Niyamsar-Gujarati (Devanagari transliteration). Shlok: 9 Gatha: 3.

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कहानजैनशास्त्रमाळा ]
जीव अधिकार
[ ७
रत्नत्रयस्य फलं स्वात्मोपलब्धिरिति
(पृथ्वी)
क्वचिद् व्रजति कामिनीरतिसमुत्थसौख्यं जनः
क्वचिद् द्रविणरक्षणे मतिमिमां च चक्रे पुनः
क्वचिज्जिनवरस्य मार्गमुपलभ्य यः पंडितो
निजात्मनि रतो भवेद् व्रजति मुक्ति मेतां हि सः
।।9।।
णियमेण य जं कज्जं तं णियमं णाणदंसणचरित्तं
विवरीयपरिहरत्थं भणिदं खलु सारमिदि वयणं ।।।।
नियमेन च यत्कार्यं स नियमो ज्ञानदर्शनचारित्रम्
विपरीतपरिहारार्थं भणितं खलु सारमिति वचनम् ।।।।

कथन कर्युं छे. निज परमात्मतत्त्वनां सम्यक्श्रद्धान-ज्ञान-अनुष्ठानरूप शुद्धरत्नत्रयात्मक मार्ग परम निरपेक्ष होवाथी मोक्षनो उपाय छे अने ते शुद्धरत्नत्रयनुं फल स्वात्मोपलब्धि (निज शुद्ध आत्मानी प्राप्ति) छे. [हवे बीजी गाथानी टीका पूर्ण करतां टीकाकार मुनिराज श्लोक कहे छेः]

[श्लोकार्थः] मनुष्य क्यारेक कामिनी प्रत्ये रतिथी उत्पन्न थता सुख तरफ गति करे छे अने वळी क्यारेक धनरक्षानी बुद्धि करे छे. जे पंडित क्यारेक जिनवरना मार्गने पामीने निज आत्मामां रत थाय छे, ते खरेखर आ मुक्तिने पामे छे. ९.

जे नियमथी कर्तव्य एवां रत्नत्रय ते नियम छे;
विपरीतना परिहार अर्थे ‘सार’ पद योजेल छे. ३.

अन्वयार्थः[सः नियमः] नियम एटले [नियमेन च] नियमथी (नक्की) [यत् कार्यं] जे करवायोग्य होय ते अर्थात[ज्ञानदर्शनचारित्रम्] ज्ञानदर्शनचारित्र. [विपरीतपरिहारार्थं] विपरीतना परिहार अर्थे (ज्ञानदर्शनचारित्रथी विरुद्ध भावोना त्याग माटे) [खलु] खरेखर

शुद्धरत्नत्रय अर्थात् निज परमात्मतत्त्वनी सम्यक् श्रद्धा, तेनुं सम्यक् ज्ञान अने तेनुं सम्यक् आचरण परनी तेम ज भेदोनी लेश पण अपेक्षा रहित होवाथी ते शुद्धरत्नत्रय मोक्षनो उपाय छे; ते
शुद्धरत्नत्रयनुं फळ शुद्ध आत्मानी पूर्ण प्राप्ति अर्थात
् मोक्ष छे.