जिनवचसि रमन्ते ये स्वयं वान्तमोहाः ।
रनवमनयपक्षाक्षुण्णमीक्षन्त एव ।’’
परमजिनपदाब्जद्वन्द्वमत्तद्विरेफाः ।
क्षितिषु परमतोक्ते : किं फलं सज्जनानाम् ।।३६।।
बळे शुद्ध तेम ज अशुद्ध छे एवो अर्थ छे.
एवी रीते (आचार्यदेव) श्रीमद् अमृतचंद्रसूरिए (श्री समयसारनी आत्मख्याति नामनी टीकामां चोथा श्लोक द्वारा) कह्युं छे केः
‘‘[श्लोकार्थः — ] बन्ने नयोना विरोधने नष्ट करनारा, स्यात्पदथी अंकित जिनवचनमां जे पुरुषो रमे छे, तेओ स्वयमेव मोहने वमी नाखीने, अनूतन (अनादि) अने कुनयना पक्षथी नहि खंडित थती एवी उत्तम परमज्योतिनेसमयसारनेशीघ्र देखे छे ज.’’
वळी (आ जीव अधिकारनी छेल्ली गाथानी टीका पूर्ण करतां टीकाकार मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेव श्लोक कहे छे)ः
[श्लोकार्थः — ] जेओ बे नयोना संबंधने नहि उल्लंघता थका परमजिनना पादपंकजयुगलमां मत्त थयेला भ्रमर समान छे एवा जे सत्पुरुषो तेओ शीघ्र समयसारने अवश्य पामे छे. पृथ्वी उपर ५२ मतना कथनथी सज्जनोने शुं फळ छे (अर्थात् जगतना जैनेतर दर्शनोनां मिथ्या कथनोथी सज्जनोने शो लाभ छे)? ३६.
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