भवसि हि परमश्रीकामिनीकामरूपः ।।३८।।
धाउचउक्कस्स पुणो जं हेऊ कारणं ति तं णेयो ।
कारणकार्यपरमाणुद्रव्यस्वरूपाख्यानमेतत् ।
पृथिव्यप्तेजोवायवो धातवश्चत्वारः; तेषां यो हेतुः स कारणपरमाणुः । स एव जघन्यपरमाणुः स्निग्धरूक्षगुणानामानन्त्याभावात् समविषमबंधयोरयोग्य इत्यर्थः ।
[श्लोकार्थः] आ रीते विविध भेदोवाळुं पुद्गल जोवामां आवतां, हे भव्यशार्दूल! (भव्योत्तम!) तुं तेमां रतिभाव न कर. चैतन्यचमत्कारमात्रमां (अर्थात् चैतन्यचमत्कारमात्र आत्मामां) तुं अतुल रति कर के जेथी तुं परमश्रीरूपी कामिनीनो वल्लभ थईश. ३८.
अन्वयार्थः[पुनः] वळी [यः] जे [धातुचतुष्कस्य] (पृथ्वी, पाणी, तेज ने वायु ए) चार धातुओनो [हेतुः] हेतु छे, [सः] ते [कारणम् इति ज्ञेयः] कारणपरमाणु जाणवो; [स्कन्धानाम्] स्कंधोना [अवसानः] अवसानने (छूटा पडेला अविभागी अंतिम अंशने) [कार्यपरमाणुः] कार्यपरमाणु [ज्ञातव्यः] जाणवो.
टीकाःआ, कारणपरमाणुद्रव्य अने कार्यपरमाणुद्रव्यना स्वरूपनुं कथन छे.
पृथ्वी, जळ, तेज ने वायु ए चार धातुओ छे; तेमनो जे हेतु छे ते कारणपरमाणु छे. ते ज (परमाणु), एक गुण स्निग्धता के रूक्षता होतां, सम के विषम बंधने अयोग्य एवो जघन्य परमाणु छेएम अर्थ छे. एक गुण स्निग्धता के रूक्षतानी