परमात्मतत्त्व छे. ते ज शुद्ध अंतःतत्त्व, कारणपरमात्मा, परम पारिणामिक भाव वगेरे नामोथी कहेवाय छे. आ परमात्मतत्त्वनी उपलब्धि अनादि काळथी अनंत अनंत दुःखने अनुभवता जीवे एक क्षणमात्र पण करी नथी अने तेथी सुख माटेनां तेना सर्व झावां (द्रव्यलिंगी मुनिनां व्यवहार-रत्नत्रय सुद्धां) सर्वथा व्यर्थ गयां छे. माटे आ परमागमनो एकमात्र उद्देश जीवोने परमात्मतत्त्वनी उपलब्धि अथवा *आश्रय कराववानो छे. शास्त्रकार आचार्यभगवाने अने टीकाकार मुनिवरे आ परमागमना पाने पाने जे अनुभवसिद्ध परम सत्य पोकार्युं छे तेनो सार आ प्रमाणे छेः हे जगतना जीवो! तमारा सुखनो एकमात्र उपाय परमात्मतत्त्वनो आश्रय छे. सम्यग्दर्शनथी मांडीने सिद्धि सुधीनी सर्व भूमिकाओ तेमां समाय छे. परमात्मतत्त्वनो जघन्य आश्रय ते सम्यग्दर्शन छे; ते आश्रय मध्यम कोटिनी उग्रता धारण करतां जीवने देशचारित्र, सकलचारित्र वगेरे दशाओ प्रगट थाय छे अने पूर्ण आश्रय थतां केवळज्ञान अने सिद्धत्व पामी जीव सर्वथा कृतार्थ थाय छे. आ रीते परमातत्त्वनो आश्रय ज सम्यग्दर्शन छे, ते ज सम्यग्ज्ञान छे, ते ज सम्यक् चारित्र छे; ते ज सत्यार्थ प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, आलोचना, प्रायश्चित, सामायिक, भक्ति, आवश्यक, समिति, गुप्ति, संयम, तप, संवर, निर्जरा, धर्म-शुकलध्यान वगेरे बधुंय छे. एवो एक पण मोक्षना कारणरूप भाव नथी जे परमात्मतत्त्वना आश्रयथी अन्य होय. परमात्मतत्त्वना आश्रयथी अन्य एवा भावोने — व्यवहारप्रतिक्रमण, व्यवहारप्रत्याख्यान वगेरे शुभ विकल्परूप भावोने — मोक्षमार्ग कहेवामां आवे छे ते तो केवळ उपचारथी कहेवामां आवे छे. परमात्मतत्त्वना मध्यम कोटिना अपरिपकव आश्रय वखते ते अपरिपकवताने लीधे साथे साथे जे अशुद्धिरूप अंश विद्यमान होय छे ते अशुद्धिरूप अंश ज व्यवहारप्रतिक्रमणादि अनेक अनेक शुभ विकल्पात्मक भावोरूपे देखाव दे छे. ते अशुद्धि-अंश खरेखर मोक्षमार्ग केम होई शके? ते तो खरेखर मोक्षमार्गथी विरुद्ध भाव ज छे, बंध भाव ज छे — एम तमे समजो. वळी, द्रव्यलिंगी मुनिने जे प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान वगेरे शुभ भावो होय छे ते भावो तो दरेक जीव अनंत वार करी चूक्यो छे परंतु ते भावो तेने केवळ परिभ्रमणनुं ज कारण थया छे कारण के परमात्मतत्त्वना आश्रय विना आत्मानुं स्वभावपरिणमन अंशे पण नहि थतुं होवाथी तेने मोक्षमार्गनी प्राप्ति अंशमात्र पण होती नथी. सर्व जिनेंद्रोना दिव्य ध्वनिनो संक्षेप अने अमारा स्वसंवेदननो सार ए छे के भयंकर संसाररोगनुं एकमात्र
* ‘हुं ध्रुव शुद्ध आत्मद्रव्यसामान्य छुं’ एवी सानुभव श्रद्धापरिणतिथी मांडीने परिपूर्ण लीनता सुधीनी कोई पण परिणतिने परमात्मतत्त्वनो आश्रय, परमात्मतत्त्वनुं आलंबन, परमात्मतत्त्व प्रत्ये झोक, परमात्मतत्त्व प्रत्ये वलण, परमात्मतत्त्व प्रत्ये संमुखता, परमात्मतत्त्वनी उपलब्धि, परमात्मतत्त्वनी भावना, परमात्मतत्त्वनुं ध्यान वगेरे शब्दोथी कहेवाय छे.