(स्रग्धरा)
इत्थं बुद्ध्वोपदेशं जननमृतिहरं यं जरानाशहेतुं
भक्ति प्रह्वामरेन्द्रप्रकटमुकुटसद्रत्नमालार्चितांघ्रेः ।
वीरात्तीर्थाधिनाथाद्दुरितमलकुलध्वांतविध्वंसदक्षं
एते संतो भवाब्धेरपरतटममी यांति सच्छीलपोताः ।।६१।।
णिद्दंडो णिद्दंद्दो णिम्ममो णिक्कलो णिरालंबो ।
णीरागो णिद्दोसो णिम्मूढो णिब्भयो अप्पा ।।४३।।
निर्दण्डः निर्द्वन्द्वः निर्ममः निःकलः निरालंबः ।
नीरागः निर्दोषः निर्मूढः निर्भयः आत्मा ।।४३।।
९० ]नियमसार[ भगवानश्रीकुं दकुं द-
विकल्पको नहीं पाता, किन्तु निर्विकल्प समाधिको प्राप्त करता हुआ परपरिणतिसे दूर,
अनुपम, १अनघ चिन्मात्रको (चैतन्यमात्र आत्माको) प्राप्त होता है । ६० ।
[श्लोकार्थ : — ] भक्तिसे नमित देवेन्द्र मुकुटकी सुन्दर रत्नमाला द्वारा जिनके
चरणोंको प्रगटरूपसे पूजते हैं ऐसे महावीर तीर्थाधिनाथ द्वारा यह सन्त जन्म - जरा
- मृत्युका नाशक तथा दुष्ट मलसमूहरूपी अंधकारका ध्वंस करनेमें चतुर ऐसा
इसप्रकारका (पूर्वोक्त) उपदेश समझकर, सत्शीलरूपी नौका द्वारा भवाब्धिके सामने
किनारे पहुँच जाते हैं ।६१।
गाथा : ४३ अन्वयार्थ : — [आत्मा ] आत्मा [निर्दण्डः ] २निर्दंड [निर्द्वन्द्वः ]
निर्द्वंद्व, [निर्ममः ] निर्मम, [निःकलः ] निःशरीर, [निरालंबः ] निरालंब, [नीरागः ] नीराग,
[निर्दोषः ] निर्दोष, [निर्मूढः ] निर्मूढ और [निर्भयः ] निर्भय है ।
१. अनघ = दोष रहित; निष्पाप; मल रहित ।
२. निर्दण्ड = दण्ड रहित । (जिस मनवचनकायाश्रित प्रवर्तनसे आत्मा दण्डित होता है उस प्रवर्तनको दण्ड
कहा जाता है ।)
निर्दंड अरु निर्द्वंद, निर्मम, निःशरीर, निराग है ।
निर्मूढ़, निर्भय, निरवलंबन, आतमा निर्दोष है ।।४३।।