कहानजैनशास्त्रमाला ]शुद्धभाव अधिकार[ ९३
(मालिनी)
जयति परमतत्त्वं तत्त्वनिष्णातपद्म-
प्रभमुनिहृदयाब्जे संस्थितं निर्विकारम् ।
प्रभमुनिहृदयाब्जे संस्थितं निर्विकारम् ।
हतविविधविकल्पं कल्पनामात्ररम्याद्
भवभवसुखदुःखान्मुक्त मुक्तं बुधैर्यत् ।।६३।।
भवभवसुखदुःखान्मुक्त मुक्तं बुधैर्यत् ।।६३।।
(मालिनी)
अनिशमतुलबोधाधीनमात्मानमात्मा
सहजगुणमणीनामाकरं तत्त्वसारम् ।
सहजगुणमणीनामाकरं तत्त्वसारम् ।
निजपरिणतिशर्माम्भोधिमज्जन्तमेनं
भजतु भवविमुक्त्यै भव्यताप्रेरितो यः ।।६४।।
भजतु भवविमुक्त्यै भव्यताप्रेरितो यः ।।६४।।
(द्रुतविलंबित)
भवभोगपराङ्मुख हे यते
पदमिदं भवहेतुविनाशनम् ।
पदमिदं भवहेतुविनाशनम् ।
भज निजात्मनिमग्नमते पुन-
स्तव किमध्रुववस्तुनि चिन्तया ।।६५।।
स्तव किमध्रुववस्तुनि चिन्तया ।।६५।।
कर्मोंके पारको प्राप्त हुआ है (अर्थात् जिसने कर्मोंका अन्त किया है ), जो परपरिणतिसे
दूर है, जिसने रागरूपी समुद्रके पूरको नष्ट किया है, जिसने विविध विकारोंका हनन कर
दिया है, जो सच्चे सुखसागरका नीर है और जिसने कामको अस्त किया है, वह समयसार
मेरी शीघ्र रक्षा करो ।६२।
दूर है, जिसने रागरूपी समुद्रके पूरको नष्ट किया है, जिसने विविध विकारोंका हनन कर
दिया है, जो सच्चे सुखसागरका नीर है और जिसने कामको अस्त किया है, वह समयसार
मेरी शीघ्र रक्षा करो ।६२।
[श्लोेकार्थ : — ] जो तत्त्वनिष्णात (वस्तुस्वरूपमें निपुण) पद्मप्रभमुनिके हृदयकमलमें सुस्थित है, जो निर्विकार है, जिसने विविध विकल्पोंका हनन कर दिया है, और जिसे बुधपुरुषोंने कल्पनामात्र-रम्य ऐसे भवभवके सुखोंसे तथा दुःखोंसे मुक्त (रहित) कहा है, वह परमतत्त्व जयवन्त है ।६३।
[श्लोेकार्थ : — ] जो आत्मा भव्यता द्वारा प्रेरित हो, वह आत्मा भवसे विमुक्त होनेके हेतु निरन्तर इस आत्माको भजो — कि जो (आत्मा) अनुपम ज्ञानके आधीन है, जो सहजगुणमणिकी खान है, जो (सर्व) तत्त्वोंमें सार है और जो निजपरिणतिके सुखसागरमें मग्न होता है ।६४।
[श्लोेकार्थ : — ] निज आत्मामें लीन बुद्धिवाले तथा भवसे और भोगसे पराङ्मुख