शास्त्र अने टीका रचायां छे तेवुं ज स्वसंवेदन पोते करी रह्या हता. परम पारिणामिक भावना अंतर-अनुभवने ज तेमणे शास्त्रमां उतार्यो छे; – एकेक अक्षर शाश्वत, टंकोत्कीर्ण, परम सत्य, निरपेक्ष कारणशुद्धपर्याय, स्वरूपप्रत्यक्ष सहजज्ञान वगेरे विषयोनुं निरूपण करीने तो मुनिवरोए अध्यात्मनी अनुभवगम्य अत्यंत अत्यंत सूक्ष्म अने गहन वातने आ शास्त्रमां खुल्ली करी छे. सर्वोत्कृष्ट परमागम श्री समयसारमां पण ते विषयोनुं आवुं खुल्ली रीते निरूपण नथी. अहो! जेम कोई पराक्रमी कहेवातो पुरुष जंगलमांथी सिंहणनुं दूध दोही आवे तेम आत्मपराक्रमी महा मुनिवरोए जंगलमां बेठां बेठां अंतरनां अमृत दोह्यां छे. सर्वसंगपरित्यागी निर्ग्रंथोए जंगलमां रह्यां रह्यां सिद्धभगवंतो साथे वातो करी छे अने अनंत सिद्धभगवंतो कई रीते सिद्धि पाम्या तेनो इतिहास आमां मूकी दीधो छे.’
आ शास्त्रमां भगवान कुंदकुंदाचार्यदेवनी प्राकृत गाथाओ पर तात्पर्यवृत्ति नामनी संस्कृत टीका लखनार मुनिवर श्री पद्मप्रभलधारिदेव छे. तेओ श्री वीरनंदि सिद्धांतचक्रवर्तीना शिष्य छे अने विक्रमनी १३मी शताब्दीमां थई गया छे एम, शिलालेख वगेरे साधनो द्वारा, संशोधकोनुं अनुमान छे. ‘परमागमरूपी मकरंद जेमना मुखमांथी झरे छे’ अने ‘पांच इंद्रियोना फेलाव रहित देहमात्र परिग्रह जेमनो हतो’ एवा निर्ग्रंथ मुनिवर श्री पद्मप्रभदेवे भगवान श्री कुंदकुंदाचार्यदेवना हृदयमां रहेला परम गहन आध्यात्मिक भावोने पोताना अंतरवेदन साथे मेळवीने आ टीकामां स्पष्ट रीते खुल्ला कर्या छे. आ टीकामां आवतां कळशरूप काव्यो अतिशय मधुर छे अने अध्यात्ममस्तीथी तथा भक्तिरसथी भरपूर छे. अध्यात्मकवि तरीके श्री पद्मप्रभमलधारिदेवनुं स्थान जैन साहित्यमां अति उच्च छे. टीकाकार मुनिराजे गद्य तेम ज पद्यरूपे परम पारिणामिक भावने तो खूब खूब गायो छे. आखी टीका जाणे के परम पारिणामिक भावनुं अने तदाश्रित मुनिदशानुं एक महाकाव्य होय तेम मुमुक्षु हृदयोने मुदित करे छे. परम पारिणामिक भाव, सहज सुखमय मुनिदशा अने सिद्ध जीवोनी परमानंदपरिणति प्रत्ये भक्तिथी मुनिवरनुं चित्त जाणे के उभराई जाय छे अने ते ऊभराने व्यक्त करवा तेमने शब्दो अतिशय ओछा पडता होवाथी तेमना मुखमांथी प्रसंगोचित अनेक उपमा-अलंकारो वह्या छे. बीजी अनेक उपमाओनी माफक, मुक्ति दीक्षा वगेरेने वारंवार स्त्रीनी उपमा पण लेशमात्र संकोच विना बेधडकपणे आपवामां आवी छे ते आत्ममस्त महा मुनिवरनुं ब्रह्मचर्यनुं अतिशय जोर सूचवे छे. संसार दावानळ समान छे अने सिद्धदशा तथा मुनिदशा परम सहजानंदमय छे
सर्ज्युं छे अने स्पष्टपणे दर्शाव्युं छे के मुनिओनी व्रत, नियम, तप, ब्रह्मचर्य, त्याग, परिषहजय इत्यादिरूपे कोई पण परिणति हठपूर्वक, खेदयुक्त, कष्टजनक के नरकादिना