पंचमभावेन परमस्वभावत्वादात्मपरिणतेरात्मैवादिः, मध्यो हि आत्मपरिणतेरात्मैव, अंतोपि स्वस्यात्मैव परमाणुः । अतः न चेन्द्रियज्ञानगोचरत्वाद् अनिलानलादिभिरविनश्वरत्वादविभागी हे शिष्य स परमाणुरिति त्वं तं जानीहि ।
अच्युतपणुं कहेवामां आव्युं, तेम पंचमभावनी अपेक्षाए परमाणुद्रव्यनो परमस्वभाव होवाथी परमाणु पोते ज पोतानी परिणतिनो आदि छे, पोते ज पोतानी परिणतिनुं मध्य छे अने पोते ज पोतानो अंत पण छे (अर्थात् आदिमां पण पोते ज, मध्यमां पण पोते ज अने अंतमां पण परमाणु पोते ज छे, क्यारेय निज स्वरूपथी च्युत नथी). जे आवो होवाथी, इन्द्रियज्ञानगोचर नहि होवाथी अने पवन, अग्नि इत्यादि वडे नाश पामतो नहि होवाथी, अविभागी छे तेने, हे शिष्य! तुं परमाणु जाण.
[हवे २६मी गाथानी टीका पूर्ण करतां टीकाकार मुनिराज श्लोक कहे छेः] [श्लोकार्थः] जडात्मक पुद्गलनी स्थिति पोतामां (पुद्गलमां ज) जाणीने (अर्थात् जडस्वरूप पुद्गलो पुद्गलना निज स्वरूपमां ज रहे छे एम जाणीने), ते सिद्धभगवंतो पोताना चैतन्यात्मक स्वरूपमां केम न रहे? (जरूर रहे.) ४०.
अन्वयार्थः[एकरसरूपगंधः] जे एक रसवाळुं, एक वर्णवाळुं, एक गंधवाळुं अने [द्विस्पर्शः] बे स्पर्शवाळुं होय, [सः] ते [स्वभावगुणः] स्वभावगुणवाळुं [भवेत्] छे; [विभावगुणः] विभावगुणवाळाने [जिनसमये] १जिनसमयमां [सर्वप्रकटत्वम्] सर्वप्रगट (सर्व
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१. समय = सिद्धांत; शास्त्र; शासन; दर्शन; मत.