प्रशस्ताप्रशस्तसमस्तमोहरागद्वेषाभावान्न च मानापमानहेतुभूतकर्मोदयस्थानानि । न खलु शुभ- परिणतेरभावाच्छुभकर्म, शुभकर्माभावान्न संसारसुखं, संसारसुखस्याभावान्न हर्षस्थानानि । न चाशुभपरिणतेरभावादशुभकर्म, अशुभकर्माभावान्न दुःखं, दुःखाभावान्न चाहर्षस्थानानि चेति ।
गाथा : ३९ अन्वयार्थ : — [जीवस्य ] जीवको [खलु ] वास्तवमें [न स्वभावस्थानानि ] स्वभावस्थान ( – विभावस्वभावके स्थान) नहीं हैं, [न मानापमानभावस्थानानि वा ] मानापमानभावके स्थान नहीं हैं, [न हर्षभावस्थानानि ] हर्षभावके स्थान नहीं हैं [वा ] या [न अहर्षस्थानानि ] अहर्षके स्थान नहीं हैं ।
त्रिकाल - निरुपाधि जिसका स्वरूप है ऐसे शुद्ध जीवास्तिकायको वास्तवमें विभावस्वभावस्थान ( – विभावरूप स्वभावके स्थान) नहीं हैं; (शुद्ध जीवास्तिकायको) प्रशस्त या अप्रशस्त समस्त मोह - राग - द्वेषका अभाव होनेसे मान - अपमानके हेतुभूत कर्मोदयके स्थान नहीं हैं; (शुद्ध जीवास्तिकायको) शुभ परिणतिका अभाव होनेसे शुभ कर्म नहीं है, शुभ कर्मका अभाव होनेसे संसारसुख नहीं है, संसारसुखका अभाव होनेसे हर्षस्थान नहीं हैं; और (शुद्ध जीवास्तिकायको) अशुभ परिणतिका अभाव होनेसे अशुभ कर्म नहीं है, अशुभ कर्मका अभाव होनेसे दुःख नहीं है, दुःखका अभाव होनेसे अहर्षस्थान नहीं हैं