(मालिनी)
‘‘सकलमपि विहायाह्नाय चिच्छक्ति रिक्तं
स्फु टतरमवगाह्य स्वं च चिच्छक्ति मात्रम् ।
इममुपरि चरंतं चारु विश्वस्य साक्षात्
कलयतु परमात्मात्मानमात्मन्यनन्तम् ।।’’
(अनुष्टुभ्)
‘‘चिच्छक्ति व्याप्तसर्वस्वसारो जीव इयानयम् ।
अतोऽतिरिक्ताः सर्वेऽपि भावाः पौद्गलिका अमी ।।’’
तथा हि —
(मालिनी)
अनवरतमखण्डज्ञानसद्भावनात्मा
व्रजति न च विकल्पं संसृतेर्घोररूपम् ।
अतुलमनघमात्मा निर्विकल्पः समाधिः
परपरिणतिदूरं याति चिन्मात्रमेषः ।।६०।।
कहानजैनशास्त्रमाला ]शुद्धभाव अधिकार[ ८९
हैं — ऐसा भगवान सूत्रकर्ताका (श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवका) अभिप्राय है ।
इसीप्रकार (आचार्यदेव) श्रीमद् अमृतचन्द्रसूरिने (श्री समयसारकी आत्मख्याति
नामक टीकामें ३५ – ३६वें दो श्लोकों द्वारा) कहा है कि : —
‘‘[श्लोेकार्थ : — ] चित्शक्तिसे रहित अन्य सकल भावोंको मूलसे छोड़कर और
चित्शक्तिमात्र ऐसे निज आत्माका अति स्फु टरूपसे अवगाहन करके, आत्मा समस्त विश्वके
ऊ पर सुन्दरतासे प्रवर्तमान ऐसे इस केवल (एक) अविनाशी आत्माको आत्मामें साक्षात्
अनुभव करो ।’’
‘‘[श्लोेकार्थ : — ] चैतन्यशक्तिसे व्याप्त जिसका सर्वस्व-सार है ऐसा यह जीव
इतना ही मात्र है; इस चित्शक्तिसे शून्य जो यह भाव हैं वे सब पौद्गलिक हैं ।’’
और (४२वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज दो श्लोक कहते
हैं ) : —
[श्लोेकार्थ : — ] सततरूपसे अखण्ड ज्ञानकी सद्भावनावाला आत्मा (अर्थात् ‘मैं
अखण्ड ज्ञान हूँ’ ऐसी सच्ची भावना जिसे निरंतर वर्तती है वह आत्मा) संसारके घोर