वर्णादिमान् नटति पुद्गल एव नान्यः ।
चैतन्यधातुमयमूर्तिरयं च जीवः ।।’’
तथा हि —
‘‘[गाथार्थः] पृथ्वी, जळ, छाया, चार इन्द्रियोना विषयभूत, कर्मने योग्य अने कर्मातीतएम पुद्गलो (स्कंधो) छ प्रकारनां छे.’’
वळी मार्गप्रकाशमां (श्लोक द्वारा) कह्युं छे केः
‘‘[श्लोकार्थः] स्थूलस्थूल, पछी स्थूल, त्यारपछी स्थूलसूक्ष्म, पछी सूक्ष्मस्थूल, पछी सूक्ष्म अने त्यारपछी सूक्ष्मसूक्ष्म (आम स्कंधो छ प्रकारना छे).’’
एवी रीते (आचार्यदेव) श्रीमद् अमृतचंद्रसूरिए (श्री समयसारनी आत्मख्याति नामनी टीकामां ४४मा श्लोक द्वारा) कह्युं छे केः
[श्लोकार्थः] आ अनादि काळना मोटा अविवेकना नाटकमां अथवा नाचमां वर्णादिमान् पुद्गल ज नाचे छे, अन्य कोई नहि; (अभेद ज्ञानमां पुद्गल ज अनेक प्रकारनुं देखाय छे, जीव तो अनेक प्रकारनो छे नहि;) अने आ जीव तो रागादिक पुद्गलविकारोथी विलक्षण, शुद्ध चैतन्यधातुमय मूर्ति छे.’’
वळी (आ गाथाओनी टीका पूर्ण करतां टीकाकार मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेव विविध प्रकारनां पुद्गलोमां रति नहि करतां चैतन्यचमत्कारमात्र आत्मामां रति करवानुं श्लोक द्वारा कहे छे)ः
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