Niyamsar-Gujarati (Devanagari transliteration). Shlok: 27 Gatha: 16.

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नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
व्यवहारेण नरो जातः, तस्य नराकारो नरपर्यायः; केवलेनाशुभकर्मणा व्यवहारेणात्मा नारको
जातः, तस्य नारकाकारो नारकपर्यायः; किञ्चिच्छुभमिश्रमायापरिणामेन तिर्यक्कायजो
व्यवहारेणात्मा, तस्याकारस्तिर्यक्पर्यायः; केवलेन शुभकर्मणा व्यवहारेणात्मा देवः, तस्याकारो
देवपर्यायश्चेति
अस्य पर्यायस्य प्रपञ्चो ह्यागमान्तरे द्रष्टव्य इति
(मालिनी)
अपि च बहुविभावे सत्ययं शुद्धद्रष्टिः
सहजपरमतत्त्वाभ्यासनिष्णातबुद्धिः
सपदि समयसारान्नान्यदस्तीति मत्त्वा
स भवति परमश्रीकामिनीकामरूपः
।।२७।।
माणुस्सा दुवियप्पा कम्ममहीभोगभूमिसंजादा
सत्तविहा णेरइया णादव्वा पुढविभेदेण ।।१६।।

शुभाशुभरूप मिश्र परिणामथी आत्मा व्यवहारे मनुष्य थाय छे, तेनो मनुष्याकार ते मनुष्यपर्याय छे; केवळ अशुभ कर्मथी व्यवहारे आत्मा नारक थाय छे, तेनो नारक- आकार ते नारकपर्याय छे; किंचित्शुभमिश्रित मायापरिणामथी आत्मा व्यवहारे तिर्यंचकायमां जन्मे छे, तेनो आकार ते तिर्यंचपर्याय छे; अने केवळ शुभ कर्मथी व्यवहारे आत्मा देव थाय छे, तेनो आकार ते देवपर्याय छे.आ व्यंजनपर्याय छे. आ पर्यायनो विस्तार अन्य आगममां जोई लेवो.

[हवे १५मी गाथानी टीका पूर्ण करतां टीकाकार मुनिराज श्लोक कहे छेः] [श्लोकार्थः] बहु विभाव होवा छतां पण, सहज परम तत्त्वना अभ्यासमां जेनी बुद्धि प्रवीण छे एवो आ शुद्धद्रष्टिवाळो पुरुष, ‘समयसारथी अन्य कांई नथी’ एम मानीने, शीघ्र परमश्रीरूपी सुंदरीनो वल्लभ थाय छे. २७.

छे कर्मभूमिज भोगभूमिजभेद बे मनुजो तणा,
ने पृथ्वीभेदे सप्त भेदो जाणवा नारक तणा. १६.

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