न्निजगुणनिचयेऽस्मिन् नास्ति मे कार्यसिद्धिः ।
परमसुखपदार्थी भावयेद्भव्यलोकः ।।४१।।
‘‘[श्लोकार्थः] परमाणुने आठ प्रकारना स्पर्शोमांथी छेल्ला चार स्पर्शोमांना बे स्पर्श, एक वर्ण, एक गंध अने एक रस समजवां, अन्य नहि.’’
वळी (२७मी गाथानी टीका पूर्ण करतां टीकाकार मुनिराज श्लोक द्वारा भव्यजनोने शुद्ध आत्मानी भावनानो उपदेश करे छे)ः
[श्लोकार्थः] जो परमाणु एकवर्णादिरूप प्रकाशता (जणाता) निजगुणसमूहमां छे, तो तेमां मारी (कांई) कार्यसिद्धि नथी, (अर्थात् परमाणु तो एक वर्ण, एक गंध वगेरे पोताना गुणोमां ज छे, तो पछी तेमां मारुं कांई कार्य सिद्ध थतुं नथी);आम निज हृदयमां मानीने परम सुखपदनो अर्थी भव्यसमूह शुद्ध आत्माने एकने भावे. ४१.
अन्वयार्थः[अन्यनिरपेक्षः] अन्यनिरपेक्ष (अन्यनी अपेक्षा विनानो) [यः परिणामः] जे परिणाम [सः] ते [स्वभावपर्यायः] स्वभावपर्याय छे [पुनः] अने
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