Niyamsar-Gujarati (Devanagari transliteration). Shlok: 38 Gatha: 25.

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कहानजैनशास्त्रमाळा ]
अजीव अधिकार
[ ५३
(मालिनी)
इति विविधविकल्पे पुद्गले द्रश्यमाने
न च कुरु रतिभावं भव्यशार्दूल तस्मिन्
कुरु रतिमतुलां त्वं चिच्चमत्कारमात्रे
भवसि हि परमश्रीकामिनीकामरूपः
।।३८।।

धाउचउक्कस्स पुणो जं हेऊ कारणं ति तं णेयो

खंधाणं अवसाणं णादव्वो कज्जपरमाणू ।।२५।।
धातुचतुष्कस्य पुनः यो हेतुः कारणमिति स ज्ञेयः
स्कन्धानामवसानो ज्ञातव्यः कार्यपरमाणुः ।।२५।।

कारणकार्यपरमाणुद्रव्यस्वरूपाख्यानमेतत

पृथिव्यप्तेजोवायवो धातवश्चत्वारः; तेषां यो हेतुः स कारणपरमाणुः स एव जघन्यपरमाणुः स्निग्धरूक्षगुणानामानन्त्याभावात् समविषमबंधयोरयोग्य इत्यर्थः

[श्लोकार्थः] आ रीते विविध भेदोवाळुं पुद्गल जोवामां आवतां, हे भव्यशार्दूल! (भव्योत्तम!) तुं तेमां रतिभाव न कर. चैतन्यचमत्कारमात्रमां (अर्थात् चैतन्यचमत्कारमात्र आत्मामां) तुं अतुल रति कर के जेथी तुं परमश्रीरूपी कामिनीनो वल्लभ थईश. ३८.

जे हेतु धातुचतुष्कनो ते कारणाणु जाणवो;
स्कंधो तणा अवसानने वळी कार्यपरमाणु कह्यो. २५.

अन्वयार्थः[पुनः] वळी [यः] जे [धातुचतुष्कस्य] (पृथ्वी, पाणी, तेज ने वायु ए) चार धातुओनो [हेतुः] हेतु छे, [सः] ते [कारणम् इति ज्ञेयः] कारणपरमाणु जाणवो; [स्कन्धानाम्] स्कंधोना [अवसानः] अवसानने (छूटा पडेला अविभागी अंतिम अंशने) [कार्यपरमाणुः] कार्यपरमाणु [ज्ञातव्यः] जाणवो.

टीकाःआ, कारणपरमाणुद्रव्य अने कार्यपरमाणुद्रव्यना स्वरूपनुं कथन छे.

पृथ्वी, जळ, तेज ने वायु ए चार धातुओ छे; तेमनो जे हेतु छे ते कारणपरमाणु छे. ते ज (परमाणु), एक गुण स्निग्धता के रूक्षता होतां, सम के विषम बंधने अयोग्य एवो जघन्य परमाणु छेएम अर्थ छे. एक गुण स्निग्धता के रूक्षतानी