Niyamsar-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 13.

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कहानजैनशास्त्रमाळा ]
जीव अधिकार
[ ३१

तह दंसणउवओगो ससहावेदरवियप्पदो दुविहो

केवलमिंदियरहियं असहायं तं सहावमिदि भणिदं ।।१३।।
तथा दर्शनोपयोगः स्वस्वभावेतरविकल्पतो द्विविधः
केवलमिन्द्रियरहितं असहायं तत् स्वभाव इति भणितः ।।१३।।

दर्शनोपयोगस्वरूपाख्यानमेतत

यथा ज्ञानोपयोगो बहुविधविकल्पसनाथः दर्शनोपयोगश्च तथा स्वभावदर्शनोपयोगो विभावदर्शनोपयोगश्च स्वभावोऽपि द्विविधः, कारणस्वभावः कार्यस्वभावश्चेति तत्र कारणद्रष्टिः सदा पावनरूपस्य औदयिकादिचतुर्णां विभावस्वभावपरभावानामगोचरस्य

उपयोग दर्शननो स्वभाव-विभावरूप द्विविध छे;
असहाय, इन्द्रिविहीन, केवळ, ते स्वभाव कहेल छे. १३.

अन्वयार्थः[तथा] तेवी रीते [दर्शनोपयोगः] दर्शनोपयोग [स्वस्वभावेतरविकल्पतः] स्वभाव अने विभावना भेदथी [द्विविधः] बे प्रकारनो छे. [केवलम्] जे केवळ, [इन्द्रियरहितम्] इन्द्रियरहित अने [असहायं] असहाय छे, [तत्] ते [स्वभावः इति भणितः] स्वभाव- दर्शनोपयोग कह्यो छे.

टीकाःआ, दर्शनोपयोगना स्वरूपनुं कथन छे.

जेम ज्ञानोपयोग बहुविध भेदोवाळो छे, तेम दर्शनोपयोग पण तेवो छे. (त्यां प्रथम, तेना बे भेद छेः ) स्वभावदर्शनोपयोग अने विभावदर्शनोपयोग. स्वभावदर्शनोपयोग पण बे प्रकारनो छेः कारणस्वभावदर्शनोपयोग अने कार्यस्वभावदर्शनोपयोग.

त्यां कारणद्रष्टि तो, सदा पावनरूप अने औदयिकादि चार विभावस्वभाव

१. द्रष्टि = दर्शन. [दर्शन अथवा द्रष्टिना बे अर्थ छेः (१) सामान्य प्रतिभास, अने (२) श्रद्धा. ज्यां जे अर्थ घटतो होय त्यां ते अर्थ समजवो. बन्ने अर्थो गर्भित होय त्यां बन्ने समजवा.]

२. विभाव = विशेष भाव; अपेक्षित भाव. [औदयिक, औपशमिक, क्षायोपशमिक अने क्षायिक ए चार भावो अपेक्षित भावो होवाथी तेमने विभावस्वभाव परभावो कह्या छे. एक
सहजपरमपारिणामिक भावने ज सदा-पावनरूप निज स्वभाव कह्यो छे. चार विभावभावोनो आश्रय
करवाथी परमपारिणामिकभावनो आश्रय थतो नथी. परमपारिणामिकभावनो आश्रय करवाथी ज
सम्यक्त्वथी मांडीने मोक्षदशा सुधीनी दशाओ प्राप्त थाय छे.]