Niyamsar-Gujarati (Devanagari transliteration). Shlok: 40 Gatha: 27.

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नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-

पंचमभावेन परमस्वभावत्वादात्मपरिणतेरात्मैवादिः, मध्यो हि आत्मपरिणतेरात्मैव, अंतोपि स्वस्यात्मैव परमाणुः अतः न चेन्द्रियज्ञानगोचरत्वाद् अनिलानलादिभिरविनश्वरत्वादविभागी हे शिष्य स परमाणुरिति त्वं तं जानीहि

(अनुष्टुभ्)
अप्यात्मनि स्थितिं बुद्ध्वा पुद्गलस्य जडात्मनः
सिद्धास्ते किं न तिष्ठंति स्वस्वरूपे चिदात्मनि ।।४०।।
एयरसरूवगंधं दोफासं तं हवे सहावगुणं
विहावगुणमिदि भणिदं जिणसमये सव्वपयडत्तं ।।२७।।
एकरसरूपगंधः द्विस्पर्शः स भवेत्स्वभावगुणः
विभावगुण इति भणितो जिनसमये सर्वप्रकटत्वम् ।।२७।।

अच्युतपणुं कहेवामां आव्युं, तेम पंचमभावनी अपेक्षाए परमाणुद्रव्यनो परमस्वभाव होवाथी परमाणु पोते ज पोतानी परिणतिनो आदि छे, पोते ज पोतानी परिणतिनुं मध्य छे अने पोते ज पोतानो अंत पण छे (अर्थात् आदिमां पण पोते ज, मध्यमां पण पोते ज अने अंतमां पण परमाणु पोते ज छे, क्यारेय निज स्वरूपथी च्युत नथी). जे आवो होवाथी, इन्द्रियज्ञानगोचर नहि होवाथी अने पवन, अग्नि इत्यादि वडे नाश पामतो नहि होवाथी, अविभागी छे तेने, हे शिष्य! तुं परमाणु जाण.

[हवे २६मी गाथानी टीका पूर्ण करतां टीकाकार मुनिराज श्लोक कहे छेः] [श्लोकार्थः] जडात्मक पुद्गलनी स्थिति पोतामां (पुद्गलमां ज) जाणीने (अर्थात् जडस्वरूप पुद्गलो पुद्गलना निज स्वरूपमां ज रहे छे एम जाणीने), ते सिद्धभगवंतो पोताना चैतन्यात्मक स्वरूपमां केम न रहे? (जरूर रहे.) ४०.

बे स्पर्श, रसरूपगंध एक, स्वभावगुणमय तेह छे;
जिनसमयमांही विभावगुण सर्वाक्षप्रगट कहेल छे. २७.

अन्वयार्थः[एकरसरूपगंधः] जे एक रसवाळुं, एक वर्णवाळुं, एक गंधवाळुं अने [द्विस्पर्शः] बे स्पर्शवाळुं होय, [सः] ते [स्वभावगुणः] स्वभावगुणवाळुं [भवेत्] छे; [विभावगुणः] विभावगुणवाळाने [जिनसमये] जिनसमयमां [सर्वप्रकटत्वम्] सर्वप्रगट (सर्व

५६ ]

१. समय = सिद्धांत; शास्त्र; शासन; दर्शन; मत.