अत्र प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशबन्धोदयस्थाननिचयो जीवस्य न समस्तीत्युक्त म् ।
नित्यनिरुपरागस्वरूपस्य निरंजननिजपरमात्मतत्त्वस्य न खलु जघन्यमध्यमोत्कृष्टद्रव्य-
कर्मस्थितिबंधस्थानानि । ज्ञानावरणाद्यष्टविधकर्मणां तत्तद्योग्यपुद्गलद्रव्यस्वाकारः प्रकृतिबन्धः,
तस्य स्थानानि न भवन्ति । अशुद्धान्तस्तत्त्वकर्मपुद्गलयोः परस्परप्रदेशानुप्रवेशः प्रदेशबन्धः,
अस्य बंधस्य स्थानानि वा न भवन्ति । शुभाशुभकर्मणां निर्जरासमये सुखदुःखफल-
प्रदानशक्ति युक्तो ह्यनुभागबन्धः, अस्य स्थानानां वा न चावकाशः । न च द्रव्यभावकर्मोदय-
स्थानानामप्यवकाशोऽस्ति इति ।
तथा चोक्तं श्रीअमृतचन्द्रसूरिभिः —
(मालिनी)
‘‘न हि विदधति बद्धस्पृष्टभावादयोऽमी
स्फु टमुपरितरन्तोऽप्येत्य यत्र प्रतिष्ठाम् ।
कहानजैनशास्त्रमाला ]शुद्धभाव अधिकार[ ८१
टीका : — यहाँ (इस गाथामें) प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध और
प्रदेशबन्धके स्थानोंका तथा उदयके स्थानोंका समूह जीवको नहीं है ऐसा कहा है ।
सदा ❃निरुपराग जिसका स्वरूप है ऐसे निरंजन (निर्दोष) निज परमात्मतत्त्वको
वास्तवमें द्रव्यकर्मके जघन्य, मध्यम या उत्कृष्ट स्थितिबंधके स्थान नहीं हैं । ज्ञानावरणादि
अष्टविध कर्मोंमें उस - उस कर्मके योग्य ऐसा जो पुद्गलद्रव्यका स्व - आकार वह प्रकृतिबन्ध
है; उसके स्थान (निरंजन निज परमात्मतत्त्वको) नहीं हैं । अशुद्ध अन्तःतत्त्वके ( – अशुद्ध
आत्माके) और कर्मपुद्गलके प्रदेशोंका परस्पर प्रवेश वह प्रदेशबन्ध है; इस बन्धके स्थान
भी (निरंजन निज परमात्मतत्त्वको) नहीं हैं । शुभाशुभ कर्मकी निर्जराके समय सुखदुःखरूप
फल देनेकी शक्तिवाला वह अनुभागबन्ध है; इसके स्थानोंका भी अवकाश (निरंजन निज
परमात्मतत्त्वमें) नहीं है । और द्रव्यकर्म तथा भावकर्मके उदयके स्थानोंका भी अवकाश
(निरंजन निज परमात्मतत्त्वमें) नहीं है ।
इसप्रकार (आचार्यदेव) श्रीमद् अमृतचन्द्रसूरिने (श्री समयसारकी आत्मख्याति
नामक टीकामें ११वें श्लोक द्वारा) कहा है कि : —
‘‘[श्लोेकार्थ : — ] जगत मोहरहित होकर सर्व ओरसे प्रकाशमान ऐसे उस सम्यक्
❃निरुपराग = उपराग रहित । [उपराग = किसी पदार्थमें, अन्य उपाधिकी समीपताके निमित्तसे होनेवाला
उपाधिके अनुरूप विकारी भाव; औपाधिक भाव; विकार; मलिनता ।]