परमाणुविशेषोक्ति रियम् ।
यथा जीवानां नित्यानित्यनिगोदादिसिद्धक्षेत्रपर्यन्तस्थितानां सहजपरमपारिणामिक- भावविवक्षासमाश्रयेण सहजनिश्चयनयेन स्वस्वरूपादप्रच्यवनत्वमुक्त म्, तथा परमाणुद्रव्याणां
वळी (२५मी गाथानी टीका पूर्ण करतां टीकाकार मुनिराज श्लोकद्वारा पुद्गलनी उपेक्षा करी शुद्ध आत्मानी भावना करे छे)ः
[श्लोकार्थः] ते छ प्रकारना स्कंधो के चार प्रकारना अणुओ साथे मारे शुं छे? हुं तो अक्षय शुद्ध आत्माने फरी फरीने भावुं छुं. ३९.
अन्वयार्थः[आत्मादि] पोते ज जेनो आदि छे, [आत्ममध्यम्] पोते ज जेनुं मध्य छे अने [आत्मान्तम्] पोते ज जेनो अंत छे (अर्थात् जेना आदिमां, मध्यमां अने अंतमां परमाणुनुं निज स्वरूप ज छे), [न एव इन्द्रियैः ग्राह्यम्] जे इन्द्रियोथी ग्राह्य (जणावायोग्य) नथी अने [यद् अविभागि] जे अविभागी छे, [तत्] ते [परमाणुं द्रव्यं] परमाणुद्रव्य [विजानीहि] जाण.
टीकाःआ, परमाणुनुं विशेष कथन छे.
जेम सहज परम पारिणामिकभावनी विवक्षानो आश्रय करनारा सहज निश्चयनयनी अपेक्षाए नित्य अने अनित्य निगोदथी मांडीने सिद्धक्षेत्र पर्यंत रहेला जीवोनुं निज स्वरूपथी