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च स भगवान् परमेश्वरः परमभट्टारकः, पराश्रितो व्यवहारः इति वचनात
ज्ञायकत्वादिविविधविकल्पवाहिनीसमुद्भूतमूलध्यानाषादः
परमात्मापि जानाति पश्यति च
घातिकर्मोना नाश वडे प्राप्त सकळ-विमळ केवळज्ञान अने केवळदर्शन वडे त्रिलोकवर्ती
तथा त्रिकाळवर्ती सचराचर द्रव्यगुणपर्यायोने एक समये जाणे छे अने देखे छे.
शुद्धनिश्चयथी परमेश्वर महादेवाधिदेव सर्वज्ञवीतरागने, परद्रव्यनां ग्राहकत्व, दर्शकत्व,
ज्ञायकत्व वगेरेना विविध विकल्पोनी सेनानी उत्पत्ति मूळध्यानमां अभावरूप
होवाथी (?), ते भगवान त्रिकाळ-निरुपाधि, निरवधि (अमर्यादित), नित्यशुद्ध एवां
सहजज्ञान अने सहजदर्शन वडे निज कारणपरमात्माने, पोते कार्यपरमात्मा होवा छतां
पण, जाणे छे अने देखे छे. कई रीते? आ ज्ञाननो धर्म तो, दीवानी माफक, स्वपर-
प्रकाशकपणुं छे. घटादिनी प्रमितिथी प्रकाश
व्यवहारथी त्रिलोक अने त्रिकाळरूप परने तथा स्वयं प्रकाशस्वरूप आत्माने (पोताने)
प्रकाशे छे.
प्रश्नार्थनुं चिह्न कर्युं छे.
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अतःकारणात
प्रयोजननी अपेक्षाए भिन्न नाम अने भिन्न लक्षणथी (तेम ज भिन्न प्रयोजनथी)
ओळखातुं होवा छतां वस्तुवृत्तिए (अखंड वस्तुनी अपेक्षाए) भिन्न नथी; आ कारणने
लीधे आ (सहजज्ञान) आत्मगत (आत्मामां रहेलां) दर्शन, सुख, चारित्र वगेरेने जाणे छे
अने स्वात्माने
अपेक्षाए जोईए तो सहजज्ञानने माटे ज्ञान ज स्व छे अने ते सिवायनुं बीजुं बधुं
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न्नित्योद्योतस्फु टितसहजावस्थमेकान्तशुद्धम्
पूर्णं ज्ञानं ज्वलितमचले स्वस्य लीनं महिम्नि
मुक्ति श्रीकामिनीकोमलमुखकमले कामपीडां तनोति
तेनोच्चैर्निश्चयेन प्रहतमलकलिः स्वस्वरूपं स वेत्ति
एवुं, एकांतशुद्ध (
छे एवुं आ पूर्ण ज्ञान झळहळी ऊठ्युं (
सौभाग्यचिह्नवाळी शोभाने फेलावे छे. निश्चयथी तो, जेमणे मळ अने क्लेशने नष्ट करेल
छे एवा ते देवाधिदेव जिनेश निज स्वरूपने अत्यंत जाणे छे. २७२.
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परमेश्वरस्य तीर्थाधिनाथस्य जगत्त्रयकालत्रयवर्तिषु स्थावरजंगमद्रव्यगुणपर्यायात्मकेषु ज्ञेयेषु
सकलविमलकेवलज्ञानकेवलदर्शने च युगपद् वर्तेते
परमेश्वर तीर्थाधिनाथने त्रिलोकवर्ती अने त्रिकाळवर्ती, स्थावर-जंगम द्रव्यगुणपर्यायात्मक
ज्ञेयोमां सकळ-विमळ (सर्वथा निर्मळ) केवळज्ञान अने केवळदर्शन युगपद् वर्ते छे. वळी
(विशेष एटलुं समजवुं के), संसारीओने दर्शनपूर्वक ज ज्ञान होय छे (अर्थात
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तेजोराशौ दिनेशे हतनिखिलतमस्तोमके ते तथैवम्
बन्ने युगपद् होय छे.’’
भगवानमां निरंतर सर्वतः ज्ञान अने दर्शन युगपद् वर्ते छे. जेणे समस्त तिमिरसमूहनो
नाश कर्यो छे एवा आ तेजराशिरूप सूर्यमां जेवी रीते आ उष्णता अने प्रकाश (युगपद्)
वर्ते छे अने वळी जगतना जीवोने नेत्र प्राप्त थाय छे (अर्थात
भगवानना निमित्ते जगतना जीवोने ज्ञान प्रगट थाय छे). २७३.
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मुल्लंघ्य शाश्वतपुरी सहसा त्वयाप्ता
याम्यन्यदस्ति शरणं किमिहोत्तमानाम्
कामं कान्तिं वदनकमले संतनोत्येव कांचित
को नालं शं दिशतुमनिशं प्रेमभूमेः प्रियायाः
उत्तम पुरुषोने (ते मार्ग सिवाय) बीजुं शुं शरण छे? २७४.
फेलावे छे; (कारण के) कोण (पोतानी) स्नेहाळ प्रियाने निरंतर सुखोत्पत्तिनुं कारण थतुं
नथी? २७५.
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असमर्थ होवाथी परप्रकाशक ज छे; ए रीते निरंकुश दर्शन पण केवळ अभ्यंतरमां
आत्माने प्रकाशे छे (अर्थात
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स्याद्वादमतमां दर्शन पण केवळ शुद्धात्माने ज देखतुं नथी (अर्थात
पण ज्ञान केवळ परप्रकाशक होय तो, सदा बाह्यस्थितपणाने लीधे, (ज्ञानने) आत्मा
साथे संबंध रहे नहि अने (तेथी)
दर्शनपक्षे पण, दर्शन केवळ
नथी (माटे चक्षुनी वातथी एम समजाय छे के दर्शन अभ्यंतरने देखे अने बाह्यस्थित
पदार्थोने न देखे एवो कोई नियम घटतो नथी). आथी, ज्ञान अने दर्शनने (बन्नेने)
स्वपरप्रकाशकपणुं अविरुद्ध ज छे. माटे (ए रीते) ज्ञानदर्शनलक्षणवाळो आत्मा
स्वपरप्रकाशक छे.
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मोहाभावाद्यदात्मा परिणमति परं नैव निर्लूनकर्मा
ज्ञेयाकारां त्रिलोकीं पृथगपृथगथ द्योतयन् ज्ञानमूर्तिः
ज्ञेयाकारोने अत्यंत विकसित ज्ञप्तिना विस्तार वडे पोते पी गयो छे एवा त्रणे लोकना
पदार्थोने पृथक् अने अपृथक् प्रकाशतो ते ज्ञानमूर्ति मुक्त ज रहे छे.’’
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दूषणस्यावतारः
श्रीपर्वतनी माफक, परप्रकाशक ज्ञानने अने आत्मप्रकाशक दर्शनने संबंध कई रीते होय?
जे आत्मनिष्ठ (
दोष प्राप्त थाय. माटे ज (उपर कहेला दोषना भयथी), हे शिष्य! ज्ञान केवळ
परप्रकाशक नथी एम जो तुं कहे, तो दर्शन पण केवळ आत्मगत (स्वप्रकाशक) नथी
एम पण (तेमां साथे ज) कहेवाई गयुं. तेथी खरेखर सिद्धांतना हार्दरूप एवुं आ ज
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देखे छे. अघसमूहना (पापसमूहना) नाशक आत्मामां अने ज्ञानदर्शनमां संज्ञाभेदे भेद
ऊपजे छे (अर्थात
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वात पण तेवी ज रीते खंडन पामे छे, कारण के
परप्रकाशक होय तो ज्ञानथी दर्शन भिन्न ठरे! अहीं (आ गाथामां) एम समजवुं के जो
आत्मा (केवळ) परप्रकाशक होय तो आत्माथी ज दर्शन भिन्न ठरे! वळी जो ‘आत्मा
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समजवुं. माटे खरेखर आत्मा स्वपरप्रकाशक छे. जेम (१६२मी गाथामां) ज्ञाननुं कथंचित
माफक धर्मी अने धर्मनुं एक स्वरूप होय छे.
[श्लोकार्थ
(ज्ञानदर्शनधर्मयुक्त आत्मामां ज) सदा अविचळ स्थिति प्राप्त करीने मुक्तिने पामे छे
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प्रविलसदुरुमालाभ्यर्चितांघ्रिर्जिनेन्द्रः
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प्रकटतरसु
स भवति परमश्रीकामिनीकामरूपः
समस्त) पदार्थो एकबीजामां प्रवेश न पामे एवी रीते त्रण लोक अने अलोक जेमनामां
एकी साथे ज व्यापे छे (अर्थात
केवळज्ञानने लीधे) समस्त मूर्त-अमूर्त पदार्थसमूहने जाणे छे. ते (केवळदर्शनज्ञानयुक्त)
आत्मा परमश्रीरूपी कामिनीनो (मुक्तिसुंदरीनो) वल्लभ थाय छे. २८०.
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स्वस्मिन्नित्यं नियतवसतिर्निर्विकल्पे महिम्नि
व्यापारने छोड्यो होवाथी, स्वप्रकाशकस्वरूप लक्षणथी लक्षित छे; दर्शन पण, तेणे
बहिर्विषयपणुं छोड्युं होवाथी, स्वप्रकाशकत्वप्रधान ज छे. आ रीते स्वरूपप्रत्यक्ष-लक्षणथी
लक्षित अखंड-सहज-शुद्धज्ञानदर्शनमय होवाने लीधे, निश्चयथी, त्रिलोक-त्रिकाळवर्ती
स्थावर-जंगमस्वरूप समस्त द्रव्यगुणपर्यायरूप विषयो संबंधी प्रकाश्य-प्रकाशकादि विकल्पोथी
अति दूर वर्ततो थको, स्वस्वरूपसंचेतन जेनुं लक्षण छे एवा प्रकाश वडे सर्वथा अंतर्मुख
होवाने लीधे, आत्मा निरंतर अखंड-अद्वैत-चैतन्यचमत्कारमूर्ति रहे छे.
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लोचनोऽपि परमनिरपेक्षतया निःशेषतोऽन्तर्मुखत्वात
निर्विकल्प महिमामां निश्चितपणे वसे छे. २८१.
तोपण ते भगवान, केवळदर्शनरूप तृतीय लोचनवाळो होवा छतां, परम निरपेक्षपणाने
लीधे निःशेषपणे (सर्वथा) अंतर्मुख होवाथी केवळ स्वरूपप्रत्यक्षमात्र व्यापारमां लीन
एवा निरंजन निज सहजदर्शन वडे सच्चिदानंदमय आत्माने निश्चयथी देखे छे (परंतु
लोकालोकने नहि)
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खलु दूषणं भवतीति
स्वान्तःशुद्धयावसथमहिमाधारमत्यन्तधीरम्
तस्मिन्नैव प्रकृतिमहति व्यावहारप्रपंचः
नथी.
महिमानो धरनार छे, अत्यंत धीर छे अने निज आत्मामां अत्यंत अविचळ होवाथी
सर्वदा अंतर्मग्न छे; स्वभावथी महान एवा ते आत्मामां
छे एम कहेवुं ते निश्चयकथन छे. अहीं व्यवहारकथननो वाच्यार्थ एम न समजवो के जेम
छद्मस्थ जीव लोकालोकने जाणतो-देखतो ज नथी तेम केवळी भगवान लोकालोकने जाणता-
देखता ज नथी. छद्मस्थ जीव साथे सरखामणीनी अपेक्षाए तो केवळी भगवान लोकालोकने
जाणे-देखे छे ते बराबर सत्य छे
लोकालोकने जाणे-देखे छे’ एम कहेतां परनी अपेक्षा आवे छे एटलुं ज सूचववा, तथा केवळी
भगवान जेम स्वने तद्रूप थईने निजसुखना संवेदन सहित जाणे-देखे छे तेम लोकालोकने
(परने) तद्रूप थईने परसुखदुःखादिना संवेदन सहित जाणता-देखता नथी, परंतु परथी तद्दन
भिन्न रहीने, परना सुखदुःखादिनुं संवेदन कर्या विना जाणे-देखे छे एटलुं ज सूचववा तेने
व्यवहार कहेल छे.
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सकलप्रत्यक्षं भवतीति
स्वद्रव्यादि अशेषने (स्व तेम ज पर समस्त द्रव्योने) निरंतर देखनार भगवान श्रीमद्
अर्हत्परमेश्वरनुं जे क्रम, इन्द्रिय अने