इतरेषामचेतनत्वम् । स्वजातीयविजातीयबन्धापेक्षया जीवपुद्गलयोरशुद्धत्वम्, धर्मादीनां चतुर्णां विशेषगुणापेक्षया शुद्धत्वमेवेति ।
वदनसरसिजाते यस्य भव्योत्तमस्य ।
लसति निशितबुद्धेः किं पुनश्चित्रमेतत् ।।५३।।
गाथा : ३७ अन्वयार्थ : — [पुद्गलद्रव्यं ] पुद्गलद्रव्य [मूर्तं ] मूर्त है, [शेषाणि ] शेष द्रव्य [मूर्तिविरहितानि ] मूर्तत्व रहित [भवन्ति ] हैं; [जीवः ] जीव [चैतन्यभावः ] चैतन्यभाववाला है, [शेषाणि ] शेष द्रव्य [चैतन्यगुणवर्जितानि ] चैतन्यगुण रहित हैं ।
उन (पूर्वोक्त) मूल पदार्थोंमें पुद्गल मूर्त है, शेष अमूर्त हैं; जीव चेतन है, शेष अचेतन हैं; स्वजातीय और विजातीय बन्धनकी अपेक्षासे जीव तथा पुद्गलको (बन्धदशामें) अशुद्धपना होता है, धर्मादि चार पदार्थोंको विशेषगुणकी अपेक्षासे (सदा) शुद्धपना ही है ।
[अब इस अजीव अधिकारकी अन्तिम गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेव श्लोक कहते हैं : ]
[श्लोेकार्थ : — ] इसप्रकार ललित पदोंकी पंक्ति जिस भव्योत्तमके मुखारविंदमें सदा शोभती है, उस तीक्ष्ण बुद्धिवाले पुरुषके हृदयकमलमें शीघ्र समयसार ( – शुद्ध आत्मा) प्रकाशित होता है । और इसमें आश्चर्य क्या है ।५३।