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भ्रमति बहिरतस्ते सर्वदोषप्रसङ्गः
भव भवसि भवान्तस्थायिधामाधिपस्त्वम्
मुक्ति श्रीललनासमुद्भवसुखस्योच्चैरिदं कारणम्
सोयं त्यक्त बहिःक्रियो मुनिपतिः पापाटवीपावकः
संपूर्ण थाय छे.
एकाग्र.
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अतिशयपणे कारण थाय छे;
परम-अध्यात्मभाषाथी जेने निर्विकल्प-समाधिस्वरूप कहेवामां आवे छे एवी परम
आवश्यक क्रियाथी रहित श्रमण निश्चयचारित्रभ्रष्ट छे;
(
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कुर्यादुच्चैरघकुलहरं निर्वृतेर्मूलभूतम्
वाचां दूरं किमपि सहजं शाश्वतं शं प्रयाति
अने पुराण (सनातन) एवो ते आत्मा वाणीथी दूर (वचन-अगोचर) एवा कोई
सहज शाश्वत सुखने पामे छे. २५६.
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परिप्राप्य स्थितो महात्मा
कषायोना अभाव द्वारा क्षीणमोहपदवीने प्राप्त करीने स्थित छे. असंयत सम्यग्द्रष्टि जघन्य
अंतरात्मा छे. आ बेनी मध्यमां रहेला सर्वे मध्यम अंतरात्मा छे. निश्चय अने व्यवहार ए
बे नयोथी प्रणीत जे परम आवश्यक क्रिया तेनाथी जे रहित होय ते बहिरात्मा छे.
छे.’’
स्वात्माचरणमां नियमथी रहेलुं छे अर्थात
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संसारोत्थप्रबलसुखदुःखाटवीदूरवर्ती
स्वात्मभ्रष्टो भवति बहिरात्मा बहिस्तत्त्वनिष्ठः
अंतरात्मा छे अने ते बेनी मध्यमां रहेलो ते मध्यम अंतरात्मा छे.’’
आत्मनिष्ठ अंतरात्मा छे; जे स्वात्माथी भ्रष्ट होय ते बहिःतत्त्वनिष्ठ (बाह्य तत्त्वमां लीन)
बहिरात्मा छे. २५८.
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मनश्चकारेति स बहिरात्मा जीव इति
साक्षादंतरात्मेति
मेवं व्यतीत्य महतीं नयपक्षकक्षाम्
स्वं भावमेकमुपयात्यनुभूतिमात्रम्
थको अंतर्जल्पमां मनने जोडे छे, ते बहिरात्मा जीव छे. निज आत्माना ध्यानमां
परायण वर्ततो थको निरवशेषपणे (संपूर्णपणे) अंतर्मुख रहीने (परम तपोधन)
प्रशस्त-अप्रशस्त समस्त विकल्पजाळोमां क्यारेय वर्ततो नथी तेथी ज परम तपोधन
साक्षात
बहार समता-रसरूपी एक रस ज जेनो स्वभाव छे एवा अनुभूतिमात्र एक पोताना
भावने (
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स्मृत्वा नित्यं समरसमयं चिच्चमत्कारमेकम्
क्षीणे मोहे किमपि परमं तत्त्वमन्तर्ददर्श
अभ्यंतर अंग प्रगट कर्युं छे एवो अंतरात्मा, मोह क्षीण थतां, कोई (अद्भुत) परम तत्त्वने
अंदरमां देखे छे. २५९.
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ध्यानामृते समरसे खलु वर्ततेऽसौ
पूर्वोक्त योगिनमहं शरणं प्रपद्ये
चारित्रमोहनीय कर्मरूपी योद्धाओनां दळ नाश पाम्यां छे तेथी ते (भगवान क्षीणकषाय)
बहिरात्मा छे एम हे शिष्य! तुं जाण.
[श्लोकार्थ
(समरसी) योगीनुं शरण ग्रहुं छुं. २६०.
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परमवीतरागचारित्रे स परमतपोधनस्तिष्ठति इति
नथी. २६१.
प्रतिक्रमणादि सत्क्रियाने करतो स्थित छे (अर्थात
स्वरूपमां विश्रांति छे एवा परमवीतराग चारित्रमां स्थित छे).
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तं वंदेऽहं समरससुधासिन्धुराकाशशांकम्
मळरहित चारित्रमां स्थित छे, ते आत्मा चारित्रनो पुंज छे. समरसरूपी सुधाना सागरने
उछाळवामां पूर्ण चंद्र समान ते आत्माने हुं वंदुं छुं. २६२.
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निर्वाणस्त्रीस्तनभरयुगाश्लेषसौख्यस्पृहाढयः
स्थित्वा सर्वं तृणमिव जगज्जालमेको ददर्श
होवाथी ग्राह्य नथी. प्रत्याख्यान, नियम अने आलोचना पण (पुद्गलद्रव्यात्मक होवाथी)
ग्रहण करवायोग्य नथी. ते बधुं पौद्गलिक वचनमय होवाथी स्वाध्याय छे एम हे
शिष्य! तुं जाण.
[श्लोकार्थ
अतुल महिमाना धारक निजस्वरूपमां स्थित रहीने, एकलो (निरालंबपणे) सर्व
जगतजाळने (समस्त लोकसमूहने) तृण समान (तुच्छ) देखे छे. २६३.
(६३ शलाकापुरुषोनां चरित्रो)
गणाय छे.)
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मुखपद्मप्रभ सहजवैराग्यप्रासादशिखरशिखामणे परद्रव्यपराङ्मुखस्वद्रव्यनिष्णातबुद्धे पञ्चेन्द्रिय-
प्रसरवर्जितगात्रमात्रपरिग्रह
परमागमरूपी
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न मुक्ति र्मार्गेऽस्मिन्ननघजिननाथस्य भवति
निजात्मश्रद्धानं भवभयहरं स्वीकृतमिदम्
श्रद्धान ज कर्तव्य छे.
शके? तेथी निर्मळबुद्धिवाळाओ भवभयनो नाश करनारी एवी आ निजात्मश्रद्धाने
अंगीकृत करे छे. २६४.
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परमजिनयोगीश्वरः प्रशस्ताप्रशस्तसमस्तवचनरचनां परित्यज्य निखिलसंगव्यासंगं मुक्त्वा
चैकाकीभूय मौनव्रतेन सार्धं समस्तपशुजनैः निंद्यमानोऽप्यभिन्नः सन् निजकार्यं
निर्वाणवामलोचनासंभोगसौख्यमूलमनवरतं साधयेदिति
शस्ताशस्तां वचनरचनां घोरसंसारकर्त्रीम्
स्वात्मन्येव स्थितिमविचलां याति मुक्त्यै मुमुक्षुः
मुक्त्वा मुनिः सकललौकिकजल्पजालम्
प्राप्नोति नित्यसुखदं निजतत्त्वमेकम्
सत्क्रियाने जाणीने, केवळ स्वकार्यमां परायण परमजिनयोगीश्वरे प्रशस्त-अप्रशस्त समस्त
वचनरचनाने परित्यागीने, सर्व संगनी आसक्तिने छोडी एकलो थईने, मौनव्रत सहित,
समस्त पशुजनो (पशु समान अज्ञानी मूर्ख मनुष्यो) वडे निंदवामां आवतो होवा छतां
[श्लोकार्थ
तजीने, मुक्तिने माटे पोते पोतानाथी पोतानामां ज अविचळ स्थितिने पामे छे. २६५.
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सकळ लौकिक जल्पजाळने (वचनसमूहने) तजीने, शाश्वतसुखदायक एक निज तत्त्वने पामे
छे. २६६.
एवा भेदोने लीधे त्रस जीवो पांच प्रकारना छे. पृथ्वी, पाणी, तेज, वायु अने वनस्पति
ए (पांच प्रकारना) स्थावर जीवो छे. भविष्य काळे स्वभाव-अनंत-चतुष्टयात्मक सहज-
ज्ञानादि गुणोरूपे
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तथा कर्मानेकविधमपि सदा जन्मजनकम्
ततः कर्तव्यं नो स्वपरसमयैर्वादवचनम्
प्रकृति अने (एक सो ने अडताळीस) उत्तर प्रकृतिरूप भेदोने लीधे, अथवा तीव्रतर, तीव्र,
मंद ने मंदतर उदयभेदोने लीधे, कर्म नाना प्रकारनुं छे. जीवोने सुखादिनी प्राप्तिरूप लब्धि
काळ, करण, उपदेश, उपशम अने प्रायोग्यतारूप भेदोने लीधे पांच प्रकारनी छे. माटे
परमार्थना जाणनाराओए स्वसमयो अने परसमयो साथे वाद करवायोग्य नथी.
देवानी आकुळता करवी योग्य नथी. स्वात्मावलंबनरूप निज हितमां प्रमाद न थाय एम
रहेवुं ए ज कर्तव्य छे.]
[श्लोकार्थ
लब्धि पण विमळ जिनमार्गमां अनेक प्रकारनी प्रसिद्ध छे; माटे स्वसमयो अने परसमयो
साथे वचनविवाद कर्तव्य नथी. २६७.
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मुखना
सहजवैराग्यसम्पत्तौ सत्यां परमगुरुचरणनलिनयुगलनिरतिशयभक्त्या मुक्ति सुन्दरीमुख-
मकरन्दायमानं सहजज्ञाननिधिं परिप्राप्य परेषां जनानां स्वरूपविकलानां ततिं समूहं
ध्यानप्रत्यूहकारणमिति त्यजति
२. मकरंद = पुष्प-रस; फूलनुं मध.
३. स्वरूपविकळ = स्वरूपप्राप्ति वगरना; अज्ञानी.
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रही) ज्ञाननी रक्षा करे छे. २६८.
लब्ध्वा पुण्यात्कांचनानां समूहम्
ज्ञानी तद्वत
कृत्वा बुद्धया हृदयकमले पूर्णवैराग्यभावम्
क्षीणे मोहे तृणमिव सदा लोकमालोकयामः
२. शक्ति = सामर्थ्य; बळ; वीर्य; पुरुषार्थ.
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केवळी
तेनां चरणकमळने सर्व जनो पूजे छे. २७०.
स्वयंबुद्धाः केचिद् बोधितबुद्धाश्चाप्रमत्तादिसयोगिभट्टारकगुणस्थानपंक्ति मध्यारूढाः सन्तः
केवलिनः सकलप्रत्यक्षज्ञानधराः परमावश्यकात्माराधनाप्रसादात
प्रध्वस्ताखिलकर्मराक्षसगणा ये विष्णवो जिष्णवः
स स्यात
कहेवामां आवे छे.)
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परमात्मामां
नियमसारनी तात्पर्यवृत्ति नामनी टीकामां (अर्थात
टीकामां)
नित्यानन्दं निरुपमगुणालंकृतं दिव्यबोधम्
लब्ध्वा धर्मं परमगुरुतः शर्मणे निर्मलाय