भक्ति प्रह्वामरेन्द्रप्रकटमुकुटसद्रत्नमालार्चितांघ्रेः ।
एते संतो भवाब्धेरपरतटममी यांति सच्छीलपोताः ।।६१।।
इह हि शुद्धात्मनः समस्तविभावाभावत्वमुक्त म् ।
[श्लोकार्थः] भक्तिथी नमेला देवेंद्रो मुगटनी सुंदर रत्नमाळा वडे जेमनां चरणोने प्रगट रीते पूजे छे एवा महावीर तीर्थाधिनाथ द्वारा आ संतो जन्म-जरा- मृत्युनो नाशक अने दुष्ट मळसमूहरूपी अंधकारनो ध्वंस करवामां चतुर एवो आ प्रकारनो (पूर्वोक्त) उपदेश समजीने, सत्शीलरूपी नौका वडे भवाब्धिना सामा किनारे पहोंची जाय छे. ६१.
अन्वयार्थः[आत्मा] आत्मा [निर्दण्डः] १निर्दंड, [निर्द्वन्द्वः] निर्द्वंद्व, [निर्ममः] निर्मम, [निःकलः] निःशरीर, [निरालंबः] निरालंब, [नीरागः] नीराग, [निर्दोषः] निर्दोष, [निर्मूढः] निर्मूढ अने [निर्भयः] निर्भय छे.
टीकाःअहीं (आ गाथामां) खरेखर शुद्ध आत्माने समस्त विभावनो अभाव छे एम कह्युं छे.
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१. निर्दंड = दंड रहित. (जे मनवचनकायाश्रित प्रवर्तनथी आत्मा दंडाय छे ते प्रवर्तनने दंड कहेवामां आवे छे.)