Niyamsar-Gujarati (Devanagari transliteration). Shlok: 23 Gatha: 14.

< Previous Page   Next Page >


Page 33 of 380
PDF/HTML Page 62 of 409

 

कहानजैनशास्त्रमाळा ]
जीव अधिकार
[ ३३

इति कार्यकारणरूपेण स्वभावदर्शनोपयोगः प्रोक्त : विभावदर्शनोपयोगोऽप्युत्तर- सूत्रस्थितत्वात् तत्रैव द्रश्यत इति

(इन्द्रवज्रा)
द्रग्ज्ञप्तिवृत्त्यात्मकमेकमेव
चैतन्यसामान्यनिजात्मतत्त्वम्
मुक्ति स्पृहाणामयनं तदुच्चै-
रेतेन मार्गेण विना न मोक्षः
।।२३।।
चक्खु अचक्खू ओही तिण्णि वि भणिदं विहावदिट्ठि त्ति
पज्जाओ दुवियप्पो सपरावेक्खो य णिरवेक्खो ।।१४।।
चक्षुरचक्षुरवधयस्तिस्रोपि भणिता विभावद्रष्टय इति
पर्यायो द्विविकल्पः स्वपरापेक्षश्च निरपेक्षः ।।१४।।

अशुद्धद्रष्टिशुद्धाशुद्धपर्यायसूचनेयम्

आ रीते कार्यरूपे अने कारणरूपे स्वभावदर्शनोपयोग कह्यो. विभावदर्शनोपयोग हवे पछीना सूत्रमां (१४मी गाथामां) होवाथी त्यां ज दर्शाववामां आवशे.

[हवे १३मी गाथानी टीका पूर्ण करतां टीकाकार मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेव श्लोक कहे छे]

[श्लोकार्थः] द्रशि-ज्ञप्ति-वृत्तिस्वरूप (दर्शनज्ञानचारित्ररूपे परिणमतुं) एवुं जे एक ज चैतन्यसामान्यरूप निज आत्मतत्त्व, ते मोक्षेच्छुओने (मोक्षनो) प्रसिद्ध मार्ग छे; आ मार्ग विना मोक्ष नथी. २३.

चक्षु, अचक्षु, अवधित्रण दर्शन विभाविक छे कह्यां;
निरपेक्ष, स्वपरापेक्षए बे भेद छे पर्यायना. १४.

अन्वयार्थः[चक्षुरचक्षुरवधयः] चक्षु, अचक्षु अने अवधि [तिस्रः अपि] ए त्रणे [विभावद्रष्टयः] विभावदर्शन [इति भणिताः] कहेवामां आव्यां छे. [पर्यायः द्विविकल्पः] पर्याय द्विविध छेः [स्वपरापेक्षः] स्वपरापेक्ष (स्व ने परनी अपेक्षा युक्त) [च] अने [निरपेक्षः] निरपेक्ष.

टीकाःआ, अशुद्ध दर्शननी तथा शुद्ध ने अशुद्ध पर्यायनी सूचना छे.