वर्तिस्थावरजंगमात्मकनिखिलद्रव्यगुणपर्यायैकसमयपरिच्छित्तिसमर्थसकलविमलकेवलज्ञानावस्थ-
त्वान्निर्मूढश्च । निखिलदुरितवीरवैरिवाहिनीदुःप्रवेशनिजशुद्धान्तस्तत्त्वमहादुर्गनिलयत्वान्निर्भयः ।
अयमात्मा ह्युपादेयः इति ।
तथा चोक्त ममृताशीतौ —
(मालिनी)
‘‘स्वरनिकरविसर्गव्यंजनाद्यक्षरैर्यद्
रहितमहितहीनं शाश्वतं मुक्त संख्यम् ।
अरसतिमिररूपस्पर्शगंधाम्बुवायु-
क्षितिपवनसखाणुस्थूलदिक्चक्रवालम् ।।’’
तथा हि —
(मालिनी)
दुरघवनकुठारः प्राप्तदुष्कर्मपारः
परपरिणतिदूरः प्रास्तरागाब्धिपूरः ।
हतविविधविकारः सत्यशर्माब्धिनीरः
सपदि समयसारः पातु मामस्तमारः ।।६२।।
९२ ]
नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
अवस्थित होनेसे आत्मा निर्मूढ़ है । समस्त पापरूपी शूरवीर शत्रुओंकी सेना जिसमें प्रवेश
नहीं कर सकती ऐसे निज शुद्ध अन्तःतत्त्वरूप महा दुर्गमें (किलेमें) निवास करनेसे आत्मा
निर्भय है । ऐसा यह आत्मा वास्तवमें उपादेय है ।
इसीप्रकार (श्री योगीन्द्रदेवकृत) अमृताशीतिमें (५७वें श्लोक द्वारा) कहा
है कि : —
‘‘[श्लोेकार्थ : — ] आत्मतत्त्व स्वरसमूह, विसर्ग और व्यंजनादि अक्षरों रहित तथा
संख्या रहित है (अर्थात् अक्षर और अङ्कका आत्मतत्त्वमें प्रवेश नहीं है ), अहित रहित है,
शाश्वत है, अंधकार तथा स्पर्श, रस, गंध और रूप रहित है, पृथ्वी, जल, अग्नि और वायुके
अणुओं रहित है तथा स्थूल दिक्चक्र (दिशाओंके समूह) रहित है ।’’
और (४३वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज सात श्लोक
कहते हैं ) : —
[श्लोेकार्थ : — ] जो (समयसार) दुष्ट पापोंके वनको छेदनेका कुठार है, जो दुष्ट