पुद्गलद्रव्यव्याख्यानोपसंहारोऽयम् ।
स्वभावशुद्धपर्यायात्मकस्य परमाणोरेव पुद्गलद्रव्यव्यपदेशः शुद्धनिश्चयेन । इतरेण व्यवहारनयेन विभावपर्यायात्मनां स्कन्धपुद्गलानां पुद्गलत्वमुपचारतः सिद्धं भवति ।
त्यजतु परमशेषं चेतनाचेतनं च ।
परविरहितमन्तर्निर्विकल्पे समाधौ ।।४३।।
अन्वयार्थः[निश्चयेन] निश्चयथी [परमाणुः] परमाणुने [पुद्गलद्रव्यम्] ‘पुद्गलद्रव्य’ [उच्यते] कहेवाय छे [पुनः] अने [इतरेण] व्यवहारथी [स्कन्धस्य] स्कंधने [पुद्गलद्रव्यम् इति व्यपदेशः] ‘पुद्गलद्रव्य’ एवुं नाम [भवति] होय छे.
टीकाःआ, पुद्गलद्रव्यना कथननो उपसंहार छे.
शुद्धनिश्चयनयथी स्वभावशुद्धपर्यायात्मक परमाणुने ज ‘पुद्गलद्रव्य’ एवुं नाम होय छे. अन्य एवा व्यवहारनयथी विभावपर्यायात्मक स्कंधपुद्गलोने पुद्गलपणुं उपचार द्वारा सिद्ध थाय छे.
[हवे २९मी गाथानी टीका पूर्ण करतां टीकाकार मुनिराज त्रण श्लोको कहे छेः] [श्लोकार्थः] ए रीते जिनपतिना मार्ग द्वारा तत्त्वार्थसमूहने जाणीने पर एवां समस्त चेतन अने अचेतनने त्यागो; अंतरंगमां निर्विकल्प समाधिने विषे परविरहित (परथी रहित) चित्चमत्कारमात्र परमतत्त्वने भजो. ४३.
[श्लोकार्थः] पुद्गल अचेतन छे अने जीव चेतन छे एवी जे कल्पना ते पण
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