Niyamsar-Gujarati (Devanagari transliteration). Shlok: 41 Gatha: 28.

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नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
(अनुष्टुभ्)
‘‘वसुधान्त्यचतुःस्पर्शेषु चिन्त्यं स्पर्शनद्वयम्
वर्णो गन्धो रसश्चैकः परमाणोः न चेतरे ।।’’
तथा हि
(मालिनी)
अथ सति परमाणोरेकवर्णादिभास्व-
न्निजगुणनिचयेऽस्मिन् नास्ति मे कार्यसिद्धिः
इति निजहृदि मत्त्वा शुद्धमात्मानमेकम्
परमसुखपदार्थी भावयेद्भव्यलोकः
।।४१।।
अण्णणिरावेक्खो जो परिणामो सो सहावपज्जाओ
खंधसरूवेण पुणो परिणामो सो विहावपज्जाओ ।।२८।।
अन्यनिरपेक्षो यः परिणामः स स्वभावपर्यायः
स्कंधस्वरूपेण पुनः परिणामः स विभावपर्यायः ।।२८।।

‘‘[श्लोकार्थः] परमाणुने आठ प्रकारना स्पर्शोमांथी छेल्ला चार स्पर्शोमांना बे स्पर्श, एक वर्ण, एक गंध अने एक रस समजवां, अन्य नहि.’’

वळी (२७मी गाथानी टीका पूर्ण करतां टीकाकार मुनिराज श्लोक द्वारा भव्यजनोने शुद्ध आत्मानी भावनानो उपदेश करे छे)ः

[श्लोकार्थः] जो परमाणु एकवर्णादिरूप प्रकाशता (जणाता) निजगुणसमूहमां छे, तो तेमां मारी (कांई) कार्यसिद्धि नथी, (अर्थात् परमाणु तो एक वर्ण, एक गंध वगेरे पोताना गुणोमां ज छे, तो पछी तेमां मारुं कांई कार्य सिद्ध थतुं नथी);आम निज हृदयमां मानीने परम सुखपदनो अर्थी भव्यसमूह शुद्ध आत्माने एकने भावे. ४१.

परिणाम परनिरपेक्ष तेह स्वभावपर्यय जाणवो;
परिणाम स्कंधस्वरूप तेह विभावपर्यय जाणवो. २८.

अन्वयार्थः[अन्यनिरपेक्षः] अन्यनिरपेक्ष (अन्यनी अपेक्षा विनानो) [यः परिणामः] जे परिणाम [सः] ते [स्वभावपर्यायः] स्वभावपर्याय छे [पुनः] अने

५८ ]