अनुभवतु तमेव द्योतमानं समन्तात्
जगदपगतमोहीभूय सम्यक्स्वभावम् ।।’’
तथा हि —
(अनुष्टुभ्)
नित्यशुद्धचिदानन्दसंपदामाकरं परम् ।
विपदामिदमेवोच्चैरपदं चेतये पदम् ।।५६।।
(वसन्ततिलका)
यः सर्वकर्मविषभूरुहसंभवानि
मुक्त्वा फलानि निजरूपविलक्षणानि ।
भुंक्ते ऽधुना सहजचिन्मयमात्मतत्त्वं
प्राप्नोति मुक्ति मचिरादिति संशयः कः ।।५७।।
णो खइयभावठाणा णो खयउवसमसहावठाणा वा ।
ओदइयभावठाणा णो उवसमणे सहावठाणा वा ।।४१।।
८२ ]
नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
स्वभावका ही अनुभव करो कि जिसमें यह बद्धस्पृष्टत्व आदि भाव उत्पन्न होकर स्पष्टरूपसे
ऊपर तैरते होने पर भी वास्तवमें स्थितिको प्राप्त नहीं होते ।’’
और (४०वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज दो श्लोक
कहते हैं ) : —
[श्लोेकार्थ : — ] जो नित्य-शुद्ध चिदानन्दरूपी सम्पदाओंकी उत्कृष्ट खान है तथा
जो विपदाओंका अत्यन्तरूपसे अपद है (अर्थात् जहाँ विपदा बिलकुल नहीं है ) ऐसे इसी
पदका मैं अनुभव करता हूँ ।५६।
[श्लोेकार्थ : — ] (अशुभ तथा शुभ) सर्व कर्मरूपी विषवृक्षोंसे उत्पन्न होनेवाले,
निजरूपसे विलक्षण ऐसे फलोंको छोड़कर जो जीव इसीसमय सहजचैतन्यमय आत्मतत्त्वको
भोगता है, वह जीव अल्प कालमें मुक्ति प्राप्त करता है — इसमें क्या संशय है ? ५७।
नहिं स्थान क्षायिकभावके, क्षायोपशमिक तथा नहीं ।
नहिं स्थान उपशमभावके, होते उदयके स्थान नहिं ।।४१।।