शिखरशिखामणेः परद्रव्यपराङ्मुखस्य पंचेन्द्रियप्रसरवर्जितगात्रमात्रपरिग्रहस्य परमजिन- योगीश्वरस्य स्वद्रव्यनिशितमतेरुपादेयो ह्यात्मा । औदयिकादिचतुर्णां भावान्तराणामगोचरत्वाद् द्रव्यभावनोकर्मोपाधिसमुपजनितविभावगुणपर्यायरहितः, अनादिनिधनामूर्तातीन्द्रियस्वभावशुद्ध- सहजपरमपारिणामिकभावस्वभावकारणपरमात्मा ह्यात्मा । अत्यासन्नभव्यजीवानामेवंभूतं निजपरमात्मानमन्तरेण न किंचिदुपादेयमस्तीति ।
सकलविलयदूरः प्रास्तदुर्वारमारः ।
सुखजलनिधिपूरः क्लेशवाराशिपारः ।।५४।।
वैराग्यरूपी महेलना शिखरनो जे १शिखामणि छे, परद्रव्यथी जे पराङ्मुख छे, पांच इन्द्रियोना फेलाव रहित देहमात्र जेने परिग्रह छे, जे परम जिनयोगीश्वर छे, स्वद्रव्यमां जेनी तीक्ष्ण बुद्धि छेएवा आत्माने ‘आत्मा’ खरेखर उपादेय छे. औदयिक आदि चार २भावांतरोने अगोचर होवाथी जे (कारणपरमात्मा) द्रव्यकर्म, भावकर्म, अने नोकर्मरूप उपाधिथी जनित विभावगुणपर्यायो विनानो छे, तथा अनादि-अनंत अमूर्त अतींद्रियस्वभाववाळो शुद्ध-सहज- परम-पारिणामिकभाव जेनो स्वभाव छेएवो कारणपरमात्मा ते खरेखर ‘आत्मा’ छे. अति-आसन्न भव्यजीवोने एवा निज परमात्मा सिवाय (बीजुं) कांई उपादेय नथी.
[हवे ३८मी गाथानी टीका पूर्ण करतां टीकाकार मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेव श्लोक कहे छेः]
[श्लोकार्थः] सर्व तत्त्वोमां जे एक सार छे, जे समस्त नाश पामवायोग्य भावोथी दूर छे, जेणे दुर्वार कामने नष्ट कर्यो छे, जे पापरूप वृक्षने छेदनार कुहाडो छे, जे शुद्ध ज्ञाननो अवतार छे, जे सुखसागरनुं पूर छे अने जे क्लेशोदधिनो किनारो छे, ते समयसार (शुद्ध आत्मा) जयवंत वर्ते छे. ५४.
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१. शिखामणि = टोच उपरनुं रत्न; चूडामणि; कलगीनुं रत्न.
२. भावांतरो = अन्य भावो. [औदयिक, औपशमिक, क्षायोपशमिक अने क्षायिकए चार भावो
परमपारिणामिकभावथी अन्य होवाने लीधे तेमने भावांतरो कह्या छे. परमपारिणामिकभाव जेनो
स्वभाव छे एवो कारणपरमात्मा आ चार भावांतरोने अगोचर छे.]