अत्रापि शुद्धजीवस्वरूपमुक्त म् ।
बाह्याभ्यन्तरचतुर्विंशतिपरिग्रहपरित्यागलक्षणत्वान्निर्ग्रन्थः । सकलमोहरागद्वेषात्मक- चेतनकर्माभावान्नीरागः । निदानमायामिथ्याशल्यत्रयाभावान्निःशल्यः । शुद्धनिश्चयनयेन शुद्धजीवास्तिकायस्य द्रव्यभावनोकर्माभावात् सकलदोषनिर्मुक्त : । शुद्धनिश्चयनयेन निज- परमतत्त्वेऽपि वांछाभावान्निःकामः । निश्चयनयेन प्रशस्ताप्रशस्तसमस्तपरद्रव्यपरिणतेरभावान्निः-
अन्वयार्थः[आत्मा] आत्मा [निर्ग्रन्थः] निर्ग्रंथ, [नीरागः] नीराग, [निःशल्यः] निःशल्य, [सकलदोषनिर्मुक्त :] सर्वदोषविमुक्त, [निःकामः] निष्काम, [निःक्रोधः] निःक्रोध, [निर्मानः] निर्मान अने [निर्मदः] निर्मद छे.
टीकाःअहीं (आ गाथामां) पण शुद्ध जीवनुं स्वरूप कह्युं छे.
शुद्ध जीवास्तिकाय बाह्य-अभ्यंतर *चोवीश परिग्रहना परित्यागस्वरूप होवाथी निर्ग्रंथ छे; सकळ मोह-राग-द्वेषात्मक चेतन कर्मना अभावने लीधे नीराग छे; निदान, माया अने मिथ्यात्वए त्रण शल्योना अभावने लीधे निःशल्य छे; शुद्ध निश्चयनयथी शुद्ध जीवास्तिकायने द्रव्यकर्म, भावकर्म अने नोकर्मनो अभाव होवाने लीधे सर्वदोषविमुक्त छे; शुद्ध निश्चयनयथी निज परम तत्त्वनी पण वांछा नहि होवाथी निष्काम छे; निश्चयनयथी प्रशस्तअप्रशस्त समस्त परद्रव्यपरिणतिनो अभाव होवाने लीधे निःक्रोध छे; निश्चयनयथी सदा परम समरसीभावस्वरूप होवाने लीधे निर्मान छे; निश्चयनयथी निःशेषपणे अंतर्मुख
*क्षेत्र, मकान, चांदी, सोनुं, धन, धान्य, दासी, दास, कपडां अने वासण एम दस प्रकारनो
बाह्य परिग्रह छे; एक मिथ्यात्व, चार कषाय अने नव नोकषाय एम चौद प्रकारनो अभ्यंतर
परिग्रह छे.