चेतनकर्माभावान्नीरागः । निदानमायामिथ्याशल्यत्रयाभावान्निःशल्यः । शुद्धनिश्चयनयेन शुद्ध- जीवास्तिकायस्य द्रव्यभावनोकर्माभावात् सकलदोषनिर्मुक्त : । शुद्धनिश्चयनयेन निजपरम- तत्त्वेऽपि वांछाभावान्निःकामः । निश्चयनयेन प्रशस्ताप्रशस्तसमस्तपरद्रव्यपरिणतेरभावान्निः- क्रोधः । निश्चयनयेन सदा परमसमरसीभावात्मकत्वान्निर्मानः । निश्चयनयेन निःशेषतोऽन्तर्मुख-
गाथा : ४४ अन्वयार्थ : — [आत्मा ] आत्मा [निर्ग्रन्थः ] निर्ग्रंथ [नीरागः ] निराग, [निःशल्यः ] निःशल्य, [सकलदोषनिर्मुक्तः ] सर्वदोषविमुक्त, [निःकामः ] निष्काम, [निःक्रोधः ] निःक्रोध, [निर्मानः ] निर्मान और [निर्मदः ] निर्मद है ।
शुद्ध जीवास्तिकाय बाह्य-अभ्यंतर १चौवीस परिग्रहके परित्यागस्वरूप होनेसे निग्रन्थ है; सकल मोह-राग-द्वेषात्मक चेतन कर्मके अभावके कारण निराग है; निदान, माया और मिथ्यात्व — इन तीन शल्योंके अभावके कारण निःशल्य है; शुद्ध निश्चयनयसे शुद्ध जीवास्तिकायको द्रव्यकर्म, भावकर्म और नोकर्मका अभाव होनेके कारण सर्वदोषविमुक्त है; शुद्ध निश्चयनयसे निज परम तत्त्वकी भी वांछा न होनेसे निष्काम है; निश्चयनयसे प्रशस्त – अप्रशस्त समस्त परद्रव्यपरिणतिका अभाव होनेके कारण निःक्रोध है; निश्चयनयसे सदा परम १क्षेत्र, मकान, चाँदी, सोना, धन, धान्य, दासी, दास, वस्त्र और बरतन — ऐसा दस प्रकारका बाह्य