Niyamsar-Gujarati (Devanagari transliteration). Shlok: 32-34.

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कहानजैनशास्त्रमाळा ]
जीव अधिकार
[ ४३
(वसन्ततिलका)
संज्ञानभावपरिमुक्त विमुग्धजीवः
कुर्वन् शुभाशुभमनेकविधं स कर्म
निर्मुक्ति मार्गमणुमप्यभिवाञ्छितुं नो
जानाति तस्य शरणं न समस्ति लोके
।।३२।।
(वसन्ततिलका)
यः कर्मशर्मनिकरं परिहृत्य सर्वं
निष्कर्मशर्मनिकरामृतवारिपूरे
मज्जन्तमत्यधिकचिन्मयमेकरूपं
स्वं भावमद्वयममुं समुपैति भव्यः
।।३३।।
(मालिनी)
असति सति विभावे तस्य चिन्तास्ति नो नः
सततमनुभवामः शुद्धमात्मानमेकम्
हृदयकमलसंस्थं सर्वकर्मप्रमुक्तं
न खलु न खलु मुक्ति र्नान्यथास्त्यस्ति तस्मात
।।३४।।
संसारनो निरोध थाय छे. ३१.

[श्लोकार्थः] जे जीव सम्यग्ज्ञानभावरहित विमुग्ध (मोही, भ्रान्त) छे, ते जीव शुभाशुभ अनेकविध कर्मने करतो थको मोक्षमार्गने लेशमात्र पण वांछवानुं जाणतो नथी; तेने लोकमां (कोई) शरण नथी. ३२.

[श्लोकार्थः] जे समस्त कर्मजनित सुखसमूहने परिहरे छे, ते भव्य पुरुष निष्कर्म सुखसमूहरूपी अमृतना सरोवरमां मग्न थता एवा आ अतिशयचैतन्यमय, एकरूप, अद्वितीय निज भावने पामे छे. ३३.

[श्लोकार्थः] (अमारा आत्मस्वभावमां) विभाव असत् होवाथी तेनी अमने चिंता नथी; अमे तो हृदयकमळमां स्थित, सर्व कर्मथी विमुक्त, शुद्ध आत्माने एकने सतत अनुभवीए छीए, कारण के अन्य कोई प्रकारे मुक्ति नथी, नथी, नथी ज. ३४.