जातः, तस्य नारकाकारो नारकपर्यायः; किञ्चिच्छुभमिश्रमायापरिणामेन तिर्यक्कायजो
व्यवहारेणात्मा, तस्याकारस्तिर्यक्पर्यायः; केवलेन शुभकर्मणा व्यवहारेणात्मा देवः, तस्याकारो
देवपर्यायश्चेति ।
स भवति परमश्रीकामिनीकामरूपः ।।२७।।
शुभाशुभरूप मिश्र परिणामथी आत्मा व्यवहारे मनुष्य थाय छे, तेनो मनुष्याकार ते मनुष्यपर्याय छे; केवळ अशुभ कर्मथी व्यवहारे आत्मा नारक थाय छे, तेनो नारक- आकार ते नारकपर्याय छे; किंचित्शुभमिश्रित मायापरिणामथी आत्मा व्यवहारे तिर्यंचकायमां जन्मे छे, तेनो आकार ते तिर्यंचपर्याय छे; अने केवळ शुभ कर्मथी व्यवहारे आत्मा देव थाय छे, तेनो आकार ते देवपर्याय छे. — आ व्यंजनपर्याय छे. आ पर्यायनो विस्तार अन्य आगममां जोई लेवो.
[हवे १५मी गाथानी टीका पूर्ण करतां टीकाकार मुनिराज श्लोक कहे छेः] [श्लोकार्थः — ] बहु विभाव होवा छतां पण, सहज परम तत्त्वना अभ्यासमां जेनी बुद्धि प्रवीण छे एवो आ शुद्धद्रष्टिवाळो पुरुष, ‘समयसारथी अन्य कांई नथी’ एम मानीने, शीघ्र परमश्रीरूपी सुंदरीनो वल्लभ थाय छे. २७.
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