Niyamsar-Gujarati (Devanagari transliteration). Shuddhopayog Adhikar; Gatha: 159-167 ; Shlok: 272-282.

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३१
हवे समस्त कर्मना प्रलयना हेतुभूत शुद्धोपयोगनो अधिकार कहेवामां आवे छे.
जाणे अने देखे बधुं प्रभु केवळी व्यवहारथी;
जाणे अने देखे स्वने प्रभु केवळी निश्चय थकी. १५९.
अन्वयार्थ[व्यवहारनयेन] व्यवहारनयथी [केवली भगवान्] केवळी भगवान
[सर्वं] बधुं [जानाति पश्यति] जाणे छे अने देखे छे; [नियमेन] निश्चयथी [केवलज्ञानी]
केवळज्ञानी [आत्मानम्] आत्माने (पोताने) [जानाति पश्यति] जाणे छे अने देखे छे.
टीकाअहीं, ज्ञानीने स्व-पर स्वरूपनुं प्रकाशकपणुं कथंचित् कह्युं छे.
‘पराश्रितो व्यवहारः (व्यवहार पराश्रित छे)’ एवुं (शास्त्रनुं) वचन होवाथी,
१२
शुद्धोपयोग अधिकार
अथ सकलकर्मप्रलयहेतुभूतशुद्धोपयोगाधिकार उच्यते
जाणदि पस्सदि सव्वं ववहारणएण केवली भगवं
केवलणाणी जाणदि पस्सदि णियमेण अप्पाणं ।।१५9।।
जानाति पश्यति सर्वं व्यवहारनयेन केवली भगवान्
केवलज्ञानी जानाति पश्यति नियमेन आत्मानम् ।।१५9।।
अत्र ज्ञानिनः स्वपरस्वरूपप्रकाशकत्वं कथंचिदुक्त म्
आत्मगुणघातकघातिकर्मप्रध्वंसनेनासादितसकलविमलकेवलज्ञानकेवलदर्शनाभ्यां व्यवहार-

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कहानजैनशास्त्रमाळा ]
शुद्धोपयोग अधिकार
[ ३१३
नयेन जगत्त्रयकालत्रयवर्तिसचराचरद्रव्यगुणपर्यायान् एकस्मिन् समये जानाति पश्यति
च स भगवान् परमेश्वरः परमभट्टारकः, पराश्रितो व्यवहारः इति वचनात
शुद्धनिश्चयतः परमेश्वरस्य महादेवाधिदेवस्य सर्वज्ञवीतरागस्य परद्रव्यग्राहकत्वदर्शकत्व-
ज्ञायकत्वादिविविधविकल्पवाहिनीसमुद्भूतमूलध्यानाषादः
(?) स भगवान् त्रिकाल-
निरुपाधिनिरवधिनित्यशुद्धसहजज्ञानसहजदर्शनाभ्यां निजकारणपरमात्मानं स्वयं कार्य-
परमात्मापि जानाति पश्यति च
किं कृत्वा ? ज्ञानस्य धर्मोऽयं तावत् स्वपरप्रकाशकत्वं
प्रदीपवत घटादिप्रमितेः प्रकाशो दीपस्तावद्भिन्नोऽपि स्वयं प्रकाशस्वरूपत्वात् स्वं परं
च प्रकाशयति; आत्मापि व्यवहारेण जगत्त्रयं कालत्रयं च परं ज्योतिःस्वरूपत्वात
स्वयंप्रकाशात्मकमात्मानं च प्रकाशयति
उक्तं च षण्णवतिपाषंडिविजयोपार्जितविशालकीर्तिभिर्महासेनपण्डितदेवैः
व्यवहारनयथी ते भगवान परमेश्वर परमभट्टारक आत्मगुणोनो घात करनारां
घातिकर्मोना नाश वडे प्राप्त सकळ-विमळ केवळज्ञान अने केवळदर्शन वडे त्रिलोकवर्ती
तथा त्रिकाळवर्ती सचराचर द्रव्यगुणपर्यायोने एक समये जाणे छे अने देखे छे.
शुद्धनिश्चयथी परमेश्वर महादेवाधिदेव सर्वज्ञवीतरागने, परद्रव्यनां ग्राहकत्व, दर्शकत्व,
ज्ञायकत्व वगेरेना विविध विकल्पोनी सेनानी उत्पत्ति मूळध्यानमां अभावरूप
होवाथी (?), ते भगवान त्रिकाळ-निरुपाधि, निरवधि (अमर्यादित), नित्यशुद्ध एवां
सहजज्ञान अने सहजदर्शन वडे निज कारणपरमात्माने, पोते कार्यपरमात्मा होवा छतां
पण, जाणे छे अने देखे छे. कई रीते? आ ज्ञाननो धर्म तो, दीवानी माफक, स्वपर-
प्रकाशकपणुं छे. घटादिनी प्रमितिथी प्रकाश
दीवो (कथंचित्) भिन्न होवा छतां स्वयं
प्रकाशस्वरूप होवाथी स्व अने परने प्रकाशे छे; आत्मा पण ज्योतिस्वरूप होवाथी
व्यवहारथी त्रिलोक अने त्रिकाळरूप परने तथा स्वयं प्रकाशस्वरूप आत्माने (पोताने)
प्रकाशे छे.
९६ पाखंडीओ पर विजय मेळववाथी जेमणे विशाळ कीर्ति प्राप्त करी छे एवा
महासेनपंडितदेवे पण (श्लोक द्वारा) कह्युं छे केः
*अहीं संस्कृत टीकामां अशुद्धि लागे छे तेथी संस्कृत टीकामां तथा तेना अनुवादमां शंकाने सूचववा
प्रश्नार्थनुं चिह्न कर्युं छे.

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३१
४ ]
नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
(अनुष्टुभ्)
‘‘यथावद्वस्तुनिर्णीतिः सम्यग्ज्ञानं प्रदीपवत
तत्स्वार्थव्यवसायात्म कथंचित् प्रमितेः पृथक् ।।’’
अथ निश्चयपक्षेऽपि स्वपरप्रकाशकत्वमस्त्येवेति सततनिरुपरागनिरंजनस्वभाव-
निरतत्वात्, स्वाश्रितो निश्चयः इति वचनात सहजज्ञानं तावत् आत्मनः सकाशात
संज्ञालक्षणप्रयोजनेन भिन्नाभिधानलक्षणलक्षितमपि भिन्नं भवति न वस्तुवृत्त्या चेति,
अतःकारणात
् एतदात्मगतदर्शनसुखचारित्रादिकं जानाति स्वात्मानं कारणपरमात्मस्वरूपमपि
जानातीति
तथा चोक्तं श्रीमदमृतचंद्रसूरिभिः
‘‘[श्लोकार्थ] वस्तुनो यथार्थ निर्णय ते सम्यग्ज्ञान छे. ते सम्यग्ज्ञान, दीवानी
माफक, स्वना अने (पर) पदार्थोना निर्णयात्मक छे तथा प्रमितिथी (ज्ञप्तिथी) कथंचित
भिन्न छे.’’
हवे ‘स्वाश्रितो निश्चयः (निश्चय स्वाश्रित छे)’ एवुं (शास्त्रनुं) वचन होवाथी,
(ज्ञानने) सतत *निरुपराग निरंजन स्वभावमां लीनपणाने लीधे निश्चयपक्षे पण
स्वपरप्रकाशकपणुं छे ज. (ते आ प्रमाणेः) सहजज्ञान आत्माथी संज्ञा, लक्षण अने
प्रयोजननी अपेक्षाए भिन्न नाम अने भिन्न लक्षणथी (तेम ज भिन्न प्रयोजनथी)
ओळखातुं होवा छतां वस्तुवृत्तिए (अखंड वस्तुनी अपेक्षाए) भिन्न नथी; आ कारणने
लीधे आ (सहजज्ञान) आत्मगत (आत्मामां रहेलां) दर्शन, सुख, चारित्र वगेरेने जाणे छे
अने स्वात्माने
कारणपरमात्माना स्वरूपनेपण जाणे छे.
(सहजज्ञान स्वात्माने तो स्वाश्रित निश्चयनयथी जाणे ज छे अने ए रीते स्वात्माने
जाणतां तेना बधा गुणो पण जणाई ज जाय छे. हवे सहजज्ञाने जे आ जाण्युं तेमां भेद-
अपेक्षाए जोईए तो सहजज्ञानने माटे ज्ञान ज स्व छे अने ते सिवायनुं बीजुं बधुं
दर्शन, सुख वगेरेपर छे; तेथी आ अपेक्षाए एम सिद्ध थयुं के निश्चयपक्षे पण ज्ञान
स्वने तेम ज परने जाणे छे.)
एवी रीते (आचार्यदेव) श्रीमद् अमृतचंद्रसूरिए (श्री समयसारनी आत्मख्याति
नामनी टीकामां १९२मा श्लोक द्वारा) कह्युं छे केः
*निरुपराग = उपराग रहित; निर्विकार.

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कहानजैनशास्त्रमाळा ]
शुद्धोपयोग अधिकार
[ ३१५
(मंदाक्रांता)
‘‘बन्धच्छेदात्कलयदतुलं मोक्षमक्षय्यमेत-
न्नित्योद्योतस्फु टितसहजावस्थमेकान्तशुद्धम्
एकाकारस्वरसभरतोत्यन्तगंभीरधीरं
पूर्णं ज्ञानं ज्वलितमचले स्वस्य लीनं महिम्नि
।।’’
तथा हि
(स्रग्धरा)
आत्मा जानाति विश्वं ह्यनवरतमयं केवलज्ञानमूर्तिः
मुक्ति श्रीकामिनीकोमलमुखकमले कामपीडां तनोति
शोभां सौभाग्यचिह्नां व्यवहरणनयाद्देवदेवो जिनेशः
तेनोच्चैर्निश्चयेन प्रहतमलकलिः स्वस्वरूपं स वेत्ति
।।२७२।।
जुगवं वट्टइ णाणं केवलणाणिस्स दंसणं च तहा
दिणयरपयासतावं जह वट्टइ तह मुणेयव्वं ।।१६०।।
‘‘[श्लोकार्थ] कर्मबंधना छेदथी अतुल अक्षय (अविनाशी) मोक्षने अनुभवतुं,
नित्य उद्योतवाळी (जेनो प्रकाश नित्य छे एवी) सहज अवस्था जेनी खीली नीकळी छे
एवुं, एकांतशुद्ध (
कर्मनो मेल नहि रहेवाथी जे अत्यंत शुद्ध थयुं छे एवुं), अने एकाकार
(एक ज्ञानमात्र आकारे परिणमेला) निजरसनी अतिशयताथी जे अत्यंत गंभीर अने धीर
छे एवुं आ पूर्ण ज्ञान झळहळी ऊठ्युं (
सर्वथा शुद्ध आत्मद्रव्य जाज्वल्यमान प्रगट थयुं),
पोताना अचळ महिमामां लीन थयुं.’’
वळी (आ १५९ मी गाथानी टीका पूर्ण करतां टीकाकार मुनिराज श्री
पद्मप्रभमलधारिदेव श्लोक कहे छे)ः
[श्लोकार्थ] व्यवहारनयथी आ केवळज्ञानमूर्ति आत्मा निरंतर विश्वने खरेखर
जाणे छे अने मुक्तिलक्ष्मीरूपी कामिनीना कोमळ मुखकमळ पर कामपीडाने अने
सौभाग्यचिह्नवाळी शोभाने फेलावे छे. निश्चयथी तो, जेमणे मळ अने क्लेशने नष्ट करेल
छे एवा ते देवाधिदेव जिनेश निज स्वरूपने अत्यंत जाणे छे. २७२.
जे रीत ताप-प्रकाश वर्ते युगपदे आदित्यने,
ते रीत दर्शन-ज्ञान युगपद होय केवळज्ञानीने. १६०.

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३१
६ ]
नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
युगपद् वर्तते ज्ञानं केवलज्ञानिनो दर्शनं च तथा
दिनकरप्रकाशतापौ यथा वर्तेते तथा ज्ञातव्यम् ।।१६०।।
इह हि केवलज्ञानकेवलदर्शनयोर्युगपद्वर्तनं द्रष्टान्तमुखेनोक्त म्
अत्र द्रष्टान्तपक्षे क्वचित्काले बलाहकप्रक्षोभाभावे विद्यमाने नभस्स्थलस्य
मध्यगतस्य सहस्रकिरणस्य प्रकाशतापौ यथा युगपद् वर्तेते, तथैव च भगवतः
परमेश्वरस्य तीर्थाधिनाथस्य जगत्त्रयकालत्रयवर्तिषु स्थावरजंगमद्रव्यगुणपर्यायात्मकेषु ज्ञेयेषु
सकलविमलकेवलज्ञानकेवलदर्शने च युगपद् वर्तेते
किं च संसारिणां दर्शनपूर्वमेव ज्ञानं
भवति इति
तथा चोक्तं प्रवचनसारे
‘‘णाणं अत्थंतगयं लोयालोएसु वित्थडा दिट्ठी
णट्ठमणिट्ठं सव्वं इट्ठं पुण जं तु तं लद्धं ।।’’
अन्वयार्थ[केवलज्ञानिनः] केवळज्ञानीने [ज्ञानं] ज्ञान [तथा च] तेम ज [दर्शनं]
दर्शन [युगपद्] युगपद् [वर्तते] वर्ते छे. [दिनकरप्रकाशतापौ] सूर्यना प्रकाश अने ताप [यथा]
जेवी रीते [वर्तेते] (युगपद्) वर्ते छे [तथा ज्ञातव्यम्] तेवी रीते जाणवुं.
टीकाअहीं खरेखर केवळज्ञान अने केवळदर्शननुं युगपद् वर्तवापणुं द्रष्टांत
द्वारा कह्युं छे.
अहीं द्रष्टांतपक्षे कोई वखते वादळांनी खलेल न होय त्यारे आकाशना मध्यमां
रहेला सूर्यना प्रकाश अने ताप जेवी रीते युगपद् वर्ते छे, तेवी ज रीते भगवान
परमेश्वर तीर्थाधिनाथने त्रिलोकवर्ती अने त्रिकाळवर्ती, स्थावर-जंगम द्रव्यगुणपर्यायात्मक
ज्ञेयोमां सकळ-विमळ (सर्वथा निर्मळ) केवळज्ञान अने केवळदर्शन युगपद् वर्ते छे. वळी
(विशेष एटलुं समजवुं के), संसारीओने दर्शनपूर्वक ज ज्ञान होय छे (अर्थात
् प्रथम
दर्शन अने पछी ज्ञान थाय छे, युगपद् थतां नथी).
एवी रीते (श्रीमद्भगवत्कुंदकुंदाचार्यदेवप्रणीत) श्री प्रवचनसारमां (६१मी गाथा
द्वारा) कह्युं छे केः
‘‘
[गाथार्थः] ज्ञान पदार्थोना पारने पामेलुं छे अने दर्शन लोकालोकमां विस्तृत

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कहानजैनशास्त्रमाळा ]
शुद्धोपयोग अधिकार
[ ३१७
अन्यच्च
‘‘दंसणपुव्वं णाणं छदमत्थाणं ण दोण्णि उवओग्गा
जुगवं जह्मा केवलिणाहे जुगवं तु ते दोवि ।।’’
तथा हि
(स्रग्धरा)
वर्तेते ज्ञानद्रष्टी भगवति सततं धर्मतीर्थाधिनाथे
सर्वज्ञेऽस्मिन् समंतात् युगपदसद्रशे विश्वलोकैकनाथे
एतावुष्णप्रकाशौ पुनरपि जगतां लोचनं जायतेऽस्मिन्
तेजोराशौ दिनेशे हतनिखिलतमस्तोमके ते तथैवम्
।।२७३।।
छे; सर्व अनिष्ट नाश पाम्युं छे अने जे इष्ट छे ते सर्व प्राप्त थयुं छे.’’
वळी बीजुं पण (श्री नेमिचंद्रसिद्धांतिदेवविरचित बृहद्द्रव्यसंग्रहमां ४४ मी गाथा
द्वारा) कह्युं छे केः
‘‘[गाथार्थः] छद्मस्थोने दर्शनपूर्वक ज्ञान होय छे (अर्थात् पहेलां दर्शन अने
पछी ज्ञान थाय छे), कारण के तेमने बन्ने उपयोगो युगपद् होता नथी; केवळीनाथने ते
बन्ने युगपद् होय छे.’’
वळी (आ १६०मी गाथानी टीका पूर्ण करतां टीकाकार मुनिराज चार श्लोक कहे
छे)ः
[श्लोकार्थ] जे धर्मतीर्थना अधिनाथ (नायक) छे, जे असद्रश छे (अर्थात
जेना समान अन्य कोई नथी) अने जे सकळ लोकना एक नाथ छे एवा आ सर्वज्ञ
भगवानमां निरंतर सर्वतः ज्ञान अने दर्शन युगपद् वर्ते छे. जेणे समस्त तिमिरसमूहनो
नाश कर्यो छे एवा आ तेजराशिरूप सूर्यमां जेवी रीते आ उष्णता अने प्रकाश (युगपद्)
वर्ते छे अने वळी जगतना जीवोने नेत्र प्राप्त थाय छे (अर्थात
् सूर्यना निमित्ते जीवोनां
नेत्र देखवा लागे छे), तेवी ज रीते ज्ञान अने दर्शन (युगपद्) होय छे (अर्थात् तेवी
ज रीते सर्वज्ञ भगवानने ज्ञान अने दर्शन एकीसाथे होय छे अने वळी सर्वज्ञ
भगवानना निमित्ते जगतना जीवोने ज्ञान प्रगट थाय छे). २७३.

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३१
८ ]
नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
(वसंततिलका)
सद्बोधपोतमधिरुह्य भवाम्बुराशि-
मुल्लंघ्य शाश्वतपुरी सहसा त्वयाप्ता
तामेव तेन जिननाथपथाधुनाहं
याम्यन्यदस्ति शरणं किमिहोत्तमानाम्
।।२७४।।
(मंदाक्रांता)
एको देवः स जयति जिनः केवलज्ञानभानुः
कामं कान्तिं वदनकमले संतनोत्येव कांचित
मुक्ते स्तस्याः समरसमयानंगसौख्यप्रदायाः
को नालं शं दिशतुमनिशं प्रेमभूमेः प्रियायाः
।।२७५।।
(अनुष्टुभ्)
जिनेन्द्रो मुक्ति कामिन्याः मुखपद्मे जगाम सः
अलिलीलां पुनः काममनङ्गसुखमद्वयम् ।।२७६।।
[श्लोकार्थ] (हे जिननाथ!) सद्ज्ञानरूपी नावमां आरोहण करी भवसागरने
ओळंगी जईने, तुं झडपथी शाश्वतपुरीए पहोंच्यो. हवे हुं जिननाथना ते मार्गे (जे
मार्गे जिननाथ गया ते ज मार्गे) ते ज शाश्वतपुरीमां जाउं छुं; (कारण के) आ लोकमां
उत्तम पुरुषोने (ते मार्ग सिवाय) बीजुं शुं शरण छे? २७४.
[श्लोकार्थ] केवळज्ञानभानु (केवळज्ञानरूपी प्रकाशना धरनारा सूर्य) एवा
ते एक जिनदेव ज जयवंत छे. ते जिनदेव समरसमय अनंग (अशरीरी, अतींद्रिय)
सौख्यनी देनारी एवी ते मुक्तिना मुखकमळ पर खरेखर कोई अवर्णनीय कान्तिने
फेलावे छे; (कारण के) कोण (पोतानी) स्नेहाळ प्रियाने निरंतर सुखोत्पत्तिनुं कारण थतुं
नथी? २७५.
[श्लोकार्थ] ते जिनेंद्रदेवे मुक्तिकामिनीना मुखकमळ प्रत्ये भ्रमरलीलाने धारण
करी (अर्थात् तेओ तेमां भ्रमरनी जेम लीन थया) अने खरेखर अद्वितीय अनंग
(आत्मिक) सुखने प्राप्त कर्युं. २७६.

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कहानजैनशास्त्रमाळा ]
शुद्धोपयोग अधिकार
[ ३१९
णाणं परप्पयासं दिट्ठी अप्पप्पयासया चेव
अप्पा सपरपयासो होदि त्ति हि मण्णसे जदि हि ।।१६१।।
ज्ञानं परप्रकाशं द्रष्टिरात्मप्रकाशिका चैव
आत्मा स्वपरप्रकाशो भवतीति हि मन्यसे यदि खलु ।।१६१।।
आत्मनः स्वपरप्रकाशकत्वविरोधोपन्यासोऽयम्
इह हि तावदात्मनः स्वपरप्रकाशकत्वं कथमिति चेत ज्ञानदर्शनादि-
विशेषगुणसमृद्धो ह्यात्मा, तस्य ज्ञानं शुद्धात्मप्रकाशकासमर्थत्वात् परप्रकाशकमेव, यद्येवं
द्रष्टिर्निरंकुशा केवलमभ्यन्तरे ह्यात्मानं प्रकाशयति चेत् अनेन विधिना स्वपरप्रकाशको
ह्यात्मेति हंहो जडमते प्राथमिकशिष्य, दर्शनशुद्धेरभावात् एवं मन्यसे, न खलु
जडस्त्वत्तस्सकाशादपरः कश्चिज्जनः अथ ह्यविरुद्धा स्याद्वादविद्यादेवता समभ्यर्चनीया
सद्भिरनवरतम् तत्रैकान्ततो ज्ञानस्य परप्रकाशकत्वं न समस्ति; न केवलं स्यान्मते
दर्शन प्रकाशक आत्मनुं, परनुं प्रकाशक ज्ञान छे,
निजपरप्रकाशक जीव,ए तुज मान्यता अयथार्थ छे. १६१.
अन्वयार्थ[ज्ञानं परप्रकाशं] ज्ञान परप्रकाशक ज छे [च] अने [द्रष्टिः
आत्मप्रकाशिका एव] दर्शन स्वप्रकाशक ज छे [आत्मा स्वपरप्रकाशः भवति] तथा आत्मा
स्वपरप्रकाशक छे [इति हि यदि खलु मन्यसे] एम जो खरेखर तुं मानतो होय तो तेमां
विरोध आवे छे.
टीकाआ, आत्माना स्वपरप्रकाशकपणा संबंधी विरोधकथन छे.
प्रथम तो, आत्माने स्वपरप्रकाशकपणुं कई रीते छे? (ते विचारवामां आवे छे.)
‘आत्मा ज्ञानदर्शनादि विशेष गुणोथी समृद्ध छे; तेनुं ज्ञान शुद्ध आत्माने प्रकाशवामां
असमर्थ होवाथी परप्रकाशक ज छे; ए रीते निरंकुश दर्शन पण केवळ अभ्यंतरमां
आत्माने प्रकाशे छे (अर्थात
् स्वप्रकाशक ज छे). आ विधिथी आत्मा स्वपरप्रकाशक
छे.’आम हे जडमति प्राथमिक शिष्य! जो तुं दर्शनशुद्धिना अभावने लीधे मानतो
होय, तो खरेखर ताराथी अन्य कोई पुरुष जड (मूर्ख) नथी.

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३२
० ]
नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
दर्शनमपि शुद्धात्मानं पश्यति दर्शनज्ञानप्रभृत्यनेकधर्माणामाधारो ह्यात्मा व्यवहार-
पक्षेऽपि केवलं परप्रकाशकस्य ज्ञानस्य न चात्मसम्बन्धः सदा बहिरवस्थितत्वात्,
आत्मप्रतिपत्तेरभावात् न सर्वगतत्वम्; अतःकारणादिदं ज्ञानं न भवति, मृगतृष्णाजलवत
प्रतिभासमात्रमेव दर्शनपक्षेऽपि तथा न केवलमभ्यन्तरप्रतिपत्तिकारणं दर्शनं भवति सदैव
सर्वं पश्यति हि चक्षुः स्वस्याभ्यन्तरस्थितां कनीनिकां न पश्यत्येव अतः
स्वपरप्रकाशकत्वं ज्ञानदर्शनयोरविरुद्धमेव ततः स्वपरप्रकाशको ह्यात्मा ज्ञानदर्शनलक्षण
इति
तथा चोक्तं श्रीमदमृतचन्द्रसूरिभिः
माटे अविरुद्ध एवी स्याद्वादविद्यारूपी देवी सज्जनो वडे सम्यक् प्रकारे निरंतर
आराधवायोग्य छे. त्यां (स्याद्वादमतमां), एकान्ते ज्ञानने परप्रकाशकपणुं ज नथी;
स्याद्वादमतमां दर्शन पण केवळ शुद्धात्माने ज देखतुं नथी (अर्थात
् मात्र स्वप्रकाशक
ज नथी). आत्मा दर्शन, ज्ञान वगेरे अनेक धर्मोनो आधार छे. (त्यां) व्यवहारपक्षे
पण ज्ञान केवळ परप्रकाशक होय तो, सदा बाह्यस्थितपणाने लीधे, (ज्ञानने) आत्मा
साथे संबंध रहे नहि अने (तेथी)
*आत्मप्रतिपत्तिना अभावने लीधे सर्वगतपणुं
(पण) बने नहि. आ कारणने लीधे, आ ज्ञान होय ज नहि (अर्थात् ज्ञाननुं
अस्तित्व ज न होय), मृगतृष्णाना जळनी माफक आभासमात्र ज होय. एवी रीते
दर्शनपक्षे पण, दर्शन केवळ
+अभ्यंतरप्रतिपत्तिनुं ज कारण नथी, (सर्वप्रकाशननुं कारण
छे); (केम के) चक्षु सदैव सर्वने देखे छे, पोताना अभ्यंतरमां रहेली कीकीने देखतुं
नथी (माटे चक्षुनी वातथी एम समजाय छे के दर्शन अभ्यंतरने देखे अने बाह्यस्थित
पदार्थोने न देखे एवो कोई नियम घटतो नथी). आथी, ज्ञान अने दर्शनने (बन्नेने)
स्वपरप्रकाशकपणुं अविरुद्ध ज छे. माटे (ए रीते) ज्ञानदर्शनलक्षणवाळो आत्मा
स्वपरप्रकाशक छे.
एवी रीते (आचार्यदेव) श्रीमद् अमृतचंद्रसूरिए (श्री प्रवचनसारनी टीकामां
चोथा श्लोक द्वारा) कह्युं छे केः
*आत्मप्रतिपत्ति = आत्मानुं ज्ञान; स्वने जाणवुं ते.
+अभ्यंतरप्रतिपत्ति = अंतरंगनुं प्रकाशन; स्वने प्रकाशवुं ते.

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कहानजैनशास्त्रमाळा ]
शुद्धोपयोग अधिकार
[ ३२१
(स्रग्धरा)
‘‘जानन्नप्येष विश्वं युगपदपि भवद्भाविभूतं समस्तं
मोहाभावाद्यदात्मा परिणमति परं नैव निर्लूनकर्मा
तेनास्ते मुक्त एव प्रसभविकसितज्ञप्तिविस्तारपीत-
ज्ञेयाकारां त्रिलोकीं पृथगपृथगथ द्योतयन् ज्ञानमूर्तिः
।।’’
तथा हि
(मंदाक्रांता)
ज्ञानं तावत् सहजपरमात्मानमेकं विदित्वा
लोकालोकौ प्रकटयति वा तद्वतं ज्ञेयजालम्
द्रष्टिः साक्षात् स्वपरविषया क्षायिकी नित्यशुद्धा
ताभ्यां देवः स्वपरविषयं बोधति ज्ञेयराशिम् ।।२७७।।
णाणं परप्पयासं तइया णाणेण दंसणं भिण्णं
ण हवदि परदव्वगयं दंसणमिदि वण्णिदं तम्हा ।।१६२।।
‘‘[श्लोकार्थ] जेणे कर्मोने छेदी नाख्यां छे एवो आ आत्मा भूत, वर्तमान अने
भावि समस्त विश्वने (अर्थात् त्रणे काळना पर्यायो सहित समस्त पदार्थोने) युगपद् जाणतो
होवा छतां मोहना अभावने लीधे पररूपे परिणमतो नथी, तेथी हवे, जेना समस्त
ज्ञेयाकारोने अत्यंत विकसित ज्ञप्तिना विस्तार वडे पोते पी गयो छे एवा त्रणे लोकना
पदार्थोने पृथक् अने अपृथक् प्रकाशतो ते ज्ञानमूर्ति मुक्त ज रहे छे.’’
वळी (आ १६१मी गाथानी टीका पूर्ण करतां टीकाकार मुनिराज श्लोक कहे छे)ः
[श्लोकार्थ] ज्ञान एक सहजपरमात्माने जाणीने लोकालोकने अर्थात् लोकालोक-
संबंधी (समस्त) ज्ञेयसमूहने प्रगट करे छे (जाणे छे). नित्य-शुद्ध एवुं क्षायिक दर्शन (पण)
साक्षात् स्वपरविषयक छे (अर्थात् ते पण स्वपरने साक्षात् प्रकाशे छे). ते बन्ने (ज्ञान
तेम ज दर्शन) वडे आत्मदेव स्वपरसंबंधी ज्ञेयराशिने जाणे छे (अर्थात् आत्मदेव स्वपर
समस्त प्रकाश्य पदार्थोने प्रकाशे छे). २७७.
परने ज जाणे ज्ञान तो द्रग ज्ञानथी भिन्न ज ठरे,
दर्शन नथी परद्रव्यगतए मान्यता तुज होईने. १६२.

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३२२
]
नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
ज्ञानं परप्रकाशं तदा ज्ञानेन दर्शनं भिन्नम्
न भवति परद्रव्यगतं दर्शनमिति वर्णितं तस्मात।।१६२।।
पूर्वसूत्रोपात्तपूर्वपक्षस्य सिद्धान्तोक्ति रियम्
केवलं परप्रकाशकं यदि चेत् ज्ञानं तदा परप्रकाशकप्रधानेनानेन ज्ञानेन दर्शनं
भिन्नमेव परप्रकाशकस्य ज्ञानस्य चात्मप्रकाशकस्य दर्शनस्य च कथं सम्बन्ध इति
चेत् सह्यविंध्ययोरिव अथवा भागीरथीश्रीपर्वतवत आत्मनिष्ठं यत् तद् दर्शनमस्त्येव,
निराधारत्वात् तस्य ज्ञानस्य शून्यतापत्तिरेव, अथवा यत्र तत्र गतं ज्ञानं तत्तद्द्रव्यं
सर्वं चेतनत्वमापद्यते, अतस्त्रिभुवने न कश्चिदचेतनः पदार्थः इति महतो
दूषणस्यावतारः
तदेव ज्ञानं केवलं न परप्रकाशकम् इत्युच्यते हे शिष्य तर्हि दर्शनमपि
न केवलमात्मगतमित्यभिहितम् ततः खल्विदमेव समाधानं सिद्धान्तहृदयं ज्ञान-
अन्वयार्थ[ज्ञानं परप्रकाशं] जो ज्ञान (केवळ) परप्रकाशक होय [तदा] तो
[ज्ञानेन] ज्ञानथी [दर्शनं] दर्शन [भिन्नम्] भिन्न ठरे, [दर्शनम् परद्रव्यगतं न भवति इति
वर्णितं तस्मात्] कारण के दर्शन परद्रव्यगत (परप्रकाशक) नथी एम (पूर्व सूत्रमां तारुं
मन्तव्य) वर्णववामां आव्युं छे.
टीकाआ, पूर्व सूत्रमां (१६१मी गाथामां) कहेला पूर्वपक्षना सिद्धांत संबंधी
कथन छे.
जो ज्ञान केवळ परप्रकाशक होय तो आ परप्रकाशनप्रधान (परप्रकाशक) ज्ञानथी
दर्शन भिन्न ज ठरे; (कारण के) सह्याचल अने विंध्याचलनी माफक अथवा गंगा अने
श्रीपर्वतनी माफक, परप्रकाशक ज्ञानने अने आत्मप्रकाशक दर्शनने संबंध कई रीते होय?
जे आत्मनिष्ठ (
आत्मामां रहेलुं) छे ते तो दर्शन ज छे. अने पेला ज्ञानने तो,
निराधारपणाने लीधे (अर्थात् आत्मारूपी आधार नहि रहेवाथी), शून्यतानी आपत्ति ज
आवे; अथवा तो ज्यां ज्यां ज्ञान पहोंचे (अर्थात् जे जे द्रव्यने ज्ञान पहोंचे) ते ते
सर्व द्रव्य चेतनपणाने पामे, तेथी त्रण लोकमां कोई अचेतन पदार्थ न ठरे ए मोटो
दोष प्राप्त थाय. माटे ज (उपर कहेला दोषना भयथी), हे शिष्य! ज्ञान केवळ
परप्रकाशक नथी एम जो तुं कहे, तो दर्शन पण केवळ आत्मगत (स्वप्रकाशक) नथी
एम पण (तेमां साथे ज) कहेवाई गयुं. तेथी खरेखर सिद्धांतना हार्दरूप एवुं आ ज

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कहानजैनशास्त्रमाळा ]
शुद्धोपयोग अधिकार
[ ३२३
दर्शनयोः कथंचित् स्वपरप्रकाशत्वमस्त्येवेति
तथा चोक्तं श्रीमहासेनपंडितदेवैः
‘‘ज्ञानाद्भिन्नो न नाभिन्नो भिन्नाभिन्नः कथंचन
ज्ञानं पूर्वापरीभूतं सोऽयमात्मेति कीर्तितः ।।’’
तथा हि
(मंदाक्रांता)
आत्मा ज्ञानं भवति न हि वा दर्शनं चैव तद्वत
ताभ्यां युक्त : स्वपरविषयं वेत्ति पश्यत्यवश्यम्
संज्ञाभेदादघकुलहरे चात्मनि ज्ञानद्रष्टयोः
भेदो जातो न खलु परमार्थेन वह्नयुष्णवत्सः ।।२७८।।
समाधान छे के ज्ञान अने दर्शनने कथंचित् स्वपरप्रकाशकपणुं छे ज.
एवी रीते श्री महासेनपंडितदेवे (श्लोक द्वारा) कह्युं छे केः
‘‘[श्लोकार्थ] आत्मा ज्ञानथी (सर्वथा) भिन्न नथी, (सर्वथा) अभिन्न
नथी, कथंचित् भिन्नाभिन्न छे; *पूर्वापरभूत जे ज्ञान ते आ आत्मा छे एम कह्युं
छे.’’
वळी (आ १६२ मी गाथानी टीका पूर्ण करतां टीकाकार मुनिराज श्लोक कहे
छे)ः
[श्लोकार्थ] आत्मा (सर्वथा) ज्ञान नथी, तेवी रीते (सर्वथा) दर्शन पण
नथी ज; ते उभययुक्त (ज्ञानदर्शनयुक्त) आत्मा स्वपर विषयने अवश्य जाणे छे अने
देखे छे. अघसमूहना (पापसमूहना) नाशक आत्मामां अने ज्ञानदर्शनमां संज्ञाभेदे भेद
ऊपजे छे (अर्थात
् संज्ञा, संख्या, लक्षण अने प्रयोजननी अपेक्षाए तेमनामां उपर
कह्या प्रमाणे भेद छे), परमार्थे अग्नि अने उष्णतानी माफक तेमनामां (आत्मामां
अने ज्ञानदर्शनमां) खरेखर भेद नथी (अभेदता छे). २७८.
*पूर्वापर = पूर्व अने अपर; पहेलांनुं अने पछीनुं.

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३२
४ ]
नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
अप्पा परप्पयासो तइया अप्पेण दंसणं भिण्णं
ण हवदि परदव्वगयं दंसणमिदि वण्णिदं तम्हा ।।१६३।।
आत्मा परप्रकाशस्तदात्मना दर्शनं भिन्नम्
न भवति परद्रव्यगतं दर्शनमिति वर्णितं तस्मात।।१६३।।
एकान्तेनात्मनः परप्रकाशकत्वनिरासोऽयम्
यथैकान्तेन ज्ञानस्य परप्रकाशकत्वं पुरा निराकृतम्, इदानीमात्मा केवलं
परप्रकाशश्चेत् तत्तथैव प्रत्यादिष्टं, भावभाववतोरेकास्तित्वनिर्वृत्तत्वात पुरा किल ज्ञानस्य
परप्रकाशकत्वे सति तद्दर्शनस्य भिन्नत्वं ज्ञातम् अत्रात्मनः परप्रकाशकत्वे सति
तेनैव दर्शनं भिन्नमित्यवसेयम् अपि चात्मा न परद्रव्यगत इति चेत
तद्दर्शनमप्यभिन्नमित्यवसेयम् ततः खल्वात्मा स्वपरप्रकाशक इति यावत यथा
परने ज जाणे जीव तो द्रग जीवथी भिन्न ज ठरे,
दर्शन नथी परद्रव्यगतए मान्यता तुज होईने. १६३.
अन्वयार्थ[आत्मा परप्रकाशः] जो आत्मा (केवळ) परप्रकाशक होय [तदा] तो
[आत्मना] आत्माथी [दर्शनं] दर्शन [भिन्नम्] भिन्न ठरे, [दर्शनं परद्रव्यगतं न भवति इति
वर्णितं तस्मात्] कारण के दर्शन परद्रव्यगत (परप्रकाशक) नथी एम (पूर्वे तारुं मन्तव्य)
वर्णववामां आव्युं छे.
टीकाआ, एकांते आत्माने परप्रकाशकपणुं होवानी वातनुं खंडन छे.
जेवी रीते पूर्वे (१६२मी गाथामां) एकांते ज्ञानने परप्रकाशकपणुं खंडित करवामां
आव्युं, तेवी रीते हवे जो ‘आत्मा केवळ परप्रकाशक छे’ एम मानवामां आवे तो ते
वात पण तेवी ज रीते खंडन पामे छे, कारण के
*भाव अने भाववान एक अस्तित्वथी
रचायेला होय छे. पूर्वे (१६२मी गाथामां) एम जणायुं हतुं के जो ज्ञान (केवळ)
परप्रकाशक होय तो ज्ञानथी दर्शन भिन्न ठरे! अहीं (आ गाथामां) एम समजवुं के जो
आत्मा (केवळ) परप्रकाशक होय तो आत्माथी ज दर्शन भिन्न ठरे! वळी जो ‘आत्मा
*ज्ञान भाव छे अने आत्मा भाववान छे.

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कहानजैनशास्त्रमाळा ]
शुद्धोपयोग अधिकार
[ ३२५
कथंचित्स्वपरप्रकाशकत्वं ज्ञानस्य साधितम् अस्यापि तथा, धर्मधर्मिणोरेकस्वरूपत्वात
पावकोष्णवदिति
(मंदाक्रांता)
आत्मा धर्मी भवति सुतरां ज्ञानद्रग्धर्मयुक्त :
तस्मिन्नेव स्थितिमविचलां तां परिप्राप्य नित्यम्
सम्यग्द्रष्टिर्निखिलकरणग्रामनीहारभास्वान्
मुक्तिं याति स्फु टितसहजावस्थया संस्थितां ताम् ।।२७9।।
णाणं परप्पयासं ववहारणयेण दंसणं तम्हा
अप्पा परप्पयासो ववहारणयेण दंसणं तम्हा ।।१६४।।
ज्ञानं परप्रकाशं व्यवहारनयेन दर्शनं तस्मात
आत्मा परप्रकाशो व्यवहारनयेन दर्शनं तस्मात।।१६४।।
परद्रव्यगत नथी (अर्थात् आत्मा केवळ परप्रकाशक नथी, स्वप्रकाशक पण छे)’ एम
(हवे) मानवामां आवे तो आत्माथी दर्शननुं (सम्यक् प्रकारे) अभिन्नपणुं सिद्ध थाय एम
समजवुं. माटे खरेखर आत्मा स्वपरप्रकाशक छे. जेम (१६२मी गाथामां) ज्ञाननुं कथंचित
स्वपरप्रकाशकपणुं सिद्ध थयुं तेम आत्मानुं पण समजवुं, कारण के अग्नि अने उष्णतानी
माफक धर्मी अने धर्मनुं एक स्वरूप होय छे.
[हवे आ १६३मी गाथानी टीका पूर्ण करतां टीकाकार मुनिराज श्लोक कहे छेः]
[श्लोकार्थ
] ज्ञानदर्शनधर्मोथी युक्त होवाने लीधे आत्मा खरेखर धर्मी छे. सकळ
इन्द्रियसमूहरूपी हिमने (नष्ट करवा) माटे सूर्य समान एवो सम्यग्द्रष्टि जीव तेमां ज
(ज्ञानदर्शनधर्मयुक्त आत्मामां ज) सदा अविचळ स्थिति प्राप्त करीने मुक्तिने पामे छे
के जे मुक्ति प्रगट थयेली सहज अवस्थारूपे सुस्थित छे. २७९.
व्यवहारथी छे परप्रकाशक ज्ञान, तेथी द्रष्टि छे;
व्यवहारथी छे परप्रकाशक जीव, तेथी द्रष्टि छे. १६४.
अन्वयार्थ[व्यवहारनयेन] व्यवहारनयथी [ज्ञानं] ज्ञान [परप्रकाशं] परप्रकाशक छे;
[तस्मात्] तेथी [दर्शनम्] दर्शन परप्रकाशक छे. [व्यवहारनयेन] व्यवहारनयथी [आत्मा] आत्मा

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३२
६ ]
नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
व्यवहारनयस्य सफलत्वप्रद्योतनकथनमाह
इह सकलकर्मक्षयप्रादुर्भावासादितसकलविमलकेवलज्ञानस्य पुद्गलादिमूर्तामूर्त-
चेतनाचेतनपरद्रव्यगुणपर्यायप्रकरप्रकाशकत्वं कथमिति चेत्, पराश्रितो व्यवहारः इति वचनात
व्यवहारनयबलेनेति ततो दर्शनमपि ताद्रशमेव त्रैलोक्यप्रक्षोभहेतुभूततीर्थकरपरमदेवस्य
शतमखशतप्रत्यक्षवंदनायोग्यस्य कार्यपरमात्मनश्च तद्वदेव परप्रकाशकत्वम् तेन व्यवहार-
नयबलेन च तस्य खलु भगवतः केवलदर्शनमपि ताद्रशमेवेति
तथा चोक्तं श्रुतबिन्दौ
(मालिनी)
‘‘जयति विजितदोषोऽमर्त्यमर्त्येन्द्रमौलि-
प्रविलसदुरुमालाभ्यर्चितांघ्रिर्जिनेन्द्रः
त्रिजगदजगती यस्येद्रशौ व्यश्नुवाते
सममिव विषयेष्वन्योन्यवृत्तिं निषेद्धुम् ।।’’
[परप्रकाशः] परप्रकाशक छे; [तस्मात्] तेथी [दर्शनम्] दर्शन परप्रकाशक छे.
टीकाआ, व्यवहारनयनुं सफळपणुं दर्शावनारुं कथन छे.
समस्त (ज्ञानावरणीय) कर्मनो क्षय थवाथी प्राप्त थतुं सकळ-विमळ केवळज्ञान
पुद्गलादि मूर्त-अमूर्त चेतन-अचेतन परद्रव्यगुणपर्यायसमूहनुं प्रकाशक कई रीते छेएवो
अहीं प्रश्न थाय, तो तेनो उत्तर एम छे के‘पराश्रितो व्यवहारः (व्यवहार पराश्रित छे)’
एवुं (शास्त्रनुं) वचन होवाथी व्यवहारनयना बळे एम छे (अर्थात् परप्रकाशक छे); तेथी
दर्शन पण तेवुं ज (व्यवहारनयना बळे परप्रकाशक) छे. वळी त्रण लोकना *प्रक्षोभना
हेतुभूत तीर्थंकर-परमदेवनेके जेओ सो इन्द्रोनी प्रत्यक्ष वंदनाने योग्य छे अने
कार्यपरमात्मा छे तेमनेज्ञाननी माफक ज (व्यवहारनयना बळे) परप्रकाशकपणुं छे; तेथी
व्यवहारनयना बळे ते भगवाननुं केवळदर्शन पण तेवुं ज छे.
एवी रीते श्रुतबिन्दुमां (श्लोक द्वारा) कह्युं छे के
‘‘[श्लोकार्थ] जेमणे दोषोने जीत्या छे, जेमनां चरणो देवेंद्रो तेम ज नरेंद्रोना
*प्रक्षोभना अर्थ माटे ८३मा पानानुं पदटिप्पण जुओ.

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कहानजैनशास्त्रमाळा ]
शुद्धोपयोग अधिकार
[ ३२७
तथा हि
(मालिनी)
व्यवहरणनयेन ज्ञानपुंजोऽयमात्मा
प्रकटतरसु
द्रष्टिः सर्वलोकप्रदर्शी
विदितसकलमूर्तामूर्ततत्त्वार्थसार्थः
स भवति परमश्रीकामिनीकामरूपः
।।२८०।।
णाणं अप्पपयासं णिच्छयणयएण दंसणं तम्हा
अप्पा अप्पपयासो णिच्छयणयएण दंसणं तम्हा ।।१६५।।
ज्ञानमात्मप्रकाशं निश्चयनयेन दर्शनं तस्मात
आत्मा आत्मप्रकाशो निश्चयनयेन दर्शनं तस्मात।।१६५।।
मुगटोमां प्रकाशती कीमती माळाओथी पूजाय छे (अर्थात् जेमनां चरणोमां इन्द्रो तथा
चक्रवर्तीओनां मणिमाळायुक्त मुगटवाळां मस्तको अत्यंत झूके छे), अने (लोकालोकना
समस्त) पदार्थो एकबीजामां प्रवेश न पामे एवी रीते त्रण लोक अने अलोक जेमनामां
एकी साथे ज व्यापे छे (अर्थात
् जे जिनेन्द्रने युगपद् जणाय छे), ते जिनेन्द्र जयवंत छे.’’
वळी (आ १६४ मी गाथानी टीका पूर्ण करतां टीकाकार मुनिराज श्लोक कहे
छे)ः
[श्लोकार्थ] ज्ञानपुंज एवो आ आत्मा अत्यंत स्पष्ट दर्शन थतां (अर्थात
केवळदर्शन प्रगट थतां) व्यवहारनयथी सर्व लोकने देखे छे तथा (साथे वर्तता
केवळज्ञानने लीधे) समस्त मूर्त-अमूर्त पदार्थसमूहने जाणे छे. ते (केवळदर्शनज्ञानयुक्त)
आत्मा परमश्रीरूपी कामिनीनो (मुक्तिसुंदरीनो) वल्लभ थाय छे. २८०.
निश्चयनये छे निजप्रकाशक ज्ञान, तेथी द्रष्टि छे;
निश्चयनये छे निजप्रकाशक जीव, तेथी द्रष्टि छे. १६५.
अन्वयार्थ[निश्चयनयेन] निश्चयनयथी [ज्ञानम्] ज्ञान [आत्मप्रकाशं] स्वप्रकाशक
छे; [तस्मात्] तेथी [दर्शनम्] दर्शन स्वप्रकाशक छे. [निश्चयनयेन] निश्चयनयथी [आत्मा]
आत्मा [आत्मप्रकाशः] स्वप्रकाशक छे;
[तस्मात्] तेथी [दर्शनम्] दर्शन स्वप्रकाशक छे.

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३२
८ ]
नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
निश्चयनयेन स्वरूपाख्यानमेतत
निश्चयनयेन स्वप्रकाशकत्वलक्षणं शुद्धज्ञानमिहाभिहितं तथा सकलावरण-
प्रमुक्त शुद्धदर्शनमपि स्वप्रकाशकपरमेव आत्मा हि विमुक्त सकलेन्द्रियव्यापारत्वात
स्वप्रकाशकत्वलक्षणलक्षित इति यावत दर्शनमपि विमुक्त बहिर्विषयत्वात् स्वप्रकाशकत्व-
प्रधानमेव इत्थं स्वरूपप्रत्यक्षलक्षणलक्षिताक्षुण्णसहजशुद्धज्ञानदर्शनमयत्वात् निश्चयेन
जगत्त्रयकालत्रयवर्तिस्थावरजंगमात्मकसमस्तद्रव्यगुणपर्यायविषयेषु आकाशाप्रकाशकादि-
विकल्पविदूरस्सन् स्वस्वरूपे संज्ञालक्षणप्रकाशतया निरवशेषेणान्तर्मुखत्वादनवरतम्
अखंडाद्वैतचिच्चमत्कारमूर्तिरात्मा तिष्ठतीति
(मंदाक्रांता)
आत्मा ज्ञानं भवति नियतं स्वप्रकाशात्मकं या
द्रष्टिः साक्षात् प्रहतबहिरालंबना सापि चैषः
एकाकारस्वरसविसरापूर्णपुण्यः पुराणः
स्वस्मिन्नित्यं नियतवसतिर्निर्विकल्पे महिम्नि
।।२८१।।
टीकाआ, निश्चयनयथी स्वरूपनुं कथन छे.
अहीं निश्चयनयथी शुद्ध ज्ञाननुं लक्षण स्वप्रकाशकपणुं कह्युं छे; तेवी रीते सर्व
आवरणथी मुक्त शुद्ध दर्शन पण स्वप्रकाशक ज छे. आत्मा खरेखर, तेणे सर्व इन्द्रिय-
व्यापारने छोड्यो होवाथी, स्वप्रकाशकस्वरूप लक्षणथी लक्षित छे; दर्शन पण, तेणे
बहिर्विषयपणुं छोड्युं होवाथी, स्वप्रकाशकत्वप्रधान ज छे. आ रीते स्वरूपप्रत्यक्ष-लक्षणथी
लक्षित अखंड-सहज-शुद्धज्ञानदर्शनमय होवाने लीधे, निश्चयथी, त्रिलोक-त्रिकाळवर्ती
स्थावर-जंगमस्वरूप समस्त द्रव्यगुणपर्यायरूप विषयो संबंधी प्रकाश्य-प्रकाशकादि विकल्पोथी
अति दूर वर्ततो थको, स्वस्वरूपसंचेतन जेनुं लक्षण छे एवा प्रकाश वडे सर्वथा अंतर्मुख
होवाने लीधे, आत्मा निरंतर अखंड-अद्वैत-चैतन्यचमत्कारमूर्ति रहे छे.
[हवे आ १६५मी गाथानी टीका पूर्ण करतां टीकाकार मुनिराज श्लोक कहे
छेः]
[श्लोकार्थ] निश्चयथी आत्मा स्वप्रकाशक ज्ञान छे; जेणे बाह्य आलंबन नष्ट कर्युं
*अहीं कांईक अशुद्धि होय एम लागे छे.

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कहानजैनशास्त्रमाळा ]
शुद्धोपयोग अधिकार
[ ३२९
अप्पसरूवं पेच्छदि लोयालोयं ण केवली भगवं
जइ कोइ भणइ एवं तस्स य किं दूसणं होइ ।।१६६।।
आत्मस्वरूपं पश्यति लोकालोकौ न केवली भगवान्
यदि कोपि भणत्येवं तस्य च किं दूषणं भवति ।।१६६।।
शुद्धनिश्चयनयविवक्षया परदर्शनत्वनिरासोऽयम्
व्यवहारेण पुद्गलादित्रिकालविषयद्रव्यगुणपर्यायैकसमयपरिच्छित्तिसमर्थसकल-
विमलकेवलावबोधमयत्वादिविविधमहिमाधारोऽपि स भगवान् केवलदर्शनतृतीय-
लोचनोऽपि परमनिरपेक्षतया निःशेषतोऽन्तर्मुखत्वात
् केवलस्वरूपप्रत्यक्षमात्रव्यापार-
निरतनिरंजननिजसहजदर्शनेन सच्चिदानंदमयमात्मानं निश्चयतः पश्यतीति शुद्ध-
छे एवुं (स्वप्रकाशक) जे साक्षात् दर्शन ते-रूप पण आत्मा छे. एकाकार निजरसना फेलावथी
पूर्ण होवाने लीधे जे पवित्र छे अने जे पुराण (सनातन) छे एवो आ आत्मा सदा पोताना
निर्विकल्प महिमामां निश्चितपणे वसे छे. २८१.
प्रभु केवळी देखे निजात्माने, न लोकालोकने,
जो कोई भाखे एम तो तेमां कहो शो दोष छे? १६६.
अन्वयार्थ[केवली भगवान्] (निश्चयथी) केवळी भगवान [आत्मस्वरूपं]
आत्मस्वरूपने [पश्यति] देखे छे, [न लोकालोकौ] लोकालोकने नहि[एवं] एम [यदि] जो
[कः अपि भणति] कोई कहे तो [तस्य च किं दूषणं भवति] तेने शो दोष छे? (अर्थात् कांई
दोष नथी.)
टीकाआ, शुद्धनिश्चयनयनी विवक्षाथी परदर्शननुं (परने देखवानुं) खंडन छे.
जोके व्यवहारथी एक समयमां त्रण काळ संबंधी पुद्गलादि द्रव्यगुणपर्यायोने
जाणवामां समर्थ सकळ-विमळ केवळज्ञानमयत्वादि विविध महिमाओनो धरनार छे,
तोपण ते भगवान, केवळदर्शनरूप तृतीय लोचनवाळो होवा छतां, परम निरपेक्षपणाने
लीधे निःशेषपणे (सर्वथा) अंतर्मुख होवाथी केवळ स्वरूपप्रत्यक्षमात्र व्यापारमां लीन
एवा निरंजन निज सहजदर्शन वडे सच्चिदानंदमय आत्माने निश्चयथी देखे छे (परंतु
लोकालोकने नहि)
एम जे कोई पण शुद्ध अंतःतत्त्वनो वेदनार (जाणनार,

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३३
० ]
नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
निश्चयनयविवक्षया यः कोपि शुद्धान्तस्तत्त्ववेदी परमजिनयोगीश्वरो वक्ति तस्य च न
खलु दूषणं भवतीति
(मंदाक्रांता)
पश्यत्यात्मा सहजपरमात्मानमेकं विशुद्धं
स्वान्तःशुद्धयावसथमहिमाधारमत्यन्तधीरम्
स्वात्मन्युच्चैरविचलतया सर्वदान्तर्निमग्नं
तस्मिन्नैव प्रकृतिमहति व्यावहारप्रपंचः
।।२८२।।
अनुभवनार) परम जिनयोगीश्वर शुद्धनिश्चयनयनी विवक्षाथी कहे छे, तेने खरेखर दूषण
नथी.
[हवे आ १६६ मी गाथानी टीका पूर्ण करतां टीकाकार मुनिराज श्लोक कहे
छेः]
[श्लोकार्थ] (*निश्चयथी) आत्मा सहज परमात्माने देखे छेके जे
परमात्मा एक छे, विशुद्ध छे, निज अंतःशुद्धिनुं रहेठाण होवाथी (केवळज्ञानदर्शनादि)
महिमानो धरनार छे, अत्यंत धीर छे अने निज आत्मामां अत्यंत अविचळ होवाथी
सर्वदा अंतर्मग्न छे; स्वभावथी महान एवा ते आत्मामां
*व्यवहारप्रपंच नथी ज
(अर्थात् निश्चयथी आत्मामां लोकालोकने देखवारूप व्यवहारविस्तार नथी ज). २८२.
*अहीं निश्चय-व्यवहार संबंधी एम समजवुं केजेमां स्वनी ज अपेक्षा होय ते निश्चयकथन
छे अने जेमां परनी अपेक्षा आवे ते व्यवहारकथन छे; माटे केवळी भगवान लोकालोकने
परने जाणे-देखे छे एम कहेवुं ते व्यवहारकथन छे अने केवळी भगवान स्वात्माने जाणे-देखे
छे एम कहेवुं ते निश्चयकथन छे. अहीं व्यवहारकथननो वाच्यार्थ एम न समजवो के जेम
छद्मस्थ जीव लोकालोकने जाणतो-देखतो ज नथी तेम केवळी भगवान लोकालोकने जाणता-
देखता ज नथी. छद्मस्थ जीव साथे सरखामणीनी अपेक्षाए तो केवळी भगवान लोकालोकने
जाणे-देखे छे ते बराबर सत्य छे
यथार्थ छे, कारण के तेओ त्रिकाळ संबंधी सर्व
द्रव्यगुणपर्यायोने यथास्थित बराबर परिपूर्णपणे खरेखर जाणे-देखे छे, ‘केवळी भगवान
लोकालोकने जाणे-देखे छे’ एम कहेतां परनी अपेक्षा आवे छे एटलुं ज सूचववा, तथा केवळी
भगवान जेम स्वने तद्रूप थईने निजसुखना संवेदन सहित जाणे-देखे छे तेम लोकालोकने
(परने) तद्रूप थईने परसुखदुःखादिना संवेदन सहित जाणता-देखता नथी, परंतु परथी तद्दन
भिन्न रहीने, परना सुखदुःखादिनुं संवेदन कर्या विना जाणे-देखे छे एटलुं ज सूचववा तेने
व्यवहार कहेल छे.

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कहानजैनशास्त्रमाळा ]
शुद्धोपयोग अधिकार
[ ३३१
मुत्तममुत्तं दव्वं चेयणमियरं सगं च सव्वं च
पेच्छंतस्स दु णाणं पच्चक्खमणिंदियं होइ ।।१६७।।
मूर्तममूर्तं द्रव्यं चेतनमितरत् स्वकं च सर्वं च
पश्यतस्तु ज्ञानं प्रत्यक्षमतीन्द्रियं भवति ।।१६७।।
केवलबोधस्वरूपाख्यानमेतत
षण्णां द्रव्याणां मध्ये मूर्तत्वं पुद्गलस्य पंचानाम् अमूर्तत्वम्; चेतनत्वं जीवस्यैव
पंचानामचेतनत्वम् मूर्तामूर्तचेतनाचेतनस्वद्रव्यादिकमशेषं त्रिकालविषयम् अनवरतं पश्यतो
भगवतः श्रीमदर्हत्परमेश्वरस्य क्रमकरणव्यवधानापोढं चातीन्द्रियं च सकलविमलकेवलज्ञानं
सकलप्रत्यक्षं भवतीति
तथा चोक्तं प्रवचनसारे
मूर्तिक-अमूर्तिक चेतनाचेतन स्वपर सौ द्रव्यने
जे देखतो तेने अतींद्रिय ज्ञान छे, प्रत्यक्ष छे. १६७.
अन्वयार्थ[मूर्तम् अमूर्तम्] मूर्त-अमूर्त [चेतनम् इतरत्] चेतन-अचेतन [द्रव्यं]
द्रव्योने[स्वकं च सर्वं च] स्वने तेम ज समस्तने [पश्यतः तु] देखनारनुं (जाणनारनुं)
[ज्ञानम्] ज्ञान [अतीन्द्रियं] अतींद्रिय छे, [प्रत्यक्षम् भवति] प्रत्यक्ष छे.
टीकाआ, केवळज्ञानना स्वरूपनुं कथन छे.
छ द्रव्योमां पुद्गलने मूर्तपणुं छे, (बाकीनां) पांचने अमूर्तपणुं छे; जीवने ज
चेतनपणुं छे, (बाकीनां) पांचने अचेतनपणुं छे. त्रिकाळ संबंधी मूर्त-अमूर्त चेतन-अचेतन
स्वद्रव्यादि अशेषने (स्व तेम ज पर समस्त द्रव्योने) निरंतर देखनार भगवान श्रीमद्
अर्हत्परमेश्वरनुं जे क्रम, इन्द्रिय अने
*व्यवधान विनानुं, अतीन्द्रिय सकळ-विमळ (सर्वथा
निर्मळ) केवळज्ञान ते सकलप्रत्यक्ष छे.
एवी रीते (श्रीमद्भगवत्कुंदकुंदाचार्यदेवप्रणीत) श्री प्रवचनसारमां (५४ मी गाथा
द्वारा) कह्युं छे केः
*व्यवधानना अर्थ माटे २६मा पानानुं पदटिप्पण जुओ.