Niyamsar-Gujarati (Devanagari transliteration).

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कहानजैनशास्त्रमाळा ]
शुद्धभाव अधिकार
[ १०७

अंतरंगहेतव इत्युक्ताः दर्शनमोहनीयकर्मक्षयप्रभृतेः सकाशादिति अभेदानुपचाररत्नत्रय- परिणतेर्जीवस्य टंकोत्कीर्णज्ञायकैकस्वभावनिजपरमतत्त्वश्रद्धानेन, तत्परिच्छित्तिमात्रांतर्मुखपरम- बोधेन, तद्रूपाविचलस्थितिरूपसहजचारित्रेण अभूतपूर्वः सिद्धपर्यायो भवति यः परमजिन- योगीश्वरः प्रथमं पापक्रियानिवृत्तिरूपव्यवहारनयचारित्रे तिष्ठति, तस्य खलु व्यवहारनय- गोचरतपश्चरणं भवति सहजनिश्चयनयात्मकपरमस्वभावात्मकपरमात्मनि प्रतपनं तपः स्वस्वरूपाविचलस्थितिरूपं सहजनिश्चयचारित्रम् अनेन तपसा भवतीति

तथा चोक्त मेकत्वसप्ततौ
(अनुष्टुभ्)
‘‘दर्शनं निश्चयः पुंसि बोधस्तद्बोध इष्यते
स्थितिरत्रैव चारित्रमिति योगः शिवाश्रयः ।।’’

(सम्यक्त्वपरिणामना) अंतरंग हेतुओ कह्या छे, कारण के तेमने दर्शनमोहनीयकर्मना क्षयादिक छे.

अभेद-अनुपचार-रत्नत्रयपरिणतिवाळा जीवने, टंकोत्कीर्ण ज्ञायक जेनो एक स्वभाव छे एवा निज परम तत्त्वनी श्रद्धा वडे, तद्ज्ञानमात्र (ते निज परम तत्त्वना ज्ञानमात्रस्वरूप) एवा अंतर्मुख परमबोध वडे अने ते-रूपे (अर्थात् निज परम तत्त्वरूपे) अविचळपणे स्थित थवारूप सहजचारित्र वडे *अभूतपूर्व सिद्धपर्याय थाय छे. जे परमजिनयोगीश्वर पहेलां पापक्रियाथी निवृत्तिरूप व्यवहारनयना चारित्रमां होय छे, तेने खरेखर व्यवहारनयगोचर तपश्चरण होय छे. सहजनिश्चयनयात्मक परमस्वभावस्वरूप परमात्मामां प्रतपन ते तप छे; निज स्वरूपमां अविचळ स्थितिरूप सहजनिश्चयचारित्र आ तपथी होय छे.

एवी रीते एकत्वसप्ततिमां (श्री पद्मनंदी-आचार्यदेवकृत पद्मनंदिपंचविंशतिका नामना शास्त्रने विषे एकत्वसप्तति नामना अधिकारमां १४मा श्लोक द्वारा) कह्युं छे केः

‘‘[श्लोकार्थः] आत्मानो निश्चय ते दर्शन छे, आत्मानो बोध ते ज्ञान छे, आत्मामां ज स्थिति ते चारित्र छे;आवो योग (अर्थात् आ त्रणेनी एकता) शिवपदनुं कारण छे.’’

* अभूतपूर्व = पूर्वे कदी नहि थयेलो एवो; अपूर्व.