कर्तृत्वभोक्तृत्वप्रकारकथनमिदम् ।
आसन्नगतानुपचरितासद्भूतव्यवहारनयाद् द्रव्यकर्मणां कर्ता तत्फलरूपाणां सुखदुःखानां भोक्ता च, आत्मा हि अशुद्धनिश्चयनयेन सकलमोहरागद्वेषादिभावकर्मणां कर्ता भोक्ता च, अनुपचरितासद्भूतव्यवहारेण नोकर्मणां कर्ता, उपचरितासद्भूतव्यवहारेण घटपटशकटादीनां कर्ता । इत्यशुद्धजीवस्वरूपमुक्त म् ।
परमगुरुपदाब्जद्वन्द्वसेवाप्रसादात् ।
स भवति परमश्रीकामिनीकान्तकान्तः ।।३०।।
भोक्ता [व्यवहारात्] व्यवहारथी [भवति] छे [तु] अने [आत्मा] आत्मा [कर्मजभावेन] कर्मजनित भावनो [कर्ता भोक्ता] कर्ता-भोक्ता [निश्चयतः] (अशुद्ध) निश्चयथी छे.
टीकाः — आ, कर्तृत्व-भोक्तृत्वना प्रकारनुं कथन छे.
आत्मा निकटवर्ती अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनयथी द्रव्यकर्मनो कर्ता अने तेना फळरूप सुखदुःखनो भोक्ता छे, अशुद्ध निश्चयनयथी समस्त मोहरागद्वेषादि भावकर्मनो कर्ता अने भोक्ता छे, अनुपचरित असद्भूत व्यवहारथी (देहादि) नोकर्मनो कर्ता छे, उपचरित असद्भूत व्यवहारथी घट-पट-शकटादिनो (घडो, वस्त्र, गाडुं इत्यादिनो) कर्ता छे. आम अशुद्ध जीवनुं स्वरूप कह्युं.
[हवे १८मी गाथानी टीका पूर्ण करतां टीकाकार मुनिराज छ श्लोको कहे छेः] [श्लोकार्थः — ] सकळ मोहरागद्वेषवाळो जे कोई पुरुष परम गुरुना चरण- कमळयुगलनी सेवाना प्रसादथी निर्विकल्प सहज समयसारने जाणे छे, ते पुरुष परमश्रीरूपी सुंदरीनो प्रिय कान्त थाय छे. ३०.
[श्लोकार्थः — ] भावकर्मना निरोधथी द्रव्यकर्मनो निरोध थाय छे; द्रव्यकर्मना निरोधथी
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