Niyamsar-Gujarati (Devanagari transliteration).

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नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-

मतिश्रुतावधिज्ञानानि मिथ्याद्रष्टिं परिप्राप्य कुमतिकुश्रुतविभंगज्ञानानीति नामान्तराणि प्रपेदिरे

अत्र सहजज्ञानं शुद्धान्तस्तत्त्वपरमतत्त्वव्यापकत्वात् स्वरूपप्रत्यक्षम् केवलज्ञानं सकलप्रत्यक्षम् ‘रूपिष्ववधेः’ इति वचनादवधिज्ञानं विकलप्रत्यक्षम् तदनन्तभागवस्त्वंश- ग्राहकत्वान्मनःपर्ययज्ञानं च विकलप्रत्यक्षम् मतिश्रुतज्ञानद्वितयमपि परमार्थतः परोक्षं व्यवहारतः प्रत्यक्षं च भवति

किं च उक्ते षु ज्ञानेषु साक्षान्मोक्षमूलमेकं निजपरमतत्त्वनिष्ठसहजज्ञानमेव अपि च पारिणामिकभावस्वभावेन भव्यस्य परमस्वभावत्वात् सहजज्ञानादपरमुपादेयं न समस्ति

अनेन सहजचिद्विलासरूपेण सदा सहजपरमवीतरागशर्मामृतेन अप्रतिहतनिरा- वरणपरमचिच्छक्ति रूपेण सदान्तर्मुखे स्वस्वरूपाविचलस्थितिरूपसहजपरमचारित्रेण त्रिकालेष्व-


सम्यग्द्रष्टिने आ चार सम्यग्ज्ञानो होय छे. मिथ्यादर्शन होय त्यां मतिज्ञान, श्रुतज्ञान अने अवधिज्ञान ‘कुमतिज्ञान’, ‘कुश्रुतज्ञान’ अने ‘विभंगज्ञान’एवां नामांतरोने (अन्य नामोने) पामे छे.

अहीं (उपर कहेलां ज्ञानोने विषे) सहजज्ञान, शुद्ध अंतःतत्त्वरूप परमतत्त्वमां व्यापक होवाथी, स्वरूपप्रत्यक्ष छे. केवळज्ञान सकलप्रत्यक्ष (संपूर्णप्रत्यक्ष) छे. ‘रूपिष्ववधेः (अवधिज्ञाननो विषयसंबंध रूपी द्रव्योमां छे)’ एवुं (आगमनुं) वचन होवाथी अवधिज्ञान विकलप्रत्यक्ष (एकदेशप्रत्यक्ष) छे. तेना अनंतमा भागे वस्तुना अंशनुं ग्राहक (जाणनारुं) होवाथी मनःपर्ययज्ञान पण विकलप्रत्यक्ष छे. मतिज्ञान ने श्रुतज्ञान बन्ने परमार्थथी परोक्ष छे अने व्यवहारथी प्रत्यक्ष छे.

वळी विशेष ए केउक्त (उपर कहेलां) ज्ञानोमां साक्षात् मोक्षनुं मूळ निजपरमतत्त्वमां स्थित एवुं एक सहजज्ञान ज छे; तेम ज सहजज्ञान (तेना) पारिणामिक- भावरूप स्वभावने लीधे भव्यनो परमस्वभाव होवाथी, सहजज्ञान सिवाय बीजुं कांई उपादेय नथी.

आ सहजचिद्विलासरूपे (१) सदा सहज परम वीतराग सुखामृत, (२) अप्रतिहत निरावरण परम चित्शक्तिनुं रूप, (३) सदा अंतर्मुख एवुं स्वस्वरूपमां अविचळ स्थितिरूप

२८ ]

१. सुमतिज्ञान ने सुश्रुतज्ञान सर्व सम्यग्द्रष्टि जीवोने होय छे. सुअवधिज्ञान कोई कोई सम्यग्द्रष्टि जीवोने होय छे. मनःपर्ययज्ञान कोई कोई मुनिवरोनेविशिष्टसंयमधरोनेहोय छे.

२. स्वरूपप्रत्यक्ष = स्वरूपे प्रत्यक्ष; स्वरूप-अपेक्षाए प्रत्यक्ष; स्वभावे प्रत्यक्ष.