स्फु टतरमवगाह्य स्वं च चिच्छक्ति मात्रम् ।
व्रजति न च विकल्पं संसृतेर्घोररूपम् ।
परपरिणतिदूरं याति चिन्मात्रमेषः ।।६०।।
‘‘[श्लोकार्थः] चित्शक्तिथी रहित अन्य सकळ भावोने मूळथी छोडीने अने चित्शक्तिमात्र एवा निज आत्मानुं अति स्फुटपणे अवगाहन करीने, आत्मा समस्त विश्वना उपर सुंदर रीते प्रवर्तता एवा आ केवळ (एक) अविनाशी आत्माने आत्मामां साक्षात् अनुभवो.’’
‘‘[श्लोकार्थः] चैतन्यशक्तिथी व्याप्त जेनो सर्वस्व-सार छे एवो आ जीव एटलो ज मात्र छे; आ चित्शक्तिथी शून्य जे आ भावो छे ते बधाय पौद्गलिक छे.’’
वळी (४२मी गाथानी टीका पूर्ण करतां टीकाकार मुनिराज बे श्लोक कहे छे)ः
[श्लोकार्थः] सततपणे अखंड ज्ञाननी सद्भावनावाळो आत्मा (अर्थात् ‘हुं अखंड ज्ञान छुं’ एवी साची भावना जेने निरंतर वर्ते छे ते आत्मा) संसारना घोर विकल्पने पामतो नथी, परंतु निर्विकल्प समाधिने प्राप्त करतो थको परपरिणतिथी दूर, अनुपम, १अनघ चिन्मात्रने (चैतन्यमात्र आत्माने) पामे छे. ६०.