कर्मणामुदये भवः औदयिकभावः । कर्मणामुपशमे भवः औपशमिक भावः । सकलकर्मोपाधि- विनिर्मुक्त : परिणामे भवः पारिणामिकभावः । एषु पंचसु तावदौपशमिकभावो द्विविधः, क्षायिकभावश्च नवविधः, क्षायोपशमिकभावोऽष्टादशभेदः, औदयिकभाव एकविंशतिभेदः, पारिणामिकभावस्त्रिभेदः । अथौपशमिकभावस्य उपशमसम्यक्त्वम् उपशमचारित्रम् च । क्षायिकभावस्य क्षायिकसम्यक्त्वं, यथाख्यातचारित्रं, केवलज्ञानं केवलदर्शनं च, अन्तराय-
गाथा : ४१ अन्वयार्थ : — [न क्षायिकभावस्थानानि ] जीवको क्षायिकभावके स्थान नहीं हैं, [न क्षयोपशमस्वभावस्थानानि वा ] क्षयोपशमस्वभावके स्थान नहीं हैं, [औदयिकभावस्थानानि ] औदयिकभावके स्थान नहीं हैं [वा ] अथवा [न उपशमस्वभावस्थानानि ] उपशमस्वभावके स्थान नहीं हैं ।
टीका : — चार विभावस्वभावोंके स्वरूपकथन द्वारा पंचमभावके स्वरूपका यह कथन है ।
१कर्मोंका क्षय होनेपर जो भाव हो वह क्षायिकभाव है । कर्मोंका क्षयोपशम होनेपर जो भाव हो वह क्षायोपशमिकभाव है । कर्मोंका उदय होनेपर जो भाव हो वह औदयिकभाव है । कर्मोंका उपशम होनेपर जो भाव हो वह औपशमिकभाव है । सकल कर्मोपाधिसे विमुक्त ऐसा, परिणामसे जो भाव हो वह पारिणामिकभाव है ।
इन पाँच भावोंमें, औपशमिकभावके दो भेद हैं, क्षायिकभावके नौ भेद हैं, क्षायोपशमिकभावके अठारह भेद हैं, औदयिकभावके इक्कीस भेद हैं, पारिणामिकभावके तीन भेद हैं ।
१कर्मोंका क्षय होनेपर = कर्मोंके क्षयमें; कर्मक्षयके सद्भावमें । [व्यवहारसे कर्मक्षयकी अपेक्षा जीवके