स्फु टतरमवगाह्य स्वं च चिच्छक्ति मात्रम् ।
व्रजति न च विकल्पं संसृतेर्घोररूपम् ।
परपरिणतिदूरं याति चिन्मात्रमेषः ।।६०।।
हैं — ऐसा भगवान सूत्रकर्ताका (श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवका) अभिप्राय है ।
इसीप्रकार (आचार्यदेव) श्रीमद् अमृतचन्द्रसूरिने (श्री समयसारकी आत्मख्याति नामक टीकामें ३५ – ३६वें दो श्लोकों द्वारा) कहा है कि : —
‘‘[श्लोेकार्थ : — ] चित्शक्तिसे रहित अन्य सकल भावोंको मूलसे छोड़कर और चित्शक्तिमात्र ऐसे निज आत्माका अति स्फु टरूपसे अवगाहन करके, आत्मा समस्त विश्वके ऊ पर सुन्दरतासे प्रवर्तमान ऐसे इस केवल (एक) अविनाशी आत्माको आत्मामें साक्षात् अनुभव करो ।’’
‘‘[श्लोेकार्थ : — ] चैतन्यशक्तिसे व्याप्त जिसका सर्वस्व-सार है ऐसा यह जीव इतना ही मात्र है; इस चित्शक्तिसे शून्य जो यह भाव हैं वे सब पौद्गलिक हैं ।’’
और (४२वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज दो श्लोक कहते हैं ) : —
[श्लोेकार्थ : — ] सततरूपसे अखण्ड ज्ञानकी सद्भावनावाला आत्मा (अर्थात् ‘मैं अखण्ड ज्ञान हूँ’ ऐसी सच्ची भावना जिसे निरंतर वर्तती है वह आत्मा) संसारके घोर