Niyamsar-Gujarati (Devanagari transliteration). Shlok: 39 Gatha: 26.

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कहानजैनशास्त्रमाळा ]
अजीव अधिकार
[ ५५
तथा हि
(अनुष्टुभ्)
स्कन्धैस्तैः षट्प्रकारैः किं चतुर्भिरणुभिर्मम
आत्मानमक्षयं शुद्धं भावयामि मुहुर्मुहुः ।।9।।
अत्तादि अत्तमज्झं अत्तंतं णेव इंदियग्गेज्झं
अविभागी जं दव्वं परमाणू तं वियाणाहि ।।२६।।
आत्माद्यात्ममध्यमात्मान्तं नैवेन्द्रियैर्ग्राह्यम्
अविभागि यद्द्रव्यं परमाणुं तद् विजानीहि ।।२६।।

परमाणुविशेषोक्ति रियम्

यथा जीवानां नित्यानित्यनिगोदादिसिद्धक्षेत्रपर्यन्तस्थितानां सहजपरमपारिणामिक- भावविवक्षासमाश्रयेण सहजनिश्चयनयेन स्वस्वरूपादप्रच्यवनत्वमुक्त म्, तथा परमाणुद्रव्याणां

वळी (२५मी गाथानी टीका पूर्ण करतां टीकाकार मुनिराज श्लोकद्वारा पुद्गलनी उपेक्षा करी शुद्ध आत्मानी भावना करे छे)

[श्लोकार्थः] ते छ प्रकारना स्कंधो के चार प्रकारना अणुओ साथे मारे शुं छे? हुं तो अक्षय शुद्ध आत्माने फरी फरीने भावुं छुं. ३९.

जे आदि-मध्ये अंतमां पोते ज छे, अविभागी छे,
जे इन्द्रिथी नहि ग्राह्य छे, परमाणु जाणो तेहने. २६.

अन्वयार्थः[आत्मादि] पोते ज जेनो आदि छे, [आत्ममध्यम्] पोते ज जेनुं मध्य छे अने [आत्मान्तम्] पोते ज जेनो अंत छे (अर्थात् जेना आदिमां, मध्यमां अने अंतमां परमाणुनुं निज स्वरूप ज छे), [न एव इन्द्रियैः ग्राह्यम्] जे इन्द्रियोथी ग्राह्य (जणावायोग्य) नथी अने [यद् अविभागि] जे अविभागी छे, [तत्] ते [परमाणुं द्रव्यं] परमाणुद्रव्य [विजानीहि] जाण.

टीकाःआ, परमाणुनुं विशेष कथन छे.

जेम सहज परम पारिणामिकभावनी विवक्षानो आश्रय करनारा सहज निश्चयनयनी अपेक्षाए नित्य अने अनित्य निगोदथी मांडीने सिद्धक्षेत्र पर्यंत रहेला जीवोनुं निज स्वरूपथी