः संहननशक्ति प्रादुर्भावे सति हंहो मुनिशार्दूल परमागममकरंदनिष्यन्दि-
मुखपद्मप्रभ सहजवैराग्यप्रासादशिखरशिखामणे परद्रव्यपराङ्मुखस्वद्रव्यनिष्णातबुद्धे पञ्चेन्द्रिय-
प्रसरवर्जितगात्रमात्रपरिग्रह
शक्ति हीनो यदि दग्धकालेऽकाले केवलं त्वया निजपरमात्म-
तत्त्वश्रद्धानमेव कर्तव्यमिति
करी जो शके, प्रतिक्रमण आदि ध्यानमय करजे अहो!
कर्तव्य छे श्रद्धा ज, शक्तिविहीन जो तुं होय तो. १५४.
अन्वयार्थ[यदि] जो [कर्तुम् शक्यते] करी शकाय तो [अहो] अहो! [ध्यानमयम्]
ध्यानमय [प्रतिक्रमणादिकं] प्रतिक्रमणादि [करोषि] कर; [यदि] जो [शक्ति विहीनः] तु
शक्तिविहीन होय तो [यावत्] त्यां सुधी [श्रद्धानं च एव] श्रद्धान ज [कर्तव्यम्] कर्तव्य छे.
टीकाअहीं, शुद्धनिश्चयधर्मध्यानस्वरूप प्रतिक्रमण वगेरे ज करवायोग्य छे एम
कह्युं छे.
सहज वैराग्यरूपी महेलना शिखरना शिखामणि, परद्रव्यथी पराङ्मुख अने
स्वद्रव्यमां निष्णात बुद्धिवाळा, पांच इन्द्रियोना फेलाव रहित देहमात्र परिग्रहना धारी,
परमागमरूपी
*मकरंद झरता मुखकमळथी शोभायमान हे मुनिशार्दूल! (अथवा
परमागमरूपी मकरंद झरता मुखवाळा हे पद्मप्रभ मुनिशार्दूल!) संहनन अने शक्तिनो
+प्रादुर्भाव होय तो मुक्तिसुंदरीना प्रथम दर्शननी भेटस्वरूप निश्चयप्रतिक्रमण,
निश्चयप्रायश्चित्त, निश्चयप्रत्याख्यान वगेरे शुद्धनिश्चयक्रियाओ ज कर्तव्य छे. जो आ
*मकरंद = पुष्प-रस; फूलनुं मध.
+प्रादुर्भाव = पेदा थवुं ते; प्राकट्य; उत्पत्ति.

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३०
४ ]
नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
(शिखरिणी)
असारे संसारे कलिविलसिते पापबहुले
न मुक्ति र्मार्गेऽस्मिन्ननघजिननाथस्य भवति
अतोऽध्यात्मं ध्यानं कथमिह भवेन्निर्मलधियां
निजात्मश्रद्धानं भवभयहरं स्वीकृतमिदम्
।।२६४।।
जिणकहियपरमसुत्ते पडिकमणादिय परीक्खऊण फु डं
मोणव्वएण जोई णियकज्जं साहए णिच्चं ।।१५५।।
जिनकथितपरमसूत्रे प्रतिक्रमणादिकं परीक्षयित्वा स्फु टम्
मौनव्रतेन योगी निजकार्यं साधयेन्नित्यम् ।।१५५।।
इह हि साक्षादन्तर्मुखस्य परमजिनयोगिनः शिक्षणमिदमुक्त म्
दग्धकाळरूप (हीनकाळरूप) अकाळमां तुं शक्तिहीन हो तो तारे केवळ निज परमात्मतत्त्वनुं
श्रद्धान ज कर्तव्य छे.
[हवे आ १५४ मी गाथानी टीका पूर्ण करतां टीकाकार मुनिराज श्लोक कहे
छेः]
[श्लोकार्थ] असार संसारमां, पापथी भरपूर कळिकाळनो विलास होतां, आ
निर्दोष जिननाथना मार्गने विषे मुक्ति नथी. माटे आ काळमां अध्यात्मध्यान केम थई
शके? तेथी निर्मळबुद्धिवाळाओ भवभयनो नाश करनारी एवी आ निजात्मश्रद्धाने
अंगीकृत करे छे. २६४.
प्रतिक्रमण-आदि स्पष्ट परखी जिन-परमसूत्रो विषे,
मुनिए निरंतर मौनव्रत सह साधवुं निज कार्यने. १५५.
अन्वयार्थ[जिनकथितपरमसूत्रे] जिनकथित परम सूत्रने विषे [प्रतिक्रमणादिकं
स्फु टम् परीक्षयित्वा] प्रतिक्रमणादिकनी स्पष्ट परीक्षा करीने [मौनव्रतेन] मौनव्रत सहित [योगी]
योगीए [निजकार्यम्] निज कार्यने [नित्यम्] नित्य
[साधयेत्] साधवुं.
टीकाअहीं साक्षात् अंतर्मुख परमजिनयोगीने आ शिखामण देवामां आवी छे.

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कहानजैनशास्त्रमाळा ]
निश्चय-परमावश्यक अधिकार
[ ३०५
श्रीमदर्हन्मुखारविन्दविनिर्गतसमस्तपदार्थगर्भीकृतचतुरसन्दर्भे द्रव्यश्रुते शुद्धनिश्चय-
नयात्मकपरमात्मध्यानात्मकप्रतिक्रमणप्रभृतिसत्क्रियां बुद्ध्वा केवलं स्वकार्यपरः
परमजिनयोगीश्वरः प्रशस्ताप्रशस्तसमस्तवचनरचनां परित्यज्य निखिलसंगव्यासंगं मुक्त्वा
चैकाकीभूय मौनव्रतेन सार्धं समस्तपशुजनैः निंद्यमानोऽप्यभिन्नः सन् निजकार्यं
निर्वाणवामलोचनासंभोगसौख्यमूलमनवरतं साधयेदिति
(मंदाक्रांता)
हित्वा भीतिं पशुजनकृतां लौकिकीमात्मवेदी
शस्ताशस्तां वचनरचनां घोरसंसारकर्त्रीम्
मुक्त्वा मोहं कनकरमणीगोचरं चात्मनात्मा
स्वात्मन्येव स्थितिमविचलां याति मुक्त्यै मुमुक्षुः
।।२६५।।
(वसंततिलका)
भीतिं विहाय पशुभिर्मनुजैः कृतां तं
मुक्त्वा मुनिः सकललौकिकजल्पजालम्
आत्मप्रवादकुशलः परमात्मवेदी
प्राप्नोति नित्यसुखदं निजतत्त्वमेकम्
।।२६६।।
श्रीमद् अर्हत्ना मुखारविंदथी नीकळेल समस्त पदार्थो जेनी अंदर समायेल छे एवी
चतुरशब्दरचनारूप द्रव्यश्रुतने विषे शुद्धनिश्चयनयात्मक परमात्मध्यानस्वरूप प्रतिक्रमणादि
सत्क्रियाने जाणीने, केवळ स्वकार्यमां परायण परमजिनयोगीश्वरे प्रशस्त-अप्रशस्त समस्त
वचनरचनाने परित्यागीने, सर्व संगनी आसक्तिने छोडी एकलो थईने, मौनव्रत सहित,
समस्त पशुजनो (पशु समान अज्ञानी मूर्ख मनुष्यो) वडे निंदवामां आवतो होवा छतां
*अभिन्न रहीने, निजकार्यनेके जे निजकार्य निर्वाणरूपी सुलोचनाना संभोगसौख्यनुं मूळ
छे तेनेनिरंतर साधवुं.
[हवे आ १५५ मी गाथानी टीका पूर्ण करतां टीकाकार मुनिराज बे श्लोक कहे छेः]
[श्लोकार्थ
] आत्मज्ञानी मुमुक्षु जीव पशुजनकृत लौकिक भयने तेम ज घोर
संसारनी करनारी प्रशस्त-अप्रशस्त वचनरचनाने छोडीने तथा कनक-कामिनी संबंधी मोहने
तजीने, मुक्तिने माटे पोते पोतानाथी पोतानामां ज अविचळ स्थितिने पामे छे. २६५.
[श्लोकार्थ] आत्मप्रवादमां (आत्मप्रवाद नामना श्रुतमां) कुशळ एवो
*अभिन्न = छिन्नभिन्न थया वगरनो; अखंडित; अच्युत.

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३०
६ ]
नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
णाणाजीवा णाणाकम्मं णाणाविहं हवे लद्धी
तम्हा वयणविवादं सगपरसमएहिं वज्जिज्जो ।।१५६।।
नानाजीवा नानाकर्म नानाविधा भवेल्लब्धिः
तस्माद्वचनविवादः स्वपरसमयैर्वर्जनीयः ।।१५६।।
वाग्विषयव्यापारनिवृत्तिहेतूपन्यासोऽयम्
जीवा हि नानाविधाः मुक्ता अमुक्ताः, भव्या अभव्याश्च संसारिणः त्रसाः स्थावराः;
द्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियसंज्ञ्यसंज्ञिभेदात् पंच त्रसाः, पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतयः स्थावराः
भाविकाले स्वभावानन्तचतुष्टयात्मसहजज्ञानादिगुणैः भवनयोग्या भव्याः, एतेषां विपरीता
परमात्मज्ञानी मुनि पशुजनो वडे करवामां आवता भयने छोडीने अने पेली (प्रसिद्ध)
सकळ लौकिक जल्पजाळने (वचनसमूहने) तजीने, शाश्वतसुखदायक एक निज तत्त्वने पामे
छे. २६६.
छे जीव विधविध, कर्म विधविध, लब्धि छे विधविध अरे!
ते कारणे निजपरसमय सह वाद परिहर्तव्य छे. १५६.
अन्वयार्थ[नानाजीवाः] नाना प्रकारना जीवो छे, [नानाकर्म] नाना प्रकारनुं कर्म
छे, [नानाविधा लब्धिः भवेत्] नाना प्रकारनी लब्धि छे; [तस्मात्] तेथी [स्वपरसमयैः] स्वसमयो
अने परसमयो साथे (स्वधर्मीओ अने परधर्मीओ साथे) [वचनविवादः] वचनविवाद
[वर्जनीयः] वर्जवायोग्य छे.
टीकाआ, वचनसंबंधी व्यापारनी निवृत्तिना हेतुनुं कथन छे (अर्थात
वचनविवाद शा माटे छोडवायोग्य छे तेनुं कारण अहीं कह्युं छे).
जीवो नाना प्रकारना छेः मुक्त अने अमुक्त, भव्य अने अभव्य, संसारीओ
त्रस अने स्थावर. द्वींद्रिय, त्रींद्रिय, चतुरिंद्रिय तथा (पंचेंद्रिय) संज्ञी ने (पंचेंद्रिय) असंज्ञी
एवा भेदोने लीधे त्रस जीवो पांच प्रकारना छे. पृथ्वी, पाणी, तेज, वायु अने वनस्पति
ए (पांच प्रकारना) स्थावर जीवो छे. भविष्य काळे स्वभाव-अनंत-चतुष्टयात्मक सहज-
ज्ञानादि गुणोरूपे
*भवनने योग्य (जीवो) ते भव्यो छे; आमनाथी विपरीत (जीवो) ते
*भवन = परिणमन; थवुं ते.

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कहानजैनशास्त्रमाळा ]
निश्चय-परमावश्यक अधिकार
[ ३०७
ह्यभव्याः कर्म नानाविधं द्रव्यभावनोकर्मभेदात्, अथवा मूलोत्तरप्रकृतिभेदाच्च, अथ
तीव्रतरतीव्रमंदमंदतरोदयभेदाद्वा जीवानां सुखादिप्राप्तेर्लब्धिः कालकरणोपदेशोपशम-
प्रायोग्यताभेदात् पञ्चधा ततः परमार्थवेदिभिः स्वपरसमयेषु वादो न कर्तव्य इति
(शिखरिणी)
विकल्पो जीवानां भवति बहुधा संसृतिकरः
तथा कर्मानेकविधमपि सदा जन्मजनकम्
असौ लब्धिर्नाना विमलजिनमार्गे हि विदिता
ततः कर्तव्यं नो स्वपरसमयैर्वादवचनम्
।।२६७।।
लद्धूणं णिहि एक्को तस्स फलं अणुहवेइ सुजणत्ते
तह णाणी णाणणिहिं भुंजेइ चइत्तु परतत्तिं ।।१५७।।
खरेखर अभव्यो छे. द्रव्यकर्म, भावकर्म अने नोकर्म एवा भेदोने लीधे, अथवा (आठ) मूळ
प्रकृति अने (एक सो ने अडताळीस) उत्तर प्रकृतिरूप भेदोने लीधे, अथवा तीव्रतर, तीव्र,
मंद ने मंदतर उदयभेदोने लीधे, कर्म नाना प्रकारनुं छे. जीवोने सुखादिनी प्राप्तिरूप लब्धि
काळ, करण, उपदेश, उपशम अने प्रायोग्यतारूप भेदोने लीधे पांच प्रकारनी छे. माटे
परमार्थना जाणनाराओए स्वसमयो अने परसमयो साथे वाद करवायोग्य नथी.
[भावार्थःजगतमां जीवो, तेमनां कर्म, तेमनी लब्धिओ वगेरे अनेक प्रकारनां छे;
तेथी सर्व जीवो समान विचारना थाय ते बनवुं असंभवित छे. माटे पर जीवोने समजावी
देवानी आकुळता करवी योग्य नथी. स्वात्मावलंबनरूप निज हितमां प्रमाद न थाय एम
रहेवुं ए ज कर्तव्य छे.]
[हवे आ १५६ मी गाथानी टीका पूर्ण करतां टीकाकार मुनिराज श्लोक कहे छेः]
[श्लोकार्थ
] जीवोना, संसारना कारणभूत एवा (त्रस, स्थावर वगेरे) बहु
प्रकारना भेदो छे; एवी रीते सदा जन्मनुं उत्पन्न करनारुं कर्म पण अनेक प्रकारनुं छे; आ
लब्धि पण विमळ जिनमार्गमां अनेक प्रकारनी प्रसिद्ध छे; माटे स्वसमयो अने परसमयो
साथे वचनविवाद कर्तव्य नथी. २६७.
निधि पामीने जन कोई निज वतने रही फळ भोगवे,
त्यम ज्ञानी परजनसंग छोडी ज्ञाननिधिने भोगवे. १५७.

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३०
८ ]
नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
अन्वयार्थ[एकः] जेम कोई एक (दरिद्र माणस) [निधिम्] निधिने [लब्ध्वा]
पामीने [सुजनत्वेन] पोताना वतनमां (गुप्तपणे) रही [तस्य फलम्] तेना फळने
[अनुभवति] भोगवे छे, [तथा] तेम [ज्ञानी] ज्ञानी [परततिम्] परजनोना समूहने [त्यक्त्वा]
छोडीने [ज्ञाननिधिम्] ज्ञाननिधिने [भुंक्ते ] भोगवे छे.
टीकाअहीं द्रष्टांत द्वारा सहज तत्त्वनी आराधनानो विधि कह्यो छे.
कोई एक दरिद्र मनुष्य क्वचित् कदाचित् पुण्योदयथी निधिने पामीने, ते निधिना
फळने सौजन्य अर्थात् जन्मभूमि एवुं जे गुप्त स्थान तेमां रहीने अति गुप्तपणे भोगवे
छे; आम द्रष्टांतपक्ष छे. दार्ष्टांतपक्षे पण (एम छे के)सहजपरमतत्त्वज्ञानी जीव
क्वचित् आसन्नभव्यना (आसन्नभव्यतारूप) गुणनो उदय थतां सहजवैराग्यसंपत्ति
होतां, परम गुरुना चरणकमळयुगलनी निरतिशय (उत्तम) भक्ति वडे मुक्तिसुंदरीना
मुखना
मकरंद समान सहजज्ञाननिधिने पामीने, स्वरूपविकळ एवा पर जनोना समूहने
ध्यानमां विघ्ननुं कारण समजीने तजे छे.
[हवे आ १५७ मी गाथानी टीका पूर्ण करतां टीकाकार मुनिराज बे श्लोक कहे
छेः]
लब्ध्वा निधिमेकस्तस्य फलमनुभवति सुजनत्वेन
तथा ज्ञानी ज्ञाननिधिं भुंक्ते त्यक्त्वा परततिम् ।।१५७।।
अत्र द्रष्टान्तमुखेन सहजतत्त्वाराधनाविधिरुक्त :
कश्चिदेको दरिद्रः क्वचित् कदाचित् सुकृतोदयेन निधिं लब्ध्वा तस्य निधेः फलं
हि सौजन्यं जन्मभूमिरिति रहस्ये स्थाने स्थित्वा अतिगूढवृत्त्यानुभवति इति द्रष्टान्तपक्षः
दार्ष्टान्तपक्षेऽपि सहजपरमतत्त्वज्ञानी जीवः क्वचिदासन्नभव्यस्य गुणोदये सति
सहजवैराग्यसम्पत्तौ सत्यां परमगुरुचरणनलिनयुगलनिरतिशयभक्त्या मुक्ति सुन्दरीमुख-
मकरन्दायमानं सहजज्ञाननिधिं परिप्राप्य परेषां जनानां स्वरूपविकलानां ततिं समूहं
ध्यानप्रत्यूहकारणमिति त्यजति
१. दार्ष्टांत = द्रष्टांत वडे समजाववानी होय ते वात; उपमेय.
२. मकरंद = पुष्प-रस; फूलनुं मध.
३. स्वरूपविकळ = स्वरूपप्राप्ति वगरना; अज्ञानी.

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कहानजैनशास्त्रमाळा ]
निश्चय-परमावश्यक अधिकार
[ ३०९
[श्लोकार्थ] आ लोकमां कोई एक लौकिक जन पुण्यने लीधे धनना समूहने
पामीने, संगने छोडी गुप्त थईने रहे छे; तेनी माफक ज्ञानी (परना संगने छोडी गुप्तपणे
रही) ज्ञाननी रक्षा करे छे. २६८.
[श्लोकार्थ] जन्ममरणरूप रोगना हेतुभूत समस्त संगने छोडीने, हृदयकमळमां
बुद्धिपूर्वक पूर्णवैराग्यभाव करीने, सहज परमानंद वडे जे अव्यग्र (अनाकुळ) छे एवा निज
रूपमां (पोतानी) शक्तिथी स्थित रहीने, मोह क्षीण होतां, अमे लोकने सदा तृणवत
अवलोकीए छीए. २६९.
सर्वे पुराण जनो अहो ए रीत आवश्यक करी,
अप्रमत्त आदि स्थानने पामी थया प्रभु केवळी. १५८.
अन्वयार्थ[सर्वे] सर्वे [पुराणपुरुषाः] पुराण पुरुषो [एवम्] ए रीते [आवश्यकं च]
(शालिनी)
अस्मिन् लोके लौकिकः कश्चिदेकः
लब्ध्वा पुण्यात्कांचनानां समूहम्
गूढो भूत्वा वर्तते त्यक्त संगो
ज्ञानी तद्वत
् ज्ञानरक्षां करोति ।।२६८।।
(मंदाक्रांता)
त्यक्त्वा संगं जननमरणातंकहेतुं समस्तं
कृत्वा बुद्धया हृदयकमले पूर्णवैराग्यभावम्
स्थित्वा शक्त्या सहजपरमानंदनिर्व्यग्ररूपे
क्षीणे मोहे तृणमिव सदा लोकमालोकयामः
।।२६9।।
सव्वे पुराणपुरिसा एवं आवासयं च काऊण
अपमत्तपहुदिठाणं पडिवज्ज य केवली जादा ।।१५८।।
सर्वे पुराणपुरुषा एवमावश्यकं च कृत्वा
अप्रमत्तप्रभृतिस्थानं प्रतिपद्य च केवलिनो जाताः ।।१५८।।
१. बुद्धिपूर्वक = समजणपूर्वक; विवेकपूर्वक; विचारपूर्वक.
२. शक्ति = सामर्थ्य; बळ; वीर्य; पुरुषार्थ.

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३१
० ]
नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
आवश्यक [कृत्वा] करीने, [अप्रमत्तप्रभृतिस्थानं] अप्रमत्तादि स्थानने [प्रतिपद्य च] प्राप्त करी
[केवलिनः जाताः] केवळी थया.
टीकाआ, परमावश्यक अधिकारना उपसंहारनुं कथन छे.
स्वात्माश्रित निश्चयधर्मध्यान अने निश्चयशुक्लध्यानस्वरूप एवुं जे बाह्य-आवश्यकादि
क्रियाथी प्रतिपक्ष शुद्धनिश्चय-परमावश्यकसाक्षात् अपुनर्भवरूपी (मुक्तिरूपी) स्त्रीना अनंग
(अशरीरी) सुखनुं कारणतेने करीने, सर्वे पुराण पुरुषोके जेमांथी तीर्थंकर-परमदेव
वगेरे स्वयंबुद्ध थया अने केटलाक बोधितबुद्ध थया तेओअप्रमत्तथी मांडीने सयोगीभट्टारक
सुधीना गुणस्थानोनी पंक्तिमां आरूढ थया थका, परमावश्यकरूप आत्माराधनाना प्रसादथी
केवळी
सकळप्रत्यक्षज्ञानधारीथया.
[हवे आ निश्चय-परमावश्यक अधिकारनी छेल्ली गाथानी टीका पूर्ण करतां टीकाकार
मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेव बे श्लोक कहे छेः]
[श्लोकार्थ] पूर्वे जे सर्व पुराण पुरुषोयोगीओनिज आत्मानी
आराधनाथी समस्त कर्मरूपी राक्षसोना समूहनो नाश करीने *विष्णु अने जयवंत थया
(अर्थात् सर्वव्यापी ज्ञानवाळा जिन थया), तेमने जे मुक्तिनी स्पृहावाळो निःस्पृह जीव
अनन्य मनथी नित्य प्रणमे छे, ते जीव पापरूपी अटवीने बाळवामां अग्नि समान छे अने
तेनां चरणकमळने सर्व जनो पूजे छे. २७०.
परमावश्यकाधिकारोपसंहारोपन्यासोऽयम्
स्वात्माश्रयनिश्चयधर्मशुक्लध्यानस्वरूपं बाह्यावश्यकादिक्रियाप्रतिपक्षशुद्धनिश्चयपरमा-
वश्यकं साक्षादपुनर्भववारांगनानङ्गसुखकारणं कृत्वा सर्वे पुराणपुरुषास्तीर्थकरपरमदेवादयः
स्वयंबुद्धाः केचिद् बोधितबुद्धाश्चाप्रमत्तादिसयोगिभट्टारकगुणस्थानपंक्ति मध्यारूढाः सन्तः
केवलिनः सकलप्रत्यक्षज्ञानधराः परमावश्यकात्माराधनाप्रसादात
् जाताश्चेति
(शार्दूलविक्रीडित)
स्वात्माराधनया पुराणपुरुषाः सर्वे पुरा योगिनः
प्रध्वस्ताखिलकर्मराक्षसगणा ये विष्णवो जिष्णवः
तान्नित्यं प्रणमत्यनन्यमनसा मुक्ति स्पृहो निस्पृहः
स स्यात
् सर्वजनार्चितांघ्रिकमलः पापाटवीपावकः ।।२७०।।
*विष्णु = व्यापक. (केवळी भगवाननुं ज्ञान सर्वने जाणतुं होवाथी ते अपेक्षाए तेमने सर्वव्यापक
कहेवामां आवे छे.)

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कहानजैनशास्त्रमाळा ]
निश्चय-परमावश्यक अधिकार
[ ३११
[श्लोकार्थ] हेयरूप एवो जे कनक अने कामिनी संबंधी मोह तेने छोडीने, हे
चित्त! निर्मळ सुखने अर्थे परम गुरु द्वारा धर्मने प्राप्त करीने तुं अव्यग्ररूप (शांतस्वरूपी)
परमात्मामां
के जे (परमात्मा) नित्य आनंदवाळो छे, निरुपम गुणोथी अलंकृत छे अने
दिव्य ज्ञानवाळो छे तेमांशीघ्र प्रवेश कर. २७१.
आ रीते, सुकविजनरूपी कमळोने माटे जेओ सूर्य समान छे अने पांच इन्द्रियोना
फेलाव रहित देहमात्र जेमने परिग्रह हतो एवा श्री पद्मप्रभमलधारिदेव वडे रचायेली
नियमसारनी तात्पर्यवृत्ति नामनी टीकामां (अर्थात
् श्रीमद्भगवत्कुंदकुंदाचार्यदेवप्रणीत श्री
नियमसार परमागमनी निर्ग्रंथ मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेवविरचित तात्पर्यवृत्ति नामनी
टीकामां)
निश्चय-परमावश्यक अधिकार नामनो अगियारमो श्रुतस्कंध समाप्त थयो.
(मंदाक्रांता)
मुक्त्वा मोहं कनकरमणीगोचरं हेयरूपं
नित्यानन्दं निरुपमगुणालंकृतं दिव्यबोधम्
चेतः शीघ्रं प्रविश परमात्मानमव्यग्ररूपं
लब्ध्वा धर्मं परमगुरुतः शर्मणे निर्मलाय
।।२७१।।
इति सुकविजनपयोजमित्रपंचेन्द्रियप्रसरवर्जितगात्रमात्रपरिग्रहश्रीपद्मप्रभमलधारिदेवविरचितायां
नियमसारव्याख्यायां तात्पर्यवृत्तौ निश्चयपरमावश्यकाधिकार एकादशमः श्रुतस्कन्धः ।।