धामोद्दाममहस्विनां जनमनो मुष्णन्ति रूपेण ये ।
वन्द्यास्तेऽष्टसहस्रलक्षणधरास्तीर्थेश्वराः सूरयः ।।’’
र्भ्रमरवदवभाति प्रस्फु टं यस्य नित्यम् ।
जलनिधिमपि दोर्भ्यामुत्तराम्यूर्ध्ववीचिम् ।।१४।।
वळी ए ज रीते (आचार्यदेव) श्रीमद् अमृतचंद्रसूरिए (आत्मख्यातिना २४मा श्लोकमां – कळशमां) कह्युं छे केः —
‘‘[श्लोकार्थः — ] जेओ कान्तिथी दशे दिशाओने धुए छे — निर्मळ करे छे, जेओ तेज वडे अत्यंत तेजस्वी सूर्यादिकना तेजने ढांकी दे छे, जेओ रूपथी जनोनां मन हरी ले छे, जेओ दिव्यध्वनि वडे (भव्योना) कानोमां जाणे के साक्षात् अमृत वरसावता होय एवुं सुख उत्पन्न करे छे अने जेओ एक हजार ने आठ लक्षणोने धारण करे छे, ते तीर्थंकरसूरिओ वंद्य छे.’’
वळी (सातमी गाथानी टीका पूर्ण करतां टीकाकार मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेव श्लोक द्वारा श्री नेमिनाथ तीर्थंकरनी स्तुति करे छे)ः —
[श्लोकार्थः — ] जेम कमळनी अंदर भ्रमर समाई जाय छे तेम जेमना ज्ञानकमळमां आ जगत तेम ज अजगत ( – लोक तेम ज अलोक) सदा स्पष्टपणे समाई जाय छे — जणाय छे, ते नेमिनाथ तीर्थंकरभगवानने हुं खरेखर पूजुं छुं के जेथी ऊंचा तरंगोवाळा समुद्रने पण ( – दुस्तर संसारसमुद्रने पण) बे भुजाओथी तरी जाउं. १४.
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