Niyamsar (Hindi). Gatha: 40.

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८० ]
नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
(शार्दूलविक्रीडित)
प्रीत्यप्रीतिविमुक्त शाश्वतपदे निःशेषतोऽन्तर्मुख-
निर्भेदोदितशर्मनिर्मितवियद्बिम्बाकृतावात्मनि
चैतन्यामृतपूरपूर्णवपुषे प्रेक्षावतां गोचरे
बुद्धिं किं न करोषि वाञ्छसि सुखं त्वं संसृतेर्दुष्कृतेः
।।५५।।
णो ठिदिबंधट्ठाणा पयडिट्ठाणा पदेसठाणा वा
णो अणुभागट्ठाणा जीवस्स ण उदयठाणा वा ।।४०।।
न स्थितिबंधस्थानानि प्रकृतिस्थानानि प्रदेशस्थानानि वा
नानुभागस्थानानि जीवस्य नोदयस्थानानि वा ।।४०।।

[अब ३९वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं :]

[श्लोेकार्थ :] जो प्रीतिअप्रीति रहित शाश्वत पद है, जो सर्वथा अन्तर्मुख और निर्भेदरूपसे प्रकाशमान ऐसे सुखका बना हुआ है, नभमण्डल समान आकृतिवाला (अर्थात् निराकारअरूपी) है, चैतन्यामृतके पूरसे भरा हुआ जिसका स्वरूप है, जो विचारवन्त चतुर पुरुषोंको गोचर हैऐसे आत्मामें तू रुचि क्यों नहीं करता और दुष्कृतरूप संसारके सुखकी वांछा क्यों करता है ? ५५

गाथा : ४० अन्वयार्थ :[जीवस्य ] जीवको [न स्थितिबन्धस्थानानि ] स्थितिबन्धस्थान नहीं हैं, [प्रकृतिस्थानानि ] प्रकृतिस्थान नहीं हैं, [प्रदेशस्थानानि वा ] प्रदेशस्थान नहीं हैं, [न अनुभागस्थानानि ] अनुभागस्थान नहीं हैं [वा ] अथवा [न उदयस्थानानि ] उदयस्थान नहीं हैं

नहिं प्रकृति स्थान - प्रदेश स्थान, न और स्थिति - बन्धस्थान नहिं
नहिं जीवके अनुभागस्थान तथा उदयके स्थान नहिं ।।४०।।